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चुप शहर के डुएट पार्टनर्स

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वे किसी गीत में रहते थे. स्ट्रिंग्स के परदे थे उनके इर्द गिर्द और उनकी ही दीवारें. छत नहीं थी. उनके इस कमरे में आसमान को चले आने की इजाज़त थी. लड़की इन्द्रधनुष से इकतारा बजाया करती थी. वे जब मिलते तो इक नए गीत में रहने चले जाते और तब तक वहाँ रहते जब तक कि कोई चुप्पी उनमें से किसी एक का हाथ पकड़ कर उन्हें उस घर से बाहर नहीं ले आती. जब वे एक दूसरे से अलग होते तो धुनें तलाशते रहते कि जैसे किसी नए शहर में लोग किराये पर घर ढूंढते रहते हैं. उन्हें मालूम था कि कैसा होना चाहिए कमरा...कैसी खिड़कियाँ और दीवारें...

यूँ उन्हें शब्दों की जरूरत नहीं होती मगर कभी कभार शब्द भी होते. लड़के के भूरे कोट की जेब में पुर्जियों में लिखे हुए. लड़की की ब्राउन डायरी के हाशिये में बचे हुए. वे कभी कभी शब्दों की अदला बदली कर लेते. उनके बीच बहुत स्पेस हुआ करता. इतना कि पूरी दुनिया के गीत आ जाते और पूरी दुनिया की चुप्पी. वे जब भी मिलते इक नए गीत में रहने चले जाते. दोनों अपनी अपनी तरह से गीत के टुकड़ों को एक्सप्लोर करते. कभी लड़का पियानो की कीय्स से सीढ़ियाँ बनाता चाँद तक की तो कभी लड़की गिटार की स्ट्रिंग्स से लड़के की शर्ट की कफ्स पर कोई नाम काढ़ने लगती. धुनें उन दोनों के इर्द गिर्द रहतीं...कभी उन्हें करीब लातीं तो कभी बिलकुल ही अलग अलग छोरों पर छोड़ देती. उनका पसंदीदा शगल था चुप्पी में गीत का पहला वाद्ययंत्र ढूंढना. ये एक ट्रेजर हंट की तरह होता. कभी कभी वे एक ही गीत पर भी मिल जाते. 

वे. साथ थे पर एक नहीं. लड़का बेतरह खूबसूरत हुआ करता था. उसके बाल हल्के घुंघराले थे और जरा जरा साल्ट पेपर. यूं उसपर ध्यान देने की जरूरत नहीं थी मगर कभी कभी लड़की ब्लैक हार्ट प्रोसेशन सुनते हुयी सोचती कुछ और थी और अचानक से उसका ध्यान जाता था कि पियानो से आती हुयी धुन में शब्द बैकग्राउंड में हैं, फिर उसका ध्यान जाता था कि लड़के के माथे पर दायीं तरफ, कान के ठीक ऊपर एक सफ़ेद बालों की लट क्लॉकवाइज घूम जाती है. संगीत से उसका ध्यान एक लम्हे के लिए भटक जाता था. ये जरा सा भटकना उसे परफेक्शन से दूर करता था और वो गाने पर कभी ध्यान नहीं दे पाती थी. किसी गीत में रहते हुए उसे कई बार आईने की जरूरत महसूस होती थी...वैसे में उसे लगता था कि उन दोनों के ह्रदय और गीत के ड्रम्स का 'सम'एक ही क्षण में आता था.

वे एक गीत में रहा करते थे. लड़की अक्सर कहती कि हम किसी कहानी में रहने चलते हैं. कहानी की दीवारें ठोस होतीं. कहानी की ज़मीन ठोस होती. कहानी में सुकून होता. ठहराव होता. लड़का मगर गीत में रहना चाहता. गीत में सब कुछ बदलता रहता. वायलिन स्ट्रिंग्स की जगह चेलो हो जाता. पियानो की जगह अचानक से ट्रम्पेट की धुन होती. एक ही गीत को बहुत लोगों ने अपने हिसाब से सपनों में सुना होता. वे जब गुनगुनाते तो गीत की ज़मीन बदल जाती. दीवारों का रंग बदल जाता. खेतों में सरसों के फूलों की जगह सूरजमुखी उग आते. लड़के को बदलाव अच्छा लगता. वो जब भी उससे मिलता जुदा होता. उनका मिलना किसी विलंबित आलाप की तरह बंधन में होते हुए भी स्वतंत्र होता. 

कभी कभी ऐसा भी होता कि दोनों के ही पास कोई गीत नहीं होता. वे चुप्पी की सीढ़ियों पर बैठे सुर की ईंटें तलाशते. किसी धुन को पुकारते. सरस्वती की पूजा करते कि माँ शारदे...हमें अपनी वीणा का एक स्वर दे दो. इक अनहद नाद होता. उनके अन्दर कहीं गूंजता. 

कभी लड़की वीणा का तार होती तो कभी लड़का इलेक्ट्रिक गिटार होता...वे एक दूसरे को छेड़ते. उनकी हंसी एक नया राग रचती. एक नया गीत बुनती. 

गीतों की किस्में अलग अलग होतीं. एक बार वे सुबह के कलरव में रह रहे थे कि उन्हें प्यास लगी. लड़की ने झट अपनी गाड़ी निकाली और वे कहीं ड्राइव पर निकल गए. बारिश के गीत में रहना सुन्दर था. उसकी रिदम में शहर घुल गया. गाड़ी और सड़कें भी. बारिश ने उन्हें बहुत राग सुनाये. बारिश का गीत एक कागज़ की नाव की तरह सड़क किनारे की छोटी नदियों में डूब उतराने लगा और जा के कावेरी से मिल गया. दोनों नदी के गीत में रह गए. बहुत दिनों तक. लड़की लहरों पर थिरकती धान के खेत जाती और किसानों के गीत में रहने लगती. लड़का उसे ढूँढने निकलता और गाँव के शिवाले से आते किसी भजन में अटक जाता. फिर दोनों अपने अपने गीतों में खाली खाली सा महसूस करते. किसी सुबह दोनों एक साथ निकलते और गाँव की पगडंडी पर मिल जाते. पगडंडी पतली होती. लड़की उसपर चलते हुए लड़के का हाथ पकड़ना चाहती मगर इससे गीत में अवरोध आ जाता इसलिए उसके पीछे चला करती, बियाह का लोकगीत गाती हुयी. कभी लड़का किसी कुएं पर रुक जाता...बाल्टी से पानी भरता. ठंढे पानी से प्यास बुझती. अगली बार लड़की पानी भरने को बाल्टी कुएं में डालती...उसकी चूड़ियों में एक लय होती. लड़का एक नया गीत बनाना चाहता. उसके लिए. छन छन नींव रखता. लड़की मगर चूड़ियाँ खोल आती कुएं पर. बस उसकी पायल का घुँघरू बजता. लड़का जानता कि उनका कोई एक घर नहीं हो सकता हमेशा के लिए.

कभी कभी यूँ ही हो जाता कि वे निर्जन में भी खड़े हो जाते तो उनके इर्द गिर्द गीत उमड़ आता. किसी पेड़ की टहनी पर टंगा मिलता कोई पुराना ड्रीम कैचर...सपनों से छांक लाता किसी पुराने महबूब का नाम...भूरे रंग के पंख जाने किस पंछी की उड़ान को सहेज देते. कोई विंड चाइम होती समंदर के शोर जैसी. किसी खोह में होता एक म्यूजिक बॉक्स. उनके इर्द इर्द बुनता गुलाबी संगीत...ला वियों रोज. 

प्रेम किसी दूर खम्बे पर टेक लगाए उन्हें देखता. गीत में रहने की जगह मांगता. वे चकित निगाहों से देखते उसे और कहते कि उनके बीच किसी अजनबी के लिए जगह नहीं है. दोनों के पीछे से बैराग झाँकता...मुस्कुराता. प्रेम लौट जाता खिड़की पर मन्नत का धागा बांधे.

उम्र भर उन्होंने किसी कहानी में कच्चे पक्के मकान नहीं बनाए. किसी भीगी हुयी सी सलेटी रंग की शाम इक पीली रौशनी वाले लैम्पोस्ट के नीचे मिले...इक दूसरे को देख कर मुस्कुराए...एक दूसरे को हग किया और चुप्पी में घुल के हवा हो गए.

अस्थिकलश में मिले पुर्जे जोड़ कर बनी चिट्ठी

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नींद जानती है तुम्हारे घर का पता कि जैसे जाग जानती है कि नहीं जाना है उस ओर. उस शहर. उस गली. उस आँख के अंधियारे में. तुम्हारी आँखों में खिलते हैं सूरजमुखी और मुड़ते हैं कागज़ की धूप देख कर. मैं घेरती हूँ बादल. बनाती हूँ बरसातों का मौसम. रचती हूँ धुंध. तुम हुए जाते हो वैन गौग. चटख रंगों का पहनते हो साफा. बांधते हो कलाई पर मंतर. 

बहुत दिन तक जब नहीं आता तुम्हारे ख़त का जवाब तो तुम जाते हो चबूतरे पर और उतारते हो डाल पर बैठा सर्दियों में जम चुका कबूतर. उसके पैर में नहीं बंधा होता है एक कोरा ख़त भी. तुम फ़ेंक मारते हो उसे पत्थर की दीवार पर इक चीख के साथ...चकनाचूर होता है बर्फ की सिल्ली बना कबूतर...तुम्हारे जूते तले आती है उसकी जमी हुयी आँख.

तुम हुए जाते हो कोई पागल मंगोल लुटेरा...छीनते चलते हो अस्मत...माल...असबाब...लगा देते हो गाँव में आग...डाल देते हो पानी कुओं में मुर्दा जानवर कि जिनकी सडांध से फैलती है बीमारियाँ... मौत के करीब भिनासायी हुयी देह में नहीं बाकी रहता कोई कोमल स्पर्श...कोई चाँद का चुम्बन...कोई सूरज की पीली रेख...

तुम्हारे चेहरे पर उतरता है विद्रूप सर्दियों का ठंढा चांदी रंग. माथे के ऊपर उभरती है एक नीली नस कि जहाँ होना था एक गुलाबी बोसा. मैं एड़ियों पर उचक कर भी नहीं चूम सकती तुम्हारा चौड़ा ललाट. मेरी उँगलियों से दूर होती है तुम्हारे माथे की उजली लट. मुझे याद आती है वो कंचे जैसे शाम. कि जब बिजली के बल्ब का खूब महीन चूरा किया था हमने और उसे आटे की लेई में मिला कर पतंग के मांझे को किया था धारदार. तुम्हारे बाल मांझे के उसी तागे जैसे हो गए हैं. धारदार. उँगलियाँ फेर भी दूँगी तो कटनी है मेरी उँगलियाँ ही. तुम्हारी दासियाँ  इसी से तो पहचान में आती हैं. उनकी उँगलियों पर होते हैं तीखे निशान. गहरे लाल. कत्थई. कभी कभी काले भी. 

मगर तुमने तो प्रेम किया था. तुमने कहा था तुम्हारे ह्रदय पर मेरा एकछत्र साम्राज्य रहेगा. अनंत काल तक. फिर तुम ये अश्वमेध का अश्व लेकर विश्वविजय पर क्यूँ निकल पड़े? तुमने तो कहा था मेरा शरीर ही तुम्हारा ब्रम्हाण्ड है. एक साधारण से मनुष्य थे तुम. एक अदना सिपहसालार. एक जवाब आने की देर में तुम्हारे अन्दर का कौन सा विध्वंसक विसूवियस जाग उठा? आदमी प्राण की बाजी लगा दे तो सब कुछ जीत लेता है...इश्वर को भी. मुझे तुम्हारी सफलता में कोई संदेह नहीं. मगर तुम्हें मालूम भी है कि तुम्हारी अंतिम विजय कौन सी होनी है? ऐसा न हो कि सिकंदर की तरह तुम भी किसी अजनबी शहर में आखिरी तड़पती सांस लो. तुम्हारी जिद एक आम औरत को उसके बच्चे से दूर करने के विवश हठ में खींचे जाए और तुम उस दलदल में आगे बढ़ते जाओ. मलकुल मौत जब आती है तो सब्जी काटने का हंसुआ एक भीरु स्त्री का हथियार हो जाता है.

तुम्हारे साथ तुम्हारे सैनिकों की क्रूरता की दास्तानें तुम सबके लिए जहन्नुम तक का शोर्ट कट रास्ता बना रही हैं. तुम इसी रास्ते घसीटे जाओगे. चीखते चिल्लाते लहूलुहान. ये कलयुग है. यहाँ सब कर्मों का फल इसी जन्म में चुकाना पड़ता है. तुम्हारी आखिरी पनाह मेरे शब्दों में थी. यहाँ से निष्काषित होने पर तुम्हारे लिए कहीं कोई दरवाजे नहीं खुलेंगे. अभी भी वक़्त है. शरणागत की हत्या अभी भी अधर्म है. लौट आओ. प्रायश्चित करो. अपना इश्वर चुनो और आपनी आस्था की लौ फिर से प्रज्वलित करो. मैं तुम्हारे लिए एक नयी दुनिया रच दूँगी. एक नया प्रेम और एक नया प्रतिद्वंदी भी. लौट आओ. ये वीभत्स रस लिखते हुए मेरी उँगलियाँ जवाब दे रही हैं. गौर से देखो. ये एक योद्धा की नहीं, कवि की उँगलियाँ हैं. इनमें इतना रक्तपात लिखने की शक्ति नहीं है. मैं अब फूलों पर लिखना चाहती हूँ कुछ कोमल गीत. मैं अब तुम्हारी अभिशप्त आत्मा के लिए करना चाहती हूँ मंत्रपाठ. तुलसी माला लिए गिनती हूँ कई सौ बार तुम्हारे लिए क्षमायाचना के मन्त्र. 

तुम्हारा विध्वंस अकारण है. तुम्हारा क्रोध सिर्फ एक दरवाज़ा खोलता है कि जिससे तुम्हारे अन्दर का पशु बाहर आ सके. गौर से देखो उसे. खड़ग उठाओ और इस रक्तपिपासु बलिवेदी को शांत करो.

ॐ शान्ति शांति शांति. 

लड़की बुनती थी कविता का कमरा. धूप. फायरप्लेस और ब्लैक कॉफ़ी.

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उसे हुनर बख्शते हुए इश्वर का हाथ जरा तंग था. उस दिन अचानक से इश्वर की नज़र कैलेंडर पर गयी थी और उसने गौर किया था कि इस सदी के महानतम लेखकों, गायकों और तरह तरह के हुनरमंद लोगों को वह धरती पर भेज चुका है. इश्वर इस सदी को सृजनशील लोगों से भर देना चाहता था. वह चाहता था कि इनमें से कोई उठे और उसकी सत्ता को चुनौती दे, कि जैसे मंटो ने कहा था बहुत साल पहले, 'उसे मालूम नहीं कि वह ज्यादा बड़ा कहानीकार है या खुदा'. मगर लड़की को रचते हुए उसके दिल में ख्याल आ रखा था कि इस लड़की को दुनिया आम लोगों की तरह नहीं दिखेगी...मगर जहाँ उसे वो काबिलियत देनी थी कि अपनी छटपटाहट को किसी माध्यम से बयान कर सके, वहाँ इश्वर ने अपने हाथ रोक लिए. 

तो लड़की महसूस तो बहुत कुछ करती थी मगर लिख नहीं पाती थी उस तरह का कुछ भी. उसके बिम्ब मोहक होते थे लेकिन मन को किसी गहरे लेवल में जा कर कचोटते नहीं थे. उसकी कहानियों के किरदार भी कागज़ी होते थे. सच लगते थे, मगर होते नहीं. उसकी कहानियों में इश्क़ ने अपना खूंटा गाड़ रखा था...सब कुछ उसकी परिधि के इर्द गिर्द होने को अभिशप्त था. वो चाह कर भी अपने किरदारों के बीच कोई वहशत, कोई दरिंदगी नहीं डाल सकती थी. उसे अपने किरदारों के प्रति गज़ब आसक्ति हो जाती थी. रचने के लिए बैराग की जरूरत होती थी. साधना की जरूरत होती थी. खुद को दुःख की भट्टी में झोंक कर तपाना होता. लड़की मगर कतराते हुए चलती. किनारा पकड़ कर. हमेशा सेफ खेलना चाहती. उसे रिस्क उठाने से डर लगता था. उसके एक आधे किरदार अगर बागी हो भी जाते तो वो उनकी अकाल मृत्यु रच देती. इश्क़ उसके कलेजे को चाक करता मगर वो कन्नी काट जाती. रास्ता बदल देती. नज़रें झुका लेती. इतने दिनों में उसे ये तो मालूम ही हो गया था कि इश्वर की टक्कर का कुछ लिखना उसके हाथ में नहीं इसलिए उसने जिंदगी भी हिसाब से जीनी शुरू कर दी. उसे मालूम था कि टूटने की एक हद के बाद उसे सम्हालने वाला कोई नहीं है. कागज़ पर पड़ी दरारें उसके बदन पर नदियों की तरह खुलती चली जाती थीं और उनमें कभी ज्वालामुखी का लावा बहता तो कभी सान्द्र अम्ल. वह खुद ही अस्पताल जाती. खुद को आईसीयू में भरती करने के कागज़ भरती और वहां की बेजान खिड़की के बाहर ताकते हुए सोचती कि उसके लिखे किसी किरदार से उसे इश्क़ हुआ होता तो ये फीके दिन उस किरदार को आगे बढ़ाने के बारे में सोच कर बिठाये जा सकते थे. 

बहुत दिन तक वहाँ अकेले, बिना किसी दोस्त के रहते हुए लड़की को महसूस हुआ, पहली बार...कि जिन फिल्मों और किताबों को वह मीडियोकर समझ कर उनके डायरेक्टर या लेखक के ऊपर नाराज़ होती है. वे ऐसा जान बूझ कर नहीं करते. उन्हें उतना सा ही आता है. वे चाह कर भी उससे बेहतर नहीं हो सकते. जैसे क्लास में सारे स्टूडेंट्स फर्स्ट नहीं आ सकते. अलग अलग लेवल के लोग होंगे. सब अपनी अपनी क्षमता के हिसाब से पढ़ेंगे. लिखेंगे. समझेंगे. मगर उनमें से कुछ ही होंगे जिन्हें दुनिया के हिसाब से सारी चीज़ें एकदम सही आर्डर में समझ आएँगी. ये लोग फिर सफल कहलायेंगे. लड़की को फिर सफल होने से ज्यादा बहादुर बनने का जी किया. बेहतरीन नहीं, बहादुर...करेजियस...गलतियाँ करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए. अपनी गलतियों को समझ कर, उनसे सीख लेकर आगे बढ़ने में तो और भी ज्यादा. इतना सारा सोच कर उसने बहुत से प्लान्स बनाये. कुछ छोटे छोटे कि अगले कुछ महीनों में पूरे हो सकें...और कुछ लम्बे, सपनों से भरे प्लान्स...जो शायद इस जन्म में पूरे हो जाएँ, वरना एक जन्म और लेना भी हो तो इस जन्म में उसकी तैय्यारी तो की ही जा सकती थी. 

हॉस्पिटल से छूटते ही लड़की ने कुछ किताबों की लिस्ट बनायी. कुछ लोगों की भी. कुछ शहरों की. कुछ पुरानी गलियों की भी. इश्क़ के खूंटे को उखाड़ा और बढई के यहाँ दे आई कि इसका बुरादा बना दो. जाड़े की रातों में लकड़ी के बुरादे को आग में झोंकती रहती और उसकी गर्माहट में किताबें पढ़ती. उसके घर में एक ही कमरा था. पुराने स्टाइल का. उसमें एक बड़ा सा फायरप्लेस था. पत्थर की दीवारों पर जगह जगह किताबों के रखने की जगह बनायी गयी थी जिससे दीवारें बमुश्किल नज़र आती थीं. कमरे के कोनों में चिकने पत्तों वाले छोटे पौधे लगे हुए थे. उनसे कमरे की हवा में ओक्सिजन की बहुतायत रहती थी और लड़की हमेशा ताजादम महसूस करती थी. लड़की ने गमले खुद से पेंट किये थे...गहरे गुलाबी और फीके आसमानी रंग में. कमरे की फर्श देवदार की बनी होती. उसे दार्जीलिंग का रास्ता याद आता. गहरा. सम्मोहक. नशीला. आसमान तक जाते पेड़. उस फर्श में उन दिनों की याद की गंध थी...जब दिल टूटा नहीं था. जब मन जुड़ा हुआ था. कमरे के एक होने में होती चाय की केतली...सिंपल ग्रीन टी या ब्लैक कॉफ़ी के लिए. चीनी नहीं रखती थी वो. उसे मिठास पसंद नहीं थी. उसके कमरे में बिस्तर नहीं था. जब वो पढ़ते पढ़ते थक जाती तो सोफे पर सो जाती. या फर्श पर एक मोटा गुदगुदा कालीन ले आती और एक हलकी चादर डाले सो जाती. सुबह धूप से उसकी आँख खुलती और उसकी मेड घर को झाड़ पोछ कर दुरुस्त कर देती. 

ऑफिस जाने के पहले लड़की कमरे को करीने से समेट कर रख देती. वो कमरा पूरा फोल्डेबल था. अपनी किताबों, फायरप्लेस और कालीन समेत एक मुट्ठी भर के बौक्स में आ जाता. लड़की को कभी कभी लगता कि कमरा जादू का बना है. उसकी किताबें और वो खुद भी. उसकी लायी नयी किताबों से रंग निकलते थे. कमरे में कई इन्द्रधनुष रहने लगे थे. जबसे लड़की ने कमरे को नए तरह से सजाया था वहाँ किताबें जिन्दा लगती थीं. लड़की ने कई सारी जगहें देखीं. कॉफ़ीशॉप्स. पब्स. लोगों के घर. लाइब्रेरीज. लेकिन हर जगह कोई कमी दिखती थी. कहानियाँ तो फिर भी कहीं भी बैठ कर पढ़ी जा सकती थीं. मेट्रो में. चलती ट्रेन में. हवाईजहाज में. बाथरूम में भी. मगर कवितायें कहती थीं कि हमें पढ़ने को एक खूबसूरत कमरा चाहिए. लड़की ने बहुत सारी जगहें देखीं और कविताओं के कहने के हिसाब से एक डायरेक्टरी बनायी. उसे समझ आ रहा था कि उसके जीने का मकसद क्या था...धुंधला सा ही सही मगर एक प्लेसमेंट पिन उसे अपनी जगह दिखता था...लड़की दुनिया में कवितायें पढ़ने लायक जगहें बनाना चाहती थी. वो हर शहर में कविता की किताब पढ़ने के कोने तलाशती. उन कोनों पर बैठ कर किताब पढ़ती और अपनी कहानी एक गूगल मैप्स के पिन में लिख जाती. किसी पुराने बरगद के पेड़ में एक खोहनुमा एक ऐसी जगह होती जहाँ एक छोटे से कुशन को टिकाने के बाद सिर्फ गिलहरियों की किटकिट होती. कुछ शाम की धूप होती और कागज़ में सुस्ताती कवितायें. तो कभी ऐसा होता कि शिकागो के ऊंचे किसी टावर पर दीवारें होतीं बहुत छोटीं. हवा होती इर्द गिर्द घूमती हुयी. दिखने को बहुत सारा कुछ होता. बादल होते. मगर शोर बिलकुल नहीं होता. इश्वर के पास होती जगह कोई. मन शांत करने वाली कविताओं को पढ़ने के लिए ये जगह बहुत मुफीद थी. ऐसी ही कुछ जगहों तक अकेले जाना मुश्किल होता. ऐसे में यार होते. दोस्त. जांबाज़ लोग. हिमालय के ऊंचे दर्रे पर साथ ले जाते उसे अपनी बुलेट पर बिठा कर. फूलों की घाटी के पास बहती नदी के पास तम्बू गाड़ते. उसके लिए विस्की का पेग बनाते. रात को अलाव जलाते. एक दूसरे की पीठ में पीठ सटाए पढ़ते ग़ालिब और फैज़ की शायरी. लकड़ी में आग चिटकती. आसपास दूर दूर तक कुछ न होता. कोई दूसरी रूह नहीं होती. कविताओं की एक वो भी जगह होती. 

इन जगहों पर कवितायें पढ़ते हुए उसकी आवारा रूह को करार आता...लड़की चुनती रहती जगहें...तलाशती रहती धूप का कोई रंग. ओस का जरा स्वाद. चखती चुप्पियाँ. लिखती जाती डायरी में जगह के को-आर्डिनेट...जीपीएस लोकेशन. दुनिया अच्छी लगती. कविताओं के जीने लायक. कविताओं के कमरों में रहने लायक. कभी कभी उसे अकेले रास्तों पर कोई अजनबी मिल जाता...उसकी तरह कविताओं को जीने वाला. उसकी हथेली पर रखती कमरे का नन्हा डिब्बा. दोनों फायरप्लेस के सामने कई कई दिन एक कवितायें पढ़ते रहते. कभी खुद में गुम. कभी एक दूसरे को सुनाते हुए. कभी इश्क़ का बुरादा ख़त्म होने लगता तो लड़की इश्क़ को इजाज़त दे देती उनके बीच उगने की...और फिर वही...बुरादा बुरादा इश्क़...डूब डूब कवितायें. 

दिल्ली के कोहरे में दिखती है लड़की...धुंध में गुम होती हुयी जरा जरा...चलना मेरे साथ कभी...हम भी पूछेंगे दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह जहाँ बैठ कर तुम्हारी कवितायें पढ़ी जा सकें. 

(ब. डार्लिंग, तुम्हारे लिए ये ख़त. जानते हुए कि तुम यहाँ नहीं पढ़ोगी इसे). 

साल २०१५. तीन रोज़ इश्क के नाम.

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साल २०१५ की पहली रात थी. दोस्त लोग अपने अपने घर वापस लौट गए थे. सिर्फ मैं और कुणाल गप्पें मार रहे थे. कुणाल ने मुझसे पूछा...अगर इस साल तुम्हारा जो मन करे वो कर सकोगी...तो क्या करने का मन है...मैंने कहा, मेरा घूमने का मन है...मैं खूब घूमना चाहती हूँ. चार बजे भोर का वक़्त रहा होगा. भगवान तक हॉटलाइन गयी हुयी थी, उन्होंने कहा होगा...तथास्तु. बस. २०१५ की गाड़ी निकल पड़ी. इस साल मैं अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा घूमी हूँ. अलग अलग शहर, अलग अलग अनुभव.

सिर्फ अपनी तसल्ली के लिए शहरों के नाम लिख रही हूँ. दुबारा जाने वाली जगहों के नाम दुबारा नहीं लिखूंगी. साल की शुरुआत हुयी फरवरी में गोवा के रोड ट्रिप से. दिल्ली. बुक फेयर. पटना. देवघर. बीकानेर. जैसलमेर. जोधपुर. अहमदाबाद. डैलस. दीनदयालपुर, सुल्तानगंज, पोंडिचेरी. कूर्ग. सैन फ्रांसिस्को. मैसूर. एटलांटा. शिकागो. कोलकाता. लगभग नब्बे हज़ार किलोमीटर का सफ़र रहा. बंगलौर बमुश्किल रही हूँ.

ये साल जैसे आईपीएल हाइलाइट्स की तरह रहा. सब कुछ जरूरी और खूबसूरत. किताब का छपना. भाई की शादी. अमेरिका ट्रिप. पापा के साथ राजस्थान घूमना. दिल्ली बुक फेयर. और मोने को देख कर पेंटिंग्स पर मर मिटना बस. शिकागो. क्या क्या क्या.

इस साल मैं पहली बार वर्चुअल दुनिया से निकल कर रियल दुनिया मे लोगों से मिली. दिल्ली बुक फेयर एक जादू की तरह था. बैंगलोर में रहते हुए भूल भी जाती हूँ कि कितनी सारी हिंदी किताबें छपती होंगी और कितने सारे लोग हैं जो उन्हें खरीद कर पढ़ते हैं. किसी से किताबों पर बात करना. हिंदी में लिखने पर बात करना. हिंदी में बात करना. सब कुछ फिर से डिस्कवर किया. मैंने पिछले सात-आठ सालों में बहुत कम हिंदी किताबें पढ़ी हैं. एक तो वहां मिलती नहीं हैं, इन्टरनेट पर खरीदने में मजा नहीं आता है. कुछ किताबें खरीदीं बुक फेयर में भी. मगर वहाँ जाना किताबों से ज्यादा उनके पढ़ने वालों के बारे में था. नैन्सी. पहले दिन से आखिर दिन तक. दिल्ली की हर मुस्कराहट का इको. धूप का अनदेखा आठवां रंग. चाय. सिगरेट. धुआं. और हलकी ठंढ. हिमानी. अभिनव. नए लोग मगर इतने अपने जैसे कॉलेज के जमाने की यारी हो. अभिनव की कविता कहने का अंदाज़ और उसकी ट्रेडमार्क, 'के मुझे डर लगता है तुम्हारी इन बोलती आँखों से'. कर्नल गौतम राजरिशी. ग़ज़ल का अंदाज़. कहने की अदा. और तुम्हारा डाउन टू अर्थ होना. लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं. मगर याद में रहता है वो आखिर वाले छोले भटूरे...दो प्लेट. तुम्हारी खूबसूरत किताब. पाल ले एक रोग नादां. प्रमोद सिंह. पॉडकास्ट में जितनी खूबसूरत और सम्मोहक होती है आवाज़...उससे ज्यादा भी हो सकता है कोई रियल लाइफ में? आप एकदम जादू ही हो. सोचा भी नहीं था कि आपसे इतनी बात हो भी सकेगी कभी. कैरामेल. जरा सा जापान. पचास साल का आदमी. सब कुछ एक साथ, और इससे कहीं ज्यादा.

विवेक. IIMC. यकीन कि कुछ खूबसूरत चीज़ें बची रह जायेंगी शायद जिंदगी भर. दस साल जैसे गुज़रे कुछ वैसे ही. सुकून. और एक तुम्हारी वाइट फाबिया और वो कुछ गाने. इक चश्मेबद्दूर वाली अपनी दोस्ती. अपने हॉस्टल के आगे बैठ कर निड की 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो पढ़ना'. अपना क्लास. अपनी लाइब्रेरी. पानी का नल. सीढ़ियाँ. नास्टैल्जिया के रंग में रंगा सब.

पापा के साथ राजस्थान ट्रिप. कमाल का किस्सागो ड्राईवर मालम सिंह. बीकानेर. जैसलमेर. कुलधरा. जोधपुर. किले. खंडहर. रेत के धोरे. महल. बावलियां. सब कुछ लोककथा जैसा था. गुज़रना शहर से. सोचना उसके बाशिंदों के बारे में. सोचना उन मुसाफिरों के बारे में जो गुज़रते शहर से इश्क किये बैठे हैं. खोये हुए गाँव कुलधरा में क्या क्या रह गया होगा. रेत के धोरों पर अधलेटे हुए देखना सूर्यास्त. सुनना किसी दूर से आती धुन. कि जैसे रेत सांस लेती है...इश्क़...भागना आवाजों के पीछे. जैसे रूहों का कोई पुराना नाता है मुझसे. जोधपुर का दुर्ग. गर्मी. कहानियां. जोधपुर के किले से देखना नीला नीला शहर और सोचना संजय व्यास का नील लोक. और शाम को मिलना इसी कहानियों जैसे शख्स से. सकुचाहट से देना अपनी किताब. पहली दस कॉपीज में से एक. कोई कितना सरल हो सकता है. अच्छा होना कितना अच्छा होता है. फिर से याद करती हूँ...फिर से सोचती हूँ...हम अच्छा होना सीखेंगे...आपसे ही SV. पापा के साथ घूमना माने खूब सी कहानियां. गप्पें. और उसपर राजस्थान. मैं पुरानी इमारतों से कभी ऊब नहीं सकती. उसपर राजाओं के किस्से. सबरंग. 

तीन रोज़ इश्क. पहली किताब. कि साल ख़त्म होने को आया अब तक भी कभी कभी सपने जैसी लगती है 'गुम होती कहानियां'. मई में छोटा सा बुक लौंच. दिल्ली के ही IWPC में. निधीश त्यागी, फेवरिट ऑथर...वाकई कभी भी सोचा नहीं था कि जिनका लिखा इतने दिन से इतना ज्यादा पसंद है, मेरी खुद की किताब उन्हीं के हाथों लौंच होगी. अनु सिंह चौधरी. जान. दोस्त. बड़ी दिदिया. और फेमस ऑथर तो खैर कहना ही क्या. मनीषा पांडे. फेसबुक और ब्लॉग पर कई बार पढ़ती रही मगर रूबरू पहली बार हुयी. कितनी मिठास है. कितना अपनापन. और बड़प्पन भी कितना ही. रेणु अगाल. पेंगुइन की पब्लिशर. किताब के सफ़र पर हर कदम साथ रहीं. मार्गदर्शन. हौसला और बहुत सा सपोर्ट भी. इवेंट पर जितना सोचा था उससे कहीं ज्यादा लोग आये. बचपन के दोस्त. स्कूल के दोस्त. कॉलेज के दोस्त. ब्लॉग्गिंग की दुनिया से दोस्त. आह. कितना भरा भरा सा दिल था. शुक्रिया अनुराग वत्स, बेजी, इरफ़ान...मैंने वाकई नहीं उम्मीद की थी कि आप लोग आयेंगे. इरफ़ान ने इवेंट की साउंड रिकोर्डिंग अपने ब्लॉग पर पोस्ट की...उसे सुनती हूँ तो सोचती हूँ, जरा सी नर्वसनेस है आवाज़ में. निहार को कितने सालों बाद देखा. फिर घर से विक्रम भैय्या, छोटू भैय्या और रिंकू मामा. कॉलेज से संज्ञा दी, ऋतु दी और कंचन दी. संज्ञा दी हमारी सुपरस्टार रही हैं. उनके आने से जैसे एक्स्ट्रा चाँद उग आये हमारे आसमान में. और अपने IIMC से राजेश और रितेश. आह. विवेक को तो आना ही था :) इकलौता सवाल भी उसी ने पूछा. इसके अलावा कितने सारे लोग जो सिर्फ ब्लॉग या पेज से जानते थे. साल के ख़त्म होते धुंधला रहे हैं चेहरे. पर सबका बहुत शुक्रिया. 

अमेरिका. हँसता मुस्कुराता देश. जहाँ कैफे में भी आपको कोई स्वीटहार्ट या डार्लिंग कह सकता है. बस ऐसे ही. डैलस में सोलवें माले पर कमरा था. फ्रेंच विंडोज. वहाँ के म्यूजियम में एंट्री मुफ्त थी. दिन भर बस घूमना. बस घूमना. सैन फ्रांसिस्को. पहली नज़र में दिल में बस जाने वाला शहर. लौट कर जाना बाकी है यहाँ. फुर्सत में जायेंगे कभी. एटलांटा. मोने की पेंटिंग से पहली बार इश्क यहीं हुआ...और फिर परवान चढ़ा शिकागो में. सर्दियाँ महसूस कीं कितने सालों बाद. कोट, दस्ताने और टोपी वाली सर्दियाँ. कोहरे. अँधेरे और ओस वाली सर्दियाँ.

अपूर्व.लूप में बजते गाने. कितनी शहरों की याद में घुलते. उनकी पहचान का हिस्सा बनते. तुमसे कितना कुछ सीखने को मिलता है हर बार. शुक्रिया. होने के लिए. 

ऐसी दिख रही हूँ मैं इन दिनों 
साल की सबसे कीमती चीज़ों में है एक नोटबुक. कि जिसमें अपने सबसे प्यारे लोगों के हाथों की खुशबू रखी हुयी है. उनके अक्षर रखे हुए हैं. फिरोजी, नीली, पीली, गुलाबी, हरी...सब सियाहियाँ मुस्कुराती हैं. मुझे यकीन नहीं होता कि मैं इतनी भी अमीर हो सकती हूँ. 

स्मृति. जान. मालूम नहीं क्यूँ. पर तुम हो तो सब खूबसूरत है. 

खोया है बहुत कुछ.टूटा है बहुत कुछ. मगर उनकी बात आज नहीं. आते हुए नए साल को देखती हूँ उम्मीद से...मुस्कराहट से...दुआओं में भीगती हुयी...जीने के पहले जो जो काम कर डालने थे,उनकी लिस्ट ख़तम हो गयी है...अब नयी लिस्ट बनानी होगी. नया साल नयी शुरुआतों के नाम. 

जाते हुए साल का शुक्रिया...कितनी चीज़ों से भर सी गयी है जिंदगी...


तो प्यारे भगवान...इस बेतरह खूबसूरत साल के लिए ढेर सा शुक्रिया...किरपा बनाए रखना. इसके अलावा उन सभी किताबों, गानों, फिल्मों और दोस्तों का शुक्रिया कि जिन्होंने मर जाने से बचाए रखा. पागल हो जाने से तो बचाए रखा ही. 

तुम्हें मुहब्बत से पढ़ेंगे ऐ नये साल

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नया साल.
सुबह के कोहरे वाला शाल ओढ़े आया था. पापा के यहाँ आम के पेड़ पर झूला डाला था हमने. बचपन जैसा.
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इस साल की शुरुआत में जेन ने एक मेसेज शेयर किया था 'come to the new year empty', मुझे बात बड़ी अच्छी लगी थी. इसलिए पुरानी खुशियाँ. पुराने दुःख. पुराने झगड़े. भूल आती हूँ. नए साल में कुछ नया करेंगे. नया लिखेंगे. नया सीखेंगे. नयी जगहें घूमेंगे और नए तरह से बसाते जायेंगे नए शहरों को अपने भीतर.

बंगलौर में रहने के कारण हिंदी पढ़ना बहुत कम हो गया है. ऑनलाइन खरीदना उतना पसंद नहीं है. मैं किताबों को उनके पीछे वाले कवर पर लिखी चीज़ों से नहीं, किसी रैंडम पन्ने का कोई एक पैरा पढ़ कर खरीदती हूँ...यहाँ की दुकानों में हिंदी की वही पुरानी किताबें मिलती हैं जो मैंने कब से खरीद रखी हैं. अब तो हावड़ा स्टेशन पर भी हिंदी किताबें नहीं दिखतीं.

इसलिए दिल्ली वर्ल्ड बुक फेयर. सारे सारे दिन. 9 से 17 तक. बहुत से पुराने क्लासिक्स खरीदने हैं. कुछ नए लेखकों को पढ़ना है. थोड़ी इस बात की भी उत्सुकता है कि पहली बार अपनी 'तीन रोज़ इश्क़'मेले में बिकती हुयी देखूँगी. ऑटोग्राफ वैगेरह दूँगी. बहुत मज़ा आएगा. ब्लॉग पर वैसे तो बातचीत लगभग बंद है लोगों से...अपने रीडर्स से भी...मगर अगर कोई बुक फेयर आ रहा है तो थोड़ा पहले मेल वेल करके बातें की जा सकती हैं. मिला जा सकता है.

इस साल का टारगेट सिर्फ और सिर्फ किताबें पढ़ना है. बाकी सारे काम वगैरह छोड़ छाड़ के. अब ऐसा भी पाती हूँ कि अगर किसी से सिर्फ हिंदी में बात करनी हो तो अटकती हूँ...सही शब्द नहीं मिलता. शहर का आपके ऊपर कितना असर होता है. बैंगलोर में चूँकि लोग हिंदी में बात ही नहीं करते हैं तो लहज़ा ही बदल जाता है. ध्यान से सिर्फ सिंपल शब्दों का इस्तेमाल करती हूँ. जबकि दिल्ली में लोग भी वैसे मिलते हैं जिनसे बात करने के पहले सोचना नहीं पड़ता, हर शब्द का मतलब नहीं बताना पड़ता. दिल्ली आना भी किसी खूबसूरत किताब पढ़ना जैसा ही है.

मेरे घर में किताबों की गुंडागर्दी चलती है. इंसान को रहने की जगह मिले न मिले, किताबें अय्याशी में रहती हैं. आलम ये है कि सोचना पड़ रहा है कि किताबें खरीद तो लेंगे, रक्खेंगे कहाँ? अब दो दिन में नया बुकरैक तो लाने से रहे. दिल्ली से आने के साथ ही एक किताबों की अलमारी लानी पड़ेगी. देवघर गए थे तो वहां पुस्तक मेला लगा हुआ था. जानते हुए कि घर में और किताबें रखेंगे तो हम कहाँ रहेंगे की नौबत जल्द आने वाली है...कुछ सारी किताबों को ख़रीदे बिना रहा ही नहीं गया. इसमें से कुछ किताबें तो वहाँ घर पर रख दी हैं. हर बार कितना किताब यहाँ से ढो के ले जाएँ. ऑफिस की भागदौड़ और घर के काम को सम्हालते हुए हाल ये हुआ रहा कि रात को सोने समय किताब पढ़ने की आदत छूट गयी है. सोच रही हूँ, फिर से पढ़ना शुरू करूँ. फिलहाल ये किताबें आसपास हैं, देखें इनको कब खत्म कर पाती हूँ.


प्रेम गिलहरी दिल अखरोट- बाबुषा                           दोज़खनामा- अनुवाद - अमृता बेरा
संस्कृति के चार अध्याय- दिनकर                              त्रिवेणी- विजयदान देथा
लप्रेक- रवीश                                                      दीवान-ए-ग़ालिब - अली सरदार जाफरी (संपादन)
परछाई नाच- प्रियंवद
एक दिन मराकेश- प्रत्यक्षा                                     जंगल का जादू तिल तिल -प्रत्यक्षा
दुनिया रोज़ बनती है- आलोकधन्वा
आइनाघर- प्रियंवद (उधार by AS)                         Map - Szymborska
Dozakhnaama- translation Arunava Sinha    
The museum of innocence - Orhan Pamuk
Interpreter of Maladies - Jhumpa Lahiri        Letters to milena- Kafka
One hundred years of solitude - Marquez

इस साल कुछ फिल्में और बनानी हैं. छोटी फिल्में. अपने मन मिजाज मूड को बयान करती हुयीं. अपने हिसाब से. थोड़ा एडिटिंग पर ध्यान देना है. मन तो हारमोनियम खरीदने का भी कर रहा है बहुत जोर से. रियाज़ किये हुए बहुत वक़्त हुआ. घर गए थे तो पता चला म्यूजिक सर का ट्रान्सफर कहीं और हो गया है. अपनी लिखी कापियां तो जाने कहाँ खो गयीं. छोटा ख्याल की बंदिश...विलंबित आलाप...बड़ा ख्याल...सब गुम हुआ है. कुछ नहीं तो एक कैसियो का कीबोर्ड खरीद लेते हैं. कमसे कम इंस्ट्रुमेंटल बजा तो सकेंगे. मगर फिर लगता है कि हारमोनियम से रियाज़ करने में सुर दुरुस्त होता था. मन की शांति भी मिलती थी. और अभी भले जितना अजीब लगे सुनने में, पर उन दिनों जब रियाज़ करते थे तो योग करने जैसा, साधना करने जैसी फीलिंग आती थी. हमें गुरु बहुत अच्छे मिले थे. उन्होंने संगीत को मनोरंजन की तरह नहीं, साधना की तरह सिखाया. इस बार थोड़ा और संगीत की ओर लौटेंगे. कैसे लौटेंगे, मालूम नहीं.

जिंदगी में किये जाने वाले कामों की विशलिस्ट ख़त्म हो गयी है लगभग. अब नयी लिस्ट बनानी है. कुछ नए काण्ड करने हैं. कुछ तूफानी. कुछ खुराफाती. हालांकि अब बहुत हद तक स्थिरता आ गयी है मगर एक मन अभी भी बेलौस भागता है. पिछले साल का अजेंडा ट्रैवेल था. दुनिया छान मारी. इस साल लिखना और पढ़ना है. मन बहुत संतोषी प्राणी टाइप फील कर रहा है. बेकरारी नहीं लगती. घबराहट नहीं लगती. 

दिल्ली कमबख्त. रेड कारपेट की जगह रेड अलर्ट लगा के बैठी हो नालायक. कैसे आयेंगे हम. जल्दी जल्दी हालत दुरुस्त करो. 

मुझे ऐसा लगता है कि इस साल मैं आत्मचिंतन करूंगी. चुप होने वाली हूँ. सोचूंगी सब कुछ...भीतर भीतर. इक ऐसा दरवाजा बनाउंगी जिसके पार कोई न जा सके. कहीं न कहीं एक वैराग है जो बहुत जोर से हिलोरे मार रहा है. कन्याकुमारी का विवेकानंद रॉक बहुत अजीब किस्म से फ़्लैश कर रहा है. अभी के वैभवशाली रौशनी में डूबा हुआ नहीं. वैसा कि जब विवेकानंद उस तक तैर के चले गए थे. 

समुद्र है. लहरें हैं. 
मन. शान्ति की ओर है. 

इस दीवानावार दुनिया में

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जादू.तिलिस्म. सम्मोहन.  
कुछ होता जो लड़की को अपनी तरफ खींचता बेतरह.यूँ उसे कोई तकलीफ नहीं होती मगर बात इतनी थी कि उसे अपनी मर्ज़ी से एक नयी दुनिया बनानी आती थी. वो कभी भी, किसी भी वक़्त...खुली आँखों से या बंद आँखों से भी, एक दुनिया बनाती चली जाती...

किसी कॉफ़ी शॉप में.किसी रेस्तरां में. किसी पब में. सब उसकी आँख के सामने होता मगर जुदा होता. सतरंगी रंगों में रंगा होता. खुशबुओं में भीगा होता. वैसे में लोग उसकी आँखें देखते और कहते कि उसकी आँखें बहुत खूबसूरत हैं. वे साधारण लोग थे. उनके पास ऐसे ही दो चार शब्द हुआ करते...ख़ूबसूरत. नाइस...अव्सम जैसे. मगर लड़की के पास कलम होती. कि जिससे सब कुछ बदला जा सकता. रात की धुंध पे नाचते सितारे होते. चाँद की लौलीपॉप होती कि जिसका स्वाद होता मिंट का. हल्का हरा दिखता चाँद. मुराकामी के नावेल के दूसरे चाँद की तरह. हल्का दिल टूटता उसका. गुलज़ार की नजाकत से लिखी कहानी की दूसरी औरत की तरह. लड़की के पास एक शहर था. सेकंड हैण्ड प्रेमियों का शहर. ये शहर प्रेमिकाओं का भी हो सकता था. मगर प्रेमिकाएं शहर में नहीं रहतीं. दिल में रहती हैं. लड़की शहर से आड़े टेढ़े लोग बुला सकती थी. बदसूरत. बदमिजाजी से भरे हुए. मगरूर और साबुत. दुनिया को तोड़ कर सिकंदर बनने की ख्वाहिश पाले. मगर लड़की हमेशा टूटे हुए लोग चुनती. उनकी दरारों में जाड़े के फूलों की क्यारियां दिखतीं. गुलदाउदी के सफ़ेद, बड़े, फूल होते. फूलों के पार झांकते लोग होते. लोगों के पास लम्हे चुराने का हुनर होता. वे लोगों के लम्हे चुरा कर शीशे की छोटी छोटी बोतलों में रखते जाते. ये दुनिया का सबसे महंगा नशा होता. सबसे नशीला भी. इसे दुनिया ओल्ड मोंक के नाम से जानती. लम्हों को हल्के गुनगुने पानी में मिला कर कोहरे की पाइप से पीना होता. फिर कहीं कोई दीवारें नहीं होतीं जो रोक सकतीं. लोग समंदर में कूद कर जान देने लायक हिम्मत पा जाते. 

लड़की मर जाना चाहती. मगर फिर उसे लगता कि दुनिया को कुछ और कहानियों की शायद दरकार हो. लोगों ने उसके भटकने के किस्से ही सुने थे. उसे भटकते देख नहीं सकता था कोई. लड़की जब अकेली होती तो पारदर्शी होती. उसके आर पार सिर्फ रौशनी ही नहीं, पूरे पूरे शहर गुज़र जाते. उसके कैमरे की ब्लैंक रील फिर स्टूडियो की डार्क रूम में डेवलप नहीं की जा सकती थी. उसे सिर्फ कागज़ पर लिखा जा सकता था. स्टूडियो हेड उसकी रील देखते और फिर हँसते उसपर. तुम्हें कहानियां ही लिखनी होतीं हैं तो तुम कैमरा की रील क्यों बर्बाद करती हो. नोटबुक लेकर चला करो. लड़की कैमरा से देखती थी लोगों को तो वे मुस्कुराने लगते थे. उसकी मुस्कान के कोने में छुपी होती थी उदासी. कैमरा मुस्कान कैप्चर करता था. लड़की उदासी. अब किसी को नोटबुक दिखा कर रोने को तो नहीं कह सकती न. कि मैं राइटर हूँ. तुम पर एक कहानी लिखूंगी. एक आध आँसू गिरा दो मेरी नोटबुक पर. 

सब कुछ मन का वहम होता है. लड़की जो होती. हो लिखती. और जो लिखना चाहती. सब कुछ वहम होता. कभी कभी वह बिना कुछ कहे सिर्फ भटकना चाहती दिल्ली में. सुर्ख लाल रंग के गाउन में. कैमरा में टेलीफ़ोटो लेंस लगाए हुए. लाल किले की चारदीवारी से भी किसी की ओर वो लेंस पॉइंट करो तो ज़ूम करते ही उसके सारे दुःख नज़र आ जाएँ. 

उसने मन बांधना सीख लिया था. गहरे लाल धागे थे वो. उलझे हुए. उन पर ख़ुशी की एक परत चढ़ी थी. मन ख़ुशी से बाहर नहीं आना चाहता और हर सम्भावना पर बंध जाता. वो अपने दायें हाथ की सारी उँगलियों पर एक ख़ुशी का धागा लपेट कर रखती थी. इससे कलम पकड़ने में दिक्कत होती और उसे लिखते हुए भी हर लम्हा याद रहता कि उसे खुश रहना है. उसे दुखते किरदार नहीं लिखने हैं. मगर सारे किरदारों से चुरा कर एक किरदार रचना था उसे. जिसकी कमर में हमेशा रिवोल्वर या ऐसा कुछ रहे. छोटा कुछ जो हमेशा साथ लेकर चलना लाजिमी हो. छुपा हुआ कोई हथियार. क्यूंकि ज़ाहिर सी बात है न कि बड़ी किसी बन्दूक को लेकर लोग अपने दोस्तों से मिलने तो जायेंगे नहीं. किसी दुनिया में भी. उसने फिल्मों में देखा था कि किस तरह गैंगस्टर अपने सूट के नीचे हमेशा कोई सेमी आटोमेटिक रिवोल्वर रखते हैं. मैगजीन वाली बन्दूक होती है. उसे फिल्में देख कर ये भी मालूम था कि गन कैसे लोड करते हैं. उसने हाल में फिल्म में ही देखा था कि मरने के लिए बन्दूक को मुंह में रख कर गोली चलाना सबसे आसान होता है. मगर फिर भी उसे कभी कभी लगता था कि उसका हाथ कांप सकता है. उसने एक खूबसूरत किरदार लिखा. बेबी में अक्षय कुमार जैसा था. वैसा. सीक्रेट मिशन वाला. हँसते हुए उससे पूछा...कि तुम तो सोल्जर हो...तुम्हारे हाथ नहीं कांपेंगे न अगर गोली मार देने कहूँगी तो. किरदार उसका खुद का रचा हुआ था. शक की गुंजाइश ही कहाँ थी. लड़की सुकून में आ गयी. ख़ुशी का एक तागा उसकी उँगलियों पर भी बाँधा और कहा. वैसे किसी दिन भी खुश रहने का सोचना और मुझे गोली मत मारना. जिंदगी खूबसूरत है. खुशनुमा है. खुशफहम भले ही है मगर जीने लायक है. 

कहानी के हर दुखते मोड़ के बाद लड़की को मालूम होता था कि वो ख़ुशी रच सकती है. इसी सुख से भरी भरी रहती और जी लेती थी...इस बेतरह उलझी हुयी...नाराज़...दीवानावार दुनिया में. 

खुदा ने प्यास के दो टुकड़े कर के इक उसकी रूह बनायी...एक मेरी आँखें...

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गुम हो जाना चाहती हूँ.
सोच रही हूँ कि खो जाने के लिये अपनी रूह से बेहतर जगह कहाँ मिलेगी. अजीब सी उदासी तारी है उंगलियों में. कि जाने क्या खो गया है. कोई बना है प्यास का...जैसे जैसे वो अंदर बसते जाता है उड़ती जाती हैं वो चीजें कि जिनको थाम कर जीने का धोखा पाला जाता है. मंटो की कहानी याद आती है कि जिसमें एक आदमी को खाली बोतलें इकठ्ठा करने का जुनून की हद तक शौक था.

अपनी दीवानावार समझ में उलीचती जाती हूँ शब्द और पाती हूँ कि मन का एक कोरा कोना भी नहीं भीगता. शहर का मौसम भी जानलेवा है. धूप का नामोनिशान नहीं. रंग नहीं दिखते. खुशबू नहीं महसूस होती. सब कुछ गहरा सलेटी. कुछ फीका उदास सफेद. कि जैसे थक जाना हो सारी कवायद के बाद.

मैं लिख नहीं सकती कि सब इतना सच है कि लगता है या तो आवाज में रिकौर्ड कर दूँ या कि फिल्म बनाऊँ कोई. शब्द कम पड़ रहे हैं. 

एक कतरा आँसू हो गयी हूँ जानां...बस एक कतरा...कि तुम्हारा जादू है, नदी को कतरा कर देने का. इक बार राधा को गुरूर हो गया था कि उससे ज्यादा प्रेम कोई नहीं कर सकता कृष्ण से...उसने गोपियों की परीक्षा लेने के लिये उन्हें आग में से गुजर जाने को कहा, वे हँसते हँसते गुजर गयीं, उनहोंने सोचा भी नहीं...कुछ अजीब हो रखा है हाल मेरा...सब कुछ छोटा पड़ता मालूम है...गुरूर भी...इश्क़ भी...और शब्द भी. सब कितना इनसिगनिफिकेंट होता है. इक लंबी जिन्दगी का हासिल आखिर होना ही क्या है.

दुनिया भर की किताबें हैं. इन्हें सिलसिलेवार पढ़ने का वादा भी है खुद से. मगर मन है कि इश्क़ का कोई कोरा कोना पकड़ कर सुबकता रहता है. उसे कुछ समझ नहीं आता. लिखना नहीं. पढ़ना नहीं. जब मन खाली होता है तो उसमें शब्द नहीं भरे जा सकते. उसे सिर्फ जरा सा प्रेम से ही भरा जा सकता है. दोस्तों की याद आती है. और शहर इक. 

कभी कभी देखना एक सम्पूर्ण क्रिया होती है...अपनेआप में पूरी. तब हम सिर्फ आँखों से नहीं देखते. पूरा बदन आँखों की तरह सोखने लगता है चीज़ें. बाकी सब कुछ ठहर जाता है. कोई खुशबू नहीं आती. कोई मौसम की गर्माहट महसूस नहीं होती. वो दिखता है. सामने. उसकी आँखें. उन आँखों में एक फीका सा अक्स. खुद का. उस फीके से अक्स की आँखों में होती है महबूब की छवि. मैं उस छवि को देख रही हूँ. वो इतना सूक्ष्म है कि होने के पोर पोर में है. दुखता. दुखता. दुखता. छुआ है किसी को आँखों से. उतारा है घूँट घूँट रूह में. देखना. इस शिद्दत से कि उम्र भर एक लम्हा भर का अक्स हो और जीने की तकलीफ को कुरेदे जाये. मेरे पास इस महसूसियत के लिए कोई शब्द नहीं है. शायद दुनिया की किसी जुबान में होगा. मैं तलाशूंगी. 

इश्क़तो बहुत बड़ी बात होती है...रूह के उजले वितान सी उजली...मेरे सियाह, मैले हाथों तक कहाँ उसके नूर का कतरा आएगा साहेब...मैं ख्वाब में भी उसे छूने को सोच नहीं सकती...मेरे लिए तो बस इतना लिख दो कि इस भरी दुनिया में एक टुकड़ा लम्हा हो कि मैं उसे बस एक नज़र भर देख सकूँ उसे...मेरी आँखें चुंधियाती हैं...जरा सा पानी में उसकी परछाई ही दिखे कभी...आसमान में उगे जरा सा सूरज...भोर में और मैं उसकी लालिमा को एक बार अपनी आँखों में भर सकूं. क्या ऐसा हो सकेगा कभी कि मैं उसकी आँखों से देख सकूंगी जरा सी दुनिया. 

मैंने एक लम्हे के बदले दुःख मोलाये हैं उम्र भर के. हलक से पानी का एक कतरा भी नहीं उतरा है. कहीं रूह चाक हुयी है. कहाँ गए मेरे जुलाहे. बुनो अपने करघे पर मेरे टूटे दिल को सिलने वाले धागे. करो मेरे ज़ख्मों का इलाज़. जरा सा छुओ. अपनी रूह के मरहम से छुओ मुझे. 

खुदा खुदा खुदा. इश्क़ के पहले मकाम पर तकलीफ का ऐसा मंज़र है. आखिर में क्या हो पायेगा. ऐसा हुआ है कभी कि आपको महसूस हुआ है कि आपके छोटे से दिल में तमाम दुनिया की तकलीफें भरी हुयी हैं. मिला है कोई जिसने देख लिया है ज़ख़्मी रूह को. रूह रूह रूह. 

इस लरजते हुए. ज़ख़्मी. चोटिल. मन. रूह. को थाम लिया है किसी ने अपनी उजली हथेलियों में. कि जैसे गोरैय्या का बच्चा हो. बदन के पोर पोर में दर्द है. उसकी हथेलियों ने रोका हुआ है दर्द को. कहीं दूर तबले की थाप उठती है...धा तिक धा धा तिक तिक...

और सारा ज़ख्म कम लगता अगर यकीन होता इस बात पर कि ये तन्हाई में महसूस की हुयी तकलीफ है...आलम ये है साहेब कि जानता है रूह का सबसे अँधेरा कोना कि ठीक इसी तकलीफ में कोई अपनी शाम में डूब रहा होगा...

आँखों के आखिरी यातना शिविर

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स्टैंडिंग सेल्स
२ बाय २ बाय ६ फुट के टेलेफोन बूथ नुमा कमरे थे जिन्हें स्टैंडिंग सेल्स कहा जाता था. यहाँ कैदी बमुश्किल खड़े हो सकते थे. इन में प्रवेश करने के लिए नीचे की ओर एक छोटा सा दो फुट बाय दो फुट का लोहे की सलाखों वाला दरवाज़ा होता था. हवा के आने जाने को भी बस इतनी ही जगह होती थी. इन में बैठ कर घुसना होता था और फिर खड़े हो जाना होता था. कई बार इन सेल्स में चार कैदी तक भर दिए जाते थे. इन में न सांस लेने भर हवा होती थी न रौशनी भर उम्मीद. सबसे ज्यादा आत्महत्याएं इन स्टैंडिंग सेल्स वाले कैदी ही करते थे.
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तुमने उसकी आँखें देखीं? उसकी आँखों में यही स्टैंडिंग सेल्स हैं. उसकी आँखों को न देखो तो उसके पूरे वजूद में पनाह जैसा महसूस होता है. उसकी हंसी, उसका रेशम का स्कार्फ...उसकी ऊँगली में चमकती गहरे लाल पत्थर की अंगूठी...और उसकी बातों का सम्मोहन...मगर उसके करीब मत जाना. उसकी आँखें टूरिस्म के लिए नहीं हैं. वहां कैद हो गए तो बस मौत ही तुम्हें मुक्ति देगी.

तुमसे बात करते हुए अगर वह दूर, किसी बिना पत्तियों वाले पेड़ को देख रही है तो खुदा का शुक्र मनाओ कि वह तुम पर मेहरबान है. शायद उसे तुम्हारी मुस्कराहट बहुत नाज़ुक लगी हो और वह अपने श्रम शिविर से तुम्हें बचाना चाहती हो. उससे ज्यादा देर बातें न करो. उसका मूल स्वाभाव इस तरह क्रूर हो चूका है कि वह खून करने के पहले सोचती भी नहीं. She kills on autopilot. But isn't that how all mercenaries are? All, but women. तुम्हें कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े पता हैं? After a point of time it should stop hurting. But it doesn't.

स्टैंडिंग सेल्स की दीवारों पर जंग लगे ताले हैं. गुमी हुयी चाभियाँ हैं. भूल गए जेलर्स हैं. भूख, प्यास और विरक्ति है. नाज़ी अमानवीय यातनाएं दे कर यहूदियों को जानवर बना देना चाहते थे मगर उन्होंने बचाए रक्खी जरा सी रंगीन चौक...बत्तखें, खरगोश और अपने अजन्मे, मृत और मृत्पाय बच्चों की किलकारी.

लड़की कह नहीं सकती किसी से...इस आँखों के श्रम शिविर को बंद करो. गिराओ बमवर्षक विमानों से ठीक जगह बम. जला दो फाइलें. मैं भूल जाना चाहती हूँ अपने गुनाह. किसी न्यूरेमबर्ग कोर्ट में लगवाओ मेरा मुकदमा भी या कि सड़क पर ही पास करो फैसला मेरे अपराधी होने का.

प्रेम उसकी दुनिया का अक्षम्य और सबसे जघन्य अपराध है. 
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लाइन से खड़े हैं लोग दीवार की ओर मुंह कर कर. मेरे साथ और भी कई लोगों को फायरिंग स्क्वाड से उड़ाने का फैसला सुनाया गया. हवा में एक अजीब, निविड़ स्तब्धता ठहरी हुयी है. कोई सांस नहीं लेता यहाँ. मुझे अपने पहले जन्मदिन पर लाया केक और फूँक मार कर मोमबत्तियां बुझाना याद आ रहा है. हर बार बन्दूक चलती है और बारूद का धुआं उड़ता है.  आखिरी ख्वाहिश पूछने का रूमान बहुत पहले की दुनिया से छूट चूका है. मुझे कोई पूछे भी तो शायद मैं कोई इस तरह की ख्वाहिश बता नहीं पाऊँगी. मुझे जाने क्यूँ इक स्कूल के बच्चे याद आ रहे हैं. मैं वहां गयी नहीं हूँ शायद पर उस इकलौते स्कूल के बारे में पढ़ा है. नाजियों ने वहां मौजूद हर बच्चे को गोली मार दी थी. न उनका दोष पूछा गया था न उनकी आखिरी इच्छा. क्या ही होगी उन बच्चों की आखिरी इच्छा. कोई ख़ास फ्लेवर का आइसक्रीम...या चोकलेट...या शायद किसी दोस्त से किये गए झगड़े का समापन...मगर मेरी किताबें कहती हैं बच्चों को कमतर नहीं आंकना चाहिए. हो सकता है उनमें से किसी की ख्वाहिश देश का प्रधानमंत्री बनने की हो. 

कायदे से मुझे अपने इन अंतिमक्षणों में जीवन एक फिल्म रील की तरह चलता हुआ दिखाई पड़ना चाहिए. करीबी लोग स्लो मोशन में. मगर मेरे सामने खून में डूबे हुए लकड़ी के तख्ते हैं. बेढब और आड़े टेढ़े सिरों वाले. उन्हें आरी से काटा नहीं गया है, तोड़ कर छोटा किया गया है. इनके नुकीले सिरे भुतहा और डरावने हैं. अचानक मेरा ध्यान इन तख्तों के जरा ऊपर गया है. वहाँ एक सुर्ख पीला फूल अभी अभी खिला है. गोली की आवाज़ आती है. मेरे पहले तीन लोग और हैं जो मेरी बायीं ओर खड़े हैं. हवा बारूद की गंध से भरी हुयी है मगर हर फायर के साथ जरा और सान्द्र हो जाती है कि सांस लेने में तकलीफ होती है. अगली फायर के साथ मेरे ठीक दायीं ओर का कैदी धराशायी होता है और खून से वह पीला फूल पूरी तरह नहा कर सुर्ख लाल हो जाता है. कैदियों को किसी क्रम में सिलसिलेवार गोली नहीं मारी जा रही. मुझे आश्चर्य और सुख होता है. जिंदगी अपने आखिरी लम्हे तक अप्रत्याशित रही. अगली गोली निशाना चूक जाती है. कोई नौसिखुआ सैनिक होगा. शायद उसके हाथ कांप गए हों. मैं मुस्कुरा कर पीछे देखना चाहती हूँ. उसका उत्साह बढ़ाना चाहती हूँ कि तुम अगले शॉट में कर लोगे ऐसा. देखो, मैं कहीं भागी नहीं जा रही. मिसफायर की गोली जूड़े को बेधती निकली थी और इस सब के दरमयान बालों की लट जैसे लड़ कर आँखों के सामने झूल गयी. उस क्षणिक अँधेरे में तुम्हारी आँखें कौंध गयीं. किसी ने तुम्हें ठीक इसी लम्हे बताया है कि मुझे आज गोली मार दी जायेगी. तुम अचानक खड़े हो गए हो. तुम्हारी आँखों में कितने जन्म के आँसू हैं. तुम जानते हो, सीने में चुभते दर्द का मतलब. अब. मेरे ठीक सामने हो तुम. अश्कबार आँखें. 
आह! काश मैं ज़रा सा और जी पाती!


कविताओं का जीवन में लौट आना

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मुझे क्या हो गया है.ऐसा तो नहीं है कि मैंने पहले कवितायें नहीं पढ़ीं. या शायद नहीं पढ़ीं. बचपन में या कॉलेज के लड़कपन में पढ़ी होंगी. होश में ध्यान नहीं है कि आखिरी कौन सी कविता पढ़ी थी कि जिसे पढ़ कर लगे कि रूह को गीले कपड़े की तरह निचोड़ दिया गया है. कलेजे में हूक सी उठ जाए कि जैसे प्रेम में होता है...या कि विरह में. 

मैं बहुत दिन बाद कागज़ की कवितायेंपढ़ रही हूँ. किताब को हाथ में लिए हुए उसके धागों को अपनी आत्मा के धागों से मिलता हुआ महसूस करती हूँ. पन्ना पलटते हुए शब्द मेरी ऊँगली की पोरों में घुलते घुलते लगते हैं. जैसे बरसों की प्यासी मैं और अब मुझे शब्द मिले हैं और मैं ओक ओक पी रही हूँ. समझती हूँ जरा जरा कि मुझे प्रेम की उत्कंठा नहीं थी जितनी किताबों की थी. मेरा मन पूरी दुनिया तज कर इस कमरे की ओर भागता है जहाँ मेरी इस बार की लायी किताबें सजी हुयी हैं. मुझे मोह हो रहा है. इन पर मेरा अपार स्नेह उमड़ता है. मन शब्दों में पगा पगा दीवानावार चलता है. 

सुबह को लगभग सात बजे उठ जाने की आदत सी है. उस वक़्त घर में सब सोये रहते हैं. शहर भी उनींदा रहता है और कोई आवाजें मेरा ध्यान भंग नहीं करतीं. खिड़की से रौशनी नहीं आती बस एक फीका उजास रहता है. ज़मीन पर पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. दीवार की ओर एक पतला सा सिंगल गद्दा है जिसपर सफ़ेद चादर है जिसमें पीले और गुलाबी फूल बने हैं. कल मैं दो कुशन खरीद के लायी. मद्धम रंग के खूबसूरत कुशन कि जिन्हें देख कर आँखों को ठंढक मिले. आजकल कमोबेश रोज ही उठते हुए मेरा कुछ लिखने को दिल करता है. मगर आज जाने क्यूँ लिखने का मन नहीं था. 

कमलेश की किताब 'बसाव'को पढ़ने का मन किया. ये किताब अनुराग ने दिल्ली पुस्तक मेले में अपनी तरफ से गिफ्ट की है...कि तुम्हें कमलेश को पढ़ना चाहिए. किताब अँधेरे में खुलती है और जैसे जैसे कवितायें पढ़ती जाती हूँ ये किताब मन में किसी पौधे की तरह उगती है. बारिश के बाद की गीली, भुरभुरी मिट्टी...गहरी भूरी...और नए पत्तों की कोमल हरीतिमा. किताब मन में उगती है. जड़ें जमाती हुयी. मुझे याद नहीं मैंने ऐसी आखिरी किताब कब पढ़ी थी. अगला पन्ना पलटते हुए आँखों में होता है एक भोला इंतज़ार. बचपन के इतवारों की तरह कि जब घर की छत पर से देखा करते थे दूर का चौराहा कि आज कौन मेहमान आएगा. कौन से दोस्त. कौन वाले अंकल. झूले पर कौन झूलेगा साथ. ये कवितायें मुझे भर देती हैं एक सोंधी गंध से. गाँव में चूल्हा लगाती हुयी दादी याद आती है. लकड़ी से उठता धुआं और कोयले. लडुआ बनाने की तैय्यारी और गीला गुड़. मेरी नानी और मेरी माँ. शमशानों को पढ़ते हुए मुझे याद आते हैं वो पितर जो कहीं दूर आसमानों में हैं.

ऐसी भी होती है कोई किताब क्या...ऐसा होता है कवि और ऐसी होती हैं कवितायें...मन में साध जागती है कि हाँ...ऐसा ही होता है जीवन...और इसलिए जीना चाहिए. कि हम भर सकें खुद को. कि किताबें मुझे और वाचाल बनाती हैं. 

मैं पृष्ठ संख्या ७७ पर ठहरती हूँ. एक आधी तस्वीर खींचती हूँ. खिड़की से धूप उतर आई है. चौखुट धूप और किताब पर रखी है महीन होके. इस शहर में धूप कितनी दुर्लभ है. किताब पढ़ने के पहले फिर शब्द उतरते हैं मन पर. अपनी बोली में. वे शब्द जिन्हें भूले अरसा हुआ. दातुन. खजूर का पेड़. कुच्ची. कुइय्या. दिदिया. हरसिंगार. मौलश्री. तुलसी चौरा. एन्गना. भागलपुरी नहीं बोल पाने की कसक चुभती है. मन करता है कि चिट्ठियां लिखूं. अपने गुरुजनों को. कि जिन्होंने भाषा सिखाई. जिन्होंने लिखना सिखाया. जिन्होंने जीना सिखाया. और फिर मित्रों को. स्नेह भीगी चिट्ठियां. भरी भरी चिट्ठियां. 

मैं पढ़ती हूँ आगे, कुछ कहानियों जैसा है...प्राक्कथन. कविता के पीछे की कहानी. कैसे बसते हैं बसाव. इंद्र का सिंहासन डोलता है. दानवान, यज्ञवान, सत्यवान पौत्र अपने अपने हिस्से का पुण्य देते हैं. कहाँ चले गए थे ये किरदार. मेरे जीवन ही नहीं मेरी कहानियों से भी लुप्त हो गए थे. मैं सोचती हूँ कि कितनी चीज़ों से बने होते हैं हम. क्या क्या खो जाता है हर एक इंसान के जाने के साथ ही. अपने शहर से अलग होने के कारण हमसे छिन जाते हैं वो सारे वार्तालाप भी जो चौक चौराहों तक इतने सरल और सहज थे जैसे कि वो उम्र और वो जीवन. कि प्रेम कितना आसान था उन दिनों. मैं अपनी नोटबुक में लिखे कुछ शब्दों को उकेरा हुआ देखती हूँ और सहेजती हूँ जितना सा जीवन बाकी है. इस सब में ही मैं इस किताब की आखिरी कविता तक आती हूँ...और जैसे सारा का सारा जीवन ही एक कविता में रह जाता है. मुझ में. मेरे होने में. मेरी सांस में. 

उजाड़ 
माँ ने कहा था:
अमुक 'राम'ने डीह का मंदिर बनवाया था -
शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई थी 
पुजारी नियुक्त किया था. 

अब सब परदेस चले गए.
जो लोग जल चढ़ा सकते थे वे नहीं रहे 
शिवालय खण्डहर हो गया.

माँ रोज सुबह नहा कर मंदिर में 
जल चढ़ाती रहती थी 
फिर वहाँ कुछ भी नहीं रहा शेष,
मंदिर के ईंट पत्थर भी धीरे-धीरे 
राह में लगने लगे. 

माँ ने पूछा: क्या मेरे कर्मों में है 
मंदिर बनवाना,
क्या मेरे बेटों के कर्मों में है 
मंदिर बनवाना!

पौत्र अभी गर्भ में नहीं आये
कौन माँ उन्हें डीह पर जनेगी.

माँ उनका प्रारब्ध पूछती है,
माँ की आँखों में अनेक प्रश्न हैं
अनुत्तरित,
प्रश्नों में ही कहीं उत्तर छिपा हुआ है.

डीह शिवरात्रि को उजाड़ रहा है
मंदिर में जल चढ़ाने को 
कोई नहीं बचा. 

- कमलेश

एक था इमलोज

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उसका नाम लोरी था. ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ. मगर इक शाम काफिया उसके साथ पहाड़ो पर चाँद की शूट पर गया था तो महसूस होता था...उसके साथ का हर लम्हा किसी स्वप्न की मानिंद होता था. जाग के किसी लम्हे उसके भागते दुपट्टे का कोर भी हाथ नहीं आ सकता. उसके साथ होते ही सपनों के चमकीले रंग खुलते थे. जो कहीं नहीं हो सकता था, वो होता था.

लोरी को बचपन में किसी ने मज़ाक में कह दिया कि आँगन के इस शम्मी के पेड़ से तुम्हारी शादी हो गयी है. अब ये पेड़ तुम्हारा जीवनसाथी है. बच्ची ने भोलेपन में पूछा जीवनसाथी मने? तो उससे जरा ही बड़ी फागुन दी ने बताया कि बेस्ट फ्रेंड. उस दिन के बाद से लोरी की किसी से गहरी दोस्ती नहीं हुयी. उसके सारे दोस्त उसका मजाक उड़ाते थे कि लोरी का बेस्ट फ्रेंड एक पेड़ है. लोरी छोटी थी तब से स्कूल में बहुत से दोस्त होते थे उसके...ये अचानक से सबका रूठ जाना उसे बिलकुल रास नहीं आया. वो रोज़ घर आ कर शम्मी को सब कुछ सुनाती. शम्मी मगर उसके किसी सवाल का जवाब नहीं देता. हाँ सुनने का धैर्य उसमें असीमित था. वो सब कुछ सुन लेता था. घर की बातें भी. माँ का डर कि अगर पिताजी घर नहीं लौटे तो इस महीने का खर्चा कहाँ से आएगा...लोरी के लिए इस बार नयी स्कूल ड्रेस नहीं आ पाएगी या कि ये भी कि स्कर्ट को रात भर में सुखाने के लिए चूल्हे के ऊपर गरमाया जाता है और इसमें कोयले ख़त्म हो जाते हैं तो उसे ठंढा दूध ही पीना पड़ेगा रात में. लोरी ये सब समझती थी. और साथ में शम्मी का पेड़ भी.

धीरे धीरे लोरी बड़ी होती गयी और साथ में शम्मी का पेड़ भी. देखते देखते पेड़ की सबसे मोटी शाख पर एक बड़ा सा झूला लग गया. लोरी को बिलकुल अच्छा नहीं लगता कि उसके पेड़ पर मोहल्ले भर के बच्चे झूलें, आंटियां अपनी सासों की बुराई करें. मगर लोरी को समझाया गया कि वो भले ही सिर्फ शम्मी के पेड़ की है पूरी की पूरी और उसे इमानदारी से पेड़ के प्रति अपना प्रेम बिना बांटे बरकरार रखना है लेकिन शम्मी का पेड़ सिर्फ उसका नहीं है. उसपर बाकी लोगों का भी हक बनता है और उसे एक समझदार लड़की की तरह ये बात समझनी चाहिए और इस पर कोई हल्ला हंगामा खड़ा नहीं करना चाहिए. आखिर पेड़ ने तो कभी हामी नहीं भरी थी कि वो पूरा का पूरा लोरी का ही है और उससे किसी का कुछ भी जुड़ नहीं सकता. फिर ये भी तो बात थी कि पेड़ पर झूला पड़ जाने से लोरी को कोई दिक्कत तो नहीं थी. ऐसा थोड़े है कि उसके हिस्से का छीन कर किसी के हवाले किया जा रहा था. इतने बड़े पेड़ को वो अपने स्कूल बैग में लिए थोड़े न घूम सकेगी. लोरी बहुत समझदार बच्ची थी. सब समझ गयी. अब उसकी अपने शम्मी से अकेले में मुलाकातें काफी कम हो गयीं थीं. सिर्फ कभी कभी जब पूरनमासी की रात होती तो वह शम्मी के पास आ जाती और झूले पर हौले हौले झूलती रहती. या कभी कभी ऐसा दिन होता कि किसी ने उसको स्कूल में बहुत चिढ़ाया होता तो वो उसकी शिकायत करने शम्मी के पास आ जाती.

शम्मी का पेड़ उसकी जिंदगी में कम शामिल हो गया हो ऐसा नहीं हुआ कभी. लोरी की दुनिया में अब भी सब कुछ शम्मी के इर्द गिर्द ही घूमता था. जैसे जैसे उसकी उम्र सोलह के पास जा रही थी लोरी के सपनों का रंग बदलता जा रहा था. उसने शम्मी के पेड़ का नाम रखा था. दुनिया में उसके हिसाब से आदर्श प्रेमी...इमरोज़...आखिर शम्मी भी तो उसे अपनी सारी बातें करने देता था. कभी जलता नहीं था. कभी मना नहीं करता था. लोरी के दिन रात में अलग अलग चीज़ें घुलने लगी थीं. वो अक्सर अपने बैग में शम्मी के पत्ते लिए घूमती थी. उसे लगता था कि उसकी उँगलियों से एक ख़ास खुशबू आती है...इमरोज़ की. लोग उसे समझाते थे कि शम्मी के पत्तों में गंध नहीं होती और दुनिया में किसी भी इत्र का नाम इमरोज़ नहीं है. लोरी की उम्र में लेकिन खुदा पर भी यकीन नहीं होता और हवा में उड़ती आयतें भी दिखती हैं.

उसकी सारी दोस्तों के महबूब होने लगे थे. लोरी ने एक दिन देखा कि उसकी ही छोटी बहन धानी ने शम्मी के पेड़ पर अपने नाम पहला अक्षर प्रकार से खोद खोद कर लिख दिया. प्रकार की तीखी नोक लोरी के दिल को बेधती निकली थी. वो कितना ही अपनी बहन पर चीखी चिल्लाई मगर पेड़ पर लिखा अंग्रेजी का कैपिटल D और उसके इर्द गिर्द बना हुआ आधा दिल उसके सपनों में रात रात चुभता रहता. उसके लाख चाहने पर पेड़ पर खोदा हुआ कुछ गायब नहीं किया जा सकता था. उसे मिटाने के लिए उस पूरे हिस्से की छाल को हटाना होता. इससे इमरोज़ का दिल दुखता. लोरी को हिम्मत नहीं हो पायी कि वो तीखी ब्लेड से छील कर छाल का वो हिस्सा अलग कर दे. इमरोज़ शायद कहना चाहता होगा उससे कि वो सिर्फ एक पेड़ है, कुछ भी नहीं कर सकता अगर कोई उसपर अपना नाम लिख देना चाहे तो. इमरोज़ लेकिन जाने क्या कहना चाहता था. लोरी को कभी मालूम नहीं चल पाता. अब वो बचपन के दिन नहीं थे कि उसे रोज़ पानी देना होता था और अगली सुबह पत्तों के रंग से इमरोज़ की ख़ुशी या गम का पता चल जाता. लोरी हमेशा कहती थी कि जिस सुबह वो शम्मी में जल डालती है शम्मी के पत्तों का रंग ज्यादा चमकीला होता है. लोरी को जानने वाले उसकी किसी भी बात का यकीन करते थे...तो इस बात को मानने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती थी. लोरी ने चाहा कि उस जगह पर आर्किड के पौधे लगा दे. बेल के नीचे शायद वो एक अक्षर छिप जाएगा और उसे चैन से नींद आ सकेगी. कुछ छलावे भी जीवन में जरूरी होते हैं ये उसने पहली बार जाना था.

इकतरफे प्रेम के बहुत रंग होते हैं. लोरी की सहेलियों ने महसूस किया था कि लड़के दिल तोड़ने की कला एक ही स्कूल से सीख कर आते हैं. इस स्कूल में लड़कियों की एंट्री बंद थी. लोरी अपने इमरोज़ को रोज़ एक नए टूटे हुए दिल की दास्तान सुनाती और इमरोज़ अपनी पूरी पेशेंस के साथ सुनता. लोरी अब इमरोज़ से निशान मांगने लगी थी कि उसने लोरी की बात ठीक से सुनी कि नहीं. बातें सिंपल होती थीं कि जैसे अगर इमरोज़ को लगता है कि फलाना ने उस लड़के का प्रपोजल ठुकरा के ठीक किया तो कल सुबह जब लोरी उसके पास आएगी तो उसकी शाख पर एक तोता बैठा हुआ होना चाहिए. लोरी बहुत ख्याल रखती थी इमरोज़ का...कभी कोई उलटी सीधी माँग नहीं रख देती थी कि जैसे अगर उसकी बात सच है तो कल इमरोज़ की शाख पर फुलवारी चचा की भैंस चढ़ी हुयी मिले तब ही सबूत पर यकीन करेगी. इमरोज़ भी उसके सवालों के हिसाब से जवाब देता था. जैसे जैसे लोरी की उम्र बढ़ रही थी, उसकी खूबसूरती भी बढ़ती जा रही थी. ऐसे में इमरोज़ भी अक्सर उसे इश्क़ को बचाए रखने के लिए अपनी तरफ से कोशिशें कर लेता था. जब लोरी की सहेलियां उसे बहुत चिढ़ातीं तो लोरी को शक होने लगता कि उसकी और इमरोज़ की मुहब्बत सिर्फ उसके अपने दिमाग की उपज है. मगर फिर वो बायोलोजी की किताबें पढ़ती, कि जब जगदीश चन्द्र बोस ने कहा था कि पौधों में भी जान होती है. वो इमरोज़ की संगीत की समझ बचपन से विकसित कर रही थी. अब तो इमरोज़ जैज़ सुनकर झूमने ही लगता था. कभी कभी तो इमरोज़ तितलियों को अपनी ओर मिला लेता. उन दिनों लोरी को किसी न किसी कोटर में कभी फूल मिलते तो कभी कच्चे अमरुद और टिकोले. उसकी किसी सहेली के बॉयफ्रेंड को नहीं पता था कि लड़कियां चमकदार गोटे में लगी चीज़ें देख कर खुश भले हो जाएँ उनका दिल कच्ची अमिया और खट्टे अमरूदों में लगता है. ये बात इमरोज़ के सिवा किसी को मालूम ही नहीं होती थी. इमरोज़ किसी लड़के को ये सब बताता भी तो नहीं था.

लोरी के इमरोज़ की बराबरी किसी लड़के से हो ही नहीं सकती थी. यूं उसकी सारी सहेलियां भी अपने अपने महबूब को लेकर आसमान तक कल्पनाएँ करती थीं मगर लोरी की कविता की एक पंक्ति के आगे किसी की बात नहीं ठहरती थी. चाँद के साथ रोज खिड़की से झाँकने वाला महबूब किसी की किस्मत में कहाँ लिखा होता है. फिर इमरोज़ की जड़ें लोरी के घर में थी...वहां से उसे कौन निकाल सकता है. हर मुहब्बत की उम्र लेकिन आसमानों में तय होती है...और इमरोज़ कितना भी ऊंचा लगता हो लोरी की छोटी सी दुनिया में मगर खुदा के दरबार तक तो न उसकी कोई डाली पहुँचती थी न लोरी की कोई दुआ. घर वालों को जाने किस दिन लगा कि लोरी इमरोज़ के इश्क़ में कुछ ज्यादा ही दीवानी हो रही है. वे उसका नाम किसी गुमशुदा कॉलेज में लिखवा आये. दुनिया के दूसरे छोर पर खुले उस कॉलेज की जलवायु एकदम अलग थी. वहां शम्मी के पेड़ नहीं होते थे. लोरी गुलमोहर की नन्ही पत्तियां देखती और उसका नन्हा सा दिल दहकते गुलमोहरों की तरह जल उठता. बेरहम दुनिया ने इश्क़ के किसी रंग को कब समझा था जो लोरी की उदास आँखों और गीले खतों के कागज़ से जान जाए कि इमरोज़ को किसी दूसरे शहर भेजना कितना नामुमकिन है. 

ये वोही दिन थे जब लोरी चुप होती जा रही थी. उसके इर्द गिर्द शोर बढ़ता जा रहा था मगर उसका दिल उसकी आँखों की तरह शांत हो रहा था. ऐसी किसी चुप्पी शाम लोरी गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठी इमरोज़ को ख़त लिख रही थी कि सामने एक बेहद खूबसूरत लड़के को देख कर हड़बड़ा गयी. वो उसकी नोटबुक देख रहा था. उसने हरे रंग का हल्का कुरता पहन रखा था. लोरी के चेहरे पर अनायास मुस्कान आ गयी. ये वैसा ही रंग था जब बचपन में इमरोज़ को पानी देती थी तो शाम उतरते वो इतराने लगता था. मुहब्बत का रंग. शांत हरा. लड़के का नाम काफिया था. इस गुलमोहर के नीचे वो अक्सर सिगरेट पीने आता था. इधर कुछ दिन से चूँकि यहाँ लोरी स्केच किया करती थी वो कहीं और जा के कश मार लेता था. मगर जगहों की आदत भी लोगों से कम बुरी नहीं होती. पूरे दो हफ्ते तक लोरी रोज़ इसी गुलमोहर के नीचे इसी वक़्त दिखती थी. आज काफिया का दिल नहीं माना तो वो भी इधर ही चला आया. लोरी मुस्कुरा कर ख़त लिखती रही. काफिया अनमना सा सिगरेट फूंकता रहा. काफिया ने नोटिस किया कि जिस दिन वो हरे रंग का कुर्ता पहनता है लड़की के चेहरे पर मुस्कराहट खेलती रहती है. आखिर एक दिन उससे रहा नहीं गया तो उसने लोरी को टोक ही दिया...'मेरा नाम काफिया है, आपको हरा रंग बहुत पसंद है न?'...लोरी ने आँखें ऊपर उठायीं तो काफिया को लगा कि उसकी आँखें हरी हैं...सिर्फ इसलिए कि वो उसके रंग में रंग जाना चाहती है...लोरी ने कहा, 'मेरा नाम लोरी है'...'लेकिन लोरी में तो काफिया नहीं मिलता'...'जी?!'काफिया भी हड़बड़ा गया...जाने क्यूँ घबरा गया था वो...ऐसा कुछ कहने का इरादा तो नहीं था. पर उस दिन के बाद दोनों अक्सर बातें करने लगे थे. लोरी ने बहुत दिनों बाद किसी को पाया था जो उसकी बातें सिर्फ सुनता ही नहीं था, बल्कि वापस बातें भी करता था. हालाँकि लोरी ने कभी उसका हाथ नहीं पकड़ा था लेकिन उसकी ख्वाहिश होती थी कि वो जाने कि सिगरेट पीने से उँगलियाँ कैसी महकती हैं...इक रोज़ ऐसे ही गुलमोहर के नीचे पड़े सिगरेट के टुकड़े को लेकर सूंघ रही थी कि काफिया वहां आ गया. वो बुरी तरह झेंप गयी कि उसकी चोरी पकड़ी गयी थी.

लोरी ने अब तक अपनी ओर से बनायी हुयी दुनिया के रंग ही देखे थे. इमरोज़ का सारा इश्क़ उसके बनाए रंगों में घुलता था. ये सारे शुद्ध रंग होते थे. लाल. पीला. नीला. काफिया के साथ होने से रंगों में मिलावट होने लगी थी. एक दिन उसके लिए रजनीगंधा के फूल लेता आया तो शाम का रंग गुलाबी हो गया. एक दिन डार्क चोकलेट ले आया तो रातें नीली सियाह हो गयीं कि तारे और भी तेज़ चमकते महसूस होते थे और चाँद के किनारे इतने तीखे थे कि सपनों के कट जाने का डर लगता था. लोरी ने डर जाना नहीं था कि उसका दिल कभी टूटा नहीं था. मगर उसने कभी लौटती आवाज़ भी नहीं जानी थी. उसे मालूम नहीं था कि इश्क़ में किसी का एक नज़र भर देख लेना अपने पूरे वजूद को सुकून से भर लेना हो सकता है. इक रोज़ काफिया और लोरी ट्रेक करके पहाड़ों पर बर्फ की शूट पर गए थे. चाँद के स्वप्निल रंगों में सब जादू था. उसकी चुप्पी में बहुत सी जगह थी. मगर काफिया मिलना चाहता था...लोरी में बंधना चाहता था. काफिया की आवाज़ बहुत गहरी थी. रूह के किसी वाद्ययंत्र से निकलती. रात की ठंढ में कॉफ़ी का मग लोरी को देते हुए उसके कानों में गुनगुनाया...हवा की शरारत भरी सरगोशी के साथ. 'इश्क़. तुमसे. जानां.'लोरी ने पहली बार इस कदर ठंढ और थरथराहट महसूस की कि अचानक किसी की बाँहों में सिमटने को जी चाहा. उसे मालूम नहीं था किसी की बांहों में सिमटना क्या होता है मगर जब काफिया उसके इर्द गिर्द बंधा तो लोरी ने पहली बार खुद को मुकम्मल महसूस किया.

लोरी लौटी तो काफिया की हो चुकी थी. इक आवाज़ पर उसने अपनी जिंदगी के सारे पन्ने लिख दिए थे. जवाब देना कुछ लोगों के लिए कितना जरूरी हो जाता है. लोरी यूं हवा में घुल जाती और रह जाती यादों में सिर्फ एक प्रतिध्वनि की तरह और उसे अफ़सोस नहीं होता. मगर अब कोई था जो उसे हर लम्हा गुनगुनाता रहता था. हर बार अलग अलग सुर में, अलग अलग शब्दों में. शादी के बाद लोरी पेरिस चली गयी. अब उसे जगदीश चन्द्र बोस की किताबें पढ़ने वाला कोई नहीं मिलता था जो उसे कहे कि पेड़ों को भी अलविदा कहना चाहिए. शादी के एक दिन पहले रात को चुपचाप शम्मी के पेड़ के नीचे गयी. 'इमरोज़. अब कौन पुकारेगा तुम्हें इस नाम से...मेरी यादों में जैसे तुम गुम हो रहे हो...तुम्हारी यादों से वैसे ही मैं भी गुम हो जाउंगी न?'विदाई में सबके सीने लग के रोई और इमरोज़ की ओर बस एक नज़र भर देखा. इतने लोगों के सामने कैसे विदा कहती. उसका और इमरोज़ का रिश्ता तो बस उसकी दिल की धड़कनों तक था. इमरोज़ तक हवाएं उसकी महक बहुत दूर से तलाश कर लाती रहीं. कई बारिशों तक. मगर उस दिन के बाद लोरी ने इमरोज़ का नाम कभी नहीं लिया.
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इसके बहुत साल बाद कोई साल. 

हर माँ बेटे के अपने खेल होते हैं. सीक्रेट वाले. जो पूरे घर से छुपा कर खेले जाते हैं. धानी ने घर वालों के सामने एक ही शर्त रखी थी कि उसके लिए लड़का उसी शहर में ढूँढा जाये. वो अपने मायके के आसपास रहना चाहती है. यूं भी लोरी की शादी इतने सात समंदर पार हुयी थी कि घर वाले चाहते भी थे कि छोटी कमसे कम पास रहे. बेटियों के बिना घर सूना लगता है. धानी का दूल्हा बड़ा खूबसूरत बांका नौजवान था. शादी के साल होते ही घर में बेटे की किलकारियां गूंजने लगी. चूँकि उसका मायका इतना पास था तो रिवाज़ के हिसाब से धानी साल दो साल मायके में ही रहती थी. इन्ही दिनों उसके बेटे ने बोलना सीखा था. दोनों माँ बेटा गरमी की दुपहरों में पूरे घर से भाग कर शम्मी के पेड़ के नीचे चादर डाल कर पिकनिक मना रहे होते तो कभी झूला झूल रहे होते थे. तीखी गर्मियों में शम्मी का पेड़ पूरी तरह फ़ैल जाना चाहता कि धूप का कोई टुकड़ा उन्हें झुलसा न सके. धानी उन्हीं दिनों अपने बेटे को शब्द सिखा रही थी. 

शाम ढल आई थी...आम के बौर के मौसम थे...धानी झूले पर हल्के हल्के झूल रही थी और लाड़ में बेटे से पूछ रही थी, 'अच्छा, बताओ, मम्मा प्यारा बेटा को क्या बुलाती है जो कोई नहीं जानता?'फूल से खिलते उस बच्चे ने अपनी तोतली बोली में कहा 'इमलोज'...धानी उसे ठीक से समझा रही थी, 'इमलोज नहीं बेटा, फिर से बोलो...इम रो ज़'...बच्चा अपनी तुतलाहट को पूरे हिसाब से बाँध कर कहता है, 'इमरोज'. धानी खिलखिला उठती है. बेटे को गोदी में भर कर गोल गोल नाचती है और झूले में पींग दिए जाती है...ऊंची...ऊंची और ऊंची...

शम्मी के पेड़ की भाषा कोई नहीं जानता लोरी के सिवा. उसकी शाखों पर रोज़ तोतई रंगों का कोलाज होता है. उनकी सुर्ख लाल चोंच इश्क़ के रंग सी होती है. लाल. शम्मी की रुलाई को हरसिंगार थामे रहता है. जमीन के बहुत नीचे उनकी जड़ें आपस में गुंथ गयी हैं. जब इमरोज़ बहुत उदास होता है तो रात रात भर हरसिंगार के गले लग कर रोता है. अगली सुबह हरसिंगार के सफ़ेद फूलों की चादर बिछी होती है. लोग कहते हैं हरसिंगार के फूलों का मौसम साल में एक बार आता है. इमरोज़ को नहीं पता कि याद का मौसम कितने बार आता है. मगर जब भी धानी का नन्हा बेटा उसके इर्द गिर्द घूमता हुआ अपनी तोतली जुबान में कहता है, इमलोज, तो शम्मी के पेड़ के सारे पत्ते उड़ते उड़ते किसी दूर समंदर में गिर के मर जाना चाहते हैं...उस रात बेमौसम भी हरसिंगार के नीचे बहुत बहुत बहुत से फूल गिर जाते हैं...और कोई नहीं जानता कि याद का मौसम बेमौसम भी आता है. इश्क़ की तरह.

धीरे धीरे धानी का बेटा बड़ा हो रहा था. उसने बड़े प्यार से उसका नाम विधान रखा था. उसका घर और मायका इतना पास था कि अक्सर आती जाती रहती. लोग भूल ही गए थे कि शम्मी के उस पेड़ को कभी इमरोज़ कह कर पुकारता था कोई. कि लोरी ने उसका नाम इमरोज़ के नाम पर रखा था. धानी के बेटे ने उसे इमलोज क्या कहना शुरू किया पूरा घर उसे इमलोज कहने लगा. बात यहाँ तक हुयी कि विधान कोई बदमाशी करता तो लोग उसे 'इमलोज का बच्चा'कह कर मारने को दौड़ते. लेकिन वो नन्हा सा विधान अब उतना छोटा नहीं रहा था. भाग कर बिल्ली की तरह अपने इमलोज की घनी शाखों पर छुप जाता. यूं हर किसी को उसके कांटे चुभते मगर जाने विधान और इमलोज की ये कैसी यारी थी कि आज तक बच्चे को एक खरोंच तक नहीं आई थी. मुहब्बत के दिन थे कि जब लोरी का वापस लौटना हुआ. बिना किसी को बताये वो अचानक पहुँच गयी थी कि सबको सरप्राइज देगी. घर के गेट से अन्दर घुसी तो देखती है कि माँ, बाबा, बड़ी मम्मी सब लोग उसके इमरोज़ को घेर कर खड़े हैं और प्यार मनुहार से एक एक करके बात कर रहे हैं. ये क्या अजूबा हरकत है सोचती वो दरवाज़े पर ही खड़ी थी कि धानी साड़ी का लपेटा लिए उधर से आई 'इमलोज के बच्चे, नीचे उतर वरना तेरे साथ साथ तेरे इमलोज की भी डाली तोड़ दूँगी'. 'नहीं...मम्मी...सॉरी...सॉरी'...प्लीज इमलोज को कुछ मत करना', इसके साथ ही धम्म से कोई पांच साल का बच्चा नीचे कूदा और सीधे हरसिंगार की ओर भागता आया और लोरी के पीछे छुप गया. जहाँ लोरी को देख कर घर वाले ख़ुशी से पागल हो जाते...यहाँ सब ऐसे घबराए जैसे उसके पीछे उन्होंने लोरी की जमीन हड़प ली हो. 'वो दीदी, कुछ नहीं ये तुम्हारा विधान का किया धरा है...इसी ने तुम्हारे इमरोज़ का नाम बिगाड़ा है'. लोरी को शायद खुद से उतना सदमा नहीं लगता लेकिन धानी के सफाई देने से बरसों पुराना बचपन का किस्सा याद आ गया कि जब उसने इमरोज़ पर अपने नाम का पहला अक्षर खोद दिया था.
रात भर लोरी को नींद नहीं आई. पैर पटकती कमरे में चहलकदमी करती सोचती रही कि ऐसा कौन सा अकाट्य तर्क हो कि जिसके सामने लोग शम्मी के पेड़ को काटने को राजी हो जाएँ. प्रेम का अधिकार भाव जब अपनी पूरी तीक्ष्णता के साथ मुखर होता है तो उसमें किसी तरह की करुणा नहीं रहती. लोरी कोई रियायत नहीं बरतना चाहती थी. आखिर उसे एक ऐसा कारण मिल ही गया जिसके आगे सब हार जाते.
'मम्मा, मैं इस बार एक बहुत ख़ास काम से आई हूँ...लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा हो पायेगा'.
'अरे लोरी, ऐसा क्या हो गया...बता मुझे क्या मुश्किल है?'
'वो मम्मा, तुम तो जानती हो, शादी के सात साल होने को आये, कोई बाल बच्चा नहीं है. हम सब जगह दिखा के हार गए लेकिन डॉक्टर्स के हिसाब से कहीं कोई दिक्कत नहीं है. एक दिन पेरिस में एक बहुत पहुंचे हुए बाबा मिले. उन्हें मेरे बारे में सब पता था. ये भी कि घर में एक शम्मी का पेड़ है जिसका मैंने कोई नाम रखा है.'
'सच्ची. तब तो वाकई बहुत पहुंचे हुए बाबा थे...क्या कहा बाबा ने?'
'वो माँ...अब तो नहीं लगता है कि उनका कहा सच हो पायेगा. उन्होंने कहा है कि इसी शम्मी के पेड़ को काट कर उसके तने के भीतरतम हिस्से से एक लड्डू गोपाल की मूर्ति बनवा कर गंगा में विसर्जित करनी होगी. पेड़ शापित है. उसके कारण ही घर में संतान का अभाव है. अब तुम ही बताओ माँ, विधान और धानी के रहते कैसे पेड़ कटवा दूं मैं'
माँ आखिर माँ थी. इस वजह के आगे तो कोई तर्क वाजिब नहीं ठहरता. सबने निश्चय किया कि धानी और विधान को इस बारे में कुछ नहीं बताएँगे और जल्द से जल्द पेड़ कटवा देंगे ताकि लोरी वक़्त पर घर लौट सके और उसे टिकट पोस्टपोन नहीं करना पड़े. लोरी ने खुद से फोन करके बिजली से चलने वाली आरी का इन्तेजाम किया.

उधर धानी और विधान दोपहर को मीठी नींद सो रहे थे कि अचानक एक ही सपने से दोनों की आँख खुली और वे इमलोज को लेकर भयानक घबराहट में घिर गए. धानी ने एक सेकंड तो सोचा कि मन का वहम है मगर फिर कुछ था जो उसे तेजी से घर की ओर खींच रहा था. उसने मन को समझाया कि इसी बहाने लोरी से भी मुलाक़ात हो जायेगी. फटाफट तैयार होकर दोनों माँ बेटा चल दिए. घर की गली के मोड़ पर ही धानी का दिल आशंका से डोलने लगा. दरवाजे जैसे ही पहुंची वैसे ही इमलोज धराशायी हुआ. उसकी चीख इतनी गहरी थी कि इमलोज की जड़ें तक सिहर गयीं. लोरी का चेहरा सपाट चट्टान बना हुआ था जिसपर कुछ भी पढ़ना नामुमकिन था. इमलोज के सीने में दफ्न राज़ तो लेकिन और भी गहरे थे. हर पेड़ के तने में वर्तुल बने होते हैं जिससे पेड़ की उम्र पता चलती है. शम्मी के पेड़ के सबसे छोटे वलयों में स्पष्ट रूप से अंग्रेजी का L दिख रहा था. भीतरतम के वलय जो कि सबसे पुराने होते हैं. पेड़ के बचपन के. इसी अक्षर की अनुकृति थे मगर जैसे जैसे बाहरी वलय बन रहे थे, उनका कोण बदलता गया था और वो अंग्रेजी के V जैसे होते गए थे. विधान और लोरी दोनों ही चुप थे. शम्मी का पेड़ अपने दिल में इतने गहरे राज़ लिए जी रहा था कि उसके जीते जी किसी को नहीं मालूम चलता. ये कैसा इश्क़ था. ये कैसी चुप्पी थी.

उस साल के बाद हरसिंगार में कभी फूल नहीं आये. जाने क्यूँ धानी को ऐसा लगता था कि ये बात सिर्फ उसे मालूम है. घर में तो और किसी को अब ये भी याद नहीं कि कभी यहाँ एक शम्मी का पेड़ था...जिसका नाम था इमलोज.

खोये हुये लोग सपने में मिलते हैं

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कभी कभी सपने इतने सच से होते हैं कि जागने पर भी उनकी खुशबू उँगलियों से महसूस होती है.अभी भोर का सपना था. तुम और मैं कहीं से वापस लौट रहे हैं. साथ में एक दोस्त और है मगर उसकी सीट कहीं आगे पर है. ट्रेन का सफ़र है. कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे राजस्थान ट्रिप पर लगा था. ट्रेन की खिड़की से बाहर छोटे छोटे पेड़ और बालू दिख रही है. ट्रेन जोधपुर से गुजरती है. मालूम नहीं क्यूँ. मैंने यूं जोधपुर का स्टेशन देखा भी नहीं है और जोधपुर से होकर जाने वाली किसी जगह हमें नहीं जाना है. सपने में ऐसा लग रहा है कि ये सपना है. तुम्हारे साथ इतना वक़्त कभी मिल जाए ऐसा हो तो नहीं सकता किसी सच में. इतना जरूर है कि तुम्हारे साथ किसी ट्रेन के सफ़र पर जाने का मन बहुत है मेरा. मुझे याद नहीं है कि हम बातें क्या कर रहे हैं. मैंने सीट पर एक किताब रखी तो है लेकिन मेरा पढ़ने का मन जरा भी नहीं है. कम्पार्टमेंट लगभग खाली है. पूरी बोगी में मुश्किल से पांच लोग होंगे. और जनरल डिब्बा है तो खिड़की से हवा आ रही है. मुझे सिगरेट की तलब होती है. मैं पूछती हूँ तुमसे, सिगरेट होगी तुम्हारे पास? तुम्हारे पास क्लासिक अल्ट्रा माइल्ड्स है.  

तुम्हारे पास एक बहुत सुन्दर गुड़िया है. तुम कह रहे हो कि घर पर कोई छोटी बच्ची है उसके लिए तुमने ख़रीदा है. गुड़िया के बहुत लम्बे सुनहले बाल हैं और उसने राजकुमारियों वाली ड्रेस पहनी हुयी है. मगर हम अचानक देखते हैं कि उसकी ड्रेस में एक कट है. तुम बहुत दुखी होते हो. तुमने बड़े शौक़ से गुड़िया खरीदी थी. 

फिर कोई एक स्टेशन है. तुम जाने क्या करने उतरे हो कि ट्रेन खुल गयी है. मैं देखती हूँ तुम्हें और ट्रेन तेजी से आगे बढ़ती जाती है. मैं देखती हूँ कि गुड़िया ऊपर वाली बर्थ पर रह गयी है. मैं बहुत उदास हो कर अपनी दोस्त से कहती हूँ कि तुम्हारी गुड़िया छूट गयी है. गुड़िया का केप हटा हुआ है और वो वाकई अजीब लग रही है, लम्बी गर्दन और बेडौल हाथ पैरों वाली. हम ढूंढ कर उसका फटा हुआ केप उसे पहनाते हैं. वो ठीक ठाक दिखती है. 

दिल में तकलीफ होती है. मैंने अपना सफ़र कुछ देर और साथ समझा था. आगे एक रेलवे का फाटक है. कुछ लोग वहां से ट्रेन में चढ़े हैं. मेरी दोस्त मुझसे कहती है कि उसने तुम्हें ट्रेन पर देखा है. मैं तेजी पीछे की ओर के डिब्बों में जाती हूँ. तुम पीछे की एक सीट पर करवट सोये हो. तुम्हारा चेहरा पसीने में डूबा है. मैं तुमसे थोड़ा सा अलग हट कर बैठती हूँ और बहुत डरते हुए एक बार तुम्हारे बालों में उंगलियाँ फेरती हूँ और हल्के थपकी देती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हें बहुत सालों से जानती हूँ और हमने साथ में कई शहर देखे हैं.

तुम थोड़ी देर में उठते हो और कहते हो कि तुम किसी एक से ज्यादा देर बात नहीं कर सकते. बोर हो जाते हो. तुम क्लियर ये नहीं कहते कि मुझसे बोर हो गए हो मगर तुम आगे चले जाते हो. किसी और से बात करने. मैं देखती हूँ तुम्हें. दूर से. तुम किसी लड़के को कोई किस्सा सुना रहे हो. किसी गाँव के मास्टर साहब भी हैं बस में. वो बड़े खुश होकर तुमसे बात कर रहे हैं. अभी तक जो ट्रेन था, वो बस हो गयी है और अचानक से मेरे घर के सामने रुकी है. मैं बहुत दुखी होती हूँ. मेरा तुमसे पहले उतरने का हरगिज मन नहीं था. तुमसे गले लग कर विदा कहती हूँ. मम्मी भी बस में अन्दर आ जाती है. तुमसे मिलाती हूँ. दोस्त है मेरा. वो खुश होती है तुम्हें देख कर. तुम नीचे उतरते हो. मैं तुम्हें उत्साह से अपना घर दिखाती हूँ. देखो, वहां मैं बैठ कर पढ़ती हूँ. वो छत है. गुलमोहर का पेड़. तुम बहुत उत्साह से मेरा घर देखते हो. जैसे वाकई घर सच न होके कोई जादू हो. मैं अपने बचपन में हूँ. मेरी उम्र कोई बीस साल की है. तुम भी किसी कच्ची उम्र में हो. 
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कहते हैं कि सपने ब्लैक एंड वाइट में आते हैं. उनमें रंग नहीं होते. मगर मेरे सपने में बहुत से रंग थे. गुलमोहर का लाल. गुड़िया के बालों का सुनहरा. तुम्हारी शर्ट का कच्चा हरा, सेब के रंग का. बस तुम्हारा चेहरा याद नहीं आ रहा. लग रहा है किसी बहुत अपने के साथ थी मगर ठीक ठीक कौन ये याद नहीं. सपने में भी एक अजनबियत थी. इतना जरूर याद है कि वो बहुत खूबसूरत था. इतना कि भागते दृश्य में उसका चेहरा चस्पां हो रहा था. लम्बा सा था. मगर गोरा या सांवला ये याद नहीं है. आँखों के रंग में भी कन्फ्यूजन है. या तो एकदम सुनहली थीं या गहरी कालीं. जब जगी थी तब याद था. अब भूल रही हूँ. हाँ चमक याद है आँखों की. उनका गहरा सम्मोहन भी. 

सब खोये हुए लोग थे सपने में. माँ. वो दोस्त. और तुम. मुझे याद नहीं कि कौन. मगर ये मालूम है उस वक़्त भी कि जो भी था साथ में उसका होना किसी सपने में ही मुमकिन था. मैं अपने दोस्तों की फेरहिस्त में लोगों को अलग करना चाहती हूँ जो खूबसूरत और लम्बे हैं तो हँसी आ जाती है...कि मेरे दोस्तों में अधिकतर इसी कैटेगरी में आते हैं. रास्ता से भी कुछ मालूम करना मुश्किल है. जबसे राजस्थान गयी हूँ रेगिस्तान बहुत आता है सपने में. पहले समंदर ऐसे ही आता था. अक्सर. अब रेत आती है. रेत के धोरे पर की रेत. शांत. चमकीली. स्थिर. 

उँगलियों में जैसे खुशबू सी है...अब कहाँ शिनाख्त करायें कि सपने से एक खुशबू उँगलियों में चली आई है...सुनहली रेत की...

फरिश्ते सुनते भी हैं

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बच्चों के बारे मेंसुष्मिता ने पहली बार पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सोचा था. उसका लिव-इन पार्टनर एक दूसरी जाति से था और उसे मालूम था कि घर वाले कभी उनकी शादी के लिए नहीं मानेंगे. उसने शुरू से ही खुद को समझा रखा था कि उम्र भर के किसी बंधन की कसमें नहीं खायेंगे. इक रोज़ वे दोनों फोटो-जर्नलिज्म के एक प्रोजेक्ट के लिए कैमरा ले कर गरीबों की झुग्गी झोपड़ी में घूम रहे थे. एक बेहद नीची छत वाला एक कमरा था. उसमें एक बेहद छोटा सा टीवी फिट था. दो बच्चे नीचे जमीन पर पसरे हुए थे. एक साड़ी का झूला बनाया हुआ था जिसमें एक दुधमुंहां बच्चा किहुंक किहुंक के रो रहा था. उसकी आवाज़ से सबको दिक्कत हो रही थी. आखिर उसकी माँ ने उसे झूले से निकाला और एक झापड़ और मार दिया, 'क्या करें दीदी दूध उतरता ही नहीं हैं, पेट भरेगा नहीं तो रोयेगा नहीं तो क्या करेगा'. फिर अपने में दुःख के अपार बोझ से टूटती बच्चे को दूध पिलाने लगी. सुष्मिता ने चाहा उस लम्हे को कैप्चर कर ले मगर उस दुःख को हमेशा के लिए ठहरा देना इतना अमानवीय लगा कि उसकी हिम्मत ही नहीं हुयी. बाहर आई तो नावक अचरज से उसे देख रहा था. 'अच्छी जर्नलिस्ट बनोगी तो कभी कभी जरा बुरा इंसान भी बनना पड़ता है. दुःख की दवा करने के लिए उसकी तसवीरें कैद करनी जरूरी हैं बाबू'. फाके के दिन थे. बीड़ी के लिए पैसे जुट पाते थे बस. चाय की तलब लगी थी और सर दर्द से फटा जा रहा था. वहाँ से चलते चलते कोई आधे घंटे पर एक चाय की टपरी आई. एक कटिंग चाय बोल कर दोनों वहीं पत्थरों पर निढाल हो गए. 

सुष्मिता इस पूरे महीने के पैसे की खिचखिच से थक गयी थी, दूर आसमान में देखती हुयी बोली, 'इस वक़्त अगर फ़रिश्ते यहाँ से गुज़र रहे हों तो कोई जान पहचान का यहाँ मिल जाए और एक सिगरेट पिला दे मुझे. बस इतना ही चाहिए'. नावक ने कुछ नहीं कहा बस मुस्कुरा कर दूर के उसी बस स्टॉप पर आँखें गड़ा दीं जहाँ सुष्मिता की नज़र अटकी हुयी थी. चाय बनने के दरम्यान वहाँ एक स्कूल बस रुकी और फुदकते हुए बच्चे उसमें से उतरे. अपनी लाल रंग की स्कर्ट और सफ़ेद शर्ट में एकदम डॉल जैसी लग रही थी बच्चियां. बस गुजरी तो उन्होंने देखा उनकी कॉलेज की एक प्रोफ़ेसर भी वहां से अपनी बेटी की ऊँगली थाम सड़क क्रॉस कर रही हैं. सड़क के इस पार आते हुए उन्होंने दोनों को देखा और चाय पीने रुक गयीं. अपने लिए एक डिब्बा सिगरेट भी ख़रीदा और सुष्मिता को ऑफर किया. उसने जरा झिझकते हुए दो सिगरेटें निकाल लीं. जैसे ही मैडम अपनी बेटी को लेकर वहां से गयीं सुष्मिता जैसे जन्मों के सुख में डूब उतराने लगी. सिगरेट का पहला गहरा कश था और उसकी आँखें किसी परमानंद में डूब गयीं. नावक लाड़ में बोला, 'सुम्मी...कुछ और ही माँग लिया होता...'. 'लालच नहीं करते नावक. इस जिंदगी में एक सिगरेट मिल जाए बहुत बड़ी बात होती है. तुम्हें माँगना होता तो क्या मांगते?'. नावक के चहरे पर एक बहुत कोमल मुस्कान उगने लगी थी. वो अभी तक मैडम के जाने की दिशा में देख रहा था. उनकी बेटी की पोनीटेल हिलती दिख रही थी. बच्ची काफी खुश थी और उसकी आवाज़ की किलकारी सुनाई पड़ रही थी. 'अगर वाकई फ़रिश्ते होंगे अभी तक अटके हुए...तो सुम्मी, मुझे तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए. एकदम तुम्हारे जैसी. यही बदमाश आँखें. यही बिगड़ी हुयी लड़कियों वाले तेवर और अपने पापा की इतनी ही दुलारी'. सुम्मी ने पहली बार अपना औरत होना महसूस किया था. शादी की नहीं, बच्चों की ख्वाहिश मन में किसी बेल सी उगती महसूस की थी. शादी की नहीं, बच्चों की ख्वाहिश मन में किसी बेल सी उगती महसूस की थी. फीकी हँसी में बोली, 'ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर'.

सिगरेट ख़त्म हो गयी थी. उन्होंने तय किया कि यहाँ से कमरे तक पैदल चला जाए और बचे हुए पैसों से आज रात चिकन बिरयानी खायी जाए. सुम्मी को ऐसी गरीबी बहुत चुभती थी. खास तौर से वे दिन जब कि सिगरेट के लिए पैसे नहीं बचते थे. उसे नावक का बीड़ी पीना एकदम पसंद नहीं था. कैसी तो गंध आती थी उससे उन दिनों. गंध तो फिर भी बर्दाश्त कर ली जाती मगर उस छोटे कमरे में बीड़ी की बची हुयी टोटियों को ढूंढते हुए नावक पर वहशत सवार हो जाती. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता कि यही नावक अच्छे खाते पीते घराने का है और पटना के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज से समाजशास्त्र में पी एच डी कर रहा है. उन दिनों वह कोई गरीब रिक्शा चलाने वाले से भी बदतर हो जाता था और सुम्मी से ऐसे पेश आता जैसे नावक उसका रेगुलर ग्राहक हो और सुम्मी बदनाम गलियों की सबसे नामी वेश्या. नावक को उसके शरीर से कोई लगाव नहीं होता. गालियों से उसकी रूह छिल छिल जाती. कौन सोच सकता था कि नावक जैसा लड़का सिर्फ बीड़ी पीने के बाद 'रंडी, बिस्तर, ग्राहक, दल्ला'जैसे शब्द इस चिकनी अदा के साथ बोलेगा कि रंगमंच की रोशनियाँ शरमा जाएँ. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता था कि ऐसी भाषा नावक ने थियेटर करते हुए सीखी है या वाकई गुमनाम रेड लाइट एरिया जाता रहा है. उन रातों में 'मेक लव'जैसा कुछ नहीं होता. वे जानवरों की तरह प्रेम करते. सुम्मी को डेल्टा ऑफ़ वीनस याद आता. अनाईस निन की कहानियों के पहले का हिस्सा जब कि रईस व्यक्ति कि जो हर कहानी के सौ डॉलर दे रहा है, फीडबैक में बस इतना ही कहता, 'cut the poetry'. निन ने उन दिनों के बहुत से कवियों को जुटाया कि पैसों की जरूरत सभी को थी...उन दिनों के बारे में वह लिखती है, 'we had violent explosions of poetry.''हममें कविता हिंसक तरीके से विस्फोटित होती थी.'मुझे रात की तीखी कटती हुयी परतों में किताब की सतरें याद आयीं. दुनिया में कुछ भी पहली बार घटित नहीं हो रहा है. हम वो पहले लोग नहीं होंगे जिन्होंने प्रेम के बिना यह हिंसा एक दूसरे के साथ की है. आज की शाम तो वैसे भी ख़ास थी.नावक की एक ईमानदार ख्वाहिश ने सुम्मी को अन्दर तक छील दिया था. उस रात मगर वही हुआ जो हर उस रात को होता था जब महीने के आखिरी दिन होते थे और बीड़ी, सिगरेट सब ख़त्म हुआ करती थी. इस हिंसा में शायद सुम्मी के मन में दुनिया की सबसे पुरातन इच्छा ने जन्म लिया. जन्म देने की इच्छा ने. 

अगले दिन किसी मैगजीन में छपे नावक के पेपर का मेहनताना आ गया तो सब कुछ नार्मल हो गया. सुम्मी भूल भी गयी कि उसने कोई दीवानी ख्वाहिश पाल रखी है मन में कहीं. ये सेमेस्टर कॉलेज में सबसे व्यस्त सेमेस्टर होता भी था. कुछ यूं हुआ कि डेट निकल गयी और सुम्मी को ध्यान भी नहीं रहा कि गिनी हुयी तारीखों में आने वाले पीरियड्स लेट कैसे हो गए. क्लास में जब उसकी बेस्ट फ्रेंड ने फुसफुसा के पूछा, 'सुम्मी, पैड है तेरे पास?'तो सुम्मी जैसे अचानक से आसमान से गिरी. उसके और शाइना के डेट्स हमेशा एक साथ आते थे. तारीख आज से चार दिन पहले की थी. कुछ देर तो उसका दिमाग ब्लैंक हो गया. क्लास का एक भी शब्द उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था. जैसे ही क्लास ख़त्म हुयी भागती हुयी बाहर आई और बैग से सिगरेट का पैकेट निकाला. आज ही नावक के पैसों से नया डिब्बा खरीदा था. सिगरेट निकालने को ही हुयी कि उसपर लिखी वार्निंग पर नजर पड़ गयी. 'smoking when pregnant harms your baby'आज ही इस पैकेट पर ये वार्निंग लिखी होनी थी. सुम्मी ने खुद को थोड़ी देर समझाने की कोशिश की कि कौन सा इस बच्चे को जन्म दे पाएगी...क्या फर्क पड़ेगा अगर एक आध कश मार भी लेती है. मगर फिर ख्यालों ने उड़ान भरनी शुरू की तो सारा कुछ सोचती चली गयी. उसे सिर्फ एक अच्छी नौकरी का इन्तेजाम करना है. जो कि अगले एक महीने में उसे मिल जायेगी. अपनी सहेलियों के साथ दिल्ली में कमरा लेने का उसका प्रोग्राम पहले से सेट था. ये ऐसी सहेलियां थीं जिनसे किसी चीज़ के लिए कभी आग्रह नहीं करना पड़ा था. चारों मिल कर आपस में एक बच्चा तो पाल ही लेंगी तीनेक साल तक. उसके बाद तो स्कूल शुरू हो जाएगा. फिर तो किसी को दिक्कत नहीं होगी. सुम्मी को वैसे भी कॉलेज में ही लेक्चरर बनने का शौक़ था. उसका मन दो भागों में बंट गया था. सारे तर्क उसे कह रहे थे कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता. हिंदुस्तान में आज भी बिन ब्याही माँ के बच्चे इतनी आराम से नहीं पल सकते जितना कि वह सोच रही है. उसे ये भी मालूम था कि घर में लड़का देखना शुरू कर चुके हैं लोग. मगर कुछ शहर ऐसे होते हैं जिनकी सीमा में घुसते ही पुरानी रूढ़ियाँ पीछे रह जाती हैं. पटना ऐसी ही असीमित संभावनाओं का शहर था उसके लिए. यहाँ कुछ भी मुमकिन था. दिलेर तो वह थी ही, वर्ना आज भी पटना में कितनी लड़कियां लिव-इन में रह रही थीं. कल्पना के पंखों पर उड़ती उड़ती वह बहुत दूर पहुँच गयी थी. बच्चों के नाम सोचने शुरू किये. लड़के के, लड़कियों के. दोनों. कमरे के परदे. प्रेगनेंसी के समय क्या पहनेगी वगैरह वगैरह. ख्याल में डूबे हुए कब केमिस्ट की दुकान तक पहुँच गयी उसे पता ही नहीं चला. टेस्ट किट मांगते हुए उसका चेहरा किसी नव विवाहिता सा खिला हुआ था. न तो उसके चेहरे पर, न तो उसकी आत्मा में कोई अपराध बोध जगा था. कमरे पर आई तो सीधे बाथरूम न जा कर किताब खोल ली. किताब भी कौन सी, मित्रो मरजानी. हाँ...बेटी हुयी तो नाम रखेगी मित्रो...और बेटा हुआ तो...बहुत सोच के ध्यान आया कि नावक से शादी थोड़े करनी है...तो बेटे का नाम नावक रख सकती है. 

रात के आते आते सुम्मी ने अनगिन चाय के कप खाली कर के रख दिए थे. उसे अब भी समझ नहीं आ रहा था कि नावक को बताये या नहीं. आखिर दुआ तो उसकी क़ुबूल हुयी थी. बतानी तो चाहिए. उसने सोचा कि उसे आने देती है. उसके सामने ही टेस्ट करेगी और फिर दोनों एक ही साथ कन्फर्म करेंगी अपनी जिंदगी के सबसे खुशहाल दिन को. पर वो क्या कह के बताएगी...एक गुड न्यूज़ है या कि एक गड़बड़ हो गयी है. फिर अचानक से आये एक ख्याल से डर गयी. नावक को कृष्णा सोबती फूटी आँख नहीं सुहाती थी. वो उसे अपनी बेटी का नाम मित्रो तो हरगिज़ नहीं रखने देगा चाहे वो कितना भी लड़ झगड़ ले. उसके लौटने में अभी वक़्त था. सुम्मी ने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उनपर नाम लिखने लगी. कोई पांच टुकड़े थे जिनपर एक ही नाम लिखा था 'मित्रो'. उसने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उन्हें ठीक से मोड़ कर छोटी सी कटोरी में रख दिया. कि नावक जब आएगा तो उसे एक पुर्जा चुन लेने को कहूँगी. अपनी बेईमानी पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा. ये तो दुनिया की सबसे पुरानी टेक्नीक है. फिर कलयुग है भई. कोई रात के दस बजे नावक कमरे पर आया. कमरा इस वक़्त हमेशा धुएं की गंध से भरा हुआ होता था, ऐशट्रे में अम्बार लगा होता था और सुम्मी किसी कोने में पढ़ रही होती थी. मगर आज कुछ बात और थी. कमरे में चावल की हलकी गंध आ रही थी. तो क्या सुम्मी ने खाना बनाया है. लड़की पागल हो गयी है क्या. एक आध कैंडल्स भी जल रहे थे. कमाल रूमानी माहौल था. 'पैसे आ जाने से इतनी रौनक. भाई कमाल हो सुम्मी. पहले पता होता तो दो चार और पेपर्स भेज दिया करता वक़्त पर छपने के लिए'. सुम्मी बाहर आई तो लाज की हलकी लाली थी उसके चेहरे पर. उसने बिना कुछ कहे टेस्ट किट दिखाया और बाथरूम में घुस गयी. पांच मिनट. दस मिनट. आधा घंटा. जब कोई हरकत नहीं हुयी तो नावक ने दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया. दस मिनट खटखटाने के बाद सुम्मी ने दरवाज़ा खोला. बाथरूम से उसकी परछाई बाहर निकली. नावक ने उसे उस तरह टूटा हुआ कभी नहीं देखा था. घबराये हुए उसके चेहरे को हाथों में भरा. सुम्मी ने टूटे शब्दों के बीच बताया कि उसे दिन भर धोखा हुआ कि वो प्रेग्नेंट है. पूरा पूरा दिन नावक. सच्ची. देखो. मुझे लगता रहा कि मेरे अन्दर कोई सांस ले रहा है. मैंने इसलिए सिगरेट भी नहीं पी. एक भी सिगरेट नहीं. ये सब मेरा भरम था. मगर कितना सच था. मुझे लगा फरिश्तों ने तुम्हारी बात भी सुन ली है. उस रात किसी ने खाना नहीं खाया. पूरी रात सिगरेट फूंकते बीती. सुम्मी और नावक के बीच कुछ उसी मासूम सी रात को टूट गया था. शहर छोड़ना तो बस एक फॉर्मेलिटी थी. नावक जानता था कि इस रिश्ते के लिए आगे लड़ने का हासिल कुछ नहीं है. दोनों बहुत प्रैक्टिकल लोग थे. अलविदा के नियम कायदे में बंधते हुए एक दूसरे को हँस कर विदा किया. 
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सुम्मी को अब सुम्मी कहने की हिम्मत किसी की नहीं होती.उम्र पैंतीस साल मगर आँखों में अब भी एक अल्हड़ लड़की सी चमक रहती है. वो मिसेज सुष्मिता सरकार हैं. शहर के डिप्टी मेयर की वाइफ और मुंगेर के जिला विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की प्रमुख. उनसे छोटे उन्हें सम्मान से देखते और उनके साथ वाले इर्ष्या से. उनके ड्रेसिंग सेन्स से शहर को फैशन की समझ आती. चाहे सरस्वती शिशु मंदिर का वार्षिक समारोह हो या कि किसी गाँव में नयी लाइब्रेरी का उद्घाटन, उसकी शख्सियत उसे सबसे अलग करती थी. भीड़ में गुम हो जाने वाला न उसका चेहरा था न उसका व्यक्तित्व.  

शादी के दस साल होने को आये थे और उसकी उम्र जैसे ठहर गयी थी. 

सहेलियां चुहल करतीं कि तुझे किस चीज़ की कमी है. पति है, परिवार है, समाज में नाम है. चाहिए ही क्या. वाकई मिसेज सरकार के पास वो सब कुछ था जिसके सपने देखती लड़कियां बड़ी होती हैं. मगर मिसेज सरकार की आँखों के पीछे ही सुम्मी रहती थी. अपने भूले हुए नाम की आवाज़ में. 

उसकी कोख जनती है नाजायज चिट्ठियां और अनाथ किरदार. वो चाहती है कि एक जरा सा सौंप सके खुद के जने बच्चे को. आँख का नीला रंग. ठुड्डी के डिम्पल. अपना लम्बा ऊंचा कद. दिनकर के प्रति अपनी दीवानगी. या कि अपना ठहरा हुआ निश्चल स्वाभाव ही. 

अभी तक उसे लगता था कि उसके अन्दर का खालीपन रूह का खालीपन है...मन का टूटा हिस्सा होना है. वो इसे भरती रहती थी लोगों से. गीतों से, कविताओं से और रंगों से. वो इन्द्रधनुष से रंग मांगती और रेशमा से उसकी आवाज़ की हूक...रेगिस्तान से उसकी प्यास तो समंदर से उसकी बेचैनी. मगर उसके अन्दर का खालीपन भरता नहीं. उसका चीज़ों को हिसाब से रखने से दिल भर जाता. अपने करीने से सजाये घर में उसे घुटन होने लगती. वो चाहती कि कोई आये और पूरा घर बिखेर डाले. उसे शिकायतें करने का दिल करता था. दुखती देह और बिना नींद वाली रातों का. वो चीज़ों को बेतरतीबी से रखती. कपड़े. किताबें. जूते. या कि लोग ही. सब कुछ बिखरा बिखरा रहता लेकिन उसकी जिंदगी का एक कोरा कोना भी नहीं भरता इन चीज़ों से. 

उसने जाना कि वह डरने लगी है.नवजात शिशुओं से. गर्भवती महिलाओं से. उन रिश्तेदारों से जो हमेशा उसके बढ़े हुए पेट को देख कर पूछतीं कि कोई खुशखबरी है क्या. वो चाहती कि खूब सारा एक्सरसाइज करके एकदम साइज ज़ीरो हो जाए ताकि किसी को ग़लतफ़हमी न हो. उसे डर लगता था अपने जीवन में होने वाली किसी भी अच्छी घटना से...क्यूंकि किसी को भी बताओ कि कोई अच्छी खबर है तो उसे सीधे उसके प्रेग्नेंट होने से जोड़ लिया जाता था...और उस खुशखबरी के सामने दुनिया के सारे सुख छोटे पड़ते.

बचपन के रिपोर्ट कार्ड में कभी लाल निशान नहीं लगा.इसलिए उसे मालूम नहीं था कि पूरी तैय्यारी करने के बावजूद जिंदगी के रिपोर्ट कार्ड में कभी कभी लाल निशान लग जाते हैं. स्कूल और कॉलेज के एक्जाम साल में दो बार होते थे. मगर यहाँ हर महीने एक एक्जाम होता था और गहरे लाल निशान लगते थे. खून की नमक वाली गंध उसे पूरे हफ्ते अस्पतालों की याद दिलाती रहती. टीबी वार्ड हुआ करता था उन दिनों. वो किससे मिलने जाती थी जामताड़ा के उस अस्पताल में? कोई मेंटल असायलम था. उसकी दूर के रिश्ते की एक मामी वहां एडमिट थी. उन्हें खुद की नसें काटने से रोकने के लिए अक्सर बेड से बाँध कर रखा जाता था. बाथरूम तक जाने के लिए नर्स आ कर भले उनके बंधन खोल देती थी लेकिन उसके अलावा सारे वक़्त उनके हाथ पैर बिस्तर से बंधे रहते थे. उस बिस्तर पर एक बहुत पुरानी घिसी हुयी फीकी गुलाबी रंग की चादर थी जिसपर किसी जमाने में नीले रंग के फूल बने होंगे. चादर पर वो खून के धब्बे देखती थी. कभी ताजा तो कभी कुछ दिन के सूखे हुए. जिस दीदी के साथ वहाँ जाती वो अक्सर उन दागों को धोने की कोशिश करती. मगर कॉटन की चादर थी. ज्यादा रगड़ने से फट जाती. मामी के बाल महीने में बस एक ही दिन धुलाये जाते. उस दिन के पहले वो रटती रहतीं कि 'तुम अशुद्ध हो'. वर्तमान में खून की गंध के साथ हमेशा उस हस्पताल की गंध और कॉटन की पुरानी चादर का रूखापन साथ चला आता था. मामी के मरने पर वो अंतिम क्रिया के पहले पहुँच नहीं सकी थी. जिन लोगों को हम आखिरी बार नहीं मिल पाते, न उनका पार्थिव शरीर देखते हैं, उनके चले जाने का यकीन कचपक्का सा होता है. 

खून की पहली पहचान उसे मामी के बिस्तर से हुयी थी. बचपन में उसे किसी ने बताया नहीं कि मामी को ऐसा कोई ज़ख्म नहीं है. वो जब भी वो लाल कत्थई निशान देखती तो डॉक्टरों को ज्यादा खूंख्वार होके घूरती. उसे पूरा यकीन था कि डॉक्टर्स उनके ऐसे ज़ख्मों की दवा नहीं कर रहे जो उन्हें सामने नहीं दिखते. उसका डॉक्टर्स के प्रति हलकी घृणा भी उन दिनों की देन थी. उसे अंग्रेजी दवाइयों पर यकीन ही नहीं होता. न रिसर्च पर. और उसे पक्का यकीन भी था कि अगर दवाई में भरोसा नहीं है तो उसकी इच्छाशक्ति के बगैर कोई भी दवा उसे ठीक नहीं कर सकती है. बढ़ती उम्र के इस पड़ाव पर जबकि मेनोपौज कुछ ही दिन दूर था उसे हर गुज़रता महीना एक स्टॉपवॉच की तरह उलटी गिनती करता हुआ दिखता. इन दिनों वह एग्स फ्रीज करने के बारे में भी सोचने लगी थी. नींद में उसे बाबाओं के सपने आते. जाग में उसे इश्वर का ख्याल. मगर हर महीने एक कमबख्त तारीख होती. उसका खौफ इस कदर था कि कैलेण्डर की तारीख से उठ कर उसकी नफरत उस संख्या के प्रति आ गयी. जिस महीने उसके पीरियड्स ७ तारिख को आते, उस पूरे महीने उसके लिए ७ नंबर बेहद मनहूस रहता. इसी नंबर वाली सड़क पर उसका एक्सीडेंट होता. और उन्हीं दिनों जब कि उसे इश्वर की सबसे ज्यादा जरूरत होती थी उसका धर्म उससे सिर्फ उसके देवता ही नहीं उसका मंदिर भी उससे छीन लेता. वो शिवलिंग पर सर रख कर रोना चाहती मगर फिर बहुत साल पहले मामी का अस्पताल बेड पर का बड़बड़ाना याद आ जाता. अशुद्ध हो तुम. अशुद्ध. मुझे मत छुओ. घर जा कर नहा लेना. तीखी गंध उसकी उँगलियों के पोर पोर जलाती. 

उसकी याद में वो कॉलेज का एक दिन आता कि जब उसने महसूस किया था कि माँ बनना क्या होता है.भले ही वो छलावा था मगर कमसे कम जिंदगी में एक ऐसा दिन था तो सही. पिछले हफ्ते भर से ब्लीडिंग रुक ही नहीं रही थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे बदन का सारा खून निचुड़ कर बह जाएगा. डॉक्टर के यहाँ जाने लायक ताकत भी नहीं बची थी. डॉक्टर शर्मा को घर बुलाया गया. बड़ी खुशमिजाज महिला थीं. सुम्मी के खास दोस्तों में से एक. कुछ टेस्ट्स लिखाए और थोड़ी देर गप्पें मारती रहीं. इधर उधर की बातों में दिल लगाये रखा. इसके ठीक तीन दिन बाद उनका फिर आना हुआ, इस बार सारी टेस्ट रिपोर्ट्स साथ में थीं. उससे बात करने के पहले मिस्टर सरकार से आधे घंटे तक बातें कीं. सुम्मी के लिए वे उसकी पसंद का गाजर का हलवा लेकर आई थीं. आज फिर उन्होंने बीमारी की कोई बात नहीं की. उनके जाने के बाद अनंग कमरे में आये थे. उनके चेहरे पर खालीपन था. एक लम्बी लड़ाई के बाद का खालीपन. 'सुम्मी, यूट्रस में इन्फेक्शन है. ओपरेट करके निकालना पड़ेगा. कोई टेंशन की बात नहीं है. छोटा सा ओपरेशन होता है.'कहते कहते उनकी आँखें भर आयीं थीं. देर रात तक दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोते रहे. सुबह कठिन फैसले लेकर आई थी. हॉस्पिटल की भागदौड़ शुरू हो गयी. इसके बाद का कुछ भी सुम्मी को ठीक से याद नहीं. रिश्तेदार. दोस्त. कलीग्स. सब मिलने आते रहे. देखते देखते महीना बीत गया और उसकी हालत में बहुत सुधार हो गया. इस ओपरेशन ने सुम्मी में बहुत कुछ बदल दिया. वो जिंदगी में पागलपन की हद तक चीज़ों को अपने कण्ट्रोल में रखती थी. घर के परदे. घर का डस्टर. गार्डन के फूल. सब कुछ उसकी मर्ज़ी से होता था. मगर अब सुम्मी ने खुद को अनंग के भरोसे छोड़ दिया था. जिसने जीवनभर साथ निभाने का वचन दिया है, कुछ उसका हक भी है और उसकी जिम्मेदारी भी. सुम्मी को आश्चर्य होता था कि उसके ठीक रहते अनंग ने कभी खुद से एक ग्लास पानी तक नहीं पिया मगर उसकी बीमारी में हर घड़ी यूं साथ रहे कि जैसे खुद के बच्चे भी शायद नहीं कर पाते. 

ऐसे ही किसी एक दिन अनंग उसके लिए एक गहरी नीले रंग की साड़ी लेकर आये कि तैयार हो जाओ, हमें बाहर जाना है. सुम्मी का मन नहीं था लेकिन उनकी ख़ुशी देखते हुए तैयार हो गयी. कोई सात आठ घंटे का सफ़र था. सुम्मी को नींद आ गयी. नींद खुली तो एक अनाथ आश्रम सामने था. अनंग ने कुछ नहीं कहा. वे अपने रिश्ते में ऐसी जगह पहुँच भी गए थे जब कहना सिर्फ शब्दों से नहीं होता. आश्रम में अन्दर घुसते ही एक छोटा सा तीर आ कर सुम्मी की साड़ी में उलझ गया. सामने एक तीन साल का बच्चा था. धनुष लिए दौड़ता आया. सुम्मी घुटनों के बल बैठ गयी, साड़ी के पल्लू से तीर निकालते हुए वो और अनंग साथ में बुदबुदाए, 'ज्यों नावक के तीर, दिखने में छोटे लगें, घाव करें गंभीर'. सारी फॉर्मेलिटी पूरी कर के वे बाहर आये. अनाथ आश्रम की हेड ने बच्चे का हाथ सुम्मी के हाथ में दिया और बच्चे से बोली, 'आज से ये आपकी मम्मी हैं'. सुम्मी का दिल भर आया था. आँखें भी. उसने उसका नन्हा ललाट चूमते हुए कहा, तुम्हारा एक ही नाम हो सकता है...नावक. 

घर लौटते हुए बहुत देर हो गयी थी. नावक सो गया था. सुम्मी आँगन में चाँद की रौशनी को देख रही थी कि अनंग पीछे से आये और उसे बाँहों में भर लिया. 'आँखें बंद करो और हथेली फैलाओ'. 'अनंग, आज मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए'मगर उसने आँखें बंद कर हथेली खोल दी. अब खोलो आँखें. चाँद रात में उसके चेहरे पर सुनहले धूप सा नूर फ़ैल गया. उसकी हथेली पर एक पैकेट सिगरेट और माचिस रखी थी. उसने सिगरेट का गहरा कश लिया और आसमान की ओर देखा. आह री लड़की. कुछ और ही माँग लिया होता और...मगर आज शायद अनंग की बारी थी मांगने की, 'तुम देखना...तुम्हारी बेटी होगी...बिलकुल तुम्हारे जैसी'.

और उस दिन फ़रिश्ते वाकई सुन रहे थे. डॉक्टर्स भी आश्चर्यचकित थे कि ऐसा कैसे हुआ. सुम्मी अनंग की गोद में अपनी बेटी को देख कर सुख में डूब रही थी कि अनंग ने कहा, इसका नाम मेरी पसंद से रखेंगे, 'मित्रो'. 

जादूगर, जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी

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वे तुम्हारे आने के दिन नहीं थे. मौसम उदास, फीका, बेरंग था. शाम को आसमान में बमुश्किल दो तीन रंग होते थे. हवा में वीतराग घुला था. चाय में चीनी कम होती थी. जिन्दगी में मिठास भी.

फिर एक शाम अचानक मौसम कातिल हो उठा. मीठी ठंढ और हवा में घुलती अफीम. सिहरन में जरा सा साड़ी का आँचल लहरा रहा था. कांधे पर बाल खोल दिये मैंने. सिगरेट निकाल कर लाइटर जलाया. उसकी लौ में तुम्हारी आँखें नजर आयीं. होठों पर जलते धुयें ने कहा कि तुमने भी अपनी सिगरेट इसी समय जलायी है. 

ये वैसी चीज थी जिसे किसी तर्क से समझाया नहीं जा सकता था. जिस दूसरी दुनिया के हम दोनों बाशिंदे हैं वहाँ से आया था कासिद. कान में फुसफुसा कर कह रहा था, जानेमन, तुम्हारे सरकार आने वाले हैं. 

'सरकार'. बस, दिल के खुश रखने को हुज़ूर, वरना तो हमारे दिल पर आपकी तानाशाही चलती है. 

खुदा की मेहर है सरकार, कि जो कासिद भेज देता है आपके आने की खबर ले कर. वरना तो क्या खुदा ना खास्ता किसी रोज़ अचानक आपको अपने शहर में देख लिया तो सदमे से मर ही जायेंगे हम. 

जब से आपके शहर ने समंदर किनारे डेरा डाला है मेरे शब्दों में नमक घुला रहता है. प्यास भी लगती है तीखी. याद भी नहीं आखिरी बार विस्की कब पी थी मैंने. आजकल सरकार, मुझे नमक पानी से नशा चढ़ रहा है. बालों से रेत गिरती है. नींद में गूंजता है शंखनाद. 

दूर जा रही हूँ. धरती के दूसरे छोर पर. वहाँ से याद भी करूंगी आपको तो मेरा जिद्दी और आलसी कासिद आप तक कोई खत ले कर नहीं जायेगा.

जाने कैसा है आपसे मिलना सरकार. हर अलविदा में आखिर अलविदा का स्वाद आता है. ये कैसा इंतज़ार है. कैसी टीस. गुरूर टूट गया है इस बार सारा का सारा. मिट्टी हुआ है पूरा वजूद. जरा सा कोई कुम्हार हाथ लगा दे. चाक पे धर दे कलेजा और आप के लिये इक प्याला बना दे. जला दे आग में. कि रूह को करार आये. 

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किसी अनजान भाषा का गीत
रूह की पोर पोर से फूटता
तुम्हारा प्रेम
नि:शब्द.

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वो
तुम्हारी आवाज़ में डुबोती अपनी रूह 
और पूरे शहर की सड़कों को रंगती रहती 
तुम्हारे नाम से
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तर्क से परे सिर्फ दो चीज़ें हैं. प्रेम और कला. 
जिस बिंदु पर ये मिलते हैं, वो वहाँ मिला था मुझे. 
मुझे मालूम नहीं कि. क्यों.

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उसने जाना कि प्रेम की गवाही सिर्फ़ हृदय देता है। वो भी प्रेमी का हृदय नहीं। उसका स्वयं का हृदय।
वह इसी दुःख से भरी भरी रहती थी।
इस बार उसने नहीं पूछा प्रेम के बारे में। क्यूंकि उसके अंदर एक बारामासी नदी जन्म ले चुकी थी। इस नदी का नाम प्रेम था। इसका उद्गम उसकी आत्मा थी।

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उसने कभी समंदर चखा नहीं था मगर जब भी उसकी भीगी, खारी आँखें चूमता उसके होठों पर बहुत सा नमक रह जाता और उसे लगता कि वो समंदर में डूब रहा है।

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तुम जानती हो, उसके बालों से नदी की ख़ुशबू आती थी। एक नदी जो भरे भरे काले बादलों के बीच बहती हो।

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तुम मेरी मुकम्मल प्यास हो.

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नमक की फितरत है कच्चे रंग को पक्का कर देता है. रंगरेज़ ने रंगी है चूनर...गहरे लाल रंग में...उसकी हौद में अभी पक्का हो रहा है मेरी चूनर का रंग...
और यूं ही आँखों के नमक में पक्का हो रहा है मेरा कच्चा इश्क़ रंग...
फिर न पूछना आँसुओं का सबब.

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प्यास की स्याही से लिखना
उदास मन के कोरे खत
और भेज देना 
उस एक जादूगर के पास
जिसके पास हुनर है उन्हें पढ़ने का
जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी

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वो मर कर मेरे अन्दर
अपनी आखिर नींद में सोया है
मैं अपने इश्वर की समाधि हूँ.

***
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***

मैं तुम्हारे नाम रातें लिख देना चाहती हूँ 
ठंडी और सीले एकांत की रातें 
नमक पानी की चिपचिपाहट लिए 
बदन को छूने की जुगुप्सा से भरी रातें 
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ये मेरे मर जाने के दिन हैं मेरे दोस्त 
मैं खोयी हूँ 'चीड़ों पर चाँदनी में' 
और तुम बने हुए हो साथ
--/
मैं तुम्हारे नाम ज़ख़्म लिख देना चाहती हूँ
मेरे मर जाने के बाद...
तुम इन वाहियात कविताओं पर 
अपना दावा कर देना
तुमसे कोई नहीं छीन सकेगा 
मेरी मृत्यु शैय्या पर पड़ी चादर 
तुम उसमें सिमटे हुए लिखना मुझे ख़त 
मेरी क़ब्र के पते पर
वहाँ कोई मनाहट नहीं होगी 
वहाँ सारे ख़तों पर रिसीव्ड की मुहर लगाने 
बैठा होगा एक रहमदिल शैतान 
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मुझे कुछ दिन की मुक्ति मिली है 
मुझे कुछ लम्हे को तुम मिले हो
उम्र भर का हासिल
बस इतना ही है.

मेरा ये भरम रहने दो | कि तुम हो | मेरे जीने के लिए ये जरूरी है.

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मुझे नहीं चाहिए 
तुम्हारा कांधा. तुम्हारा सीना. 
तुम्हारा रुमाल. या कि तुम्हारे शब्द ही. 

हो सके हो मेरे लिए हो जाना 
बहुत ऊंचे पहाड़ों में धीमे उगते किसी पेड़ की 
गहरी खोह

मैं शायद 
तुम तक कभी पहुँच नहीं पाऊँगी 
मगर मुझे चाहिए होगा 
तुम्हारे होने का यकीन 

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तुम मेरे मन में बहती चुप नदी हो 

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मुझे लगता नहीं था कि कभी 'हम'हो सकते हैं. 

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मन की दीवारें होती हैं 
जिनसे रिसता रहता है अवसाद 
धीरे धीरे सीख लेगी मेरी रूह
उन सीले शब्दों को सोखना 

मुझे तुम्हारी उँगलियों की फ़िक्र होती है 
तुमने मेरा मन छुआ था एक बार 

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मुझे वो हिस्सा नहीं चाहिए इस दुनिया का जो सच में घटता है. मैं बहुत थक गयी हूँ. 
मैं लौट कर किताबों तक जा रही हूँ. 

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मेरे पास कुछ भी नहीं है तुम्हें देने को 
मेरे टूटे दिल में जरा से दुःख हैं
जरा सी उदासी
तुम्हारे नाम करती हूँ 

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काश कि मुझे आता प्रेम करना
और प्रेम में बने रहना

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मेरा ये भरम रहने दो कि तुम हो
मेरे जीने के लिए ये जरूरी है. 
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डैलस डायरी: God is a postman.

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परसों डैलस आई हूँ. ये डैलस में मेरा तीसरा ट्रिप है. डैलस न्यूयॉर्क की तरह नहीं है कि जिसमें रोज़ रोज़ कुछ नया होता रहे ऐसा कहते हैं लोग. कुछ को आश्चर्य भी होता है कि मैं बोर कैसे नहीं होती. मैं करती क्या हूँ दिन दिन भर. ये रोजनामचा उनके लिए लिख रही हूँ, और खुद के लिए भी. इसमें बहुत कुछ सच होगा और उससे ज्यादा झूठ. ये दिनों का सिलसिलेवार ब्यौरा नहीं है ये मेरे मन में खुलती एक खिड़की है...कि मैं अपने जिस घर में तकरीबन पिछले आठ सालों से रह रही हूँ उसको जाता हुआ एक स्ट्रीट लैम्प है...मैं कई बार उसके नीचे खड़ी होकर उस स्ट्रीट लैम्प को ऐसे देखती हूँ जैसे पहली बार देख रही हूँ. एक ही रास्ते पर कई बार गुज़रते हुए भी रास्ता वही नहीं होता. हम वो देखते हैं जैसी हमारी मनः स्थिति रहती है. कि मुझे चीज़ों को देख नहीं सकती...मैं अक्सर उनसे गुज़रती रहती हूँ. 

बैंगलोर से डैलास लगभग चौबीस घंटे का सफ़र हो जाता है.जेट लैग के कारण पहला दिन तो पूरा ही सोते हुए बीतता है. हम डैलस के टाइम के हिसाब से कोई २ बजे दोपहर को होटल में आये. खाना मंगवाया. वेज फ्राइड राइस में अंडा डाल दिए थे लोग. हर जगह वेज का अलग अलग डेफिनेशन होता है. थक गए थे. खाना नहीं खाए. सो गए. दोपहर के 3 बजे के सोये हुए पूरी शाम सोते रहे और अगली भोर 4 बजे भूख से नींद खुली. दो वक़्त का खाना मिस हो गया था. कुछ बिस्किट वगैरह खा के घर वालों के पास रोना रो रहे थे कि इस होटल के पास खाने वाने को कुछ नहीं है. भूख से मर रहे हैं वगैरह. उसपर पानी भी खरीद के नहीं लाये थे और कल यहाँ इन लोगों ने हॉट वाटर सिस्टम की सफाई वगैरह की थी...तो नल से काला पानी आ रहा था. तो प्यासे भी मर रहे थे.  
फिर कमरे की खिड़की से पर्दा हटा के झांके तो देखते है कि भगवान् ने पूरा पूरा पेंट का डिब्बा ही उलट दिया है आसमान पर. बाहर मौसम में ठंढक होगी लेकिन हम दीवानों की तरह बाहर भागे. मोबाइल फोन और कमरे की चाभी के साथ. उफ़. क्या ही सुबह ही. गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग की. ठंढ थोड़ी से ज्यादा. मैं बाँहें फैलाए नाच रही थी गोल गोल गोल. कितना सुन्दर...ओह कितना सुन्दर...पूरा पूरा आसमान... ठंढी हवा अच्छी लग रही थी. ताजगी भरी. ओसभीगी. 

साढ़े छः बजे नाश्ता और पानी दोनों मिला. खाने का असल स्वाद भूख से आता है. थोड़े से फल. पैनकेक. एक स्लाइस ब्रेड और दो कप अच्छी कॉफ़ी. बगल वाली टेबल पर हिन्दुस्तानी लड़के हिंदी में बतिया रहे थे. 'गर्म कपड़े पहन लेना आज, मेरी कल लंका लग गयी थी'. मैं बैंगलोर में हिंदी के लिए तरसती रहती हूँ और हिंदी मुझे मिलती है यहाँ डैलस में आ के. मन किया उनसे बात करने का. मगर फिर लगा पता नहीं क्या सोचेंगे. तो रहने दिया. 

कुछ दोस्तों को फोन किया. पर मन किसी में लग नहीं रहा था. गुलाबी सुबह का जादू मन पर चढ़ रहा था. नोटबुक में कुछ कहानियां लिखी हुयी थीं. खुले आसमान के नीचे रेत पर बाल खोये सोयी हुयी एक लड़की. किसी के साथ सिर्फ तारे देखना चाहती थी. पूरी रात. बिना एक शब्द कुछ भी कहे हुए. उससे पूछा. ऐसी भी होती है क्या मुहब्बत? रूह का होना महसूस कैसे होता है. कभी हुआ है कि तुम्हारी आँखों का देखा हुआ कुछ किसी के शब्दों को छू जाए. क्लॉउडे मोने और कर्ट कोबेन और कभी कभी संगीत का कोई टुकड़ा ऐसा ही होता है. रूह की भाषा में बोलता हुआ. कुछ तो है बाबू. कौन कहता है? सिगरेट. धुआं भरता जाता है मेरे कमरे में कहीं. धूप जैसा. मैं सुनना चाहती हूँ. कहना चाहती हूँ. मैं होना चाहती हूँ एक मुकम्मल लम्हा. 

दोपहर को वालमार्ट जा के बहुत सा खाने और पीने का सामान लायी हूँ.कटे हुए आम की फांकें. खरबूजा. चेरी. स्ट्रॉबेरी. ब्लूबेरी. पीच(आडू). कुछ रेडी टू ईट जैसा भी कुछ. सलाद. चिप्स. बहुत सा कुछ. इस होटल में शटल सर्विस सिर्फ ग्यारह बजे तक है लेकिन जो मुझे ड्राप करने गया था, उसने कहा वो मुझे पिक भी कर लेगा. मैंने जब कॉल किया तो होटल में जिसने फोन उठाया वो बोली कि अभी पिक नहीं कर सकते, लेकिन पीछे से उसकी आवाज़ थी...उसे हाँ बोल दो...मुझे पिक करने जो लड़की आई उसका नाम शायला था. मैं उससे बातें करती आई पूरे रास्ते. मुझे अच्छा लगता है ऐसे गप्पें मारना. कमरे में आई तो धूप इतरा रही थी. कमरे पर कब्जा जमा के. मैंने अपने लिए माइक्रोवेव में पास्ता गर्म किया. मैं धूप के साथ कुछ भी खा सकती हूँ. फीका, बेस्वाद ब्रोकली वाला पास्ता भी.

डैलस मेंजहाँ रहती हूँ उसे रिचर्डसन कहते हैं. अमेरिका में डाउनटाउन का कांसेप्ट है. जैसे कि शहर है डैलस. उसके इर्द गिर्द बहुत सारे छोटे छोटे रिहाइशी इलाके बने हुए हैं जहाँ पर लोग रहते हैं जैसे रिचार्डसन, प्लानो. ऑफिस या बिजनेस के लिए लोग डाउनटाउन जाते हैं और फिर लौट के घर कि जो शहर के बाहर बसा होता है. मैं पिछले दो बार से जब भी आई थी हयात रीजेंसी में ठहरी थी जो कि एक होटल है. इस बार मैं एक स्टूडियो सेट-अप में ठहरी हूँ. यहाँ पर एक कमरा. एक छोटा सा लिविंग एरिया जिसमें टीवी, स्टडी टेबल और एक सोफा है. इसके अलावा एक छोटा सा किचेन है. 

होटल से पोस्ट ऑफिस सर्च किया तो देखा कि सबसे पास का पोस्ट ऑफिस लगभग ढाई किलोमीटर दूर था.यहाँ पर दूरी माइल में नापी जाती है. तो लगभग १.५ माइल. आना जाना मिला कर लगभग ५ किलोमीटर. रिसेप्शन पर बंदी थोड़ा चकित हुयी कि मैं इतनी दूर पैदल आना जाना चाहती हूँ. ये एरिया मेरे होटल से पीछे की तरफ से रास्ते में था. रिचार्डसन में भी इस इलाके में मैं कभी नहीं गयी थी. इस बार ख़ास मुश्किल ये थी कि आईफोन नहीं है तो विंडोज फोन का इस्तेमाल कर रही हूँ और मुझे गूगल मैप्स की आदत है. इस फोन में मैप्स हर बार स्क्रीन लॉक होते ही बंद हो जाता था और मुझे फिर से सर्च करना पड़ता था. 

यहाँ से रास्ता ढलवां था. मेरा अब तक डैलस का अनुमान था कि ये एकदम फ़्लैट सतह पर बना हुआ है और यहाँ बिलकुल ही चढ़ाई या उतार नहीं हैं. मगर यहाँ सामने पहाड़ी इलाका जैसा महसूस हो रहा था. दूर दूर तक पसरी हुयी ढलवां वादी...छोटे छोटे पहाड़ीनुमा टीले. सड़क पर तरतीब से कतार में बने हुए छोटे छोटे घर. घरों के सामने पुराने पेड़. कमोबेश हर पेड़ पर झूले. झूलों की संख्या से अंदाज़ा लग जाता था कि घर में कितने बच्चे हैं और किस ऊंचाई के हैं. हर घर के सामने बैठने का छोटा सा हिस्सा कि जिसमें कुर्सियां लगी हुयीं. अधिकतर घरों के आगे ज़मीन में खूबसूरत पौधे लगे थे. 

घरों के ख़त्म होने के बाद दोनों ओर पेड़ों का जंगल शुरू हो गया. पतझर के दिन हैं. कहीं एक भी हरा पत्ता भी नहीं दिख रहा था. सूखे पेड़ों के पीछे गहरा नीला आसमान दिखता था. एक पुल आया. पुल के नीचे एक छोटी सी पहाड़ी नदी बह रही थी. बिलकुल पतली सी धारा थी शांत पानी की मगर उसमें परिवर्तित होते पेड़ और गहरा नीला आसमान. सब इतना खूबसूरत था क्योंकि अप्रत्याशित था. मैंने सोचा भी नहीं था कि रास्ता ऐसा खूबसूरत पहाड़ी रास्ता होगा कि जिसमें शांत पेड़, चुप पानी और सांस की तरह साथ चलती हवा के झोंके होंगे. रेडियो पर जॉर्ज माइकल का केयरलेस व्हिस्पर बज रहा था. कुछ जैज़ भी बजता रहा था जो मैंने कभी सुना नहीं था. रेडियो जॉकी की खुशनुमा आवाज़ थी. धूप जैसी. मैं उस पुल पर खड़ी सोच रही थी कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है. कि अनजाने रास्तों पर चलने में कितना सुकून है. 
पोस्ट ऑफिस पहुंची तो देखा कि वो सरकारी अमेरिकन पोस्ट ऑफिस नहीं है. उस इलाके की चिट्ठियां पहुँचाने के लिए एक प्राइवेट पोस्ट वाली सर्विस है. मगर वहां पर कुछ बेहतरीन कार्ड्स थे. चीनी मिट्टी की खूबसूरत कलाकृतियाँ थीं. कोई लोकल आर्टिस्ट थी जिसने बनाया था सब. फूलों वाले प्लेट. गोथिक स्टाइल की ऐशट्रे और ऐसी ही कुछ चीज़ें. वहाँ बहुत देर तक चीज़ों को देखती रही और सोचती रही कि मेरे दोस्तों में किसे कौन सी चीज़ पसंद आएगी. अगर मैं वाकई खरीद के ले जा सकती तो इनमें से कौन सी चीज़ें खरीदती. दोस्तों को हम वाकई अपने दिल में बसाए चलते हैं. चीज़ें इतनी दूर से लाने में टूट जातीं वरना कुछ तो इतनी खूबसूरत थीं कि छोड़ने का मन न करे. वहां हैण्डमेड साबुन थे. कमाल की खुशबू वाले. मैंने ऐसे साबुन कभी देखे ही नहीं थे. एक कार्ड ख़रीदा और एक साबुन कि जिससे लेमनग्रास जैसी कोई गंध आती थी. 

दुनिया जितनी बाहर है उतनी ही अन्दर भी है. एक अल्टरनेट दुनिया. वापसी में मैं उन चीज़ों के बारे में सोचती रही. गहरे हरे-नीले-भूरे रंग की ऐश ट्रे. सिगरेट की तलब उट्ठी बहुत जोर की और याद का एक खुशबूदार हवा का झोंका साथ साथ चलने लगा. बालों को उलझाते हुए. मैं उसकी उँगलियाँ तलाशने लगीं कि बालों को सुलझा दे, हौले से. इक नन्ही सी पीली गोली जुबान पर रक्खी. उससे जादू का इक स्वाद घुलने लगा और मैं इस दुनिया में होती हुयी भी ख्वाबों में जीने लगी. यहाँ सेटिंग तो सारी डैलस की थी मगर लोग मेरी पसंद के थे. उसने सिगरेट के तीन कश लेकर मेरी ओर बढ़ाई तो आँख भर आई. फिर देखा कि कोई धुंआ नहीं है. शायद आँखों में धूल पड़ गयी थी. सोचा कि उसे बताऊँ कि ये शहर चिट्ठियां लिखने के लिए बहुत मुफीद है. इन खूबसूरत पेड़ों के नीचे बैठ कर पानी की गंध छूते हुए ख़त लिखेंगे तो उनसे तिलिस्म का दरवाजा खुल जाएगा. 

सूखे हुए पेड़ों की टहनियां कुछ यूं फैली हुयी थीं कि जैसे किसी ने बाँहें फैलाई हों. टहनियों पर धूप पड़ रही थी और उनके सिरे एकदम सुनहले लग रहे थे. आसमान में चाँद का आधा टुकड़ा भी था. साथ साथ चलता. एक जगह बैगनी फूल खिले हुए दिखे. उन्हें देख कर याद का कोई रंग टहका सीने में कहीं. मैं पूरे रास्ते तसवीरें खींचती आई थी. कमरे पर आई तो भूख लग गयी. चेरी धो कर बाउल में रखी. खिड़की से धूप अन्दर आ रही थी. मैं धूप में अपने लिए एक छोटा सा कुशन रख कर दीवार से टिक कर बैठी थी. किताब, कागज़ और अपनी कलमों के साथ. डूबते सूरज और चेरी का मीठा कत्थई स्वाद जुबां पर. 

आसमान में फिर से गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग के बादल थे. मैंने इतनी खूबसूरत शाम बहुत दिनों बाद देखी थी. यहाँ सब खुला खुला भी था. मैं गोल गोल घूम कर शाम के रंग देखती जाती. ऐसा महसूस होता कि खुदा एक कासिद है. मेरे सारे ख़त पहुँच जाते हैं तुम तक. और कि ये दुनिया जिसने इतनी सुन्दर बनायी. उसने तुम्हारा मन बनाया होगा. मन. खुद को देखती हूँ इन रंगों में डूबी हुयी. इतनी खूबसूरती में भीगती. सुकून से भरा भरा महसूसती हूँ को. मुहब्बत से भरा भरा भी. 


किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.

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इतरां क्या ही किसी की मुट्ठी में आती. दादी सरकार ने नाम ही ऐसा रक्खा था. खुद से उड़ती जाए हवा के पोर पोर में और जिसे एक बार छू ले वो घंटों गमकता रहे उसकी महकती आँखों के सुरूर में. इतरां जन्मी थी उस वक़्त जगजीत सिंह और चित्रा सिंह गा रहे थे रॉयल अल्बर्ट हॉल में. पंजाबी टप्पे. रेडियो पर कॉन्सर्ट आ रहा था.

बच्ची का नाम चित्रा रखने का मन था इन्दर का और माही को चित्रा नाम पसंद नहीं आया वर्ना तो एक ही मिनट में नाम पक्का हो जाता. यहाँ से किस्सा लम्बा चल निकला. क्या ही इन्दर और क्या ही माही, माँ बाप को कोई एक नाम पसंद ही नहीं आता. हर रोज नया नाम रख देते अपनी लाड़ली का. वो इस कदर ज़िंदा थी कि जैसे उसके पहले किसी में जान ही न हो. जिस कमरे में होती उजास फूटता. रंग जैसे दूध को हल्के सिन्दूर के हाथ से छू दिया गया हो. एकदम ही नर्म, नाज़ुक सफ़ेद में हल्का गुलाबी. बड़ी बड़ी आँखें और इत्ती कालीं कि टिम टिम चमकतीं. माथे पर एकदम काले हल्के घुंघराले बाल. दुनिया का कोई शब्द उसके लायक ही नहीं लगता. फूलों के नाम सोचे गए - अपराजिता, गुलाबो, चिरामिरा मगर नाम लेते ही चाँद में काले दाग जैसे लगते. मौसमों के नाम रखे गए लेकिन कोई मौसम नहीं ठहरता उसकी नीम नींद में मुस्कुराते होटों के सामने. बड़ी मुश्किल थी.

इक ऐसी ही शाम थी. दिन भर के लिए रखा गया नाम पसंद नहीं आ रहा था और इन्दर और माही उसके नए नाम के लिए सोच रहे थे कि अब क्या हो उसका नाम. रेडियो पर फिर से जगजीत सिंह के पंजाबी टप्पे आ रहे थे. इन्दर माही को मनाने की कोशिश में लगा था कि चित्रा कितना सुन्दर नाम है. इश्वर की बनायी तस्वीर ही तो है हमारी दुलरुआ बेटी. आँगन के बीच में एक गुदड़ी बिछाए बड़ी सरकार खुद से बच्ची की मालिश कर रही थीं. उनको पंजाबी बड़ी अच्छी लगती थी. ग़ज़ल के साथ गुनगुना रही थीं...'की लैना हैं मितरां तो...मिलने तो आ जांवां डर लगता हैं छितरां तों'. और फिर अचानक ही माही की ओर देख कर बोलीं, 'अरे माही, इत्तर को लाड़ से बोलो तो इतरां ही बनेगा न?'
'जी...ऐसा ही कुछ'
'तो हम आज से इसे इतरां बुलाया करेंगे...दुनिया में अपनी जैसी सिर्फ एक, कि जिसका नाम भी सिर्फ उसका अपना है. तुम दोनों का नाम पक्का हो जाए तो बता देना...मगर मेरे लिए ये आज से इतरां हो गयी.' 

और बस...उस दिन से वो सबके लिए ही इतरां हो गयी.

——
उन दिनों जगजीत सिंह का क्रेज था. वे सबको अच्छे लगते थे. अख़बारों में उनकी तस्वीर आती थी. लड़कपन की मासूमियत और गीत के बोलों की गहराई के बीच एक ऐसी आवाज़ कि बड़ी सरकार भी उनपर उतनी ही फ़िदा थीं कि जितना उनका सबसे छोटा और सबसे लाड़ला बेटा इंदर. उन दिनों अच्छा रेडियो सबके पास नहीं होता था, गांव भर में एक अच्छा रेडियो हो सकता था. इंदर ने ओवरटाइम कर कर अतिरिक्त पगार उठाई थी और उससे घर में रेडियो खरीद लिया था. दिन भर भले रेडियो बैठक में जमा रहता. कभी भाइयों के साथ खेत में रहता. कटाई के समय अक्सर टाली के ऊपर रखा रहता. मगर रात होते ही बड़ी सरकार के पास रेडियो अपने पैरों चल कर पहुँच जाता था. फिर घर में रोटियों और पंजाबी टप्पों की मीठी गंध एक साथ घुलती. और क्यूँ न जाता. इंदर को बाहर जा के पढ़ने का मन हुआ तो बड़ी सरकार ने ही तो बाबूजी को समझाया था कि उसे आगे जा के पढ़ने का मन है तो जाने दो न. बड़ी सरकार कभी घर के बाहर के मुद्दों में नहीं बोलती थीं इसलिए जब उन्होंने सिफारिश की तो बाबूजी ने उनका मन और मान दोनों रखा और छोटे को बाहर जा कर पढ़ने की इजाजत दे दी. 

उनका बड़ा सा परिवार था. बाबूजी गाँव के स्कूल में प्रिंसिपल थे. उनके सात बेटे थे. गाँव में बहुत पैत्रिक संपत्ति थी. खेती बाड़ी में लगा हुआ सीधा साधा किसानों का घर था. गाँव के बाकी परिवारों की तरह. सब भाई मिल कर मेहनत से खेतों में काम करते थे. घर के काम लायक उपज हो जाती थी. बहुत अमीरी नहीं थी लेकिन गरीबी भी नहीं थी. घर का छोटा बेटा इंदर लाड़ला था सबका. उसकी दुनिया देखने की ख्वाहिश थी. स्कूल में पूरे जिले में एक उसकी ही फर्स्ट डिविजन आई थी, वो भी डिस्टिंक्शन से...घर भर में एक वो ही बाहर गया था. बारहवीं की परीक्षा में उसने नंबर भी बहुत अच्छे लाये और डॉक्टरी का एक्जाम भी पास कर लिया. बाबूजी का सीना चौड़ा हो गया. इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी कि बेटा डॉक्टर बन गया. आसपास कई कई गाँव तक कोई डॉक्टर न था, न कोई उस पोस्टिंग पर आने को तैयार होता था. प्रैक्टिस की सुबह शिवाले ले जाने के लिए बड़ी सरकार ने खुद से गूंथ कर आक के फूलों की माला बनाई. आखिर ये सब करम तो इश्वर का ही था. बड़ी सरकार ख़ुशी के मौकों पर भोले बाबा को कभी नहीं भूलती थी.

देखते देखते इंदर को डॉक्टर बने दो साल बीत गए. घर में भाभियाँ अब मीठी छेड़ करने लगी थीं कि अब तो इसके हाथ पीले कर दीजिये. इन हाथों में इंजेक्शन शोभा नहीं देता. हमें हुक्म चलाने के लिये एक छोटी देवरानी चाहिये. बड़ी सरकार खुद से ढूंढ कर हीरा बहू लायी थी. छोटा सा चाँद चेहरा और छोटी लेकिन चमकीली आँखें. पूरे घर में खनकती रहती. उसके आने से पूरा घर जैसे जिन्दा हो गया था. नाम भी कितना मीठा था...माही. भारत की तीन नदियों में से एक कि जो पश्चिम की ओर बहती हैं. माही को कौन सा रेगिस्तान खींचता था. कौन सी प्यास सींचने को लबालब भरी रहती थी. आखिर कुछ सोच कर ही उसका नाम माही रखा होगा. उसके आने से घर में सिर्फ सुख ही सुख आता था. अलता लगे लाल पैर...कि उसका पैरा इतना अच्छा था कि आते साथ बड़ी बहू के भी पाँव भारी हो गयी. वो अपनी छोटी देवरानी पर निहारी निहारी जाती. माही, तेरा ही करम है जो मुझ अभागन के आँगन में चाँद खिलेगा. माही खिलखिल बहती रहती. बड़ी सरकार उसे इतना मानती थी कि जैसे बहू नहीं बेटी हो. सात बेटों की माँ के अन्दर भी शायद एक बेटी की कोई चाहना बाकी रही होगी और ये सारा प्रेम माही के हिस्से आया था.

माही जब पेट से हुयी तो जैसे पूरा गाँव ही बावला हो गया था उसकी ख़ुशी में. कभी फुलवारी नानी अपने मायके से बने लड्डू लिए आती थी कभी कांची फुआ उसके लिए चने के सबसे महीन पत्ते बीन कर साग बना देती. माही ने पहली बार जाना था कि सिर्फ उसे ही गाँव के हर घर के बारे में सब पता था नहीं था, गाँव की सारी औरतों ने भी उसकी पसंद की चीज़ें ऐसी ऐसी संदूक में भर रखी थीं जिसमें सिर्फ सबसे उजले सुखों की जगह रहती है. पूरे नौ महीनों के दरम्यान घर कहानियों से फलता फूलता रहता. आम के बौर की तरह कहानियां उगतीं. हर आने वाला उसका दिल लगाने को कोई न कोई किस्सा लिए आता. दूर के रिश्ते के मामा भी आते तो उसे पास बिठा कर अपने ग्रामदेवता की कहानियां सुनाते रहते. माही सर तक आँचल काढ़े हंसती खिलखिलाती रहती. रात ढलती तो बड़ी सरकार के साथ रात के फरमाईशी गीत सुना करती. उन दिनों रोज़ कोई न कोई माही के नाम कोई गाना सिफारिश कर देता. रेडियो पर लोग जानने लगे थे कि बिहार के छोटे से गाँव तिलिसमपूर में कोई माही रहती है कि जो पूरे गाँव की इतनी लाड़ली है कि रोज़ उसके नाम सिफारिशी गाने भेजे जायें.
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बड़ी सरकार ने नाम रख दिया तो बस. पूरे घर की इतरां हो गयी वो. माँ की दुलारी. इतरदानी. इतरडिब्बी. इतरपरी. माही की इतरां...माही...इतरां की माँ माही.

इतरां की आँखों में नींद नहीं और सारे घर की नींद हराम. वो सारे समय आँखें खोले टुकुर टुकुर माही को देखती रहती. उसे सुलाने की कोई तरकीब काम ही नहीं करती. कई तरह के झूले लाये गए. बड़ी सरकार ने कोशिश की, गाँव की कई बूढी पुरानियों ने कोशिश की कि बच्ची कुछ सोया करे लेकिन इतरां तो बस इतरां थी. सोती नहीं और चुपचाप टुकुर टुकुर तकती रहती. माही उसे ठेहुने पर झुलाती रहती गीत गुनगुनाते हुए...'तू मेरी इतरां, मैं तेरी मितरां...पक्की अमिया...मिठियां चिठियाँ...रस की बोली...कुछ ना तोली...जब तक दुनिया...हैं हम सखियाँ...बोल री इतरां...बन मेरी मितरां...बोल मेरी इतरां...कौन तेरी मितरां?'. 

इश्वर सुख अगर बहुतायत में देता है तो उसकी अवधि कम कर देता है. बारिशों के दिन थे. रात भर मेघ लगे हुए थे. पूरा घर किचकिच हो रखा था. बारिश बंद हुए आधा पहर बीता होगा. रौशनी थी लेकिन उजाला फीका था. बड़ी सरकार की नींद इतरां के रोने से खुली. इतरां तो कभी रोती नहीं...क्या हुआ बच्ची को. सोचती सोचतीं माही के कमरे के पास आयीं. कमरा खटखटाया तो इन्दर ने दरवाजा खोला. पलंग पर इतरां की चीखें तेज़ होती जा रहीं थीं और माही गहरी नींद सोयी थी. चेहरे पर टूट चुकी मुस्कान की आखिरी उदास रेख थी. बड़ी सरकार ने इतरां को गोदी में लिया और माही के माथे पर प्यार से हाथ फेरा. माथा. जो पत्थर की तरह ठंढा था. बड़ी सरकार के दिल में उम्र भर के भय ने उझक कर देखा...'इन्दर...देखो ना...माही का माथा इतना ठंढा क्यों है'. इन्दर ने माथे पर हाथ रखा और हहरा के गिर गया. बड़ी सरकार ने माही को पूरी तरह झकझोरा लेकिन माही ने अपने हिस्से के दिन जी लिए थे. इन्दर ने सारी कोशिशें की...एड्रेनालिन का इंजेक्शन...सीपीआर...मगर वो जानता था कि ये सब बेमानी है. उस दिन उसे अपने डॉक्टर होने पर पहली बार अफ़सोस हुआ था. उसने खुद को कहा. 'माही नहीं रही'.

नहीं रहना क्या होता है? हम जब होते हैं कहाँ होते हैं?

माही नहीं रही. मगर सिर्फ अपने बदन में. उसकी रूह पिंजरे से आजाद होकर यूं बिखरी कि इत्र हो गयी. पूरा गाँव माही से सिंचता. सारी औरतें. फसलें. त्यौहार. और जिंदगी भी. माही होती इतरां में...बसती जाती...किस्सा दर किस्सा दर किस्सा.
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की पहली किस्त है. 

इतरां की माही. वो जीती जागती औरत थी या कंठ से फूटता लोकगीत? [2]

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माही नहीं रही. मगर सिर्फ अपने बदन में. उसकी रूह पिंजरे से आजाद होकर यूं बिखरी कि इत्र हो गयी. पूरा गाँव माही से सिंचता. सारी औरतें. फसलें. त्यौहार. और जिंदगी भी. माही होती इतरां में...बसती जाती...किस्सा दर किस्सा दर किस्सा.

गाँव भर की स्त्रियाँ माही को याद कर कर के आँसू आँसू बहातीं लेकिन इतरां को देखते ही आँसुओं का स्वाद बदल जाता. उसे गोद में उठाते ही माही खोयी हुयी नदी बन जाती सरस्वती. इतरां को मालूम भी नहीं था कि हर बार अपने स्पर्श में गाँव की हर स्त्री एक किस्सा रख जाती थी उसके ह्रदय में. वो किस्सा जो वो सिर्फ माही को सुना सकती थीं. माही उस पूरे गाँव में इकलौती थी जो बचपन में बिछड़े प्रेमी का किस्सा सुन कर किसी को ये नहीं कहती कि भूल जा....इसी में तेरे घर का भला है. माही कहती थी 'जी ले, यही एक जिंदगी मिली है सोनी...देख ले उसे जी भर के...अगली बार होली पर आएगा मेरे घर तो मैं तेरे हाथ उसके लिए पुए भिजवा दूँगी. जरा सा इश्क़ कर ले. कुछ गलत सही नहीं होता इस दुनिया में'. माही उस पूरे गाँव के लिए डाकिये का भूरा झोला थी...डाकघर के आगे लगा लाल डिब्बा थी. जो सारा प्रेम औरतों ने जाने किस किस के हिस्से कर रखा था, जो मन्नतें अपनी साड़ी की कोर में बाँध रखी थीं, सब माही के नाम होता गया. माही के पहले किसी ने जाना नहीं था कि औरतें प्रेम से भरी होती हैं. उन्हें कोई मिलता नहीं जिसके नाम ये सारा प्रेम लिख सकें. किस्से में अपरिभाषित बहुत कुछ होता जिसके लिये माही अपने शब्द गढ़ती. दुनिया उसे अवैध करार देती लेकिन अवैध प्रेम दुखता भले था, मरता नहीं. खेत में फसल के साथ बहुत सी खरपतवार भी उग जाती थी. समय समय पर किसान ये खर-पतवार उखाड़ते रहते थे कि फसल अच्छी हो. मगर कभी कभी होता था कि पीछे की बाड़ी में औरत अपने हिस्से के पौधे लगा लेती. नीम्बू. गुड़हल. गेंदा. गुलदाउदी. मिर्ची. औरत के हिस्से की जमीन में हर किस्म के पौधे को उगने की इजाजत थी. कभी कभी उन पौधों पर जहरीले जंगली फूल भी आ जाया करते थे. उन दिनों माही अपने डॉक्टर पति से बात कर लिया करती थी. उसकी दुनिया के कौन से नियम थे कोई नहीं जानता मगर माही अगर एक बार कुछ माँग ले तो इश्वर की भी क्या ही मजाल कि मना कर दे. माही का मन बहती नदी सा साफ़ रहता था. नदियाँ हमेशा पाप पुण्य से परे रही हैं. उन्होंने सदियों सदियों स्त्रियों के प्रेम को पनाह दी है.

स्त्री के प्रेम में असीम धैर्य होता है. उसके होने में होती हैं कितनी चिट्ठियां. लोकगीत यूं ही नहीं फूटते कंठ से. तुलसीचौरा में खिलते हर नन्हे फूल को स्त्री के प्रेम का पता होता है. अभिशप्त तुलसी हमेशा पूजाघर से निर्वासित रहती लेकिन बिना तुलसी दल के कृष्ण की पूजा भी अधूरी रहती. माही को कहने वाली सारी बातें इतरां को तबसे सुनाई जाती थीं कि जब इतरां को शब्दों का अर्थ मालूम भी नहीं था. उसके इर्द गिर्द माही नहीं होते हुए भी हर सिम्त थी. इतरां छः महीने की ही हुयी थी. वसंत पंचमी का दिन था. आँगन में बच्चे खेल रहे थे. बच्चों ने बोलना सीखा तो खाना मांगने और दूध के लिए मचलना शुरू किया. त्यौहार का दिन था तो घर में खीर बनी थी. दादी उसे जरा जरा पीढ़े पर बिठा कर कौर कौर खिला रही थी. इतरां ने कटोरी को देखा...आसमान में चमकते चाँद को देखा और सीधे आसमान की ओर ऊँगली उठा कर कहा, 'माही'. बड़ी सरकार के अन्दर चांदनी की नदी में ऐसा उफान आया कि इकबारगी लगा कि उनकी सांसें अटक जायेगीं और वो डूब जाएँगी. मगर फिर अपनी माही का चाँद सा चेहरा याद आया और उसी दिन बड़ी सरकार सिर्फ इतरां की बन गयीं. भूल गयी कि इतरां की माँ थी, माही...उनके जिगर का टुकड़ा माही...रेगिस्तान की प्यास बुझा कर मीठी हँसी की पौध लगाने वाली खिलखिल नदी थी उनकी माही...माही का सारा प्यार और याद दिल में यूं भुला दिया कि जैसे खोयी हुयी नदी...सरस्वती...मगर बड़ी सरकार भूल गयीं कि सरस्वती सिर्फ एक खोयी हुयी नदी नहीं विद्या और संगीत की देवी भी हैं. उनके ह्रदय से लुप्त होती माही अपनी इतरां की रूह में बहने लगी. बड़ी सरकार ने चांदी का भरा हुआ खीर का कटोरा उठाया और हँस कर कहानी सुनाने लगी, 'मेरी लाड़ो इतरां...ये देखो...एक कटोरी चन्दा है मेरे पास...चाँद के टुकड़े टुकड़े खिला रही तुझे...देखो तो...कितना मीठा है न चाँद?'. इतरां हंसती रहती तो उसकी किलकारी में गाँव भर के कुओं में मीठा पानी आता.

माही अदृश्य हो कर इतरां में बहती थी. कितने किस्से होंगे कि माही को सुनाने थे इतरां को. माही की सारी बातें इतरां की धमनियों में दौड़ती थीं. कभी कभी इतरां अपनी एकदम सफ़ेद कलाई के पास दादी की ऊँगली रखती और कहती कि दादी सरकार, देखो न माँ की चिट्ठी यहाँ अटकने लगी है. फिर वो खोल खोल कर अपनी माँ की चिट्ठियां सुनाती. जन्नत में उसकी माँ कितनी खुश थी. माँ के रहने के लिए वहाँ बहुत बड़ा मकान था. मकान की दीवारों पर ग़ालिब और मीर के शेर लिखे हुए थे. कायदे से बड़ी सरकार को और बाकी लोगों को भी उसी समय टोकना चाहिए था कि बच्ची को जन्नत की सारी चीज़ें गलत पता चल रही हैं. उसकी माँ स्वर्ग गयी है. वहाँ पर रामायण की चौपाई भले खुदी होगी लेकिन ग़ालिब और मीर के शेर तो हरगिज़ नहीं होंगे. मगर वो इतने ऐतबार के साथ कलाई पर अपनी दादी की ऊँगली रख कर चिट्ठी पढ़ती कि उसकी भोली दादी का दिल नहीं होता कि सच बोल कर बच्ची का दिल तोड़ दे. यूँ भी स्वर्ग देखा ही किसने है. हो सकता है इतरां सच ही कहती हो. जो मान लो ग़ालिब और मीर वहीं रहते ही होंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा.

बड़ी सरकार की बहनें कभी कभार परब त्यौहार पर आतीं तो उनको समझातीं. 'बिसरा की माय, इतरां को बाद में बहुत दिक्कत होगी. ये जो तुम रामायण की चौपाइयों के बीच बीच में ग़ज़ल गुनगुनाने लगती हो उसी का असर है. कहीं देखा है कि इतनी छोटी बच्ची ग़ालिब और मीर का नाम भी ले. इस कलमुये रेडियो को बाहर कर. ये मर्दों के चोंचले मर्दों को ही शोभा देते हैं'बड़ी सरकार हल्के हल्के हँसतीं, जब से माही अचानक चली गयी थी उन्हें किसी 'बाद'पर कोई यकीन नहीं होता. इतरां उन दिनों सोचती कि ये बिसरा कौन है जिसके नाम पर सब दादी सरकार को बुलाती हैं. मगर घर में कोई भी बिसरा के बारे में बात नहीं करता. इतरां को पहली बार वहीं से बिसरने का अर्थ मालूम चला था. बिसारना यानी भूल जाना. मगर इतरां तो कुछ भी नहीं भूली थी कभी. उसे अभी भी अपनी माँ की गहरी गुलाबी साड़ी याद थी. जो सारे गीत वो गुनगुनाती थी वो भी. हाँ एक गंध हुआ करती थी माँ के आसपास. वो गंध उसे कहीं भी नहीं मिलती. परी माँ से खुशबू आती थी लेकिन पूजाघर जैसी. अलग अलग मौसमों में अलग अलग. कभी कनेल, कभी गुलाब और कभी कभी कमल की भी. अक्सर हरसिंगार लेकिन कभी भी माही जैसी खुशबू नहीं. नन्ही इतरां सोचती कि वो अपने माँ की खुशबू खोजने चाँद पर जायेगी. उसे यकीन था कि उसकी माही चाँद है. 

किस्सों के अलावा इतरां का दिल कहीं लगता था तो वो था गज़लों में, अपने नाम की कहानी वो दादी सरकार से कितनी बार सुन चुकी थी. यही कहानी इतरां जब गाँव के बाकी बच्चों को सुनाती तो उसमें कई और किरदार जुड़ते चले जाते. इतरां का घर उन दिनों ब्रिन्दावन में होता और जगजीत को ग़ज़ल गाने के लिए कान्हा ने बुलाया होता था. आखिर में कान्हा की बांसुरी और जगजीत की गायकी की जुगलबंदी हुयी और मृदंग की थाप से आवाज़ आ रही होती...इतरां...
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की दूसरी किस्त है. 

बचपन एक आवारा दिवास्वप्न था. बस. [3]

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दिवास्वप्नों के घर नहीं होते. वे पनाह तलाशने रास्तों के पास बैठे रहते हैं कि कोई उन्हें घर ले जाए. अनछक बारिशों में इतरां अपने नन्हे डगमग पैर लिए चलने लगी. गाँव की मिट्टी को बहुत दिन बाद किसी ने सुना था. उसकी गुलाबी एड़ियों में कीचड़ लगा रहता. गाँव की पगडंडी. खेत की मेड़. शिवाले के पास का पोखर. सब धांगती रहती इतरां. गरमी की दोपहरें तो उसकी पसंदीदा थीं. गाँव का कोई कोना न होगा जिसके बारे में इतरां को मालूम न था. उसके साथ गाँव के बच्चों की पूरी बानर टोली चलती थी. बस ऐसी ही किसी दोपहर इतरां को सांप ने काट लिया. लोग उठा कर सीधे पास वाले हॉस्पिटल भागे जहाँ इन्दर काम कर रहा था. वहां पहुंचे तो पता चला इन्दर औपरेशन थियेटर में है. इन्दर के दोस्त डॉक्टर हरि ने इतरां को देखा. एंटीवेनम दिया. पर्ची पर बाकी दवाइयों के नाम लिख रहा था कि देखा कि नीचे की ओर भूरे रंग में लिखा जा रहा है 'हरहरिया सांप'. इतरां इंजेक्शन लगते वक्त भी खीखी करके हँस रही थी. डौक्टर को जाने कैसे महसूस हुआ कि इतरां ने लिखे हैं वे टेढ़े मेढ़े शब्द, मगर उसने ख्याल को हवा में उड़ा दिया. गाँव से साथ आये हुये किसी ने लिखा होगा कि इतरां को किस सांप ने काटा है. मगर डॉक्टर हरि को उस दिन के बाद से किसी ने डॉक्टर हरि नहीं कहा, हरहरिया सांप ही कहते रहे. ये इतरां का पहला किस्सा था. बायीं हथेली के उलटी तरफ सांप के दांतों के दो निशान थे. गोल-गोल, काले. इतरां सांप के दांत के निशान को दिखा कर कहती, ये आधा किस्सा है. इसमें एक बिंदु और लगेगा. तुम देखना. ये उन दिनों की बात थी कि जब इतरां को कहानी के अंत में लगने वाली तीन बिंदियों के बारे में हरगिज़ पता नहीं हो सकता था.

इतरां बचपन से ही किस्सागो थी. हवा से कहानियां बुनती. बातें इतरां को छू कर गुज़रतीं तो अपना रंग बदलने लगतीं. उसमें किसी भी किस्से को सुखान्त करने का हुनर था. उसके लिए मौत कोई दुःख भरी चीज़ नहीं थी. वो मौत का किस्सा सुनाती तो कुछ यूं कि उसकी माँ माही अपने मायके गयी है. इश्वर के यहाँ बहुत सुख से रह रही है. लौट आएगी दुनिया में कुछ दिन रह कर. हाँ, यहाँ सबको उसकी याद आती है लेकिन हर औरत अपने मायके में भी तो रहना चाहती है कुछ दिन कि उसके मायके में सब कुछ उसकी मर्जी का होता है. फिर नन्ही इतरां बिलकुल गंभीर होकर ग़ालिब का शेर सुनाती, 'हमको मालूम है जन्नत की हकीकत इसलिए, दिल के खुश रखने को तेरा हर ख्याल अच्छा है’. तो कायदे से इतरां ने कोई बुरी खबर कभी किसी को सुनाई ही नहीं थी. लोगों को पूरा विशवास था कि इतरां की जुबान पर माँ सरस्वती विराजती हैं. गाँव की लड़कियां उसके इर्द गिर्द अपने प्रेमियों के किस्से लिए डोलती थीं. 'बोल मेरी इतरां, वो मिलेगा न मुझे, दशहरा के मेले में...बोल मेरी इतरां...होली पर वो घर आएगा इस साल कि नहीं?'इतरां के पास हर सवाल के लिए एक कहानी होती थी. वो पूरे डीटेल में बताती थी कि महबूब कहाँ अटक गया है...बस इतरां के बिम्ब उसकी अपनी दुनिया के होते थे. इतरां को पूरा पूरा गाँव मिल कर बिगाड़ रहा था. सब ही उसे सर चढ़ाते थे. खास तौर से जब से सांप ने काटा था और लोगों को डर लगा था कि माही की तरह इतरां भी अचानक उनसे छिन जायेगी तब से वे माही के साथ के लम्हे लम्हे को ऐसे जीते जैसे वाकई कल मौत आ ही जानी है. बाकी बच्चों ने सजा का स्वाद चखना शुरू कर दिया था, मगर इतरां को अभी तक किसी ने एक थप्पड़ भी नहीं मारा था.

दादी सरकार इतरां को बढ़ते हुए देख रही थी. इतरां एकदम माही पर गयी थी. जबसे बोलना शुरू किया था इतनी तेज़ तेज़ बोलती थी कि लगता था सांस लेना भूल न जाए. छोटी दूरी के धावक जैसी थी उसकी बातें. इतरां के लिए हमेशा वक़्त कम पड़ जाता था, वो नींद में भी कहानियां बड़बड़ाती रहती थी. 'चाची को कुएं पर कपड़े गयी तो रास्ते में माही मिली थी. चाँद से उतर कर आयी थी. अब वो परी बन गयी थी. चाची की साड़ी की सलवटें परी माँ ने गायब कर दीं. परी माँ ने आज सुनहले पंख लगाए थे. उनके बालों से हरसिंगार की खुशबू आती थी. मैंने उनके बाल सूंघे थे. देखो. मेरी उँगलियाँ देखो'. दादी सरकार उसकी नन्ही उँगलियाँ चूमती तो पातीं कि उनसे वाकई हरसिंगार की खुशबू आ रही होती. बेमौसम. माही की याद की तरह.

इन्ही दिनों इतरां हर चीज़ गौर से देखने लगी थी. चीज़ों को अपने हिसाब से समझने की कोशिश करती. जो समझ नहीं आता उसे कहानियों में रचने लगती. अगले दिन जितिया था. बच्चों के लिए किया जाने वाला पर्व. टोली में चवन्नी को ही इन चीज़ों की कहानी मालूम थी. उसने भाव खाते हुए बस इतना ही बताया था कि जिसके जितने बच्चे होते हैं उसे उतने सारे झिन्गली के पत्ते चाहिए होते हैं. अगली सुबह इतरां को पता चला कि झिन्गली के पत्ते तोड़ने के लिए सीढ़ी आई है और उससे बड़े बच्चों की पलटन को जिम्मा सौंपा गया है कि घर में सब के लिए पत्ते तोड़ लिए जाएँ. बस इतरां लड़ झगड़ के गोहाल के छत पर चढ़ के तैयार. उसने हाल में गिनती सीखी थी तो एक बार में दस ही पत्ते समझ में आते उसे. घर भर के साथ-आठ बच्चे नीचे से चिल्ला चिल्ला कर संख्याएं बता रहे थे. बड़े भैय्या लोग दीदियों को डांट रहे थे कि फिर सांप ने काटा अगर इतरां को तो वो सांप पकड़ के उनको भी उससे कटवा देंगे. इस शोर शराबे में इतरां को एक ही चीज़ याद रह गयी. दादी सरकार के हिस्से सात पत्ते आये थे. लेकिन सात पत्ते क्यों. उसके तो सिर्फ पांच चाचा थे और कोई फुआ भी नहीं थी. इतरां ने सोचा कि आज शायद प्रसाद खाने बड़े वाले चाचा आ जायेंगे कि जिसके नाम से सब दादी सरकार को बिसरा माय कहती हैं. 

घर भर में सबकी पूजा निपटते निपटते दोपहर हो आई. बिसरा चचा का कोई ठिकाना नहीं था और तो और घर में कोई बात भी नहीं कर रहा था उनके आने की...लेकिन इतरां को पूरा यकीन था कि उसके चचा आयेंगे. दोपहर को प्रसाद में ठेकुआ मिल गया और आगे की कहानी किसी से सुनने की कोई उम्मीद नहीं रही तो इतरां चुपचाप अपनी पसंदीदा जगह की ओर चल पड़ी. स्कूल के पीछे एक छोटा सा पोखर था जिसके पास से नहर बहती थी. नहर किनारे बहुत से आम के पेड़ थे. गर्मी के दिनों में इतरां घर से फरार होकर यहीं आम के पेड़ की सबसे ऊंची डाली पर बैठी रहती. प्यास लगती तो नहर से पानी पी लेती. यहाँ से गाँव को आती सड़क का आखिरी छोर भी दिखता था. अक्सर यहाँ से इतरां शाम को ही लौटती जब इन्दर की राजदूत दूर से दिखने लगती. आज इतरां उदास थी. ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उसे किसी ने आने की उम्मीद बंधे और वो ना आये. वो खुद को कोई कहानी सुना कर बहला भी नहीं पा रही थी. उसने कलाई पर ऊँगली रखी कि आज माही ने कौन सी चिट्ठी लिखी है उसे लेकिन आज माही गुस्सा थी उसपर कि वो गरमी में पेड़ पर बैठी है. लू लग जायेगी. इतरां माही से कट्टी कर बैठी. आज उसे अकेले आने पर अफ़सोस हो रहा था. चवन्नी अपने घर बुला रहा था. उसके घर शहर से रिश्तेदार आये थे और साथ में रूह अफज़ा लेते आये थे. आज इतरां घर आती तो उसके साथ चवन्नी को भी एक गिलास रूह अफज़ा पीने को मिल जाता. लेकिन इतरां अपने चाचा से अकेले मिलना चाहती थी. शाम होने को आई. थोड़ी देर में सूरज डूब जाता. इतरां को प्यास लग रही थी. उसने एक नज़र दूर सड़क के आखिरी छोर तक डाली...वहाँ से कोई गाड़ी आती दिखी. वो दिल में जानती थी कि ये ही उसके चचा हैं. वो पेड़ से उतर कर नहर पर चली आई और मुंह हाथ धो कर पानी पीने लगी.

गाड़ी ठीक उसी के पेड़ के नीचे आ के रुकी. गाड़ी का दरवाज़ा खुला. इतरां ने बहुत लोग तो नहीं देखे थे अपनी छोटी सी जिंदगी में मगर फिर भी उस शख्स जैसे किसी को उसने कभी नहीं देखा था. न अपने गाँव में. न बाबूजी के अस्पताल में और ना अपने किसी किस्से में. उसके काँधे से जरा नीचे के लम्बे बाल थे और उसने कई सारी छोटी छोटी चोटियाँ बना रखी थीं. ऊपर एक गहरे नीले रंग का ढीला सा कुर्ता पहन रखा था जिसपर कई रंग की चिप्पियाँ लगी थीं. गले में बहुत सी मालाएं. उँगलियों में अंगूठियाँ. हाथों में रंग बिरंगे कड़े. मगर जो चीज़ सबसे ज्यादा उसे खींच रही थी वो थी उसकी आँखें. सूरज उसकी आँखों की सीध में था और उसकी रौशनी भी दुलार से छू रही थी उसकी आँखों को...सोने के रंग की थी उसकी आंखें. तरल. पानी जैसीं. इतरां की नब्ज़ में माही की चिट्ठियां बहुत तेज़ी से धकधक करके जमा होने लगीं. इतरां लेकिन माही से कट्टी थी और उसे माही की कोई बात नहीं सुननी थी. उसे डर था कि माही कहेगी कि इससे बात मत करो. ये झोले में बच्चों को भर कर ले जाने वाला डाकू है. इतरां को पहली बार जरा सा डर लगा मगर उसने कमर पर हाथ रख कर उससे ऐसे सवाल किया जैसे वो गाँव की सीमारेखा की इकलौती रक्षक हो और उसका काम है गाँव में जाने वाली हर विपदा को रोकना. उससे लड़ेगी कैसे ये नहीं सोचा उसने मगर उसका रास्ता रोक कर खड़ी जरूर हो गयी. गाँव के ग्राम देवता का मन में ध्यान किया और पूछा उससे, 'कौन हो तुम?'. वो कुछ बोला नहीं ठठा के हँस पड़ा और इतरां को गोद में उठा के आसमान की ओर उछाल दिया. इतरां को लगा वो तितली है...आसमान से नीचे आएगी ही नहीं. वो हँसता रहा 'इतरमिश्री. इतरजिद्दी. इतरपिद्दी. इतरझूठी. इतरमिट्ठी. इतरचिट्ठी...नालायक...तेरी माही ने बताया नहीं तुझे कि मैं आने वाला हूँ. रूद्र नाम है मेरा'. एक गोल गोल चक्कर घुमा कर उसने इतरां को नीचे उतारा. इतरां की दुनिया में सब कुछ तेज़ी से घूम रहा था. माही की चिट्ठियां सारी समझ आने लगी थीं. इतरां ने कुछ नहीं कहा. रूद्र की ऊँगली अपनी नब्ज़ पर रखी. वो जानती थी रूद्र को माही की चिट्ठियां पढ़ना आता है. मगर वो नहीं जानती थी कि माही की चिट्ठियां पढ़ कर रूद्र को चक्कर आ जाएगा. वो एकदम अचानक घुटनों के बल बैठ गया, उसकी आँखों के ठीक सामने. इतरां ने देखा रूद्र की आँखों में माही का पानी बह रहा था. भर भर छलछलाता. उसे पकड़ कर सीने से लगा लिया उसने. हिचकियाँ आ रही थीं उसे. इतरां को भूकंप याद आया. ऐसे ही थरथरा रही थी जमीन उस दिन भी. इतरां उसके कान में माही की चिट्ठियां सुना रही थी, 'माही मायके गयी है...खुश है वहां'. रूद्र ने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप जूते उतारे और पेड़ पर चढ़ता गया. सबसे ऊपर की इतरां की पसंदीदा डाली पर पहुँच गया और इतरां को साथ में बिठा लिया. 'तुझे पता है तू यहाँ इस डाल पर क्यूँ बैठती है?'...नन्ही इतरां बस सर हिला कर इनकार कर पायी. 'ये पेड़ मैंने अपने बचपन में रोपा था. यहाँ पूरी पूरी गर्मियों रहता था...उन दिनों इसको आवारा होना कहते थे...मेरी इतरां...बंजारामिजाजी तुझे विरासत में मिली है...बंजारों से मिली है कभी?'. इतरां यहाँ बिसरा चचा से मिलने आई थी. उसे मालूम नहीं था कि ये कौन था, रूद्र. मगर उसे ऐसा लग रहा था कि उसके नन्हे से दिल में जो बहुत से लोग थे, माही, दादी सरकार, इन्दर, बड़ी चाची, चवन्नी...सबको जरा जरा बाहर करके रूद्र अपने लिए बहुत सी जगह घेरता जा रहा है. कि कहीं कोई चिट्ठियां हैं जो रूद्र ने अपनी भिंची मुट्ठियों में बंद कर रखी हैं.

इतरां को ये भी लगा कि उसकी आँखों में जरा जरा सुनहला मिल रहा है और वो गहरी काली से जरा जरा भूरी हुयी जा रही हैं. कि जैसे रूद्र को तितलियों की भाषा आती है और ये भी कि रूद्र के पास उसके उन सवालों के जवाब हैं जो वो किसी से पूछ नहीं पाती, कि जैसे बिसरा कौन है.

मगर इस लम्हे दूर सड़क से राजदूत आती दिख रही थी. इन्दर घर लौट रहा था. इतरां, जो रोज उसे देखते ही पेड़ से धम से कूद कर सड़क की ओर भागती थी आज जरा सा रूद्र के पास सरक आई. रूद्र ने उसकी मुट्ठी खोली और उसमें एक छोटी सी काले रंग की टिकिया रखी. 'इसे पानी में घोल कर सियाही बनती है. कल मैं तुझे कागज़ पर लिखना सिखाऊंगा. सुबह आ जायेगी न?'...इतरां ने पलकें टिमिक टिमिक झपका कर कहा, 'वादा'...और पेड़ से उतरी और राजदूत की दिशा में हल्के क़दमों उड़ चली जैसे जमीन भी उसकी है, आसमान भी और इस बार उसकी लिखी चिट्ठी लेकर चाँद तक चला जायेगा रूद्र. उसका रूद्र.
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की तीसरी किस्त है. 
पहली दो यहाँ पर

शब्द उसकी पनाह थे | God is a postman | (4)

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ये उन दिनों की बात है जब रूद्र किसी का नहीं था. हवा पानी और मौसम के सिवा. बचपन से ही उसके विलक्षण होने के चर्चे होने लगे थे. किसी भी संगीत को क्षण में पकड़ लेने वाला रूद्र. 'सदा आनंद रहे एही द्वारे मोहन खेले होरी'. कहते थे कि उन दिनों घूमता फिरता मनमौजी रूद्र जिनके घर की दहलीज पर एक बार फाग गा देता, दुःख उस पूरे साल उनके घर का रास्ता भूल जाते.

रूद्र. बड़ी सरकार का मुंहबोला बेटा. सबसे बड़ा. सबसे जिद्दी. जिन दिनों लोग किसानी में खुश रहते थे और सोचते भी नहीं थे कि इंजिनियर लोग होते हैं जो बड़े बड़े पुल बनाते हैं. रेल लाइनें बिछवाते हैं. उनके बीच से ही उभर कर आते हैं. उन बचपन के बेलौस दिनों में एक बार हरिद्वार से आये साधुओं के पास बैठा चिलम गायब करने की जुगत लड़ाते रूद्र के कान में रुड़की की बात पड़ गयी...कि वहां से निकले एक लड़के ने बाँध बनाया है. कि पूरी पूरी नदी का पानी रोक सके और उससे बिजली निकल सके. बस. रूद्र को बिजली पकड़ने वाला वही इंजिनियर बनना था. सिविल इंजिनियर. घर के रोने धोने के बाद खाने पीने का सामान बाँधा गया. बाबूजी खुद हरिद्वार जा के उसे कॉलेज में दाखिला दिला आये. फिर चार साल उधर और रूद्र की अगली जिद. रूस जा के पढूंगा. तब जब कि रूस सिर्फ राजकपूर के रेडियो से चिल्लाते, 'सर पे लाल टोपी रूसी'के लिए जाना जाता था घर पर कोहराम मचा. रूद्र अपने साथ एक ग्लोब लेकर आया था. फीते से नाप कर दिखाया कि देख लो बड़ी सरकार. मैं सिर्फ तीन अंगुल दूर रहूँगा तुमसे. चिट्ठी लिखूंगा. तार भी भेजूंगा. बस मुझे जाने दो. पढ़ना लिखना जो है सो है, दुनिया घूमनी है मुझे.
साहबजादे रूद्र. और उनकी जिद. चल दिए सामान बाँध कर रूस. पांच साल देखते देखते कट गए. लौट कर आया तो देखा कि बाबूजी के सर के बाल पकने लगे हैं. बिहार सरकार की सिविल सर्विसेस थी. देश उन दिनों आगे भागने के सपने देख रहा था और इस सपने की ऊर्जा का एक बड़ा श्रोत था नदी पर बने बांधों से आती जल-ऊर्जा से बनी विद्युत्. बिजली. सपनों में भी चमक आने लगी थी. जिस दिन गाँव तक बिजली की लाइन आई उसकी चमक सबसे ज्यादा बड़ी सरकार की आँखों में दिखी थी. वो बल्ब तो एक आध महीने जलने के बाद फिर बरसों बरस अन्धेरा रहा लेकिन उस लम्हे की ख़ुशी और गर्व को मिटाने को वक्त भी नाकामयाब रहा. इन दिनों एक और ऊर्जा थी. रूद्र के चेहरे पर. उसके दिल पर. दूर संथाल परगना के जिस जंगल में वह अपना अनुसन्धान कर रहा था उसके जीवन की डोर संभाल रखी थी बगरो ने. अठरह साल की बगरो. ताम्बई रंग और चमकती आँखों वाली बगरो. अपनी गहरे लाल पाड़ की सारी में गठे बदन वाली बगरो कि जो रूद्र का खाना पीना, रहना सब देखती थी. रूद्र ने उसे हिंदी और अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया था और बगरो ने उसे बारिश की भाषा, चिड़ियों का संगीत और झरनों की खुसपुस. बात पढ़ाने की आती तो बगरो हमेशा उससे एक कदम आगे निकल जाती. रूद्र गिटार पर कोई संथाल धुन ऐसी बजा सकता था कि बगरो खुद को नाचने से न रोक पाती लेकिन रूद्र बहुत सीख कर भी नहीं जान पाता कि तूत के सबसे मीठे लाल फल कहाँ मिलेंगे या कि भांग की बूटी जंगल में कहाँ मिलती है. 

प्रेम उनके बीच कविताओं में पनपता. रूद्र ने उसे अंग्रेजी सिखाने के पहले कवितायें पढ़नी शुरू कर दीं. 'एक प्रेमी की सटीक, घातक पहचान सिर्फ एक ही है- मैं इंतज़ार में हूँ.'रूद्र इंतज़ार में रहता. दिन. दुपहर. शाम. जंगल की आदत बहुत भीषण होती है. पहाड़ी झरने के पानी के स्वाद के बाद सब जगहों के पानी का स्वाद फीका लगता है. जंगली फूलों की खुशबू बाग़ के फूलों से ज्यादा तीखी होती है कि उनका होना किसी निमित्त मात्र नहीं होता. वे सिर्फ अपने लिए होते हैं. बगरो ऐसी ही थी. रूद्र की होती हुयी भी स्वतंत्र. रूद्र से प्रेम करते हुए भी उसकी परछाई नहीं बनती, बल्कि कई बार तो उसके होने की चमक इतनी ज्यादा होती कि रूद्र की चमक फीकी लगती. रूद्र को अक्सर उसे देख कर अपनी माँ, बड़ी सरकार की याद आती. वह कई बार सोचता कि घर में बगरो घुल पाएगी कि नहीं. बड़ी सरकार ने अपनी होने वाली बहू के लिए क्या क्या सपने संजोये होंगे. वो कभी कभी बगरो को अपनी बचपन में देखी हुयी भाभियों की तरह बनाना चाहता. एक बार उसके लिए शहर से ब्लाउज बनवा के लाया. उसे सीधे पाड़ की साड़ी पहनाई. बगरो ने उत्साह से पहन ली साड़ी लेकिन उसे देख कर रूद्र का दिल खुद बुझ गया. उसका प्रेम बगरो के अक्खड़ जंगली सौन्दर्य से था. उसके वाचाल होने और बेलौस होने से था. ये साड़ी का अंचल पकड़ शर्माती सकुचाती लड़की उसके लिए माँ भी ढूंढ लाती. ये एक तरह की क्रूरता थी. पिछली छुट्टियों में वो अपने क्वार्टर के आगे से कुछ फूलों के पेड़ ले गया था घर में लगाने के लिए. वे उसके रहते रहते ही हफ्ते भर में मर गए. उसे महसूस हो रहा था कि बगरो उस घर में नहीं रह पाएगी. उसे शायद ऐसी यायावरी की जिंदगी ही चुननी पड़ेगी जिसमें वे दोनों गाँव, जंगल, बस्ती भटकते रहेंगे. उसने बगरो के घर वालों से बात कर ली और अपने साथ उसे लेकर गाँव चला गया कि इसी बहाने माँ और बाबा उसे देख लेंगे और शायद पसंद भी कर लें.

रूद्र घर की बारीकियों को उस वक़्त तक नहीं पहचानता था. घर में नौकर चाकर कभी थे नहीं. बगरो को देख कर किसी ने भी ये सोचा नहीं कि वो उसके साथ बराबरी से है. सबने बगरो की वेशभूषा देख कर सोचा कि माँ को आराम हो इसलिए रूद्र अपने साथ एक नौकरानी लेकर आया है जो बड़ी सरकार का ख्याल रखेगी. उन्होंने पूछने की जरूरत भी नहीं समझी कि बगरो कौन है, किसलिए आई है. रूद्र का कलेजा ऐसा कचका कि आंधी की तरह घर से बाहर निकल गया. सीधे आम के पेड़ की डाल पर. दिन भर घर नहीं लौटा और परेशान होता रहा कि किसको बताई जाए बात और कैसे. मगर लौटना तो था ही. शाम के झुटपुटे के पहले लौटा तो बाबूजी अपनी बैठकी में थे. बाबूजी ने कभी उसकी किसी बात को मना नहीं किया था. इसलिए उसने एक उम्मीद मानी थी दिल में कि शायद बाबूजी मान जायेंगे. संझा बाती के बात लालटेन लेकर वह बाबूजी के कमरे में पहुंचा. बाबूजी को बताया कि वह बगरो से प्रेम करता है. उससे शादी करना चाहता है. बाबूजी ने संयत होकर उसकी पूरी बात सुनी और आखिर में अपने हिस्से की बात समझाई. बगरो से शादी करने के बाद उनके परिवार को बहिष्कृत कर दिया जाएगा. उनके घर में कोई बेटी नहीं ब्याहेगा तो उसके छोटे भाइयों की शादी में बहुत मुश्किलें आएँगी. शायद किसी दूर के गाँव का कोई परिवार अपनी बेटी दे दे लेकिन वे सब भी बगरो को कभी अपने बराबर का नहीं मानेंगी. गाँव के किसी त्यौहार पर उनका न्योता नहीं आएगा और अभी जो तुम्हारी माँ सब जगह जाती रहती है उनका आना जाना भी बंद हो जाएगा. हम एक समाज में रहते आये हैं और इसके नियम तोड़ने की कुछ सजाएं हैं. प्रेम अपनेआप में एक बड़ी संस्था है और कभी कभी ऐसी संस्थाएं कुर्बानी मांगती हैं. रूदियों को तोड़ने में तकलीफ सिर्फ तुम्हें नहीं, तुम्हारे पूरे परिवार को होगी. हम बहुत हद तक आत्मनिर्भर हैं और मैं तुम्हारे फैसले का सम्मान करूंगा. जरूरत पड़ी तो हम किसी नए गाँव जा कर भी बस सकते हैं. रास्ता आसान नहीं है. मैं तुम्हारे हर फैसले में तुम्हारे साथ हूँ, लेकिन अंतिम निर्णय तुम्हारा है. 

बाबूजी शायद मना कर देते तो रूद्र का खून उबाल मारता और वो कोई इन्किलाबी फैसला ले लेता लेकिन बाबूजी की व्यवहारिक मुश्किलें इतनी सच थीं कि उनके सामने कविताओं की दुनिया का कोई सौंदर्य नहीं ठहरता. रूद्र चाह कर भी अपने बड़े परिवार को अपनी ख़ुशी के लिए तकलीफों में नहीं डाल सकता था. वे त्याग के दिन थे. आत्माभिमान के दिन थे. रात गहरा गयी थी. ढिबरी की रौशनी में उसने देखा बगरो माँ के पैर दबा रही है और कोई उदास गीत गुनगुना रही है. ये नेरुदा की कविता से मिलता जुलता एक था. 'मैं आज दुनिया के सबसे उदास कविता हूँ...जीवन के इस निस्तार में प्रेम कितना छोटा सा लम्हा है मगर विरह...आह...एक जीवन भर का गीत है विरह'. शायद उसने बगरो को नेरुदा के गीत नहीं पढ़ाये होते तो उस रात का दर्द कुछ कम चुभता उसे. वह दृश्य रूह पर टंकित हो गया था. रौशनी में जरा जरा दिखती उसकी उदास आँखें. खटिया पर साथ गुनगुनाती माँ...बीच में पूछती सवाल...तुम इतनी उदास क्यों हो लड़की. कौन है जिसने तुमसे प्यार किया था कभी. क्या वो खो गया है? क्या वो मर गया है? रूद्र के दिल ने कहा...हाँ...वो खो गया है...और काश वो मर सकता.

रूद्र के पठन पाठन में बाबूजी का बहुत योगदान था. उन्होंने उसे दर्शन की बारीकियां समझाई थीं. रामचरितमानस के अंत में एक प्रश्नावली होती है. जब रूद्र को अपने किसी सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता तो वो इस प्रश्नावली से अपना सवाल पूछता था और उसके हिसाब से चलता था. आज बहुत बहुत साल बाद उसके पास एक ऐसी समस्या थी जिसके लिए वो इश्वर की थोड़ी मदद चाहता था. देर रात कमरे में माचिस की रौशनी में भगवान् राम को अपने पूरे मन से याद करते हुए रूद्र सवाल बुदबुदाया, 'क्या मुझे बगरो से शादी करनी चाहिए?'. जवाब में रामचरित मानस की वो चौपाई आई जो आज तक उसके किसी सवाल में नहीं आई थी...कि अक्सर इश्वर उसके साथ ही खड़े होते थे जीवन के सारे बड़े निर्णयों में.'होइही सोई जो राम रचि राखा. को करि तर्क बढ़ावै साखा'. मगर यहाँ प्रसंग में यह कहा गया है कि कार्य शुभ नहीं है और इसकी परिणति अच्छी नहीं होगी. 

रूद्र अगले दिन बगरो के घर गया और भरे मन से उसने उसके माता पिता से माफ़ी माँग ली. लौट कर अपना सामान समेटा. बगरो को अंतिम विदा की एक चिट्ठी लिखी. उसे समझाया कि उनका साथ संभव नहीं है कि वह उससे उम्र भर नफरत कर सकती है मगर रूद्र के हिसाब से वो रूद्र को कुछ दिन में भूल जायेगी और अपने जैसे किसी से शादी कर के लोकगीत गाती हुयी सुन्दर बच्चों की माँ बनेगी. इसके बाद रूद्र ने सिर्फ एक बैग में जीने लायक सामान भरा और यायावरी के रास्ते निकल पड़ा. उसकी बेचैन रूह को कहीं करार नहीं आना था. आध्यात्म मे लिए अभी उसकी आत्मा तैयार नहीं थी. अभी वहां विरह की भीषण वेदना थी. जब तक मन इस दुःख से बाहर निकल नहीं जाता, उसे इश्वर के पास शांति नहीं मिलती. ऋषिकेश में हफ्ते भर रहते हुए उसने अपनी जिंदगी के लिए एक मकसद और एक पनाह तलाशनी शुरू की...इन्ही दिनों उसे चिट्ठियां मिलीं. खून में बहती हुयीं. हवा में घुली हुयीं. गंगा के बर्फीले सफ़ेद पानी में उभर आती चिट्ठियां. उसकी नीली नसें तड़कतीं और वो बगरो की चहचहाहट को तलाशता मगर सिर्फ लहरों का शोर होता. गंगा का पानी उसकी सोच को और तीखा कर देता और उसे पहाड़ी झरनों का मीठा पानी याद आता. बगरो की गंध उसके काँधे पर साथ चलती. उसकी उँगलियों में गुंथती. 

पनाह. शब्दों में थी. रूद्र ने निश्चय कर लिया था कि वो अपने जीने के लिए कल्पना का एक वृहद् संसार रचेगा जिसमें पूरी दुनिया से चुनी हुयी कवितायें होंगी और ये कवितायें वो खुद चुन कर लाना चाहता था. एक लम्बे सफ़र के अंत में हमेशा एक किताबों की दुकान होती. एक अनजान भाषा का देश होता. अजनबी लोग होते. धीरे धीरे उसे कविताओं की गंध लगने लगी. जबकि दुनिया को कोई चीज़ इस छोर से उस छोर तक नहीं जोड़ती थी मगर वह पॉइंट्स प्लाट करते चलता. नयी भाषाएं सीखते चलता. टूटे शब्द. बिखरे शब्द. उम्मीद के शब्द. साथ बुनते चलते दुनिया के ऊपर रहमतों का रेशम दुशाला. याद की दुखती रातों में रूद्र दुशाले का एक कोना पकड़ कर सोता. यूँ ही चलते चलते एक दिन दुनिया छोटी पड़ गयी. रूद्र लौट कर अपने देश आ चुका था. उसके साथ थी पूरी दुनिया की कविता की किताबें. दिल्ली के पोस्ट ऑफिस में उसके पोस्ट बॉक्स में वो सारी किताबें सुरक्षित थीं. अब आवारगी को एक ठिकाना देना था. उसने अपने लिए एक कैरवन खरीदा और उसे पूरी तरह एक छोटी लाइब्रेरी और रहने के कमरे में परिवर्तित कर दिया. यहाँ किताबों की जगह थी और चिट्ठियों की दराज थी. सोने का कमरा. छोटा सा किचन. खाने का जरूरी सामान भर. 

जैसे सांस अटकती है रूद्र दिल्ली से वापस आ रहा था. घर. रास्ते के हर गाँव में रुकता हुआ. लोगों को कहानियां सुनाता. चिट्ठियां दिखाता. देर रात गिटार पर अलग अलग देशों के गीत गाता और हमेशा रात के अँधेरे के पहले सो जाता. उससे लैम्प, लालटेन या डिबरी से अब भी तकलीफ होती. कभी कभी पेट्रोमैक्स जला लेता कि जब किसी गाँव के बच्चे बहुत जिद करते. लौट कर आया तो सबसे पहले जो चीज़ महसूस हुयी उसे वो थी माही. मरहम जैसी माही. रूद्र उस दिन पहली बार खूब फूट फूट के रोया था. सिविल इंजीनियर रूद्र ने अपने मन पर भी तो बाँध बना रखा था जिसमें बगरो की सारी यादें ठहरी हुयी थीं. उस दिन उस बाँध से गिरते पानी से इतनी ऊर्जा निकल रही थी कि कई लोगों की जिंदगियां रोशन हो सकती थीं. माही से बात करना इतना आसान कैसे था. कि जैसे बिना बोले समझ जाती थी मन का सारा हाल. कुछ दिन में रूद्र को महसूस होने लगा कि उसके पांवों में जड़ें उगने लगी हैं. गाँव उसे बेतरह खींचता था. माँ, बाबा और माही का निश्छल प्रेम भी. अब रूद्र को बंधन में छटपटाहट होती थी. उसे विदा कहना नहीं आता था. इक रोज़ बस अपना कैरवन लेकर निकल गया बहुत बहुत दूर. फिर माही की खबर मिली कहीं से कि बेटी हुयी है. इतरां. मगर देश के दूसरे छोर से आते आते वक़्त लग गया. 

और यहाँ थी इतरां. और जा चुकी थी माही. 

रूद्र ने बहुत दिन बाद अपनी डायरी निकाली और रोलां बार्थ की कविता पर उसकी नज़र पड़ी...इस नन्ही इतरां ने अपनी मुट्ठी में उसका दिल बाँध रखा था. इत्ती सी इतरां. टिमिक टिमिक कैसे आँखें झपका कर कह रही थी. मैं कल आउंगी. पक्का. वादा. बहुत बहुत साल बाद रूद्र को एक पुरानी बात याद आई कि जब बगरो को घर लेकर आने वाला था तो बहुत लाड़ में कहा था उससे...'मुझे और कुछ नहीं, बस एक बेटी चाहिए...एकदम तुम्हारे जैसी...'.

रोलां कह रहा था...'प्रेमी की सटीक, जानलेवा पहचान एक ही है- मैं इंतज़ार में हूँ'.
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की चौथी किस्त है. 
पहली तीन इन लिंक्स पर

अदब का नाम, 'सरकार' | God is a postman (5)

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गोधूली में बाइक की आवाज़ देर तक सुनाई देती रही. कि जैसे उसने जिंदगी दो फाँक बाँट दी हैं. अतीत और भविष्य. जैसे वर्त्तमान कुछ था ही नहीं. रूद्र अपने अतीत और भविष्य के बीच झूल रहा था बिना बीच के बिंदु पर रुके हुए. उस दिन पहली बार रूद्र को इतरां के मर जाने का डर लगा.

क्यूँ का जवाब उसके पास नहीं था. इत्ती सी इतरां. अभी एक लम्हा पहले यहीं थी. वादा करके गयी है कि कल आएगी. मगर ये सीने में किस विरह की हूक उठी है कि जैसे उससे क्या छिन गया हो. रूद्र भी गाँव के बाकी लोगों की तरह इतरां और माही में फर्क नहीं कर पा रहा था शायद. आसमां में चाँद की पतली सी रेख थी. कल की अमावस के होने को गहरा करती हुयी. इतरां के नहीं होने के अँधेरे को गहरा करती हुयी भी. रूद्र ने दरी निकाल कर आम के पेड़ के नीचे डाल दी थी. उसपर लेटा हुआ सोचता रहा कि चाँद किसकी याद में घुलता रहता था इतनी इतनी रातें. उसके लिए तो यहाँ जमीन पर इतरां है और ऊपर आसमान में माही. क्या ही चाहिए और. चाँद को एक पूरी अमावस की रात मोहलत थी कि अपने उदास चेहरे को धो पोंछ सके और अगले दिन मुस्कान की पतली रेख सा खिल सके, नया चाँद. 

यादों को फुर्सत कहाँ लेकिन. रूद्र सितारों में माही का नाम तलाशने लगा. बेतरतीबी से पड़े सितारे उसे उलझाते रहे. उसे कई बार लगता था कि उसे सारे सितारे याद हैं. कि जैसे किसी के साथ प्रेम में बिताये सारे लम्हे. कुछ कम तेज़ चमकते. कुछ ज्यादा. मगर प्रेम के हर लम्हे की मौजूदगी होती थी. अपने नियत स्थान पर. रूद्र बहुत साल बाद बगरो से अचानक मिल गया था संक्रांति के मेले में. अपने बेटे के साथ जलेबी खरीद रही थी. उसको देख कर बेतरह खुश और बेतरह उदासी के बीच रंग में ढल गयी. आँखों और होठों ने आधी आधी जिम्मेदारी ले ली. होठ मुस्कुरा रहे थे. आँखें भर आई थीं. माथे पर घूंघट खींच के पास आई और कहा, 'शहर में अब तक कोई कुरते का बटन टांकने वाली नहीं मिली का? ई लफुआ जैसन भर जिंदगी बिना बटन के कुरता पहनोगे?'. और फिर वो मेला मेला नहीं रहा, कच्चा मकान हो गया जहाँ बगरो उसकी ब्याहता थी और लजाये हुए लाड़ कर रही थी सुबह, काम पर जाने के पहले. फिरोजी कांच की चूड़ियों से एक आलपिन खोली और कुरते के बटन की जगह लगा दिया. रूद्र भूल गया था कि कुरते के बटन टांकने वाली कोई होती है...होगी. या कि उसके कुरते का बटन खुला है. कितनी सादगी से बगरो उसकी बिखरती हुयी दुनिया को एक आलपिन से टांक कर चली गयी थी. मेले में फिर उसका जी एकदम भी नहीं लगा. किताबों में भी नहीं. उसे माही से मिलने की हूक उठी. एक वही है जो पूरे धैर्य से उसकी कहानी सुनती है. फिर इतरां से भी मिल लेगा. माही का जाना उसे पहले से मालूम होता तो शायद तकलीफ कम होती. मगर यूं नन्ही इतरां की नब्ज़ में अटकती चिट्ठियों में मरने की खबर पढ़ना हिचकियों से अपना नाम अलगाने की तरह बेइंतेहा उलझा हुआ था. इस टूटने में भी उसे सम्हालने को इतरां का नन्हा वादा था. कल आने का. वो इतरां के लिए ठीक वही होना चाहता था जो माही उसके लिए थी...पनाह.

खाना खाने का भी दिल नहीं किया आज. सत्तू रखा था. थोड़ा काला नमक डाल के पी गया. प्याज काटने तक का मन नहीं था आज उसका.उसे माही से शिकायत करनी थी बगरो की...इतरां की भी. इतरां चंदर को देख कर ऐसी भागती क्यूँ गयी उसके पास? चंदर से तो रोज मिलती है न...रूद्र से पहली बार मिली है इतने सालों में. नालायक माही, इतनी प्यारी बच्ची को ऐसे छोड़ कर जाने का जी कैसे हुआ उसका. इतरां के बारे में सोचते हुए उसका दिल एक अजीब शंका से भर गया. कि जैसे इतरां भी उससे छिन जायेगी. रूद्र ने खुद को समझाने की कोशिश की कि माही की मौत का सदमा है जो उसे ऐसे वाहियात ख्यालों में उलझा रहा है. उसकी कच्ची नींदों में छोटी छोटी कब्रें आती रहीं. नदी में बहाए हुए बच्चे. कफ़न में लिपटे हुए गोदी में उठाये हुए बच्चे. वो पूरी पूरी रात नींद में चीखता रहा, इससे बेखबर कि उसकी चीखें इतरां को चुभेंगी. कि भले ही उसे इस बात से गुस्सा आये कि इतरां चंदर को देखते ही उसकी ओर भागती चली गयी थी, उसे ये नहीं मालूम कि इतरां का मन उसी के पास अटका हुआ रह गया है.

भोर को आसमान में गहरा लाल इंतज़ार उगा और रूद्र की टूटी नींद की दरारों में धूप भरती गयी. उस ने रामचरित मानस खोला और सुन्दर-काण्ड का पाठ करने लगा. उसके मन को थोड़ी शान्ति आई और वो गाँव का एक फेरा लगाने निकल पड़ा. गाँव में हल्ला हो चुका था कि रूद्र आया है. सब उसकी कहानियाँ सुनने को बेताब थे. रूद्र का घर गाँव के आखिर छोर पर था. वहाँ तक पहुँचते पहुँचते स्कूल का वक़्त हो गया था. इतरां अपनी स्कूल ड्रेस पहन कर तैयार थी बस स्कूल जाने के लिए. उसने बिना कुछ कहे आ कर रूद्र की ऊँगली पकड़ ली और बड़ी दीदी को बोल दिया कि आज वो रूद्र के साथ स्कूल चली जायेगी. उसे रास्ता मालूम है. रूद्र ने बहुत चाहा कि आते के साथ ही इतरां की अच्छी आदतें न बिगाड़े लेकिन इतरां की शैतान आँखों को देखते ही उसे अपना बदमाश बचपन याद आने लगा था. उनमें एक अलिखित समझौता हो गया कि आज स्कूल नहीं जाना है. इतरां उसे अपने हिसाब का गाँव दिखाना चाहती थी, रूद्र उसे अपने समय के अड्डे. यादव टोला से जरा आगे आम का पेड़ था जिसपर पूरी गर्मियां टीन बाबा पहरा देते थे. उनके पास एक डालडा का कनस्तर होता था और एक बड़ी सी लाठी जिससे वो ताबड़तोड़ किसी भी आमचोर का गधा जनम सुधार सकते थे. यहीं पर एक शहतूत का पेड़ भी था इतरां फट से पेड़ पर चढ़ी और अपनी दोनों मुट्ठियों में गहरे लाल शहतूत लिए उतरी. रूद्र और इतरां साथ में शहतूत खाते हुए भूल गए कि इसका गहरा लाल रंग बाद में कत्थई हो जाता है. जैसे अनुराग गहरा के प्रेम हो जाता है.

दोपहर को दोनों रूद्र की कैरावन में आ गए जहाँ रूद्र गुनगुनाते हुए खाना बना रहा था और इतरां गिलास और चम्मच से ताल दे रही थी. बड़ी सरकार के होते घर में सारे काम हिसाब से होते थे. घर का खाना भी सादा किसानों के घर का खाना होता था जिसमें मर्दों के हाथ कभी नहीं लगते थे. इतरां ने पहली बार किसी आदमी को खाना बनाते देखा था. घर पर तो किसी ने भंसा के चबूतरे पर भी पैर नहीं रखा था. सबका खाना आँगन में ही लगता था. रूद्र ने खाना बनाना बगरो के जाने के बाद सीखा था कि उसे मालूम था कि अब उसके जीवन में कोई दूसरी औरत नहीं आएगी. इतने साल हो गए उससे अब भी ढंग की रोटी नहीं बनती थी. आलू की भुजिया और अचार कच्ची पक्की रोटी में लपेट कर एक एक कौर करके रूद्र और इतरां खा रहे थे कि दांत काटी रोटी का रिश्ता बनायेंगे हम. रूद्र को अचानक से माँ के हाथ का खाना खाने की भूख जागी. उसने इतरां से पूछा कि दादी सरकार क्या बनाती हैं आजकल खाने में. इतरां चटोर, सब एक एक करके गिनाती गयी. बैगन का बचका. लाल साग. कद्दू के फूल का पकौड़ी. दुफ्फा. सब. शाम हो रही थी. इतरां रूद्र की ऊँगली पकड़ कर भारी क़दमों से घर चली. माही की चिट्ठियां इतरां को कुछ नयी ही खुराफात बता रही थी. इतरां घर के चबूतरे पर पहुंची और रूद्र की ऊँगली खींचते खींचते घर के आँगन में ले आई. रूद्र इतरां की नन्ही ऊँगली थामे घर में ऐसे दाखिल हुआ जैसे घर इतरां का ही हो और सारे अधिकार इतरां के हैं. दादी सरकार ने सोचा इन्दर आया है. भंसा से रोज की तरह उसके लिए निम्बू का शरबत लिए बाहर आई. सामने रूद्र को देख कर उन्हें चक्कर आ गया. भरभरा के फर्श पर गिरतीं लेकिन रूद्र भी सम्मोहन से जागा और उन्हें बांहों में भर लिया. बरसों से बिसरे जिस बेटे के नाम सिर्फ साल का एक दिन का व्रत आता था उसे सामने देख कर दादी सरकार इस तरह कलप के रोयीं कि जैसे चट्टान को काट कर नदी के बहने का रास्ता निकला हो. रात को खाना खा कर हाथ धो रहा था रूद्र और इतरां लालटेन और गमछा लिए खड़ी थी. सब इतना आसान भी हो सकता था? ये अधिकार कहाँ से आता है? नन्ही इतरां सबकी अना को अपने भोले बचपने में झुका सकती थी। 

रूद्र ने हथेली आँखों तक उठायी और जिस धीमी आवाज़ को सिर्फ धड़कन में सहेजा जा सके, इतरां का अदब का नाम पुकारा, 'सरकार'.

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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की ५वीं किस्त है. 
पहली ४ इन लिंक्स पर

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