पानी के विस्तार को देख कर मन नदी हुआ जाता है। अपने समंदर को तलाशता हुआ। नदी जब पहली बार पहाड़ों से उतरती है तो उसे कौन बताता है रास्ता। अपनी बेपरवाही में पत्थरों से टकराती, छिलती, राह बदलती नदी चलती जाती है। सही रास्ता तो कोई भी नहीं होता। नदी के कान में कौन फूंकता है समंदर के होने का मंत्र। कोई गुमराह नहीं करता नदी को?
डैम के जस्ट पहले बैराज बना हुआ था जिसमें पानी रोका जाता था डैम में छोड़ने से पहले। वहाँ लोगों के तैरने के लिए जगह थी। कपड़े बदलने का इंतज़ाम भी था। रूद्र और इतरां दोनों पानी में उतर गए थे। बहुत देर तक तैरने के बाद रूद्र पानी में फ़्लोट कर रहा था। उसे यूँ फ़्लोट करना बहुत पसंद था। स्थिर पानी पर पड़े रहना। बाँहें खोल कर। कई बार तो आँखें भी पानी के भीतर कर लेता और पानी के नीचे खुली आँखों से देखता आसमान। ख़ुश नीला। सफ़ेद बादल इधर उधर दौड़ते हुए। कान पानी के नीचे रहते थे तो कुछ सुनायी नहीं देता और सब कुछ पानी के थ्रू दिखायी देता। एक अलग ही दुनिया होती वो। सपनों के जैसी। बहुत शांत। एक तरह का ध्यान होता ये रूद्र के लिए। उसे रामायण की पंक्तियाँ याद आतीं। सरयू में ली राम की जल समाधि। वो अपने मन की शांति में उतरता। सारे ख़याल एक एक करके पानी में घुलते जाते। सारा दुःख भी।
इतरां के साथ डैम पर आने का प्लान भी इसलिए बनाया था कि थोड़ी देर फ़्लोट करेगा तो मन शांत होगा। इतरां के जाने का सोच सोच के उसकी रातों की नींद उड़ी हुयी थी इन दिनों।। इतरां कोई पाँच साल की रही होगी जब रूद्र ने उसे तैरना सिखाया था। लेकिन उसे फ़्लोट करने में हमेशा डर लगता रहा। इतने दिन हो गए कभी फ़्लोट नहीं करती। कितनी ही बार उसने समझाया। कर के दिखाया लेकिन नहीं। फ़्लोट करते हुए अपने ‘सम’ तक पहुँच रहा था रूद्र कि जब सारे ख़याल ग़ायब हो जाते और एक सुकूनदेह ब्लैंकनेस होती। ख़ालीपन। जिसमें कुछ दुखता नहीं। जैसे किसी दुस्वप्न में इतरां चीख़ी, ‘रूssssssssssद्र’ सेकंड के उस हिस्से में रूद्र की धड़कनें इतनी तेज़ हो गयीं कि जैसे इतरां मर चुकी हो। सारा दुःख। सारी घबराहट। अब क्या हुआ लड़की को, डूब तो नहीं रही। हड़बड़ाया और चारों ओर देखा ‘आइ एम फ़्लोटिंग’, इतरां की आवाज़ कानों से टकरायी और थोड़ी दूर में वो फ़्लोट करती दिखी। उस घबराहट में पहले रूद्र को इतना ग़ुस्सा आया कि पानी में ही थप्पड़ मारने का दिल किया। मगर फिर तैर कर बाहर निकल आया। लम्हे भर को ही इतरां को खोने का डर इतना ज़्यादा था कि कई दिनों तक उसकी धड़कन बढ़ी रहने वाली थी।
इन दिनों इतरां के साथ बिताए हुए लमहों को रिवाइंड में जी रहा था रूद्र। आज पानी में तैरते हुए फ़िल्म अपने पहले लम्हे तक पहुँच गयी थी। इतरां ने जैसे ‘cue’ पर पुकारा था रूद्र का नाम। जिस दिन पहली बार इतरां से मिला था। शाम के वक़्त इतरां बोल के गयी थी कि कल आएगी। उस रात पहली बार रूद्र को इतरां के मर जाने का डर लगा था। जैसे कभी आएगी ही नहीं लौट कर। फिर आज ये दूसरी बार था कि उसे लगा इतरां मर जाएगी। इतरां को खो देने डर बहुत गहरा था। डैम की ओवेरफ़्लो कैपैसिटी जितना गहरा। उसका ख़ुद का नाम उसकी तन्द्रा के गहनतम शांत को तोड़ चुका था।तर्क वहाँ तक नहीं पहुँचते। इतरां ने कैसे पुकारा था उसे। उसका नाम सिर्फ़ नाम था। नाम के साथ कोई भाव, राग, आवेश नहीं जुड़ा था। किसी बिंदु पर हम अपने समग्र में होते हैं। एक बिंदु पर पूरी तरह समग्र और सांद्र। ये बिंदु वक़्त और स्पेस से इतर हमारे होने में होता है। इतरां उसका नाम लेकर उस बिंदु को छू चुकी थी। उस बिंदु में शामिल हो चुकी थी। जैसे उस बेहद छोटे बिंदु की एक बहुत ही महीन चौहद्दी थी। इतरां। उसके होने के इर्द गिर्द। उसकी सीमारेखा। उसकी डेफ़िनिशन।
चीज़ों को उनकी जगह सील कर देने का एक ही तरीक़ा इंसान ने इजाद किया था। आग। शादी में आग के फेरे लिए जाते थे। चिट्ठियों पर लाल लाह को पिघला कर मुहर लगायी जाती थी। क़ैदियों को गरम लोहे से दाग़ दिया जाता था। रूद्र ने सिगरेट जला ली। यूँ वो इतरां के सामने कभी सिगरेट नहीं पीता था मगर इस लम्हे को आग में परख कर पक्का कर देना चाहता था। अपने नाम के होने को। सिगरेट का लाल सिरा उसका नाम जलाते जा रहा था। रूह के गहरे अंधेरे में। रू। द के आधे हिस्से को उसने अलगाया था उँगलियों की थिरकन से सिगरेट के सिरे पर की राख के साथ, कि धूप को रोकती इतरां खड़ी थी सामने, ‘मुझे भी दो’। उससे लड़ने का या समझाने का कोई फ़ायदा नहीं था। रूद्र सिर्फ़ मुस्कुराया। ‘मेरी सारी बुरी आदतें सीख ही लोगी या छोड़ोगी भी कुछ?’। सिगरेट का पहला कश लेते हुए इतरां के चेहरे पर इतनी शैतानी थी जैसे पहले दिन स्कूल बंक करने पर थी। ‘ट्रायल बाय फ़ायर रूद्र। बुरी आदतों के बाद भी अगर अच्छी रह गयी तब ना ग़ुरूर आएगा कि ज़िंदगी को अपने हिसाब से जिया है’। ‘ताब, यू नो, ताब होनी चाहिए…और बिना आग के ताब कहाँ से आएगी’। वे पीठ से पीठ टिकाए बैठे थे। हर कुछ कश के बाद सिगरेट पास करते। इतरां की जूठी सिगरेट गीली हो जाती थी। रूद्र को हँसी आ रही थी उसपर। ‘इत्ति सी इतरां, लेकिन बातें बनवा लो इससे बड़ी बड़ी। कहाँ से सीखी हो रे ऐसा गप्प बनाना?’ पूछते हुए भी रूद्र को इतरां का जवाब मालूम था। ‘तुमसे। और किससे’।
सिगरेट ख़त्म ही हुई थी कि एक चाय वाला पहुँच गया। इस वक़्त जैसे चाय की ही तलब थी। फिर दुनिया एकदम पर्फ़ेक्ट हो जाती। दोनों ने एक एक कप चाय ली और एक पलाश के पेड़ के नीचे जा बैठे। वहाँ हल्की हल्की छांव थी और नीचे बहुत से पलाश के फूल गिरे हुए थे। इतरां चाय पीते हुए पलाश के फूल की पंखुड़ियों को ऊँगली में मसल रही थी और उनका लाल रंग निकाल रही थी।
‘मैं अपना सीक्रेट सुनाऊँ रूद्र?’
‘हाँ। बता। ऐसा क्या है तेरे बारे में जो मैं भी नहीं जानता’।
इतरां ने अपनी बायाँ हाथ दिखाया रूद्र को। नब्ज़ के ठीक ऊपर दो गहरे काले निशान थे। एक दूसरे की सीध में।
‘तुम पहेलियाँ बूझते हो?’
‘तुम पूछो…देखता हूँ’
‘ये दो बिंदी देख रहे हो रूद्र। जब मैं छोटी थी तो मुझे साँप ने काट लिया था’
‘यही सीक्रेट है तेरा? मुझे मालूम है कि तेरी ही ख़ुराफ़ात से डॉक्टर हरि को सब कोई हरहरिया साँप बोलता है। मालूम है मुझे ये बात’। रूद्र उसकी बात को काटते हुए बोला।
‘नहीं। उफ़्फ़। रूद्र। पेशेंस। पूरी कहानी सुनो तुम। जब साँप ने मुझे काटा था तो मैं एक मिनट के लिए मर गयी थी’
‘कुछ भी…बेहोश हुयी होगी बस।’
‘यही सबको लगता है। लेकिन मैं बेहोश नहीं हुयी थी। मर गयी थी। मर के मैं जहाँ पहुँची वहाँ बहुत अंधेरा था और गहरी लाल रोशनी थी। जैसे फ़ोटो स्टूडीओ में होती है ना। वैसी। मुझे लगा कि मैं ओपेरेशन थिएटर में आ गयी हूँ। वहाँ कुछ महसूस नहीं हो रहा था। मैं बस थी। और कुछ ख़याल थे। जैसे सपनों में होते हैं। मुझे लगा कि कोई बुरा सपना है। मगर फिर ऐसा लगा कि माही है। कुछ बातें थीं जो मुझे उस वक़्त कुछ समझ नहीं आ रही थीं। बिंदुओं के बारे में। होने के बारे में। मैं बहुत छोटी थी ना। मगर अभी अचानक से समझ आयी हैं चीज़ें। देखो ये जो पहला बिंदु है ना। वो खुदा है। ईश्वर। सब कुछ इसी बिंदु पर शुरू और ख़त्म होता है। टाइम। स्पेस। सब कुछ सिर्फ़ एक पोईंट था। ये पहला बिंदु वो है। दूसरा बिंदु जो है, वो माँ है। माही। माही ने ईश्वर से कहा कि मेरी कहानी शुरू होनी चाहिए। उसने मुझे माँगा। ख़ुद को ईश्वर के सामने रख के। दूसरे बिंदु के आने से मेरा होना वजूद में आया…और असल पहेली अब आती है…तीसरे बिंदु की। तीसरा बिंदु होगा इश्क़। तुम इश्क़ समझते हो?’
‘नहीं। तुम समझाओ’।
‘देखो। जो तीसरा बिंदु होगा ना, इश्क़, वही इस पहेली का डिफ़ाइनिंग हिस्सा है। वो ऐसे कि देखो…ज़िंदगी एक कहानी होती है या एक इक्वेशन होती है…कहानी अधूरी भी हो सकती है मगर इक्वेशन सॉल्व हो जाता है अक्सर। तो ईश्वर से अगर मेरी ज़िंदगी की कहानी पूरी हो गयी, माने इक्वेशन सॉल्व हो गया तो ये तीसरा बिंदु जो होगा इश्क़, वो मेरी ज़िंदगी को मुकम्मल करेगा। तब इसकी जगह होगी यहाँ, इन बिंदुओं के ऊपर, ऐसे
∴यानी कि ‘therefore’ जैसे किसी मैथ के इक्वेशन के अंत में लिखते हैं ना। जब लेफ़्ट और राइट दोनों तरफ़ की चीज़ें सुलझ जाती हैं तो। अगर मेरी ज़िंदगी का इश्क़ मुकम्मल हुआ तो ये बिंदु इन दोनों बिंदुओं के ऊपर उगेगा मेरी कलाई में। लेकिन अगर इस जन्म में मेरी ज़िंदगी में अधूरापन होगा, क्रमशः, टू बी कंटिन्यूड जैसा कुछ, कि अगर मेरी कहानी आधी ही रह जाने वाली है, इश्क़ अगर अधूरा छोड़ेगा मुझे तो जो तीसरा बिंदु होगा, वो इन दोनों बिंदुओं के आगे लगेगा, सीधी लकीर में, एक ellipsis
…’
‘ellipsis या कि therefore. यानी कि एक बिंदु उगेगा और उससे तुझे पता चलेगा कि तेरी ज़िंदगी अधूरी रहने वाली है या मुकम्मल?’
‘हाँ। तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रही हूँ? अभी तो मुझे भी पूरी पूरी तरह ठीक से समझ नहीं आया है। लेकिन मुझे लगता है कि अगर कोई समझ सकता है इस बात को तो बस तुम ही हो। मेरी नब्ज़ में बहती चिट्ठियाँ भी तो और किसी को नहीं महसूस होतीं’।
‘तुझे कैसे यक़ीन है कि एक बिंदु उगेगा ही?’
‘जैसे मुझे हमेशा मालूम था कि एक दिन तुम चले आओगे अचानक से ज़िंदगी में। और रह जाओगे हमेशा के लिए’
‘लेकिन ये therefore वाला सिम्बल कोई नयी चीज़ नहीं है। तूने बंज़ारों को देखा है ना? वे इसी सिम्बल के गोदने गुदवाते हैं अपने बदन पर। हमेशा से’
‘हाँ रूद्र। उन्हीं को देख कर तो मुझे पहेली समझ आयी। वे ख़ुद को दिलासा देते हैं कि उनकी ज़िंदगी की कहानी उनके ख़ुद के हाथ में है, किसी खुदा के हाथ में नहीं’।
‘तुझे नहीं लगता कि तेरी ज़िंदगी तेरे ख़ुद के हाथ में है?’
‘रूद्र, मेरे हाथ देखो…तुम्हें नहीं लगता खुदा के हाथ मुझसे ज़्यादा ख़ूबसूरत होते होंगे? मैं क्यूँ अपनी ज़िंदगी छीनूँ उसके हाथ से। लिखने दो ना जो उसका दिल करे…और फिर ज़्यादा कुछ होगा तो माही है ना। इसलिए तो वहाँ डेरा जमा के बैठी है। क्या बोलते हो तुम? कैसा लगा मेरा सीक्रेट? बताओ, मालूम था ये तुमको मेरे बारे में?’
‘मेरी इत्ती सी इतरां, तुझे कभी कभी सुन कर लगता है कि मुझे ख़ुद के बारे में भी कुछ नहीं मालूम है’
‘अच्छा, एक प्रॉमिस करोगे?’
‘अब क्या चाहिए तुझे?’
‘ये बात याद रखना। अगर कभी मैंने ज़िंदगी में तुमसे कहा कि मैं टैटू बनवाना चाहती हूँ तो मुझे ये वाली दोपहर याद दिला दोगे? हो सकता है मैं फिर भी खुदा को ओवररूल करना चाहूँ। मगर तुम याद दिला दोगे? बस इतना कि खुदा के हाथ मेरे हाथों से ज़्यादा ख़ूबसूरत हैं।’
‘और जो मेरा दिल किया खुदा को ओवररूल करने का तो? मैंने ईश्वर के हिस्से ज़िंदगी का एक निर्णय छोड़ा था। मैंने उसके हिसाब से जी है ज़िंदगी। तुम्हें भी उसी रास्ते जाने दूँ? तुम्हारा रास्ता रोकने का दिल करेगा तो? तुम्हें कहीं से लौटा लेने का दिल करेगा तो?’
‘कोई आसान सवाल नहीं है तुम्हारे पास जिसका मैं जवाब दे सकूँ?’
‘तुम्हारे सवालों की गहराई तुम्हारी अक़्ल से गहरी है। मैं क्या ही करूँ मेरी इतरां’
‘कुछ मत करो। मेरे हाथ ठंढे हो गए हैं। थोड़ी देर इन्हें अपने हाथ में लेकर बैठो बस।’
‘तुम्हारी जान इश्क़ में ही जानी है मेरी इतरां, दुनिया में और कोई आफ़त तुम्हें छू नहीं सकती’
‘अच्छा। चलो, एक सिम्पल सवाल पूछती हूँ अब तुमसे, व्हीली सिखाओगे?’
‘तुम्हें मना कर पाया हूँ किसी बात के लिए कभी। सिखा दूँगा। पहले बाइक पर ठीक से कंट्रोल करना सीख लो। अभी तो पूरा एक महीना है।’
‘एक गाना सुनाओ ना रूद्र। मन कैसा कैसा ना तो हो रहा है’
‘इत्तु, अभी कुछ भी और माँग लो। गाना नहीं हो पाएगा। तू ही गा दे कुछ।’
‘रेशमा को गाऊँ?’
‘अक्सर शबे तन्हाई में?’
‘हाँ’
‘हम दोनों मर जाएँगे रे इतरां’
‘ये वाली दोपहर हम कभी नहीं भूलेंगे ना? कभी भी नहीं ना?’
‘बीते हुए दिन ऐश के…’
इक गहरी ख़ामोशी में पानी ठहर गया था। बारिशों में बहुत बहुत दिन थे। इतरां की आवाज़ रूद्र की रूह पर खुरच कर लिख रही थी उसका ही नाम या कि पलाश के पेड़ के तने पर। दर्ज करती जा रही थी लम्हे की गंध। अभी तो उसने देखा ही नहीं था बचपन का गुज़रना फिर आवाज़ का ये मरहम था या ज़ख़्म। ये कौन सी टीस घुल रही थी। गीत ख़त्म होते होते दोनों की आँखें भर आयी थीं और इस पानी पर कोई बाँध नहीं था। कोई डैम नहीं। कोई बैराज नहीं। वे उस गीत में घुल गए थे। एक इनफ़ाईनाइट लूप में। हमेशा से, हमेशा तक।