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मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.

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प्रेम हर बार सम् से शुरू होता है. मैं विलंबित ख्याल में आलाप लेती हूँ. मेरी आवाज़ तुम्हें तलाशती है. ठीक सम् पर मिलती हैं आँखें तुमसे...ठहर कर फिर से शुरू होता है गीत का बोल कोई...सांवरे...

प्रेम को हर बार चाहिए होती है नयी भाषा. नए प्रतीक. नए शहर. नए बिम्ब. प्रेम आपको पूरी तरह से नया कर देता है. हम सीखते हैं फिर से ककहरा कि जो उसके नाम से शुरू होता है. वक़्त की गिनती इंतज़ार के लम्हों में होती है.

प्रेम आपको आप तक ले कर आता है. मैंने बचपन में हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत छः साल तक सीखा है. संगीत विशारद की डिग्री भी है. गुरु भी अद्भुत मिले थे. मैंने अपनी जिंदगी में किसी को उस तरह गाते हुए नहीं सुना है. फिर जिंदगी की कवायद में कहीं खो गया संगीत.

मैंने हारमोनियम ग्यारह साल बाद छुआ है. मगर ठीक ठीक संगीत छूट गया था देवघर छूटने के साथ ही १९९९ में. बात को सत्रह साल हो गए. देवघर में हमारा अपना घर था. पटना में किराए का अपार्टमेंट था. गाने में शर्म भी आती थी कि लोग परेशान होंगे. शाश्त्रीय संगीत को शोर ही समझा जाता रहा है. फिर घर छूटा. दिल्ली. बैंगलोर. 

संगीत तक लौटी हूँ. पहली शाम हमोनियम पर आलाप शुरू किया तो पाया कि सारे स्वर इस कदर भटके हुए हैं कि एकबारगी लगा कि हारमोनियम ठीक से ट्यून नहीं है. मगर फिर समझ आया कि मुझे वाकई रियाज किये बहुत बहुत साल हो गए हैं. आखिरी बार जब रियाज किया था तो एक्जाम था. उन दिनों सारे राग अच्छे से गाया करती थी. छोटा ख्याल, विलंबित ख्याल. तान. आलाप. पकड़. छः साल लगातार संगीत सीखते हुए ये भी महसूसा था कि आवाज़ वाकई नाभि से आती महसूस होती है. पूरा बदन एक साउंडबॉक्स हो जाता है. संगीत अन्दर से फूटता है. उन दिनों लेकिन मन से तार नहीं जुड़ता था. टेक्निक थी लेकिन आत्मा नहीं. वरना शायद संगीत को कभी नहीं छोड़ती.

इन दिनों बहुत मन अशांत था. मैं ध्यान के लिये योग नहीं कर सकती. मन को शांत करने के लिए सिर्फ संगीत का रास्ता था. सरगम का आलाप लेते हुए वैसी ही गहरी साँस आती है. मन के समंदर का ज्वारभाटा शांत होने लगता है. हारमोनियम ला कर पहला सुर लगाया, 'सा'तो आवाज़ कंठ में ही अटक रही थी. गला सूख रहा था. ठहर भी नहीं पा रही थी. सुरों को साधने में बहुत वक़्त लगेगा. हफ्ते भर के रियाज में इतना हुआ है कि सुर वापस ह्रदय से निकलते हैं. मन से. सारे स्वर सही लगने लगे हैं. अभी सिर्फ शुद्ध स्वरों पर हूँ. कोमल स्वरों की बारी इनके बाद आएगी.

प्रेम. संगीत के सात शुद्ध स्वर. 

मेरे अंतस से निकलते. मैं होती जा रही हूँ संगीत. इसी सिलसिले में सुबह से पुरानी ठुमरियों को सुन रही थी. ये सब बहुत पहले सुना था. उन दिनों समझ नहीं थी. उन दिनों क्लासिकल सुनना अच्छा नहीं लगता था. न हिन्दुस्तानी न वेस्टर्न. शायद वाकई क्लासिक समझने के लिए सही उम्र तक आना पड़ता है. जैज़ भी पिछले एक साल से पसंद आ रहा है. संगीत के साथ अच्छी बात ये है कि आप उससे प्रेम करते हैं. उसे समझने की कोशिश नहीं करते. मुझे सुनते हुए राग फिलहाल पकड़ नहीं आयेंगे. शायद किसी दिन. मगर मेरा वो करने का मन नहीं है. मैं अपने सुख भर का गा लूं. अपने को सहेजने जितना सुन लूं...बस उतना काफी है.

इस वीडियो में तस्वीर देखी. आँख भर प्रेम देखा. उजास भरी आँखें. श्वेत बाल. बड़ी सी काली बिंदी. वीडियो प्ले हुआ और मुझे मेरा सम् मिल गया. मैं सुबह से एक इसी को सुन रही हूँ. मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.
'जमुना किनारे मोरा गाँव
साँवरे अइ जइयो साँवरे'


द राइटर्स डायरी: आपने किसी को आखिरी बार खुश कब देखा था?

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आपने आखिरी बार किसी के चेहरे पर हज़ार वाट की मुस्कान कब देखी थी? थकी हारी, दबी कुचली नहीं. असली वाली मुस्कान. कि जिसे देख कर ही जिन्दगी जीने को जी करे. जिसे दैख कर उर्जा महसूस हो. किसी अजनबी को यूं ही मुस्कुराते या गुनगुनाते कब देखा था? राह चलते लोगों के चेहरों पर एक अजीब सा विरक्त भाव क्यूँ रहता है...किसी की आँखों में आँखें डाल कर क्यूँ नहीं देखते लोग? ये कौन सा डर है? ये कौन सा दुःख है कि साए की तरह पीछे लगा हुआ है. 

खुल कर मुस्कुराना...गुनगुनाते हुए चलना कि कदम थिरक रहे हों...जरा सा झूमते हुए से...ओब्सीन लगता है...गलीज...कि जैसे हम कोई गुनाह कर रहे हों. कि जैसे दुनिया कोई मातम मना रही हो सफ़ेद लिबास में और हम होलिया रहे हैं. बैंगलोर में ही ऐसा होता है कि पटना में भी होने लगा है हमको मालूम नहीं. सब कहाँ भागते रहते हैं. दौड़ते रहते हैं. हम जब सुबह का नाश्ता साथ कर रहे होते हैं मुझे देर हो जाती है रोज़...मैं धीरे खाती हूँ और खाने के बीच बीच में भी बात करती जाती हूँ. मेरे दोस्त जानते हैं. मैं उसकी हड़बड़ी देखती हूँ. उसे ऑफिस को देर हो रही होती है. ये पांच मिनट बचा कर हम क्या करेंगे. जो लोग सिग्नल तोड़ते हैं या फिर खतरनाक तेज़ी से बाइक चलाते हैं उन्हें कहाँ जाना होता है इतनी हड़बड़ी में. 

आजकल तो फिर भी मुस्कान थोड़ी मद्धम पड़ गयी है वरना एक वक़्त था कि मेरी आँखें हमेशा चमकती रहती थीं. मुझे ख़ुशी के लिए किसी कारण की दरकार नहीं होती थी. ख़ुशी मेरे अन्दर से फूटती थी. बिला वजह. सुबह की धूप अच्छी है. होस्टल में पसंद का कोई खाना बन गया. खिड़की से बाहर देखते हुए कोई बच्चा दिख गया तो उसे मुंह चिढ़ाती रही. ऑफिस में भी हाई एनर्जी बैटरी की तरह नाचती रहती दिन भर. कॉलेज में तो ये हाल था कि किसी प्रोजेक्ट के लिए काम कर रहे हैं तो तीन दिन लगातार काम कर लिए. बिना आधा घंटा भी सोये हुए. लोग तरसते थे कि मैं एक बार कहूँ, मैं थक गयी हूँ. अजस्र ऊर्जा थी मेरे अन्दर. जिंदगी की. मुहब्बत की. मुझे इस जिंदगी से बेइंतेहा मुहब्बत थी. 

हम सब लोग उदास हो गए हैं. हम हमेशा थके हुए रहते हैं. चिड़चिड़े. हँसते हुए लोग कहाँ हैं? मुस्कुराना लोगों को उलझन में डालता है कि मैं कोई तो खुराफात प्लान कर रही हूँ मन ही मन. ये गलत भी नहीं होता है हमेशा. कि खुराफात तो मेरे दिमाग में हमेशा ही चलती रहती है. अचानक से सब डरे हुए लोग हो गए हैं. हम डरते हैं कि कोई हमारी ख़ुशी पर डाका डाल देगा. कि हमारी ख़ुशी को किसी की नज़र लग जायेगी. ख़ुशी कि जो रोज धांगी जाने वाली जींस हुआ करती थी...सालों भर पहनी जाने वाली, अब तमीज, तबियत और माहौल के हिसाब से पहनी जाने वाली सिल्क की साड़ी हो गयी है कि जो माहौल खोजती है. आप कहीं भी खड़े खड़े मुस्कुरा नहीं सकते. लोग आपको घूरेंगे. मेरा कभी कभी मन करता है कि राह चलते किसी को रोक के पूछूं, 'तुमने किसी को आखिरी बार हँसते कब देखा था?'.

रही सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है. अजीब लगेगा सुनने में मगर कई बार मेरे घर में ऐसा हुआ है कि चार लोग बैठे हैं हॉल में और सब अपने अपने फोन पर व्हाट्सएप्प पर एक दूसरे से ही किसी ग्रुप के भीतर बात कर रहे हैं. मुझे अक्सर क्लास मॉनिटर की तरह चिल्लाना पड़ता है कि फ़ोन नीचे रखो और एक दूसरे से बात करो. कभी कभी सोचती हूँ वायफाय बंद कर दिया करूँ. मैं पिछले साल अपने एक एक्स-कलीग से मिलने गयी थी स्टारबक्स. राहिल. मैंने उससे ज्यादा बिजी इंसान जिंदगी में नहीं देखा है. क्लाइंट्स हमेशा उसके खून के प्यासे ही रहते हैं. उन्हें हमेशा उससे कौन सी बात करनी होती है मालूम नहीं. वे भूल जाते हैं कि वो इंसान है. कि उसका पर्सनल टाइम भी है. इन फैक्ट हमने अपने क्लाइंट्स को बहुत सर चढ़ा भी रखा है. राहिल जब मिलने आया तो उसने अपने दोनों फोन साइलेंट पर किये और दोनों को फेस डाउन करके टेबल पर रख दिया. कि मेसेज आये या कॉल आये तो डिस्टर्ब न हो. कोई आपको अपना वक़्त इस तरह से देता है माने आपने इज्जत कमाई है. उसके ऐसा करने से मेरे मन में उसके प्रति सम्मान बहुत बढ़ गया. रेस्पेक्ट जिसको कहते हैं. म्यूच्यूअल रेस्पेक्ट. वो उम्र में कमसे कम पांच साल छोटा है मुझसे जबकि. मैं किसी से मिलती हूँ तो मोबाइल साइलेंट पर रखती हूँ. अधिकतर फोन कॉल्स उठाती नहीं हूँ. मुझे फोन से कोफ़्त होती है इन दिनों. मैं वाकई किसी बिना नेटवर्क वाली जगह पर छुट्टियाँ मनाने जाना चाहती हूँ. 

और चाहने की जहाँ तक बात आती है. मैं कुछ ज्यादा नहीं. बस चिट्ठियां लिखना चाहती हूँ. ये जानते हुए भी कि ऐसा सोचना खुद को दुःख के लिए तैयार करना है. मैं जवाब चाहती हूँ. मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे चिट्ठियां लिखे. मगर इतना जरूर कि मेरी लिखी चिट्ठियों का जवाब आये. 

आज ऐसा इत्तिफाक हुआ कि फोन पर बात करते हुए कुछ कमबख्त दोस्त लोग सिगरेट पीते रहे. हम इधर कुढ़ते भुनते रहे कि इन दिनों एकदम सिगरेट को हाथ नहीं लगायेंगे. मैं सिगरेट बिलकुल नहीं पीती. बेहद शौकिया. कभी छः महीने में एक बार एक सिगरेट पी ली तो पी ली. हाँ इजाजत की माया की तरह मुझे भी अपने बैग में सिगरेट का पैकेट रखने का शौक़ है. मेरे पास अक्सर सिगरेट रहती है. लाइटर भी. RHTDM का वो सीन याद आ रहा है जिसमें लाइट कटती है और मैडी कहता है, 'अच्छा है...मेरे पास माचिस है'. दिया मिर्जा कहती है, 'तुम सिगरेट पीते हो?'. मैडी कहता है, 'अरे मेरे पास माचिस है तो मैं सिगरेट पीता हूँ, मेरे पास कैंची है तो मैं नाई हो गया...व्हाट सॉर्ट ऑफ़ अ लॉजिक इस दैट'. मेरे बैग से लाइटर निकलता है तो मैं भी यही कहती हूँ. हालाँकि बात ये है कि लाइटर कैंडिल जलाने के लिए रखे जाते हैं.

ख़ुशी गुम होती जा रही है. आप कुछ कीजिये अपनी ख़ुशी के लिए. अपने बॉस, अपने जीवनसाथी, अपने माता-पिता, अपने दोस्तों, अपने बच्चों की ख़ुशी के अलावा...कुछ ऐसा कीजिये जिसमें आपको ख़ुशी मिलती हो. इस बारे में सोचिये कि आपको क्या करने से ख़ुशी मिलती है. दौड़ने, बागवानी करने, अपनी पसंद का खाना बनाने में, दारू पीने में, सुट्टा मारने में, डांस करने में, गाने में...किस चीज़ में? उस चीज़ के लिए वक़्त निकालिए. जिंदगी बहुत छोटी है. अचानक से ख़त्म हो जाती है. 

दूसरी बात. आपको किनसे प्यार है. दोस्त हैं. महबूब हैं. परिवार के लोग हैं. पुराने ऑफिस के लोग. उनसे मिलने का वक़्त निकालिए. यकीन कीजिये अच्छा लगेगा. आपको भी. उनको भी. जिंदगी किसी मंजिल पर पहुँचने का नाम नहीं है. ये हर लम्हा बीत रही है. इसे हर लम्हे जीना चाहिए. जिंदगी से फालतू लोग निकाल फेंकिये. जिनके पास आपके लिए फुर्सत नहीं है उनके लिए आपके पास वक़्त क्यूँ हो. उन लोगों के साथ वक़्त बिताइए जिन्हें आपकी कद्र हो. जिन्हें आप अच्छे लगते हों. और सुनने में ये भी अजीब लगेगा, लेकिन लोगों को हग किया कीजीये, जी हाँ, वही जादू की झप्पी. सच में काम करती है. मेरी बात मान कर ट्राय करके देखिये. शुरू में थोड़ा अजीब, चेप टाइप भले लगे, लेकिन बाद में अच्छा लगने लगेगा. सुख जैसा. सुकून जैसा. बचपन के भोलेपन जैसा. 

और सबसे जरूरी. खुद से प्यार करना. कोई भी परफेक्ट नहीं होता है. आपसे गलितियाँ होंगी. पहले भी हुयी होंगी. पिछली गलतियों को माफ़ नहीं करेंगे तो आगे गलितियाँ करने में कितना डर लगेगा. इसलिए खुद को हर कुछ दिन में क्लीन स्लेट देते रहिये. हम एक नए दौर में जी रहे हैं जिसमें कुछ भी ज्यादा दिनों नहीं चलता. उदासियाँ ओढ़ने का क्या फायदा. मूव ऑन.

यही सब बातें मैं खुद को भी कहती हूँ. इस दुनिया को जरा सी और खुशी की जरूरत है. जरा मुस्कुराईये. मुहब्बत से. 

Chasm

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मुझे तुम्हारी कुछ याद नहीं है। रंग। गंध। स्पर्श। कुछ नहीं।
मुझे नहीं याद है कि तुम हँसते हुए कैसी लगती थी। एक्ज़ाम के लिए जाते हुए जब तुम्हारा पैर छूते थे तो उँगलियों की पोर में जो धूल लगती थी ज़रा सी वो याद है...कि उस वक़्त तुम अक्सर झाड़ू दे रही होती थी लेकिन तुम्हारी त्वचा का स्पर्श मुझे याद नहीं है। मुझे ये भी याद नहीं है कि तुम कैसे ख़ुश या उदास होती थी। तुम्हारी पसंद के गाने याद नहीं मुझे। सिवाए एक धुँधली सी स्मृति कि तुमको जौय मुखर्जी और बिस्वजीत पसंद था। एक गाना जो हम गाते थे और तुमको बहुत पसंद था, हम पिछले आठ सालों में नहीं सुने हैं। ना गाए हैं कभी।

मुझे नहीं याद है कि तुम्हारे हाथ के खाने का स्वाद कैसा था। हमको दीदिमा के हाथ का आलू और बंधागोभी का सब्ज़ी याद है लेकिन तुम्हारा कुछ याद नहीं है। जब लोग कहते हैं कि उनको घर का खाना पसंद है तो वो अक्सर अपनी माँ, चाची या ऐसी किसी की बात कर रहे होते हैं...कभी कभी बीवियों की भी। मुझे बाहर का खाना पसंद है। मुझे इंडियन कुजीन नहीं पसंद है। बाहर जाते हैं तो मेक्सिकन, इटलियन...जाने क्या क्या खा आते हैं। पसंद से। लेकिन इंडियन कुछ नहीं पसंद आया। मेरे लिए तो घर का खाना तुम्हारे साथ ही चला गया माँ। अपने हाथ के खाने में तुम्हारा स्वाद नहीं आता कभी। हमको तो मालूम भी नहीं है कि तुम कौन ब्राण्ड का मसाला यूज़ करती थी। यहाँ साउथ में मोस्ट्ली MTR मिलता है। यूँ तो बाक़ी सब भी मिलता है लेकिन सामने जो दिखता है वही ले आते हैं। हमको खाना बनाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन जो भी मेरे हाथ का खाना खाया है वो सब बोला है कि हम बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। हमको किसी को खाना खिलाने का शौक़ नहीं लगता है एकदम। कभी भी नहीं। हम किसी को बता नहीं सकते कि तुम कितना शौक़ से सबको खिलाया करती थी। मुझे याद नहीं है लेकिन एक फ़ोटो है जिसमें मेरे कॉलेज की दोस्त लोग आयी हुयी है और हम डाइनिंग टेबल पर खा रहे हैं। एक और दोस्त कहती है कि वो तुम्हारे जैसा ब्रेड पोहा बनाती है। हमको उसकी रेसिपी याद नहीं। उससे अपने माँ की ब्रेड पोहा की रेसिपी माँगना ख़राब लगेगा ना। देवघर में अभी भी तुम्हारी खाने की रेसिपी वाली ब्राउन डायरी है। लेकिन वो कौन से कोड में लिखी है कि तुम्हारे बिना खोल नहीं सकते उसको।

बैंगलोर में ठंढ नहीं पड़ती इसलिए स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी पिछले कई सालों से। पिछले साल डैलस जाना था तो तुम्हारे बने हुए स्वेटर वाला बक्सा खोला। बहुत देर तक सारे स्वेटर देखती रही। कुछ को तो छू छू कर देखा। सोचा कि कितना कितना अरसा लगा होगा इसमें से एक एक को बनाने में। मगर तुम मुझे स्वेटर बुनती हुयी याद में भी नहीं दिखी मम्मी।

तुम्हारे बिना जीने का कोई उपाय नहीं था इसके सिवा कि उन सारे सालों को विस्मृत कर दिया जाए। मेरी याद में ज़िंदगी के चौबीस साल नहीं हैं। मेरे बचपन की कोई कहानी नहीं है। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार तुम्हारी फ़ोटो कब देखी थी। कश्मीर के ऐल्बम रखे हुए हैं लेकिन पलटाती नहीं। जब तक दीदिमा थी तब तक फिर भी तुम्हारे होने की एक छहक थी उसमें। एक बार मिलने गए थे तो खाना खा रही थी...बोली एक कौर खिला देते हैं तुमको...मेरे साथ खा लो। हम पिछले आठ साल में शायद वो एक कौर ही खाए होंगे किसी और के हाथ से। दीदिमा तो तुमको भी खिला देती थी ना हमेशा। मामाजी को। हम बच्चा लोग को भी।

ये टूटन हमको कहाँ तक ले जाएगी मालूम नहीं। ख़ुद को कितना भी बाँध के रखते हैं कभी ना कभी कोई ना कोई फ़ॉल्ट लाइन दिख ही जाती है। कोई ना कोई भूचाल करवट बदलने लगता है। पिछले दो साल से मर जाने का मन नहीं किया था। लगा कि शायद हम उबर गए हैं। शायद वाक़ई हमको अब जीना आ ही जाएगा तुम्हारे बिना। लेकिन रिलैप्स होता है। परसों छत पर सनसेट देखने गए थे। ग़लती मेरी ही थी। अंतिम एप्रिल के महीने में हमको मालूम होना चाहिए था कि हम अभी कमज़ोर हैं। लेकिन हादसे बहुत दिन से नहीं होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि उनके वापस लौट आने में लम्हा लगता है बस। छः माला की छत थी। सूरज डूब चुका था। मेरा दिल भी। हम जानते हैं कि दुनिया में किसी चीज़ से अटैचमेंट नहीं है मेरा। हमको सावधान रहना चाहिए। किसी को फ़ोन करने का मन नहीं किया। इक गर्म शाम सूरज के छोड़े गए लाल रंगों में बस डूब जाने का मन था। मालूम नहीं क्या बात करनी थी। कुछ दोस्तों को फ़ोन किया मजबूरी में। मुझे कोई आवाज़ चाहिए थी उस वक़्त। कुछ मज़ाक़। किसी की हँसी। किसी की भी। लगभग दो या तीन साल हो गए होंगे कि जब मर जाने को ऐसा बेसाख़्ता दिल चाहे। शायद मैं कभी नहीं जान पाऊँगी कि जीने की इच्छा से पूरा पूरा भरा भरा होना क्या होता है।

हमको मालूम नहीं है हम तुमको कहाँ कहाँ ढूँढते फिरते हैं। इस चीज़ से हमको डर लगता है बस। एक दिन किसी को कहने का मन किया कि अगली बार अगर हम साथ में खाना खाएँगे तो हमको एक कौर अपने हाथ से खिला देना। हमको ज़ब्त आता है तो उसको कहे नहीं ये बात लेकिन मम्मी, तुम ही सोचो। ऐसा चाहना ग़लत है ना। बता देते तो क्या सोचता वो भी। ऐसे कमज़ोर लम्हे हमको बहुत डराते हैं।

टूटा हुआ बहुत कुछ है। हम अपने आप को कहते चलते हैं कि हम बहुत मज़बूत हैं। बार बार बार बार। कि बार बार ख़ुद को कहते हुए इस बात पर यक़ीन आने भी लगता है कि शायद हम जी ही जाएँगे अपने हिस्से की उम्र। शायद कोई सुख होगा ज़िंदगी में कि जिसके लिए इतनी क़वायद है।

I'm incapable of love. Or of being loved. 

I miss you ma. You were the last love of my life. The unrequited one. The unconfessed one. The one who never knew. How much I loved you. 

I don't know what to do. I don't know how to live. I still don't know how to move on. I'm afraid beyond words. Beyond understanding. Beyond hurt and pain. 

Nothing heals. But that's because you were not a wound. Your departure too is not. It's a soul ache. I miss the part of my soul that died with you. 

I hope to see you soon. 

Happy Birthday my love. My ma. My only one. 
I shall always love you. always. 

चाँद मुहब्बत। इश्क़ गुनाह।

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'तुम वापस कब आ रही हो?'
'जब दुखना बंद हो जाएगा तब।'
'तुम्हें यक़ीन है कि दुखना बंद हो जाएगा?'
'हाँ'
'कब?'
'जब प्रेम की जगह विरक्ति आ जाएगी तब।'
'इस सबका हासिल क्या है?'
'हासिल?'
'हाँ'
'जीवन का हासिल क्या होता है?'
'Why are you asking me, you are the one here with all the answers. What’s the whole fu*king point of all this.'
'Please don’t curse. I’m very sensitive these days.'
'ठीक है। तो बस इतना बता दो। इस सबका हासिल है क्या?'
'मुझसे कुछ मत पूछो। मैं प्रेम में हूँ। उसका नाम पूछो।'
'क्या नाम है उसका?'
'पूजा।'
'This is narcissism.'
'नहीं। ये रास्ता निर्वाण तक जाता है। मुझे मेरा बोधि वृक्ष मिल गया है।'
'अच्छा। कहाँ है वह?'
'नहीं। वो किसी जगह पर नहीं है। वो एक भाव में है।'
'प्रेम?'
'हाँ, प्रेम।'
'तो फिर? गौतम से सिद्धार्थ बनोगी अब? राजपाट में लौटोगी? निर्वाण से प्रेम तक?
'नहीं। ये कर्ट कोबेन वाला निर्वाण है।'
'मज़ाक़ मत करो। कहाँ हो तुम?''
'I am travelling from emptiness to nothingness.'
'समझ नहीं आया।'
'ख़ालीपन से निर्वात की ओर।
'ट्रान्स्लेट करने नहीं समझाने बोले थे हम।'
'मुझे दूर एक ब्लैक होल दिख रहा है। मैं उसमें गुम होने वाली हूँ।'
'वापस आओगी?'
'तुम इंतज़ार करोगे?'
'मेरे जवाब से फ़र्क़ पड़ता है?'
'शायद।'
'Tell me why I’m in love with you.'
'Because you hurt. All over.'
'Do you need a hug?'
'You are touch phobic. Write a letter to me instead.' 
'Will you please not come back. Die in the fu*king black hole. I can't see you hurting like this.'
'Are you sure?'
'You are sure you don't love me?'
'Yes.'
'मर जाओ'
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उसकी हँसी। अचानक कंठ से फूटती। किसी देश के एयरपोर्ट पर अचानक से किसी दोस्त का मिल जाना जैसे। 

याद में सुनहले से काले होते रंग की आँखें हैं…बीच के कई सारे शेड्स के साथ। 
उसकी हँसी के बैक्ड्राप में मोंटाज की क्रॉसफ़ेड होती हैं सारी की सारी। सुनहली। गहरी भूरी। कत्थई। कि जैसे वसंत के आने की धमक होती है। कि जैसे मौसमों के हिसाब से लगाए गए फूलों वाले शहर में सारे चेरी के पेड़ों पर एक साथ खिल जाएँ हल्के गुलाबी फूल। जैसे प्रेम हो और मन में किसी और भाव के लिए कोई जगह बाक़ी ना रहे। जैसे उसके होने से आसमान में खिलते जाएँ सफ़ेद बादलों के फूल। जैसे उसकी आँखों में उभर आए मेरे शहर का नक़्शा। जैसे उसकी उँगलियों को आदत हो मेरा नम्बर  डायल करने की कुछ इस तरह कि अचानक ही कॉल आ जाए उसका।  

उसी दुनिया में सब कुछ इतनी तेज़ी से घटता था जितनी तेज़ी से वो टाइप करती थी। सब कुछ ही उसकी स्पीड के हिसाब से चलता था। माय डार्लिंग, उसे तुम्हारे प्रेम रास नहीं आते। इसलिए उनका ड्यूरेशन इतनी तेज़ गति से लिखा जाता कि जैसे आसमान में टूटता हुआ तारा। शाम को टहलने जाते हुए दौड़ लगा ले पार्क के चारों ओर चार बार। टहलना भूल जाए कोई। उँगलियाँ भूल जाती थीं काग़ज़ क़लम से लिखना जब बात तुम्हारी प्रेमिकाओं की आती थी। 

जैसे तेज़ होती जाए साँस लेने की आवाज़। तेज़ तेज़ तेज़। 

कैसे हुआ है प्रेम तुमसे?

जैसे काफ़ी ना हो मेरे नाम का मेरा नाम होना। जैसे डर मिट गया हो। जैसे अचानक ही आ गया हो तैरना। जैसे मिल जाए बाज़ार में यूँ ही बेवजह भटकते हुए इंद्रधनुष  के रंगों वाला दुपट्टा कोई। कुछ भी ना हो तुम्हारा होना। 

बिना परिभाषाओं में बंधे प्रेम करने की बातें सुनी थीं पर ऐसा प्रेम कभी ज़िंदगी में बिना दस्तक के प्रवेश कर जाएगा ऐसा कब सोचा था। यूँ सोचो ना। क्या है। सिवा इसके कि तुम्हें मेरा नाम लेना पसंद है, कि जैसे झील में पत्थर फेंकना और फिर इंतज़ार करना कि लहरें तुम्हें छू जाएँगी…भिगा जाएँगी मन का वो कोरा कोना कि जिसे तुमने हर बारिश में छुपा कर रखा है। ठीक वहाँ फूटेगी ऑरीएंटल लिली की पहली कोपल और ठीक वहीं खिलेगा गहरे गुलाबी रंग की ऑरीएंटल लिली का पहला फूल। कि जैसे प्रेम का रंग होगा…और तुमसे बिछोह का। गहरा गुलाबी। चोट का रंग। गहरा गुलाबी। और हमारे प्रेम का भी। 

प्रेम कि जो अपनी अनुपस्थिति में अपने होने की बयानी लिखता है। तुम चलने लगो गीली मिट्टी में नंगे पाँव तो ज़मीन अपने गीत तुम्हारी साँस में रोप दे। तुम गहरा आलाप लो तो पूरे शहर में गहरे गुलाबी ऑरीएंटल लिली की ख़ुशबू गुमस जाए जैसे भारी बारिश के बाद की ह्यूमिडिटी। तुम कोहरे में भी ना सुलगाना चाहो सिगरेट कोई। तुम्हारे होठों से नाम की गंध आए। तुम्हारी उँगलियों से भी। 

और सोचो जानां, कोई कहे तुमसे, कि बदल गयी है दुनिया ज़रा ज़रा सी, ऑन अकाउंट औफ आवर लव। कि अब तुम्हारा नाम P से शुरू होगा। तुम्हारा रोल नम्बर बदल गया है क्लास में। और अब तुम क्लास में एग्जाम टाइम में ठीक मेरे पीछे बैठोगे। तुम्हारे ग्रेड्स सुधर जाएँगे इस ज़रा सी फेर बदल से[चीटर कहीं के]। और जो आधे नम्बर से तुम उस पेरिस वाले प्रोग्राम के लिए क्वालिफ़ाई नहीं कर पाए थे। वो नहीं होगा। तुम जाओगे पेरिस। तुम्हारे साथ चले जाएगा उस शहर में मेरी आँखों का गुलमोहर भी। पेरिस के अर्किटेक्ट लोग कि जिन पर उसके इमॉर्टल लुक को क़ायम रखने की ज़िम्मेदारी है, वे परेशान हो जायेंगे कि पेरिस में इतने सारे गुलमोहर के पेड़ थे कहाँ। और अगर थे भी तो कभी खिले क्यूँ नहीं थे। तुम्हारा नाम P से होने पर बहुत सी और चीज़ें बदलेंगी कि जैसे तुम अचानक से नोटिस करोगे की मेरे दाएँ कंधे पर एक बर्थमार्क है जो मेरे नाम का नहीं, तुम्हारे नाम का है। 

वो सारे लव लेटर जो तुमने अपनी प्रेमिकाओं को लिखे हैं सिर्फ़ अपने नाम का पहला अक्षर इस्तेमाल करते हुए वे सारे बेमानी हो जाएँगे। मेरे कुछ किए बिना, तुम्हारे प्रेम पर मेरा एकाधिकार हो जाएगा। यूँ भी ब्रेक अप के बाद तुम्हें कौन तलाशने आता। टूटने की भी एक हद होती है। तुम्हारे प्रेम से गुज़रने के बाद, कॉन्सेंट्रेशन कैम्प के क़ैदी की तरह उनकी पहचान सिर्फ़ एक संख्या ही तो रह जाती है। सोलहवें नम्बर की प्रेमिका, अठारवें नम्बर का प्रेमी। परित्यक्ता। भारत के वृंदावन की उन विधवाओं की तरह जिनका कान्हा के सिवा कोई नहीं होता। किसी दूसरे शहर में भी नहीं। किसी दूसरी यमुना के किनारे भी नहीं। 

पागलों की दुनिया का खुदा एक ही है। चाँद। तो तुम्हारा नाम चाँद के सिवा कुछ कैसे हो सकता था। मेरे क़रीब आते हो तो पागल लहरें उठती हैं। साँस के भीतर कहीं। तुम्हें बताया किसी ने, तुम्हारा नया नाम? सोच रही हूँ तुम नाराज़ होगे क्या इस बात को जान कर। मेरी दुनिया में सब तुम्हें चाँद ही कहते हैं। कोई पागल नहीं रहता मेरी दुनिया में। एक मेरे सिवा। तुम मेरे खुदा हो। सिर्फ़ मेरे। मुझे प्रेम की परवाह नहीं है तो मुझे तुम्हारी नाराज़गी की परवाह क्यूंकर हो। बाग़ी हुए जा रही हूँ इश्क़ में। रगों में इंक़लाब दौड़ता है। कहता है कि चाँद को उसकी ही हुकूमत से निष्कासित कर कर ही थमेंगे। उसकी ख़्वाबगाह से भी। और मेरी क़ब्रगाह से तो शर्तिया। 

मैंने तुम्हें देखने के पहले तुम्हारा प्रतिबिम्ब देखा था…आसमान के दर्पण में। बादलों के तीखे किनारों को बिजली से चमकाया गया था। उनके किनारे रूपहले थे। 

मैं इस दुनिया से जा चुकी हूँ कि जहाँ सब कुछ नाम से ही जुड़ता था। इस रिश्ते का नाम नहीं था। मेरे लिए भी नाम ज़रूरी नहीं था। मेरे लिए मेरा नाम ही प्रेम है। उसकी आवाज़ ही हूँ मैं। और जानेमन, आवाज़ों का क्या रह जाता है।

वो तलाशे अगर तो कहना, ‘मैं उसकी प्रतिध्वनि थी’। 

शीर्षक कहानी में दफ़्न है

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आप ऐसे लोगों को जानते हैं जो क़ब्र के पत्थर उखाड़ के अपना घर बनवा सकते हैं? मैं जानती हूँ। क्यूँ जानती हूँ ये मत पूछिए साहब। ये भी मत पूछिए कि मेरा इन लोगों से रिश्ता क्या है। शायद हिसाब का रिश्ता है। शायद सौदेबाज़ी का हिसाब हो। इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है। यक़ीन कीजिए आप जानना नहीं चाहते हैं। किसी कमज़ोर लम्हे में मैंने क़ब्रिस्तान के दरबान की इस नौकरी के लिए मंज़ूरी दे दी थी। रूहें तो नहीं लेकिन ये मंज़ूरी ज़िंदगी के हर मोड़ पर पीछा करती है। 

मैं यहाँ से किसी और जगह जाना चाहती हूँ। मैं इस नौकरी से थक गयी हूँ। लेकिन क़ब्रिस्तान को बिना रखवाले के नहीं छोड़ा जा सकता है। ये ऐसी नौकरी है कि मुफ़लिसी के दौर में भी लोग मेरे कंधों से इस बोझ को उतारने के लिए तैय्यार नहीं। इस दुनिया में कौन समझेगा कि आख़िर मैं एक औरत हूँ। मानती हूँ मेरे सब्र की मिसाल समंदर से दी जाती है। लेकिन साहब इन दिनों मेरा सब्र रिस रहा है इस मिट्टी में और सब्र का पौधा उग रहा है वहाँ। उस पर मेरे पहले प्रेम के नाम के फूल खिलते हैं। क़ब्रिस्तान के खिले फूल इतने मनहूस होते हैं कि मय्यत में भी इन्हें कोई रखने को तैय्यार नहीं होता। 

मुझे इन दिनों बुरे ख़्वाबों ने सताया हुआ है। मैं सोने से डरती हूँ। बिस्तर की सलवटें चुभती हैं। यहाँ एक आधी बार कोई आधी खुदी हुयी क़ब्र होती है, मैं उसी नरम मिट्टी में सो जाना पसंद करती हूँ। ज़मीन से कोई दो फ़ीट मिट्टी तरतीब से निकली हुयी। मैं दुआ करती हूँ कि नींद में किसी रोज़ कोई साँप या ज़हरीला बिच्छू मुझे काट ले और मैं मर जाऊँ। यूँ भी इस पूरी दुनिया में मेरा कोई है नहीं। जनाज़े की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। मिट्टी में मुझे दफ़ना दिया जाएगा। इस दुनिया को जाते हुए जितना कम कष्ट दे सकूँ उतना बेहतर है। 

मुझे इस नौकरी के लिए हाँ बोलनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन साहिब, औरत हूँ ना। मेरा दिल पसीज गया। एक लड़का था जिसपर मैं मरती थी। इसी क़ब्रिस्तान से ला कर मेरे बालों में फूल गूँथा करता था। दरबान की इस नौकरी के सिवा उसके पास कुछ ना था। उसने मुझसे वादा किया कि दूसरे शहर में अच्छी नौकरी मिलते ही आ कर मुझे ले जाएगा। और साहब, बात का पक्का निकला वो। ठीक मोहलत पर आया भी, अपना वादा निभाने। लेकिन मेरी जगह लेने को इस छोटे से क़स्बे में कोई तैय्यार नहीं हुआ। अब मुर्दों को तन्हा छोड़ कर तो नहीं जा सकती थी। आप ताज्जुब ना करें। दुनिया में ज़िंदा लोगों की परवाह को कोई नहीं मिलता साहब। मुर्दों का ख़याल कौन रखेगा।

कच्ची आँखों ने सपने देख लिए थे साहब। कच्चे सपने। कच्चे सपनों की कच्ची किरचें हैं। अब भी चुभती हैं। बात को दस साल हो गए। शायद उम्र भर चुभेगा साहब। ऐसा लगता है कि इन चुभती किरिचों का एक सिरा उसके सीने में भी चुभता होगा। मैंने उसके जैसी सच्ची आँखें किसी की नहीं देखीं इतने सालों में। बचपन से मुर्दों की रखवाली करने से ऐसा हो जाता होगा। मुर्दे झूठ नहीं बोलते। मैं भी कहाँ झूठ कह पाती हूँ किसी से इन दिनों। मालूम नहीं कैसा दिखता होगा। मेरे कुछ बाल सफ़ेद हो रहे हैं। शायद उसके भी कुछ बाल सफ़ेद हुए हों। कनपटी पर के शायद। उसके चेहरे की बनावट ऐसी थी कि लड़कपन में उसपर पूरे शहर की लड़कियाँ मर मिटती थीं। इतनी मासूमियत कि उसके हिस्से का हर ग़म ख़रीद लेने को जी चाहे। बढ़ती उम्र के साथ उसके चेहरे पर ज़िंदगी की कहानी लिखी गयी होगी। मैं दुआ करती हूँ कि उसकी आँखों के इर्द गिर्द मुस्कुराने से धुँधली रेखाएँ पड़ने लगी हों। उसने शायद शादी कर ली होगी। बच्चे कितने होंगे उसके? कैसे दिखते होंगे। क्या उसके बेटे की आँखें उसपर गयी होंगी? मुझे पूरा यक़ीन है कि उसके एक बेटा तो होगा ही। हमने अपने सपनों में अलग अलग बच्चों के नाम सोचे थे। उसे सिर्फ़ मेरे जैसी एक बेटी चाहिए थी। मेरे जैसी क्यूँ…मुझमें कुछ ख़ूबसूरत नहीं था लेकिन उसे मेरा साँवला रंग भी बहुत भाता था। मेरी ठुड्डी छू कर कहता। एक बेटी दे दो बस, एकदम तुम्हारे जैसी। एकदम तुम्हारे जैसी। मैं लजाकर लाल पड़ जाती थी। शायद मैंने किसी और से शादी कर ली होती तो अपनी बेटी का नाम वही रखती जो उसने चुना था। ‘लिली’। अब तो उसके शहर का नाम भी नहीं मालूम है। कुछ साल तक उसे चिट्ठियाँ लिखती रही थी मैं। फिर जाने क्यूँ लगने लगा कि मेरे ख़तों से ज़िंदगी की नहीं मौत की गंध आती होगी। मैं जिन फूलों की गंध के बारे में लिखती वे फूल क़ब्र पर के होते थे। गुलाबों में भी उदासियाँ होती थीं। मैं बारिश के बारे में लिखती तो क़ब्र के धुले संगमरमरी पत्थर दिखते। मैं क़ब्रिस्तान के बाहर भीतर होते होते ख़ुद क़ब्रिस्तान होने लगी थी। 

दुनिया बहुत तन्हा जगह है साहब। इस तन्हाई को समझना है तो मरे हुए लोगों को सुनना कभी। मरे हुए लोग कभी कभी ज़िंदा लोगों से ज़्यादा ज़िंदा होते हैं। हर लाश का बदन ठंढा नहीं होता। कभी कभी उनकी मुट्ठियाँ बंद भी होती हैं। आदमी तन्हाई की इतनी शिकायत दीवारों से करता है। इनमें से कुछ लोग भी क़ब्रिस्तान आ जाया करें तो कमसे कम लोगों को मर जाने का अफ़सोस नहीं होगा। मुझे भी पहले मुर्दों से बात करने का जी नहीं करता था। लेकिन फिर जैसे जैसे लोग मुझसे कटते गए मुझे महसूस होने लगा कि मुर्दों से बात करना मुनासिब होगा। यूँ भी सब कितनी बातें लिए ही दफ़्न हो जाते हैं। कितनी मुहब्बत। कितनी मुहब्बत है दुनिया में इस बात पर ऐतबार करना है तो किसी क़ब्रिस्तान में टहल कर देखना साहिब। मर जाने के सदियों बाद भी मुर्दे अपने प्रेम का नाम चीख़ते रहते हैं।

मैं भी बहुत सारा कुछ अपने अंदर जीते जीते थक गयी थी। सहेजते। मिटाते। दफ़नाते। भुलाते। झाड़ते पोछते। मेरे अंदर सिर्फ़ मरी हुयी चीज़ें रह गयी हैं। कि मेरा दिल भी एक क़ब्रिस्तान है हुज़ूर। मौत है कि नहीं आती। शायद मुझे उन सारे मुर्दों की उम्र लग गयी है जिनकी बातें मैं दिन दिन भर सुना करती हूँ। रात भर जिन्हें राहत की दुआएँ सुनाती हूँ। हम जैसा सोचते हैं ज़िंदगी वैसी नहीं होती है ना साहेब। मुझे लगा था मुर्दों से बातचीत होगी तो शायद मर जाने की तारीख़ पास आएगी। शायद वे मुझे अपनी दुनिया में बुलाना चाहेंगे जल्दी। लेकिन ऊपरवाले के पास मेरी अर्ज़ी पहुँचने कोई नहीं जाता। सब मुझे इसी दुनिया में रखना चाहते हैं। झूठे दिलासे देते हैं। मेरे अनगिनत ख़तों की स्याही बह बह कर क़ब्रों पर इकट्ठी होती रहती है। वे स्याही की गंध में डूब कर अलग अलग फूलों में खिलते हैं। क़ब्रिस्तान में खिलते फूलों से लोगों को कोफ़्त होने लगी है। मगर फूल तो जंगली हैं। अचानक से खिले हुए। बिना माँगे। मौत जैसे। इन दिनों जब ट्रैफ़िक सिग्नल पर गाड़ियाँ रुकी रहती हैं तो वे अपनी नाक बंद करना चाहते हैं लेकिन लिली की तीखी गंध उनका गिरेबान पकड़ कर पहुँच ही जाती है उनकी आँखें चूमने। 

आप इस शहर में नए आए हैं साहब? आपका स्वागत है। जल्दी ही आइएगा। कहाँ खुदवा दूँ आपकी क़ब्र? चिंता ना करें। मुझे बिना जवाबों के ख़त लिखने की आदत है। जी नहीं। घबराइए नहीं। मेरे कहने से थोड़े ना आप जल्द चले आइएगा। इंतज़ार की आदत है मुझे। उम्र भर कर सकती हूँ। आपका। आपके ख़त का। या कि अपनी मौत का भी। अगर खुदा ना ख़स्ता आपके ख़त के आने के पहले मौत आ गयी तो आपके नाम का ख़त मेज़ की दराज़ में लिखा मिलेगा। लाल मुहर से बंद किया हुआ। जी नहीं। नाम नहीं लिखा होगा आपका। कोई भी ख़त पढ़ लीजिएगा साहब। सारे ख़तों में एक ही तो बात लिखी हुयी है। खुदा। मेरे नाम की क़ब्र का इंतज़ाम जल्दी कर। 

तुम्हें ख़तों में आग लगाना आना चाहिए

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उन दिनों मैं एक जंगल थी। दालचीनी के पेड़ों की। जिसमें आग लगी थी। 

और ये भी कि मैं किसी जंगल से गुज़र रही थी। कि जिसमें दालचीनी के पेड़ धू धू करके जल रहे थे। मेरे पीछे दमकल का क़ाफ़िला था। आँखों को आँच लग रही थी। आँखों से आँच आ रही थी। चेहरा दहक रहा था। कोई दुःख का दावनल था। आँसू आँखों से गिरा और होठों तक आने के पहले ही भाप हो गया। उसने सिगरेट अपने होठों में फँसायी और इतना क़रीब आया कि सांसें उलझने लगीं। उसकी साँसों में मेरी मुहब्बत वाले शहर के कोहरे की ठंढ और सुकून था। हमारे होठों के बीच सिगरेट भर की दूरी थी। सिगरेट का दूसरा सिरा उसने मेरे होठों से रगड़ा और चिंगरियाँ थरथरा उठी हम दोनों की आँखों में। मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ दालचीनी की गंध थी। उसने पहला कश गहरा लिया। मुझे तीखी प्यास लगी। 

वो हँसा। इतना डर लगता है तो पत्थर होना था। काग़ज़ नहीं। 

कार के अंदर सिगरेट का धुआँ था। कार के बाहर जंगल के जलने की गंध। लम्हे में छुअन नहीं थी। गंध से संतृप्त लम्हा था। मैंने फिर से उसकी आँखें देखीं। अंधेरी। अतल। दालचीनी की गंध खो गयी थी। ये कोई और गंध थी। शाश्वत। मृत्यु की तरह। या शायद प्रेम की तरह। आधी रात की ख़ुशबू और तिलिस्म में गमकती आँखें। गहरी। बहुत गहरी। दिल्ली की बावलियाँ याद आयीं जिनमें सीढ़ियाँ होती थीं। अपने अंधेरे में डूब कर मरने को न्योततीं।

वो आग का सिर्फ़ एक रंग जानता था। सिगरेट के दूसरे छोर पर जलता लाल। उसने कभी ख़त तक नहीं जलाए थे। उसे आग की तासीर पता नहीं थी। सिगरेट का फ़िल्टर हमेशा आग को उसके होठों से एक इंच दूर रोक देता था। इश्क़ की फ़ितरत पता होगी उसे? या कि इश्क़ एक सिगरेट थी बस। वो भी फ़िल्टर वाली। दिल से एक इंच दूर ही रुक जाती थी सारी आग। मुझे याद आए उसकी टेबल पर की ऐश ट्रे में बचे हुए फिल्टर्स की। कमरे में क़रीने से रखे प्रेमपत्रों की भी। लिफ़ाफ़े शायद आग बचा जाते हों। किसी सुलगते ख़त को चूमा होगा उसने कभी? कभी होंठ जले उसके? कभी तो जलने चाहिए ना। मेरा दिल किया शर्ट के बटन खोल उसके सीने पर अपनी जलती उँगलियों से अपना नाम लिख दूँ। तरतीब जाए जहन्नुम में।

कारवाँ रुका। दमकल से लोग उतरे। बड़ी होज़ पाइप्स से पानी का छिड़काव करने लगे। पानी के हेलिकॉप्टर भी आ गए तब तक। मुझे हल्की सी नींद आ गयी थी। एक छोटी झपकी बस। जितनी जल्दी नहीं बुझनी चाहिए थी आग, उतनी जल्दी बुझ गयी। मुझे यक़ीन था ऐसा सिर्फ़ इसलिए था कि वो साथ आया था। समंदर। मैंने सपने में देखा कि इक तूफ़ानी रात समंदर पर जाते जहाज़ों के ज़ख़ीरे पर बिजली गिरी है। मूसलाधार बारिश के बावजूद आग की लपटें आसमान तक ऊँची उठ रही थीं। होठों पर नमक का स्वाद था। कोई आँसू था या सपने के समंदर का नमक था ये?

क्या समंदर किनारे दालचीनी का जंगल उग सकता है? अधजले जंगल की कालिख से आसमान ज़मीन सब सियाह हो गयी थी। सब कुछ भीगा हुआ था। इतनी बारिश हुयी थी कि सड़क किनारे गरम पानी की धारा बहने लगी। कुछ नहीं बुझा तो उसकी सिगरेट का छोर। मैंने उसे चेन स्मोकिंग करते आज के पहले नहीं देखा था कभी। लेकिन इस सिगरेट की आग को उसने बुझने नहीं दिया था। सिगरेट के आख़िरी कश से दूसरी सिगरेट सुलगा लेता। 

मैंने सिगरेट का एक कश माँगने को हाथ बढ़ाया तो हँस दिया। तुम तो दोनों तरफ़ से जला के सिगरेट पीती होगी। छोटे छोटे कश मार के। बिना फ़िल्टर वाली, है ना? मैं नहीं दे रहा तुम्हें अपनी सिगरेट। 

बारिश में भीगने को मैं कार के बाहर उतरी थी। सिल्क की हल्की गुलाबी साड़ी पर पानी में घुला धुआँ छन रहा था। मैं देर तक भीगती रही। इन दिनों के लिए प्रकृति को माँ कहा जाता है। सिहरन महसूस हुयी तो आँखें खोली। दमकल जा चुका था। हमें भी वापस लौटना था अब। उसके गुनगुनाने की गंध आ रही थी मेरी थरथराती उँगलियों में लिपटती साड़ी के आँचल में उलझी उलझी। जूड़ा खोला और कंधे पर बाल छितराए तो महसूस हुआ कि दालचीनी की आख़िरी गंध बची रह गयी थी जूड़े में बंध कर  लेकिन अब हवा ने उसपर अपना हक़ जता दिया था। उसने मुट्ठी बांधी जैसे रख ही लेगा थोड़ी सी गंध उँगलियों में जज़्ब कर के। 
सब कुछ जल जाने के बाद नया रचना पड़ता है। शब्दबीज रोपने होते हैं काग़ज़ में।

मैंने उसे देखा। 
‘प्रेम’

उसने सिर्फ़ मेरा नाम लिया।
‘पूजा’ 

दुनिया का सबसे ख़तरनाक, सबसे दिलफ़रेब शब्द- हमेशा | God is a postman (6)

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इतरां के दसवीं के एक्ज़ाम के समय रूद्र घर आया हुआ था। इतरां की ज़िद थी। चिट्ठी आयी थी उसकी। ‘मैं नर्वस हो रही हूँ। तुम्हें मेरी कोई परवाह है भी कि नहीं। मेरा रिवीज़न करवा दो। फ़ेल हो गयी तो तुम डूब मरना’।

रूद्र की बहती हुयी ज़िंदगी को मनचाहा अगर कोई मोड़ सकता था तो वो बस इतरां ही थी। पूरा घर और गाँव काफ़ी नहीं था उसे बिगाड़ने को कि रूद्र के साथ भी मनमानी करती थी। रूद्र की यायावर ज़िंदगी में मील के पत्थर इतरां ही लगाती चलती थी। किताबें इस तेज़ रफ़्तार पढ़ती थी कि रूद्र को हर कुछ दिन में गाँव का चक्कर लगाना ही पड़ता था। इतरां की फ़रमाइशें भी तो दुनिया जहान से अलग होती थीं। बचपन से उसे कविताएँ पढ़ा रहा था रूद्र। वे किसी एक देश को चुनते और फिर वहाँ के साहित्य में डूबते। वहाँ के लोग। वहाँ का माहौल। वहाँ के लेखकों की चिट्ठियाँ। सब कुछ ही तो। आधे आधे में इतरां का जी नहीं भरता। कभी ज़िद करती कि वहाँ के पोस्टकार्ड देखने हैं। वहाँ के स्टैम्प्स देखने हैं। तब रूद्र दूर देश घूमने निकल जाता। सिर्फ़ इसलिए कि इतरां को पोस्टकार्ड भेज सके। फ़्रान्स। चेकस्लोवाकिया। कम्बोडिया। ग्रीस। इटली। नॉर्वे। कांगो। पेरू। हर बार की तस्वीरों के साथ आता वहाँ का संगीत। लोकगीतों की धुन। रूद्र उन दिनों घर आता तो देर शाम दोनों मिल कर गीत लिखा करते। वे जाड़ों के दिन होते थे अक्सर। रात को अलाव जला कर रूद्र अपना गिटार निकाल लाता। इतरां की त्वचा इतनी बारीक और सफ़ेद थी कि उसमें दौड़ती नसें दिखतीं। रूद्र जब उसकी नब्ज़ पर ऊँगली रखता तो इतरां की चिट्ठियाँ उसे सुनायी पड़तीं। रूद्र उसकी नब्ज़ चूम लेता। इतरां की चिट्ठियां उसके होठों पर गीत बन तड़पतीं। दूर गाँव के लोग पहली बार जानते कि उदासी हर वाद्य यंत्र पर एक ही सम्मोहन रचती है। उसकी धुनें गाँव के चूल्हों में घुलने लगतीं तो उनसे बहुत धुंआ निकलने लगता। औरतें आँचल की कोर से अपनी आँख का धुंआ पोछ्तीं तो उन्हें उसमें गाँठ लगाये चिट्ठियां मिल जातीं। वे गांठें जो माही के गुज़र जाने के बाद कभी नहीं खुलीं। हर बार धुलती साड़ियाँ और गांठें और पक्की होती जातीं। रूद्र का गीत इन गाँठों को खोलता। इन चिट्ठियों को भी।

थ्योरी के एक्ज़ाम हो गए थे सारे बस प्रैक्टिकल बाक़ी था। उसमें क्या ही पढ़ना था। इतरां रूद्र के साथ आम के पेड़ के पास बैठी हिसाब लगा रही थी कि एक्ज़ाम के बाद की छुट्टियों का क्या करना है। किस पेड़ पर कितने आम फलेंगे वग़ैरह। रूद्र किताब पढ़ रहा था, ‘Tonight I can write the saddest lines’। उसे इतरां को बताना था कि एक्ज़ाम के बाद उसे हॉस्टल जाना पड़ेगा पढ़ने के लिए, कि गाँव के आसपास कोई ढंग का स्कूल नहीं है। इसके लिए ज़रूरी था कि इतरां का मूड अच्छा रहे। बड़ी सरकार ने रूद्र को ज़िम्मेदारी दी थी कि इतरां को और कोई मना नहीं सकता था।

‘इतरां। तू मुझे रूद्र क्यूँ बुलाती है रे?’
‘रूद्र तुम बहुत नालायक हो। क़सम से। ख़ानदान भर के बच्चे तुमको बड़े पापा बुलाते हैं। आधा गाँव तुमको चाचा बुलाता है। तुमको संतोष नहीं होता…बचपन में सुधार दिए रहते। उस समय इतना सिर क्यूँ चढ़ाए’
‘तुमको ना सिर चढ़ाने से तुम्हारे ज़मीन पर रहने का कोई उपाय होता क्या?’
‘देखो। अब बहुत साल हो गए हैं। अब हम कुछ और नहीं बुला सकते। बिसरा, बेसरा…छी। ये कोई नाम है बुलाने का। इतना अच्छा नाम रखा काहे थे रूद्र जब कोई बुलाएगा ही नहीं इस नाम से। हम तुमको रूद्र छोड़ के कुछ नहीं बुलाएँगे। जो करना है कर लो’
‘सरकार। आपका क्या ही कर पाएगा कोई। कहिए। क्या चाहिए, दसवीं पास हो गया। अब क्या चाहिए इनाम में। सो कहिए।’
‘बाइक वाली रोड ट्रिप पर ले चलो’।
‘तुम्हें बाइक चलनी कहाँ आती है’
‘सिखा दो’
‘और मैं बाइक पर तुम्हारे पीछे बैठूँ? मेरी कोई इज़्ज़त है कि नहीं दुनिया में। एक बित्ते की लड़की के पीछे नहीं बैठ रहा मैं बाइक पर’
‘बित्ते भर की किसको बोल रहे हो। चार अंगुल नीचे हैं तुमसे बस। लास्ट टाइम हाइट नापे थे तो पाँच फ़ीट सात इंच के थे।’
‘तुम्हारा सिर्फ़ मैथ ख़राब होता तो फिर भी चल जाता…दिमाग़ ख़राब है तुम्हारा। उसका मैं क्या करूँ। मेरी हाइट छह चार है। समझी। चार अंगुल छोटी है मुझसे। हाइट ऊँची होने से क्या होता है। शक्ल देखी है आइने में। दूध के दाँत तो टूटे नहीं हैं। चलेगी बाइक ट्रिप पर। पहले बाइक चलाना सीखो।’
‘सिखा दो तुम। चलो। पापा की बाइक माँग के लाते हैं’
‘बड़ा ना इंदर दिया तुमको बाइक सीखने के लिए, उसपर एक्ज़ाम पर ध्यान दो अभी। गिर के हाथ पैर तोड़ेगी तो एक्ज़ाम कौन देगा। तुमरा रूद्र?’
‘छी। हम ना दिलवाएँगे तुमसे एक्ज़ाम। फ़ेल नहीं होना है हमको’।
‘तुम ना इतरां, बहुत पिटेगी एक दिन देख लेना। क्लास टॉपर थे हम।’
‘किसका हिम्मत जो हमको पीटे। सब डरता है हमसे यहाँ पर। और तुम्हारे टाइम में सिलेबस बहुत आसान था इसलिए तुम टॉप कर गए। हम लोग का कोर्स मुश्किल है।’
‘नंबरी बदमाश हो तुम। मालूम है ना तुमको’
‘हाँ। और ये भी कि बदमाश होना अच्छा होना से बेहतर है’
‘गप्प दो ख़ाली बड़ा बड़ा’
‘तुम्हीं से सीखे हैं’
‘कोई अच्छा चीज़ भी सीखी हो हमसे?’
‘तुमको कोई अच्छा चीज़ आता है?’
‘बहुत बढ़िया पिटाई करते हैं हम। पीट के दिखाएँ तुमको?’
‘बाइक चलाना सिखा के दिखाओ तो मानेंगे’
‘क्या मानोगी?’
‘जो तुम कहोगे सो मानेंगे’
‘प्रोमिस?’
‘पक्का प्रोमिस’
‘इंदर से बाइक कौन माँगेगा?’
‘दादी सरकार।’
‘बाबू सब मिल के माथा चढ़ाया है तुमको। एक हम ही थोड़े हैं’।
एक्ज़ाम ख़त्म होते ही रूद्र इतरां को बाइक पर बिठा कर गाँव से बाहर वाले खेल के मैदान में ले गया। पहला टेस्ट था गिरी हुयी बाइक को उठाना। कि बाइक चलाने के पहले उसे मालूम होना चाहिए था कि बाइक को कैसे उठाना है। बाइक के कलपुर्ज़े दिखाए। हर चीज़ का फ़ंक्शन समझाया। स्पार्क प्लग साफ़ करना सिखाया। प्रैक्टिकल के पहले थ्योरी की ज़रूरत अच्छी तरह समझता था रूद्र। और आत्मनिर्भरता का भी। सीखने में वक़्त तो क्या ही लगना था। बस एक बार सिखाना था कि क्लच धीरे छोड़ते हैं। गियर कैसे बदलते हैं। ब्रेक हल्के दबा कर अंदाज़ा लगाओ कि कितनी ज़ोर से दबाने से बाइक रुकेगी। दो राउंड मारते ही इतरां ने पिक अप कर लिया और बाइक हवा से बातें करने लगी। बाइक को टर्न कर के सीधे सड़क पर उड़ाती चली इतरां। रूद्र के दिल में दुःख तूफ़ानी नदी की तरह उफन रहा था। पलाश लहके हुए थे। जंगल से गुज़रती सड़क पर और कोई गाड़ी नहीं थी। इतरां बाइक एकदम बैलेंस में चला रही थी। बगरो के जाने के बाद से रूद्र बहुत हद तक कंट्रोल फ़्रीक होता गया था। ज़िंदगी के हर मसले पर उसे चीज़ें अपने हाथ में चाहिए होती थीं। वो किसी की नहीं सुनता था। बस एक इतरां थी, कि जैसे बचपन में ऊँगली पकड़ कर घर के अंदर ले गयी थी, वैसे ही कभी भी उसका रूख मोड़ देती जिस दिशा में उसका दिल चाहे। उम्र में इतनी छोटी थी लेकिन रूद्र को लगता था कि इतरां के हाथों में उसकी ज़िंदगी सुरक्षित है। कि इतरां के साथ रहते हुए ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जो तकलीफ़ दे। इस लम्हे, बहुत साल बाद रूद्र को ऐसा लगा जैसे वो आज़ाद है। कि उसे फ़िलवक़्त और किसी चीज़ की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। जो है घर वापस जा के देखा जाएगा। अभी ये मौसम है। इस लम्हे इतरां है। तेज़ बाइक है। हवा है। रूद्र ने अपनी बाँहें खोलीं और पीछे की ओर झुकता गया। गहरा नीला आसमान दहके हुए पलाश के बीच झाँक रहा था कभी कभार। तेज़ हवा थी। उसके भरे हुए दिल में सुकून था। मुहब्बत थी बहुत। सालों में उसके होठों पर वे शब्द आए जो किसी भूली डायरी में रख दिए गए थे। वो किसी खुदा के लिए चीख़ा था, ‘आइ लव यू इतरां’। मगर आवाज़ उसके होठों से नहीं आयी थी। इतरां दीवानी हुयी थी। ‘This is the best day ever…’ और फिर, ‘आइssssss लssssssव यूssssss’…‘रूद्र’…जवाब में चिल्ला नहीं पाया था वो, हँसा था अपनी पगली इतरां पर। हल्की सी चपत लगायी थी उसके सर पर। ‘मेरी पगली, इतरां’।

ज़िंदगी में सब कुछ वापस आएगा। वे दिन नहीं आएँगे कि जब दिल टूटा नहीं था। कि जब ज़िंदगी का पहला ‘आइ लव यू’ इतरां ने रूद्र के नाम लिखा था। सबसे ज़्यादा मुहब्बत। सबसे तेज़ रफ़्तार। सबसे ज़्यादा बेपरवाही। ये वो दिन थे जब ज़िंदगी ने सबक़ नहीं दिए थे कि किन्हें आइ लव यू कहना है, किन्हें नहीं। किताबों और काग़ज़ों से बाहर के इन तीन लफ़्ज़ों ने पहली बार आवाज़ चखी थी। ये उसका सबसे सच्चा, सबसे मासूम आइ लव यू था। सबसे गहरा भी। ‘आइ लव यू दी मोस्ट इन दी वर्ल्ड, दी मोस्ट…आइ लव यू फ़ौरेवर रूद्र…’।

फ़ॉरएवर। दुनिया का सबसे ख़तरनाक। सबसे दिलफ़रेब शब्द। हमेशा।
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की 6ठी किस्त है. इसके पहले के हिस्सों के लिए इस लेबल पर क्रमवार पढ़ें। 


[featured photograph: Raman's Desert Storm]

व्हीली - स्लो मोशन पागलपन। God is a postman | (7)

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‘दादी सरकार ने तुम्हारा नाम इतरां रख दिया। मैं होता ना तो हरगिज़ इतरां नहीं रखने देता।’
‘अच्छा। क्या ही नाम रखते तुम?’
‘आफ़त…तुम्हारा नाम सिर्फ़ और सिर्फ़ आफ़त रखा जा सकता था’।

पहले दिन बाइक ट्रिप से लौट कर रूद्र ने इतरां को बताया था कि वनस्थली रेसीडेंशियल स्कूल के लिए फ़ॉर्म ले आया है और वहाँ उसे जाना होगा कि गाँव में कोई अच्छा स्कूल नहीं है। इतरां ने कहा था कि रिज़ल्ट आने के दिन तक अगर रूद्र उसकी हर बात मानेगा तो वो इस बारे में सोचेगी। इसका मतलब ये भी था कि आने वाला एक महीना रूद्र को गाँव में ही रुकना पड़ेगा। उपाय ही क्या था। इतरां यूँ भी किसी छोटी चीज़ से तो मानने वाली थी नहीं।

दोनों मिल कर प्लान कर रहे थे कि क्या क्या किया जा सकता है एक महीने में। ये आख़िरी महीना था आज़ादी का। बचपने का। इसके बाद हॉस्टल जा कर इतरां को होशियार होना पड़ेगा और ख़ुद का ख़याल ख़ुद से रखना पड़ेगा। हालाँकि रूद्र कह रहा था उससे कि उसके लिए इतरां हमेशा वही छोटी सी बच्ची रहेगी जिसे वो पहली बार गाँव के बाहर मिला था, और जिसने कमर पर हाथ रख के डराते हुए कहा था कि उसकी इजाज़त के बिना कोई गाँव नहीं जा सकता।

बात इतरां की होती थी तो सारे नियम कैसे इधर उधर कर दिए जाते थे ये देखने लायक चीज़ थी। घर पर बड़ी सरकार ने सारा इंतज़ाम कर दिया था। इंदर का बहुत दिन से जीप ख़रीदने का मन भी था और गाँव से सबको आने जाने में भी आसानी हो जाती। बारिश के दिनों में अस्पताल जाने में या पेशेंट देखने जाने में दिक़्क़त होती थी। फिर ये भी तो था कि इतरां को साल में कई बार आना जाना पड़ेगा। उसके बक्से वक्से स्टेशन से लाने में काम आता। इसी बहाने घर में जीप आ गयी और इतरां ने इंदर की बाइक अपने नाम ही रख ली। अगले दिन उसने चवन्नी को फुसला लिया और उसके बाबूजी की कावासाकी आरटीज़ेड उठा लायी कि रूद्र और वो दोनों रोड ट्रिप पर मसानज़ोर डैम जाएँगे। तिलिसमपूर से कोई सौ किलोमीटर का रास्ता था और इतनी दूर रूद्र हरगिज़ इतरां के साथ बाइक पर पीछे बैठ के जाने के मूड में नहीं था। इतरां के साथ रहते हुए रूद्र भूल जाता था कि इतरां उसे अपना हीरो मानती है और उसे एक अच्छी मिसाल देनी चाहिए। इतरां के साथ होने में वो अपनी उम्र भूल जाता था और लड़कपन के उन दिनों में लौट जाता था जब कि कुछ टूटने का डर नहीं लगता था। इतरां के साथ जैसे उसपर भी टीनेज चढ़ रही थी।

डैम के पहले के रास्ते में नदी मिली थी और पूरे रास्ते अच्छा घास का मैदान था। इतरां ने रूद्र से बाइक बदल ली कि वो कावासाकी चलाएगी। नयी बाइक का अंदाज़ा नहीं था…गियर डाल कर जैसे ही क्लच छोड़ा ग़लती से ऐकसिलेरेटर पूरा घूम गया…हल्की बाइक थी…बाइक का अगला पहिया हवा में और आधे सेकंड की व्हीली…और फिर धड़ाम…बाइक ऊपर…इतरां नीचे। रूद्र के बाइक किनारे में फेंक के दौड़ने के पहले तक घुटने वुटने, कोहनी, छिल चुके थे। वो तो घास थी वरना और चोट आती। रूद्र ने पहले तो सारी हड्डियां हिला डुला कर देखीं कि कुछ टूटा तो नहीं है। फिर रूमाल निकाल कर ख़ून पोछा। पट्टी बांधी। इतरां रोनी सी शक्ल बनाए थी और रूद्र को हँसी आ रही थी बेतरह। ख़ूब देर घास पर पड़े पड़े हँसता रहा। और यहाँ इतरां का ख़ुराफ़ाती दिमाग़ कोई और ही प्लानिंग कर रहा था।
‘तुम्हें व्हीली आती है ना रूद्र?’
‘हाँ आती है। तो?’
‘मुझे सिखा दो।’
‘अच्छा। ये हाथ पैर छिला के मन नहीं भर…टूटेगा तब ठंढ पड़ेगा कलेजा में?’
‘मुझे व्हीली सिखा दो’
‘काहे सिखाएँ?’
‘क्यूँकि तुमको आता है’
‘तो?’
‘तो हमको वो सब सीखना है जो तुमको आता है।’
‘क्यूँ?’
‘क्यूँकि हमको तुम्हारे जैसा बनना है एकदम’
‘मेरे जैसा कैसा होता है?’
‘जिसको डर नहीं लगता’
‘तुमको डर लगता है?’
‘नहीं’
‘तो फिर मेरे जैसा क्या ही बनना है। हो ना तुम मेरे जैसी।’
‘हमको व्हीली सिखा दो’
‘नहीं सिखाए तो?’
‘तो हम ख़ुद से सीखेंगे और ज़्यादा चोट लगेगा’।
‘अभी पहले बाइक ठीक से चलाना सीख लो। फिर व्हीली भी सिखा देंगे’
‘प्रॉमिस?’
‘हाँ प्रॉमिस’
‘चलो ठीक है, पर व्हीली कर के तो दिखा दो…हम देखे भी नहीं हैं किसी को व्हीली करते हुए’
‘और जो मेरा हाथ पैर टूटा तो हम दोनों को घर कौन ले जाएगा?’
‘रूद्र, प्लीज़, हमको मालूम है तुमको बहुत अच्छे से व्हीली आता है। दिखा दो ना। नहीं तो हम हॉस्टल नहीं जाएँगे’।

कुछ लोग जन्म से ही बावले होते हैं। झक्की। पागल। दीवाने। बौराए। मस्त। अपने में खोए। उनकी अपनी ही दुनिया होती है। रूद्र ऐसा ही था। करने के पहले सोचने की आदत नहीं थी रूद्र को। अंग्रेज़ी में इसे डेरिंग करते हैं। हिंदी में पागलपन ही। ज़िंदा। ज़िंदादिल। बगरो के जाने के पहले रूद्र ऐसा ही था। ज़िंदगी से लबालब भरा हुआ। छलकता हुआ। मगर फिर जैसे प्याला टूट गया था और सारी ज़िंदगी बह गयी थी। रूद्र ने ख़ुद को समझा लिया था और हिसाब की ज़िदंगी जीता था। यूँ भी जिसके ईश्वर भी उसके फ़ैसलों के ख़िलाफ़ जाएँ उसके लिए अपील करने की जगह ही कहाँ बचती है फिर। माही के आने से कुछ दिन का ठहार लग रहा था लेकिन माही के जाते साथ रूद्र का बौरायापन फिर से दिशाहीन हो गया था। उसकी ज़िंदगी में शब्द बचे थे सिर्फ़। कहानियाँ। किताबें। लोगों की ज़िंदगी में इन्हें भरता रहता था बस। मगर इस सबके बीच इतरां अपने नन्हे क़दम रखते चली आयी थी। जिस दिन रूद्र का हाथ पकड़ घर में दुबारा लायी थी उस लम्हे ही वो रूद्र की ‘सरकार’ हो गयी थी। क़ायदे से उसे तानाशाह कहना चाहिए था कि इतरां जी भर कर मनमानी करती थी रूद्र के साथ। मगर फिर इतरां जैसा कोई आया कहाँ था रूद्र की ज़िंदगी में। टूटा फूटा रूद्र इतरां के हाथ में कच्ची मिट्टी हो जाता था। इतरां उसे मनचाहा आकार दे देती थी। ज़िंदगी फिर से ठहरने लगती थी। साँस यूँ आती जाती थी जैसे कि साँस लेना दुनिया का सबसे आसान काम हो। रूद्र को टूटने से डर कहाँ लगता था इतरां के साथ।

हमें अपने पागलपन को वश में करने में बहुत वक़्त लगता है। कई सारे मुलम्मे चढ़ाने पड़ते हैं। धीरे धीरे हम ख़ुद को भूलना सीखते हैं। ये भूलना मगर किसी सोए हुए ज्वालामुखी की तरह होता है। किसी भी दिन टेक्टानिक प्लेट्स हिलती हैं और अंदर का गरम लावा फूट कर बह निकलता है। लावा अपने रास्ते सब कुछ जलाता जाता है और फिर ऊर्वर मिट्टी बन जाता है। जिसमें फिर कुछ भी उगाया जा सकता है। चावल। मीठे फल। तम्बाकू या कि गहरे लाल गुलाब ही।

शैतान की बच्ची ऐसे ही थोड़े कहते थे इतरां को…दुनिया के सारे कांड उसे मालूम रहते थे। लेकिन ये रूद्र की व्हीली के बारे में चुग़लख़ोरी कौन किया है। आज कर के दिखाएगा तो कल ही बोलेगी कि हमको करना सिखाओ। बड़ी सरकार मार डालेगी अगर देखेगी कि इतरां व्हीली कर रही है। उसपर शैतान इतरां, गाँव के सारे लड़कों के सामने शो ऑफ़ करेगी अलग। व्हीली करना आसान नहीं है। उसपर बुलेट भारी बाइक होती है। उसका बैलेन्स बनाना आसान नहीं है। बात फैलेगी। कौन करेगा इस पगली से शादी फिर। रूद्र अपने आप को समझा रहा था जब कि उसे भी मालूम था कि इतरां के सामने हथियार डालने ही पड़ेंगे। एक बार लड़की ने बात पकड़ ली तो किसी की नहीं सुनेगी। दोनों घास पर पड़े हुए थे। वसंत की दोपहर थी। गरमियों की आहट और आम के बौर की महक से भरी हुयी। रूद्र इन लम्हों से जेबें भर लेना चाहता था। इतने सारे कि ज़िंदगी काटी जा सके उनके भरोसे।

इतरां ने तुरूप का पत्ता चला। एकदम से लाड़ से रूद्र के पास खिसक आयी और उसके कंधे पर अपना सर टिका दिया और गाल में गाल सटाते हुए कहा, ‘रूद्र, देखो, अगर तुम हमको व्हीली सिखा दोगे तो तुमको हम एक सीक्रेट बताएँगे।’
‘अच्छा तो इत्ति सी इतरां के बड़े बड़े सीक्रेट्स हैं जिनके बारे में जानने के लिए मुझे ही घूस देनी होगी। मुझे नहीं जानना तेरे किसी भी सीक्रेट के बारे में। अभी तो सिर्फ़ देखने की बात हो रही थी…ये सिखाने की बात कहाँ से आयी? मैं तुझे हरगिज़ व्हीली करके नहीं दिखा रहा।’
‘यानी तुम्हें पक्का आता है।’
‘देखो। इतरां। बहुत पिटोगी तुम अब। मैंने कब बोला मुझे व्हीली नहीं आती है। लेकिन मैं हरगिज़ तुझे दिखा नहीं रहा। तू फिर बदमाशी करेगी कि मुझे सीखना है। और ये चवन्नी के बाबूजी की बाइक तोड़ दोगी तुम अलग’।
‘अच्छा चलो कॉम्प्रॉमायज़। वैसे तो मैं नहीं करती। लेकिन मैं इतना प्यार और किसी से करती भी नहीं ना। तुम तो जानते हो रूद्र। तुम पूरी दुनिया में मेरे फ़ेवरिट हो। आज व्हीली दिखा दो बस, उसी में मैं तुम्हें एक एकदम कमाल का सीक्रेट बताउँगी’
‘मुझे तेरे सारे सीक्रेट्स पता हैं’
‘ये वाला नहीं पता है। ये हमको ख़ुद ही कल पता चला है’
‘चलो ठीक है। पहले बताओ। अगर काम का लगा तो व्हीली दिखा दूँगा’
‘नहीं। ऐसे तो तुम बेईमान हो, एक काम करते हैं। तुम व्हीली दिखा दो। फिर मैं सीक्रेट बताती हूँ। अगर तुमको अच्छा लगा तो व्हीली सिखा देना। फ़ेयर डील?’
‘शैतान की बच्ची। तेरे साथ कोई भी फ़ेयर डील होती है ज़िंदगी में। तानाशाही करती हो तुम’
‘रूद्र व्हीली दिखा दो। प्लीज़। देखो मिन्नत कर रहे हैं हम। वो भी हम। देखो। प्लीज़ बोले ना। मान जाओ वरना गुदगुदी लगा देंगे’
इतरां के पास रूद्र की सारी चाभियाँ थी। उसके पागलपन का कौन सा हिस्सा कैसे अन्लाक करना है सब पता था इतरां को। लाड़। दुलार। धमकी। सबका मिला जुला कॉम्बिनेशन थी शैतान। उससे जीतना क्या ही मुमकिन होता।
रूद्र ने कच्ची सड़क पर कावासाकी उतारी…उसे ख़ुद भी याद नहीं था कि आख़िरी बार व्हीली कब की थी। शायद बगरो को जिस दिन दशहरा मेला में घुमाने ले गया था उस दिन। धुँधली सी याद में तेज़ होती धड़कन और बगरो की घबरायी हुयी चीख़ थी जब उसने रूद्र को पहली बार व्हीली करते हुए देखा था। बगरो को कुछ भी बोल लो वो पैंट शर्ट पहनने को तैयार नहीं हुयी अब साड़ी में उसे बाइक पर बिठा कर व्हीली तो नहीं कर सकता था। अकेले ही की थी। हाँ उसके सपनों में एक ऐसा दिन ज़रूर था कि बगरो को ज़िद करके मना लेगा और किसी दूसरे देश में घूमते हुए पहाड़ों की धूप के बीच व्हीली करेगा…ऐसी तीखी ढलान पर कि उड़ने का अहसास आए। वे सपने अब किसी और जन्म के लगते थे। कभी बेहद धुँधले दिखते तो कभी एकदम चमकीले।

कावासाकी की रफ़्तार बढ़ती जा रही थी। बदन में बहते ख़ून की भी। दिमाग़ झनझना रहा था। पागलपन का स्वाद जिसने चखा हो उसकी ज़बान पर लौटता ज़ायक़ा बहुत तीख़ा लगता है। बहुत तेज़ बहती हवा। आम के बौर की गंध। पलाश का धुँधलाता लाल रंग। धूल का ग़ुबार। रूद्र चीख़ा था इतरां के लिए, ‘ज़ोर से पकड़ इतरां…हम उड़ने वाले हैं’। इतरां की उँगलियाँ उसके कंधों में धँसतीं गयीं थीं। एक लम्हे का बेतरह फ़ास्ट फ़ॉर्वर्ड था…बाइक की रफ़्तार बदन में ख़ून की रफ़्तार से तेज़ होती गयी। ठीक सम पर पहुँचते ही रूद्र ने फ़ुल ऐक्सेलरेटर मारा, हैंडिल को खींचा ऊपर और पहला पहिया हवा में…वे ज़मीन और आसमान के ठीक बीच थे…सच और सपने के ठीक बीच भी…व्हीली बमुश्किल दस सेकंड की थी लेकिन उसका हर सेकंड स्लो मोशन में महसूस हुआ था। धूल का स्वाद। आँख के आगे का आसमान। हैंडिल पर की ग्रिप। इतरां। रूद्र। दोनों। पागल। उस लम्हे दोनों एक ही थे। पागलपन में। रफ़्तार में। वक़्त के होने और ना होने के बीच।

जब दुनिया पागलपन की रफ़्तार से घूमनी बंद हुयी तो इतरां और रूद्र ने अपनी अपनी बाइक उठायी और एक दूसरे से रेस करते हुए मसानज़ोर डैम पहुँचे। डैम के पुल पर पानी की फुहार आ रही थी। डाइनमो पर पानी गिर रहा था और बिजली का उत्पादन हो रहा था। सूरज की किरणों में पानी की बूँदों से इंद्रधनुष बन रहा था। रूद्र को पुल बहुत पसंद थे। उसे लगता था पुलों पर बिताए हुए पलों की गिनती ज़िंदगी के दिनों में नहीं होती। ये बीच के लम्हे होते हैं। दो जगहों के बीच। दो लोगों के बीच भी। कहीं पहुँचते हुए कहीं से चलते हुए। बीच के लम्हे। हवा में अटके हुए लोग।
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की 7वीं किस्त है. इसके पहले के हिस्सों के लिए इस लेबल पर क्रमवार पढ़ें। 


इसलिए तीन बिन्दियाँ | God is a postman (8)

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पानी के विस्तार को देख कर मन नदी हुआ जाता है। अपने समंदर को तलाशता हुआ। नदी जब पहली बार पहाड़ों से उतरती है तो उसे कौन बताता है रास्ता। अपनी बेपरवाही में पत्थरों से टकराती, छिलती, राह बदलती नदी चलती जाती है। सही रास्ता तो कोई भी नहीं होता। नदी के कान में कौन फूंकता है समंदर के होने का मंत्र। कोई गुमराह नहीं करता नदी को?

डैम के जस्ट पहले बैराज बना हुआ था जिसमें पानी रोका जाता था डैम में छोड़ने से पहले। वहाँ लोगों के तैरने के लिए जगह थी। कपड़े बदलने का इंतज़ाम भी था। रूद्र और इतरां दोनों पानी में उतर गए थे। बहुत देर तक तैरने के बाद रूद्र पानी में फ़्लोट कर रहा था। उसे यूँ फ़्लोट करना बहुत पसंद था। स्थिर पानी पर पड़े रहना। बाँहें खोल कर। कई बार तो आँखें भी पानी के भीतर कर लेता और पानी के नीचे खुली आँखों से देखता आसमान। ख़ुश नीला। सफ़ेद बादल इधर उधर दौड़ते हुए। कान पानी के नीचे रहते थे तो कुछ सुनायी नहीं देता और सब कुछ पानी के थ्रू दिखायी देता। एक अलग ही दुनिया होती वो। सपनों के जैसी। बहुत शांत। एक तरह का ध्यान होता ये रूद्र के लिए। उसे रामायण की पंक्तियाँ याद आतीं। सरयू में ली राम की जल समाधि। वो अपने मन की शांति में उतरता। सारे ख़याल एक एक करके पानी में घुलते जाते। सारा दुःख भी।

इतरां के साथ डैम पर आने का प्लान भी इसलिए बनाया था कि थोड़ी देर फ़्लोट करेगा तो मन शांत होगा। इतरां के जाने का सोच सोच के उसकी रातों की नींद उड़ी हुयी थी इन दिनों।। इतरां कोई पाँच साल की रही होगी जब रूद्र ने उसे तैरना सिखाया था। लेकिन उसे फ़्लोट करने में हमेशा डर लगता रहा। इतने दिन हो गए कभी फ़्लोट नहीं करती। कितनी ही बार उसने समझाया। कर के दिखाया लेकिन नहीं। फ़्लोट करते हुए अपने ‘सम’ तक पहुँच रहा था रूद्र कि जब सारे ख़याल ग़ायब हो जाते और एक सुकूनदेह ब्लैंकनेस होती। ख़ालीपन। जिसमें कुछ दुखता नहीं। जैसे किसी दुस्वप्न में इतरां चीख़ी, ‘रूssssssssssद्र’ सेकंड के उस हिस्से में रूद्र की धड़कनें इतनी तेज़ हो गयीं कि जैसे इतरां मर चुकी हो। सारा दुःख। सारी घबराहट। अब क्या हुआ लड़की को, डूब तो नहीं रही। हड़बड़ाया और चारों ओर देखा ‘आइ एम फ़्लोटिंग’, इतरां की आवाज़ कानों से टकरायी और थोड़ी दूर में वो फ़्लोट करती दिखी। उस घबराहट में पहले रूद्र को इतना ग़ुस्सा आया कि पानी में ही थप्पड़ मारने का दिल किया। मगर फिर तैर कर बाहर निकल आया। लम्हे भर को ही इतरां को खोने का डर इतना ज़्यादा था कि कई दिनों तक उसकी धड़कन बढ़ी रहने वाली थी।

इन दिनों इतरां के साथ बिताए हुए लमहों को रिवाइंड में जी रहा था रूद्र। आज पानी में तैरते हुए फ़िल्म अपने पहले लम्हे तक पहुँच गयी थी। इतरां ने जैसे ‘cue’ पर पुकारा था रूद्र का नाम। जिस दिन पहली बार इतरां से मिला था। शाम के वक़्त इतरां बोल के गयी थी कि कल आएगी। उस रात पहली बार रूद्र को इतरां के मर जाने का डर लगा था। जैसे कभी आएगी ही नहीं लौट कर। फिर आज ये दूसरी बार था कि उसे लगा इतरां मर जाएगी। इतरां को खो देने डर बहुत गहरा था। डैम की ओवेरफ़्लो कैपैसिटी जितना गहरा। उसका ख़ुद का नाम उसकी तन्द्रा के गहनतम शांत को तोड़ चुका था।तर्क वहाँ तक नहीं पहुँचते। इतरां ने कैसे पुकारा था उसे। उसका नाम सिर्फ़ नाम था। नाम के साथ कोई भाव, राग, आवेश नहीं जुड़ा था। किसी बिंदु पर हम अपने समग्र में होते हैं। एक बिंदु पर पूरी तरह समग्र और सांद्र। ये बिंदु वक़्त और स्पेस से इतर हमारे होने में होता है। इतरां उसका नाम लेकर उस बिंदु को छू चुकी थी। उस बिंदु में शामिल हो चुकी थी। जैसे उस बेहद छोटे बिंदु की एक बहुत ही महीन चौहद्दी थी। इतरां। उसके होने के इर्द गिर्द। उसकी सीमारेखा। उसकी डेफ़िनिशन।

चीज़ों को उनकी जगह सील कर देने का एक ही तरीक़ा इंसान ने इजाद किया था। आग। शादी में आग के फेरे लिए जाते थे। चिट्ठियों पर लाल लाह को पिघला कर मुहर लगायी जाती थी। क़ैदियों को गरम लोहे से दाग़ दिया जाता था। रूद्र ने सिगरेट जला ली। यूँ वो इतरां के सामने कभी सिगरेट नहीं पीता था मगर इस लम्हे को आग में परख कर पक्का कर देना चाहता था। अपने नाम के होने को। सिगरेट का लाल सिरा उसका नाम जलाते जा रहा था। रूह के गहरे अंधेरे में। रू। द के आधे हिस्से को उसने अलगाया था उँगलियों की थिरकन से सिगरेट के सिरे पर की राख के साथ, कि धूप को रोकती इतरां खड़ी थी सामने, ‘मुझे भी दो’। उससे लड़ने का या समझाने का कोई फ़ायदा नहीं था। रूद्र सिर्फ़ मुस्कुराया। ‘मेरी सारी बुरी आदतें सीख ही लोगी या छोड़ोगी भी कुछ?’। सिगरेट का पहला कश लेते हुए इतरां के चेहरे पर इतनी शैतानी थी जैसे पहले दिन स्कूल बंक करने पर थी। ‘ट्रायल बाय फ़ायर रूद्र। बुरी आदतों के बाद भी अगर अच्छी रह गयी तब ना ग़ुरूर आएगा कि ज़िंदगी को अपने हिसाब से जिया है’। ‘ताब, यू नो, ताब होनी चाहिए…और बिना आग के ताब कहाँ से आएगी’। वे पीठ से पीठ टिकाए बैठे थे। हर कुछ कश के बाद सिगरेट पास करते। इतरां की जूठी सिगरेट गीली हो जाती थी। रूद्र को हँसी आ रही थी उसपर। ‘इत्ति सी इतरां, लेकिन बातें बनवा लो इससे बड़ी बड़ी। कहाँ से सीखी हो रे ऐसा गप्प बनाना?’ पूछते हुए भी रूद्र को इतरां का जवाब मालूम था। ‘तुमसे। और किससे’।

सिगरेट ख़त्म ही हुई थी कि एक चाय वाला पहुँच गया। इस वक़्त जैसे चाय की ही तलब थी। फिर दुनिया एकदम पर्फ़ेक्ट हो जाती। दोनों ने एक एक कप चाय ली और एक पलाश के पेड़ के नीचे जा बैठे। वहाँ हल्की हल्की छांव थी और नीचे बहुत से पलाश के फूल गिरे हुए थे। इतरां चाय पीते हुए पलाश के फूल की पंखुड़ियों को ऊँगली में मसल रही थी और उनका लाल रंग निकाल रही थी।
‘मैं अपना सीक्रेट सुनाऊँ रूद्र?’
‘हाँ। बता। ऐसा क्या है तेरे बारे में जो मैं भी  नहीं जानता’।
इतरां ने अपनी बायाँ हाथ दिखाया रूद्र को। नब्ज़ के ठीक ऊपर दो गहरे काले निशान थे। एक दूसरे की सीध में।
‘तुम पहेलियाँ बूझते हो?’
‘तुम पूछो…देखता हूँ’
‘ये दो बिंदी देख रहे हो रूद्र। जब मैं छोटी थी तो मुझे साँप ने काट लिया था’
‘यही सीक्रेट है तेरा? मुझे मालूम है कि तेरी ही ख़ुराफ़ात से डॉक्टर हरि को सब कोई हरहरिया साँप बोलता है। मालूम है मुझे ये बात’। रूद्र उसकी बात को काटते हुए बोला।
‘नहीं। उफ़्फ़। रूद्र। पेशेंस। पूरी कहानी सुनो तुम। जब साँप ने मुझे काटा था तो मैं एक मिनट के लिए मर गयी थी’
‘कुछ भी…बेहोश हुयी होगी बस।’
‘यही सबको लगता है। लेकिन मैं बेहोश नहीं हुयी थी। मर गयी थी। मर के मैं जहाँ पहुँची वहाँ बहुत अंधेरा था और गहरी लाल रोशनी थी। जैसे फ़ोटो स्टूडीओ में होती है ना। वैसी। मुझे लगा कि मैं ओपेरेशन थिएटर में आ गयी हूँ। वहाँ कुछ महसूस नहीं हो रहा था। मैं बस थी। और कुछ ख़याल थे। जैसे सपनों में होते हैं। मुझे लगा कि कोई बुरा सपना है। मगर फिर ऐसा लगा कि माही है। कुछ बातें थीं जो मुझे उस वक़्त कुछ समझ नहीं आ रही थीं। बिंदुओं के बारे में। होने के बारे में। मैं बहुत छोटी थी ना। मगर अभी अचानक से समझ आयी हैं चीज़ें। देखो ये जो पहला बिंदु है ना। वो खुदा है। ईश्वर। सब कुछ इसी बिंदु पर शुरू और ख़त्म होता है। टाइम। स्पेस। सब कुछ सिर्फ़ एक पोईंट था। ये पहला बिंदु वो है। दूसरा बिंदु जो है, वो माँ है। माही। माही ने ईश्वर से कहा कि मेरी कहानी शुरू होनी चाहिए। उसने मुझे माँगा। ख़ुद को ईश्वर के सामने रख के। दूसरे बिंदु के आने से मेरा होना वजूद में आया…और असल पहेली अब आती है…तीसरे बिंदु की। तीसरा बिंदु होगा इश्क़। तुम इश्क़ समझते हो?’
‘नहीं। तुम समझाओ’।
‘देखो। जो तीसरा बिंदु होगा ना, इश्क़, वही इस पहेली का डिफ़ाइनिंग हिस्सा है। वो ऐसे कि देखो…ज़िंदगी एक कहानी होती है या एक इक्वेशन होती है…कहानी अधूरी भी हो सकती है मगर इक्वेशन सॉल्व हो जाता है अक्सर। तो ईश्वर से अगर मेरी ज़िंदगी की कहानी पूरी हो गयी, माने इक्वेशन सॉल्व हो गया तो ये तीसरा बिंदु जो होगा इश्क़, वो मेरी ज़िंदगी को मुकम्मल करेगा। तब इसकी जगह होगी यहाँ, इन बिंदुओं के ऊपर, ऐसे यानी कि ‘therefore’ जैसे किसी मैथ के इक्वेशन के अंत में लिखते हैं ना। जब लेफ़्ट और राइट दोनों तरफ़ की चीज़ें सुलझ जाती हैं तो। अगर मेरी ज़िंदगी का इश्क़ मुकम्मल हुआ तो ये बिंदु इन दोनों बिंदुओं के ऊपर उगेगा मेरी कलाई में। लेकिन अगर इस जन्म में मेरी ज़िंदगी में अधूरापन होगा, क्रमशः, टू बी कंटिन्यूड जैसा कुछ, कि अगर मेरी कहानी आधी ही रह जाने वाली है, इश्क़ अगर अधूरा छोड़ेगा मुझे तो जो तीसरा बिंदु होगा, वो इन दोनों बिंदुओं के आगे लगेगा, सीधी लकीर में, एक ellipsis
‘ellipsis या कि therefore. यानी कि एक बिंदु उगेगा और उससे तुझे पता चलेगा कि तेरी ज़िंदगी अधूरी रहने वाली है या मुकम्मल?’
‘हाँ। तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रही हूँ? अभी तो मुझे भी पूरी पूरी तरह ठीक से समझ नहीं आया है। लेकिन मुझे लगता है कि अगर कोई समझ सकता है इस बात को तो बस तुम ही हो। मेरी नब्ज़ में बहती चिट्ठियाँ भी तो और किसी को नहीं महसूस होतीं’।
‘तुझे कैसे यक़ीन है कि एक बिंदु उगेगा ही?’
‘जैसे मुझे हमेशा मालूम था कि एक दिन तुम चले आओगे अचानक से ज़िंदगी में। और रह जाओगे हमेशा के लिए’
‘लेकिन ये therefore वाला सिम्बल कोई नयी चीज़ नहीं है। तूने बंज़ारों को देखा है ना? वे इसी सिम्बल के गोदने गुदवाते हैं अपने बदन पर। हमेशा से’
‘हाँ रूद्र। उन्हीं को देख कर तो मुझे पहेली समझ आयी। वे ख़ुद को दिलासा देते हैं कि उनकी ज़िंदगी की कहानी उनके ख़ुद के हाथ में है, किसी खुदा के हाथ में नहीं’।
‘तुझे नहीं लगता कि तेरी ज़िंदगी तेरे ख़ुद के हाथ में है?’
‘रूद्र, मेरे हाथ देखो…तुम्हें नहीं लगता खुदा के हाथ मुझसे ज़्यादा ख़ूबसूरत होते होंगे? मैं क्यूँ अपनी ज़िंदगी छीनूँ उसके हाथ से। लिखने दो ना जो उसका दिल करे…और फिर ज़्यादा कुछ होगा तो माही है ना। इसलिए तो वहाँ डेरा जमा के बैठी है। क्या बोलते हो तुम? कैसा लगा मेरा सीक्रेट? बताओ, मालूम था ये तुमको मेरे बारे में?’
‘मेरी इत्ती सी इतरां, तुझे कभी कभी सुन कर लगता है कि मुझे ख़ुद के बारे में भी कुछ नहीं मालूम है’
‘अच्छा, एक प्रॉमिस करोगे?’
‘अब क्या चाहिए तुझे?’
‘ये बात याद रखना। अगर कभी मैंने ज़िंदगी में तुमसे कहा कि मैं टैटू बनवाना चाहती हूँ तो मुझे ये वाली दोपहर याद दिला दोगे? हो सकता है मैं फिर भी खुदा को ओवररूल करना चाहूँ। मगर तुम याद दिला दोगे? बस इतना कि खुदा के हाथ मेरे हाथों से ज़्यादा ख़ूबसूरत हैं।’
‘और जो मेरा दिल किया खुदा को ओवररूल करने का तो? मैंने ईश्वर के हिस्से ज़िंदगी का एक निर्णय छोड़ा था। मैंने उसके हिसाब से जी है ज़िंदगी। तुम्हें भी उसी रास्ते जाने दूँ? तुम्हारा रास्ता रोकने का दिल करेगा तो? तुम्हें कहीं से लौटा लेने का दिल करेगा तो?’
‘कोई आसान सवाल नहीं है तुम्हारे पास जिसका मैं जवाब दे सकूँ?’
‘तुम्हारे सवालों की गहराई तुम्हारी अक़्ल से गहरी है। मैं क्या ही करूँ मेरी इतरां’
‘कुछ मत करो। मेरे हाथ ठंढे हो गए हैं। थोड़ी देर इन्हें अपने हाथ में लेकर बैठो बस।’
‘तुम्हारी जान इश्क़ में ही जानी है मेरी इतरां, दुनिया में और कोई आफ़त तुम्हें छू नहीं सकती’
‘अच्छा। चलो, एक सिम्पल सवाल पूछती हूँ अब तुमसे, व्हीली सिखाओगे?’
‘तुम्हें मना कर पाया हूँ किसी बात के लिए कभी। सिखा दूँगा। पहले बाइक पर ठीक से कंट्रोल करना सीख लो। अभी तो पूरा एक महीना है।’
‘एक गाना सुनाओ ना रूद्र। मन कैसा कैसा ना तो हो रहा है’
‘इत्तु, अभी कुछ भी और माँग लो। गाना नहीं हो पाएगा। तू ही गा दे कुछ।’
‘रेशमा को गाऊँ?’
‘अक्सर शबे तन्हाई में?’
‘हाँ’
‘हम दोनों मर जाएँगे रे इतरां’
‘ये वाली दोपहर हम कभी नहीं भूलेंगे ना? कभी भी नहीं ना?’
‘बीते हुए दिन ऐश के…’
इक गहरी ख़ामोशी में पानी ठहर गया था। बारिशों में बहुत बहुत दिन थे। इतरां की आवाज़ रूद्र की रूह पर खुरच कर लिख रही थी उसका ही नाम या कि पलाश के पेड़ के तने पर। दर्ज करती जा रही थी लम्हे की गंध। अभी तो उसने देखा ही नहीं था बचपन का गुज़रना फिर आवाज़ का ये मरहम था या ज़ख़्म। ये कौन सी टीस घुल रही थी। गीत ख़त्म होते होते दोनों की आँखें भर आयी थीं और इस पानी पर कोई बाँध नहीं था। कोई डैम नहीं। कोई बैराज नहीं। वे उस गीत में घुल गए थे। एक इनफ़ाईनाइट लूप में। हमेशा से, हमेशा तक। 

लड़की धुएँ से टांक देती उसकी सफ़ेद शर्ट्स में अपना नाम

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जिन दिनों तुम नहीं होते हो जानां। तलाशनी होती है अपने अंदर ही कोई अजस्र नदी। जिसका पानी हो प्यास से ज़्यादा मीठा। जिससे आँखें धो कर आए गाढ़ी नींद और पक्के रंग वाले सपने। जिस नदी के पानी में डूब मर कर की जा सके एक और जन्म की कामना।
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लड़की धुएँ से टांक देती उसकी सफ़ेद शर्ट्स में अपना नाम। लड़के की जेब से मिलती माचिस। उसके बैग में पड़े रहते लड़की की सिगरेट के ख़ाली डिब्बे। लड़की चेन स्मोकिंग करती और लड़के की दुनिया धुआँ धुआँ हो उठती। वो चाहता चखना उसके होंठ लेकिन नहीं छूना चाहता सिगरेट का एक कश भी। लड़के की उँगलियों में सिर्फ़ बुझी हुयी माचिस की तीलियाँ रहतीं। लड़की को लाइटर से सिगरेट जलाना पसंद नहीं था। लड़के को धुएँ की गंध पसंद नहीं थी। धुएँ के पीछे गुम होती लड़की की आँखें भी नहीं। लड़की के बालों से धुएँ की गंध आती। लड़का उसके बालों में उँगलियाँ फिराता तो उसकी उँगलियों से भी सिगरेट की गंध आने लगती। लड़के की मर्ज़ी से बादल नहीं चलते वरना वो उन्हें हुक्म देता कि तब तक बरसते रहें जब तक लड़की की सारी सिगरेटें गीली ना हो जाएँ। इत्ती बारिश कि धुल जाए लड़की के बदन से धुएँ की गंध का हर क़तरा। वो चाहता था कि जान सके जिन दिनों लड़की सिगरेट नहीं पीती, उन दिनों उससे कैसी गंध आती है। सिगरेट उसे रक़ीब लगता। लड़की धुएँ की गंध वाले घर में रहती। लड़का जानता कि इस घर का रास्ता मौत ने देख रखा है और वो किसी भी दिन कैंसर का हाथ पकड़ टहलती हुयी मेहमान की तरह चली आएगी और लड़की को उससे छीन कर ले जाएगी। वो लड़की से मुहब्बत करता तो उसका हक़ होता कि लड़की से ज़िद करके छुड़वा भी दे लेकिन उसे सिर्फ़ उसकी फ़िक्र थी…किसी को भी हो जाती। लड़की इतनी बेपरवाह थी कि उसके इर्द गिर्द होने पर सिर्फ़ उसे ज़िंदा रखने भर की दुआएँ माँगने को जी चाहता था।

वो खुले आसमान के नीचे सिगरेट पीती। उसके गहरे गुलाबी होठों को छू कर धुआँ इतराता हुआ चलता कि जैसे जिसे छू देगा वो मुहब्बत में डूब जाएगा। मौसम धुएँ के इशारों पर डोलते। जिस रोज़ लड़की उदास होती, बहुत ज़्यादा सिगरेट पीती…आँसू उसकी आँखों से वाष्पित हो जाते और शहर में ह्यूमिडिटी बढ़ जाती। सब कुछ सघन होने लगता। कोहरीले शहर में घुमावदार रास्ते गुम हो जाते। यूँ ये लड़की का जाना पहचाना शहर था लेकिन था तो तिलिस्म ही। कभी पहाड़ की जगह घाटियाँ उग आतीं तो कभी सड़क की जगह नदी बहने लगती। लड़की गुम होते शहर की रेलिंग पकड़ के चलती या कि लड़के की बाँह। लड़का कभी कभी काली शर्ट पहनता। उन दिनों वो अंधेरे का हिस्सा होता। सिर्फ़ माचिस जलाने के बाद वाले लम्हे में उसकी आँखें दिखतीं। शहद से मीठीं। शहद रंग की भीं। उससे मिल कर लड़की का दुखांत कहानियाँ लिखने का मन नहीं करता। ये बेइमानी होती क्यूँकि पहाड़ के क़िस्सों में हमेशा महबूब को किसी घाटी से कूद कर मरना होता था। लड़की को सुख की कल्पना नहीं आती थी ठीक से। प्रेम के लौट आने की कल्पना भी नहीं। यूँ भी पहाड़ों में शाम बहुत जल्दी उतर आती है। लड़की उससे कहती कि शाम के पहले आ जाया करे। वो जानती थी कि जब वो लड़के की शर्ट की बाँह पकड़ कर चलती है तो उसकी सिगरेट वाली गंध उसकी काली शर्ट में जज़्ब हो जाती है। फिर बेचारा लड़का रात को ही ठंढे पानी में पटक पटक कर सर्फ़ में शर्ट धोता था ताकि धुएँ की गंध उसके सीने से होते हुए उसके दिल में जज़्ब ना हो जाए। धुएँ की कोई शक्ल नहीं होती, जहाँ रहता है उसी की शक्ल अख़्तियार कर लेता है। अक्सर लड़की से मिल कर लौटते हुए लड़का देखता कि घरों की चिमनी से उठता धुआँ भी लड़की की शक्ल ले ले रहा है।

लड़की सिगरेट पीने जाती तो आँख के आगे बादल आते और धुआँ। वो चाहती कि बालों का जूड़ा बना ले। या कि गूँथ ले दो चोटियाँ कि जहाँ धुएँ की घुसपैठ ना हो सके। मगर उसकी ज़िद्दी उँगलियाँ खोल देतीं जो कुछ भी उसके बालों में लगा हुआ होता, क्लचर, रबर बैंड, जूड़ा पिन। खुले बालों में धुआँ जा जा के झूले झूलता। लड़के को समझ नहीं आता, क़त्ल का इतना सामान होते हुए भी लड़की ने सिगरेट को क्यूँ चुना है अपना क़ातिल। उससे कह देती। वो अपने सपनों में चाकू की धार तेज़ करता रहता। लड़की की सफ़ेद त्वचा के नीची दौड़ती नीली नसों में रक्त धड़कता रहता। लड़का उसके ज़रा पीछे चलता तो देखता उसके बाल कमर से नीचे आ गए हैं। उसकी कमर की लोच पर ज़रा ज़रा थिरकते। लड़की अक्सर किसी संगीत की धुन पर थिरकती चलती। उसके पीछे चलता हुआ वो हल्के से उसके बाल छूता…उसकी हथेली में गुदगुदी होती।

उन्हें आदत लग रही थी एक दूसरे की…लड़के को पासिव स्मोकिंग की…लड़की को रास्ता भटक जाने की। या कि उसके बैग में सिगरेट, माचिस वग़ैरह रख देने की। लड़की देखती धुआँ लड़के को चुभता। इक रोज़ जिस जगह लैम्पपोस्ट हुआ करता था वहाँ बड़े बड़े काँटों वाली कोई झाड़ी उग आयी। लड़के ने सिगरेट जलाने के लिए अंधेरे में माचिस तलाशी तो उसकी ऊँगली में काँटा चुभ गया। अगली सुबह लड़की की नींद खुली तो उसने देखा ऊँगली पर ज़ख़्म उभर आया है, ठीक उसी जगह जहाँ लड़के को काँटा चुभा था। ये शुरुआत थी। कई सारी चीज़ें जो लड़के को चुभती थीं, लड़की को चुभने लगीं। जैसे कि एक दूसरे से अलग होने का लम्हा। वे दिन जब उन्हें मिलना नहीं होता था। वे दिन जब लड़का शहर से बाहर गया होता था। कोई हफ़्ता भर हुआ था और लड़की बहुत ज़्यादा सिगरेट पीने लगी थी। ऐसे ही किसी दीवाने दिन लड़की जा के अपने बाल कटा आयी। एकदम छोटे छोटे। कान तक। उस दिन के बाद से शहर का मौसम बदलने लगा। तीखी धूप में लड़के की आँखें झुलसने लगी थीं। गरमी में वो काले कपड़े नहीं पहन सकता। जिन रातों में उसका होना अदृश्य हुआ करता था उन रातों में अब उसके सफ़ेद शर्ट से दिन की थकान उतरती। वो नहीं चाहता कि लड़की उसकी शर्ट की स्लीव पकड़ कर चले। यूँ भी गरमियों के दिन थे। वो अक्सर हाफ़ शर्ट या टी शर्ट पहन लिया करता। लड़की को उसका हाथ पकड़ कर चलने में झिझक होती। इसलिए बस साथ में चलती। सिगरेट पर सिगरेट पीती हुयी। अब ना बादल आते थे ना उसके बाल इतने घने और लम्बे थे कि धुआँ वहाँ छुप कर बादलों को बुलाने की साज़िश रचता। लड़का उसकी कोरी गर्दन के नीचे धड़कती उसकी नस देखता तो उसके सपने और डरावने हो जाते। लड़की के गले से गिरती ख़ून की धार में सिगरेटें गीली होती जातीं। लड़का सुबकता। लड़की के सर में दर्द होने लगता।

उनके बीच से धुआँ ग़ायब रहने लगा था। धुएँ के बग़ैर चीज़ें ज़्यादा साफ़ दिखने लगी थीं। जैसे लड़की को दिखने लगा कि लड़के की कनपटी के बाल सफ़ेद हो गए हैं। लड़के ने नोटिस किया कि लड़की के हाथों पर झुर्रियाँ पड़ी हुयी हैं। कई सारी छोटी छोटी चीज़ें उनके बीच कभी नहीं आती थीं क्यूँकि उनके बीच धुआँ होता था। लड़की ने सिगरेट पीनी कम करके वैसी होने की कोशिश की जैसी उसके ख़याल से लड़के को पसंद होनी चाहिए। चाहना का लेकिन कोई ओर छोर नहीं होता। लड़की ने सिगरेट पीनी लगभग बंद ही कर दी थी। लेकिन किसी किसी दिन उसका बहुत दिन करता। ख़ास तौर से उन दिनों जब धूप भी होती और बारिश भी। ऐसे में अगर वो सिगरेट पी लेती तो लड़का उससे बेतरह झगड़ता। सिगरेट को दोषी क़रार देता कि उन दोनों के बीच हमेशा किसी सिगरेट की मौजूदगी रहती है। लड़की कितना भी कम सिगरेट पीने की कोशिश करती, कई शामों को उसका अकेलापन उसे इस बेतरह घेरता कि वो फिर से धुएँ वाले घर में चली जाती। वहाँ से उसके लौटने पर लड़का बेवफ़ाई के ताने मारता। इन दिनों लड़के के बैग में ना माचिस होती थी, ना सिगरेट के ख़ाली डिब्बे। इन दिनों लड़की का दिल भी ख़ाली ख़ाली रहता। और मौसम भी।

वो एक बेहद अच्छी लड़की हो गयी थी इन दिनों…और इन्ही दिनों लड़के को लगता था, उसे किसी बुरी लड़की से इश्क़ हुआ था…किसी बुरी लड़की से इश्क़ हो जाना चाहिए। 

थेथरोलोजी वाया भितरिया बदमास

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नोट: ये अलाय बलाय वाली पोस्ट है। आप कुछ मीनिंगफुल पढ़ना चाहते हैं तो कृपया इस पोस्ट पर अपना समय बर्बाद ना करें। धन्यवाद।
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दोस्त। आज ऊँगली जल गयी बीड़ी जलाते हुए तो तुम याद आए। नहीं। तुम नहीं। हम याद आए। तुम्हें याद है हम कैसे हुआ करते थे?
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ये वो दिन हैं जब मैं भूल गयी हूँ कि मेरे हिस्से में कितनी मुहब्बत लिखी गयी है। कितनी यारियाँ। कितने दिलकश लोग। कितने दिल तोड़ने वाले लोग। इन्हीं दिनों में मैं वो कहकहा भी भूल गयी हूँ जो हमारी बातों के दर्मयान चला आता था हमारे बीच। बदलते मौसम में आसमान के बादलों जैसा। तुम आज याद कर रहे हो ना मुझे? कर रहे हो ना?
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हम। मैं और तुम मिल कर जो बनते थे...वो बिहार वाला हम नहीं...बहुवचन हम...लेकिन हमारा हम तो एकवचन हो जाता था ना? नहीं। मैं और तुम। एक जैसे। जाने क्या। क्यूँ। कैसे। कब तक?

हम। जिन दिनों हम हुआ करते थे। मैं और तुम।
तुम्हारे घर के आगे रेलगाड़ी गुज़रती थी और मैं यहाँ मन में ठीक ठीक डिब्बे गिन लेती थी। याद है? पटना के प्लैट्फ़ॉर्म पर हम कभी नहीं मिले लेकिन अलग अलग गुज़रे हैं वहाँ से अपने होने के हिस्से पीछे छोड़ते हुए कि दूसरा जब वहाँ आए तो उसे तलाशने में मुश्किल ना हो।

हम एक ऐसे शहर में रहते थे जहाँ घड़ी ठीक रात के आठ बजे ठहर जाती थी। तब तक जब तक कि जी भर बतिया कर हमारा मन ना भर जाए। गंगा में आयी बाढ़ जैसी बातें हुआ करती थीं। पूरे पूरे गाँव बहते थे हमारे अंदर। पूरे पूरे गाँव रहते थे हमारे अंदर। नहीं? इन गाँवों के लोग कितना दोस्ताना रखते थे एक दूसरे से। दिन में दस बार तो आना जाना लगा हुआ रहता था। कभी धनिया पत्ता माँगने तो कभी खेत से मूली उखाड़ने। झालमूढ़ि में जब तक कच्चा मिर्चा और मूली ना मिले, मज़ा नहीं आता। झाँस वाला सरसों का तेल। थोड़ा सा चना। सीसी करते हुए खाते जाना। तित्ता तित्ता।

लॉजिक कहता है तुम वर्चुअल हो। आभासी। आभासी मतलब तो वो होता है ना जिसके होने का पहले से पता चल जाए ना? उस हिसाब से इस शब्द का दोनों ट्रान्सलेशन काम करता है। याद क्यूँ आती है किसी की? इस बेतरह। क्या इसलिए कि कई दिनों से बात बंद है? तुमसे बात करना ख़ुद से बात करने को एक दरवाज़ा खोले रखना होता था। तुमसे बात करते हुए मैं गुम नहीं होती थी। तुम ज़िद्दी जो थे। अन्धार घर में भुतलाया हुआ माचिस खोजना तुमरे बस का बात था बस। हम जब कहीं बौरा कर भाग जाने का बात उत करने लगते थे तुम हमको लौटा लाते थे। मेरे मर जाने के मूड को टालना भी तुमको आता था। बस तुमको। सिर्फ़ एक तुमको।

सुगवा रे, मोर पाहुना रे, ललका गोटी हमार, तुम रे हमरे पोखर के चंदा...तुम हमरे चोट्टाकुमार। जानते हो ना सबसे सुंदर क्या है इस कबीता में? इस कबीता में तुम हमरे हो...हमार। उतना सा हमरे जितना हमारे चाहने भर को काफ़ी हो। कैसे हो तुम इन दिनों? हमारे वो गाँव कैसे उजड़ गए हैं ना। बह गए सारे लोग। सारे लोग रे। आज तुम्हारा नाम लेने का मन किया है। देर तक तुमसे बात करने का मन किया है। इन सारे बहे हुए लोगों और गाँवों को गंगा से छांक कर किसी पहाड़ पर बसा देने का मन किया है। लेकिन गाँव के लोग पहाड़ों पर रहना नहीं जानते ना। तुम मेरे बिना रहना जानते हो? हमको लगता था तुम कहीं चले गए हो रूस के। घर का सब दरवाज़ा खुला छोड़ के। लेकिन तुम तो वहीं कोने में थे घुसियाए हुए। बीड़ी का धुइयाँ लगा तो खाँसते हुए बाहर आए। आज झगड़ लें तुमसे मन भर के? ऐसे ही। कोई कारण से नहीं। ख़ाली इसलिए कि तुमको गरिया के कलेजा जरा ठंढा पढ़ जाएगा। बस इसलिए। बोलो ना रे। कब तक ऐसे बैठोगे चुपचाप। चलो यही बोल दो कि हम कितना ख़राब लिखे हैं। नहीं? कहो ना। कहो कि बोलती हो तो लगता है कि ज़िंदा हो।

मालूम है। इन दिनों मैंने कुछ लिखा नहीं है। वो जो लिखने में सुख मिलता था, वो ख़त्म हो गया है। कि मैंने बात करनी ही बंद कर दी है। काहे कि हमेशा ये सोचने लगी हूँ कि ये भी कोई लिखने की बात है। वो जो पहले की तरह होता था कि साला जो मेरा मन करेगा लिखेंगे, जिसको पढ़ना है पढ़े वरना गो टू द (ब्लडी) भाड़। इन दिनों लगता है कि बकवास लिखनी नहीं चाहिए, बकवास करनी भी नहीं चाहिए। लेकिन वो मैं नहीं हूँ ना। मैं तो इतना ही बोलती हूँ। तो ख़ैर। जिसको कहते हैं ना, टेक चार्ज। सो। फिर से। लिखना इसलिए नहीं है कि उसका कोई मक़सद है। लिखना इसलिए है कि लिखने में मज़ा आता था। कि जैसे बाइक चलाने में। तुम्हें फ़ोन करके घंटों गपियाने में। तेज़ बाइक चलाते हुए हैंडिल छोड़ कर दोनों हाथ शाहरुख़ खान पोज में फैला लेने में। नहीं। तो हम फिर से लिख रहे हैं। अपनी ख़ुशी के लिए। जो मन सो।

हम न आजकल बतियाना बंद कर दिए हैं। लिखना भी। जाने क्या क्या सोचते रहते हैं दिन भर। पढ़ते हैं तो माथा में कुछ घुसता ही नहीं है। चलो आज तुमको एक कहानी सुनाते हैं। तुम तो नहींये जानते होगे। ई सब पढ़ सुन कर तुमरे ज्ञान में इज़ाफ़ा होगा। ट्रान्सलेशन तो हम बहुत्ते रद्दी करते हैं, लेकिन तुम फ़ीलिंग समझना, ओके? तुम तो जानते हो कि हारूकी मुराकामी मेरे सबसे फ़ेवरिट राईटर हैं इन दिनों। तो मुराकामी का जो नॉवल पढ़ रहे हैं इन दिनों उसके प्रस्तावना में लिखते हैं वो कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कई काम उलटे क्रम से किए हैं। उन्होंने पहले शादी की, फिर नौकरी, और आख़िर में पढ़ाई ख़त्म की। अपने जीवन के 20s में उन्होंने Kokubunji में एक छोटा सा कैफ़े खोला जहाँ जैज़ सुना जा सकता था। वो लिखते हैं कि 29 साल की उम्र में एक बार वे एक खेल देखने गए थे। वो साल १९७८ का अप्रील महीना था और जिंग़ु स्टेडीयम में बेसबाल का गेम था। सीज़न का पहला गेम Yakult Swallows against the Hiroshima Carp। वे उन दिनों याकुल्ट स्वालोज के फ़ैन थे और कभी कभी उनका गेम देखने चले जाते थे। वैसे स्वॉलोज़ माने अबाबील होता है। अबाबील बूझे तुम? गूगल कर लेना। तो ख़ैर। मुराकामी गेम देखने के लिए घास पर बैठे हुए थे। आसमान चमकीला नीला था, बीयर उतनी ठंढी थी जितनी कि हो सकती थी, फ़ील्ड के हरे के सामने बॉल आश्चर्यजनक तरीक़े से सफ़ेद थी...मुराकामी ने बहुत दिन बाद इतना हरा देखा था। स्वालोज का पहला बैटर डेव हिल्टन था। पहली इनिंग के ख़त्म होते हिल्टन ने बॉल को हिट किया तो वो क्रैक पूरे स्टेडियम में सुनायी पड़ा। मुराकामी के आसपास तालियों की छिटपुट गड़गड़ाहट गूँजी। ठीक उसी लम्हे, बिना किसी ख़ास वजह के और बिना किसी आधार के मुराकामी के अंदर ख़याल जागा: 'मेरे ख़याल से मैं एक नॉवल लिख सकता हूँ'।

अंग्रेज़ी में ये शब्द, 'epiphany'है। मुझे अभी इसका ठीक ठीक हिंदी शब्द याद नहीं आ रहा।

मुराकामी को थी ठीक वो अहसास याद है। जैसे आसमान से उड़ती हुयी कोई चीज़ आयी और उन्होंने अपनी हथेलियों में उसे थाम लिया। उन्हें मालूम नहीं था कि ये चीज़ उनके हाथों में क्यूँ आयी। उन्हें ये बात तब भी नहीं समझ आयी थी, अब भी नहीं आती। जो भी वजह रही हो, ये घटना घट चुकी थी। और ठीक उस लम्हे से उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गयी थी।

खेल ख़त्म होने के बाद मुराकामी ने शिनजकु की ट्रेन ली और वहाँ से एक जिस्ता काग़ज़ और एक फ़ाउंटेन पेन ख़रीदा। उस दिन उन्होंने पहली बार काग़ज़ पर कलम से अपना नॉवल लिखना शुरू किया। उस दिन के बाद से हर रोज़ अपना काम ख़त्म कर के सुबह के पहले वाले पहर में वे काग़ज़ पर लिखते रहते क्यूँकि सिर्फ़ इसी वक़्त उन्हें फ़ुर्सत मिलती। इस तरह उन्होंने अपना पहला छोटा नॉवल, Hear the Wind Sing लिखा।

कितना सुंदर है ऐसा कुछ पढ़ना ना? मुझे अब तो वे दिन भी ठीक से याद नहीं। मगर ऐसा ही होता था ना लिखना। अचानक से मूड हुआ और आधा घंटा बैठे कम्प्यूटर पर और लिख लिए। ना किसी चीज़ की चिंता, ना किसी के पढ़ने का टेंशन। हम किस तरह से थे ना एक दूसरे के लिए। पाठक भी, लेखक भी, द्रष्टा भी, क्रिटिक भी। लिखना कितने मज़े की चीज़ हुआ करती थी उन दिनों। कितने ऐश की। फिर हम कैसे बदल गए? कहाँ चला गया वो साधारण सा सुख? सिम्पल। साधारण। सादगी से लिखना। ख़ुश होना। मुराकामी उसी में लिखते हैं कि वो ऐसे इंसान हैं जिनको रात ३ बजे भूख लगती तो फ्रिज खंगालते हैं...ज़ाहिर तौर से उनका लिखना भी वैसा ही कुछ होगा। तो बेसिकली, हम जैसे इंसान होते हैं वैसा ही लिखते हैं।

बदल जाना वक़्त का दस्तूर होता है। बदलाव अच्छा भी होता है। हम ऐसे ही सीखते हैं। बेहतर होते हैं। मगर कुछ चीज़ें सिर्फ़ अपने सुख के लिए भी रखनी चाहिए ना? ये ब्लॉग वैसा ही तो था। हम सोच रहे हैं कि फिर से लिखें। कुछ भी वाली चीज़ें। मुराकामी। मेरी नयी मोटरसाइकिल, रॉयल एंफ़ील्ड, शाम का मौसम, बीड़ी, मेरी फ़ीरोज़ी स्याही। जानते हो। हमारे अंदर एक भीतरिया बदमास रहता है। थेथरोलौजी एक्सपर्ट। किसी भी चीज़ पर घंटों बोल सकने वाला। जिसको मतलब की बात नहीं बुझाती। होशियार होना अच्छा है लेकिन ख़ुद के प्रति ईमानदार होना जीने के लिए ज़रूरी है। हर कुछ दिन में इस बदमास को ज़रा दाना पानी देना चाहिए ना?

और तुम। सुनो। बहुत साल हो गए। कोई आसपास है तुम्हारे? लतख़ोर, उसको कहो मेरी तरफ़ से तुम्हें एक bpl दे...यू नो, bum पे लात :)

कहा नहीं है इन दिनों ना तुमसे।
लव यू। बहुत सा। डू यू मिस मी? क्यूँकि, मैं मिस करती हूँ। तुम्हें, हमें। सुनो। लिखा करो। 

बसना अफ़सोस की तरह। सीने में। ताउम्र।

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अलग अलग शौक़ होते हैं लोगों के। मेरा एक दिल अज़ीज़ शौक़ है इन दिनों। अफ़सोस जमा करने का। बेइंतहा ख़ूबसूरत मौसम भी होते हैं। ऐसे कि जो शहर का रंग बदल दें। इस शहर में एक मौसम आया कि जिसे यहाँ के लोग कहते हैं, ऑटम। फ़ॉल। देख कर लगा कि फ़ॉल इन लव इसको कहते होंगे। वजूद का सुनहरा हो जाना। कि जैसे गोल्ड-प्लेटिंग हो गयी हो हर चीज़ की। गॉथेन्बर्ग। मेरी यादों में हमेशा सुनहरा।

यहाँ की सड़कें यूँ तो नोर्मल सी ही सड़कें होती होंगी। बैंगलोर जैसी। दिल्ली जैसी नहीं की दिल्ली की सड़कों से हमेशा महबूब जुड़े हैं। यारियाँ जुड़ी हैं। मगर इन दिनों इन सड़कों पर रंग बिखरता था। सड़कों पर दोनों ओर क़तार में सुनहले पेड़ लगे हुए थे। मैंने ऐसे पेड़ पहली और आख़िरी बार कश्मीर में देखे थे। तरकन्ना के पेड़। ज़मीन पर गिरे हुए पत्तों का पीला क़ालीन बिछा था। हवा इतनी तेज़ चलती थी कि सारे पत्ते कहीं भागते हुए से लगते थे। उस जादुई पाइप प्लेयर की याद आती थी जिसने चूहों को सम्मोहित कर लिया था और वे उसके पीछे पीछे चलते हुए नदी में जा के डूब गए थे। ये पत्ते वैसे ही सम्मोहित सड़कों पर दीवाने हुए भागते फिरते थे। इस बात से बेख़बर कि ट्रैफ़िक सिग्नल हरा है या लाल। उन्हें कौन महबूब पुकारता था। वे कहाँ खिंचे चले जाते थे? मुझे वो वक़्त याद आया जब याद यूँ बेतरह आती थी जब कोई ऐसा शहर पुकारता था जिसकी गलियों की गंध मुझे मालूम नहीं।

कई दिनों से मेरा ये आलम भी है कि सच्चाई और कहानियों में अंतर महसूस करने में मुश्किल हो रही है। दिन गुज़रता है तो यक़ीन नहीं होता कि कहीं से गुज़र कर आए हैं। लगता है काग़ज़ से उतर कर ज़िंदा हुआ कोई शहर होगा। कोई महबूब होगा सुनहली आँखों वाला।

हम जिनसे भी कभी मुहब्बत में होते हैं, हमें उनकी आँखों का रंग तब तक याद रहता है जब तक कि उस मुहब्बत की ख़ुशबू बाक़ी रहे। याने के उम्र भर।

शहर की सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों ने पीले पत्ते बुहार कर सड़क के किनारे कर दिए थे। तेज़ हवा चलती और पत्ते कमबख़्त, बेमक़सद दौड़ पड़ते शहर को अपनी बाँहों में लिए बहती नदी में डूब जाने को। मैं किसी कहानी का किरदार थी। तनहा। लड़की कोई। उदास आँखों वाली। लड़की ने एक भागते पत्ते को उठाया और कहा तुम सूने अच्छे नहीं लगते और उसपर महबूब का नाम लिखा अपनी नीली स्याही से। पत्ते को बड़ी बेसब्री थी। हल्के से हवा के झोंके से दौड़ पड़ा और पुल से कूद गया नीचे बहते पानी में। जब तक पत्ता हवा में था लड़की देखती रही महबूब का नाम। नदी के पानी में स्याही घुल गयी और अब से सारे समंदरों को मालूम होगा उसके महबूब का नाम। मैंने देखा लड़की को। सोचा। मैं लिखूँ तुम्हारा नाम। मगर फिर लगा तुम्हारे शहर का पता बारिशों को नहीं मालूम।

लड़की भटक रही थी बेमक़सद मगर उसे मिलती हुयी चीज़ों की वजह हुआ करती थी। धूप निकली तो सब कुछ सुनहला हो गया। आसमान से धूप गिरती और सड़क के पत्तों से रेफ़्लेक्ट होती। इतना सुनहला था सब ओर कि लड़की को लगा उसकी आँखें सुनहली हो जाएँगी। उसे वो दोस्त याद आए जिनकी आँखों का रंग सुनहला था। वो महबूब भी। और वे लड़के भी जो इन दोनों से बचते हुए चलते थे। शहर के पुराने हिस्से में एक छोटे से टीले पर एक लाल रंग की बेंच थी जिसके पास से एक पगडंडी जाती थी। उसे लगा कि ये बेंच उन लड़कों के लिए हैं जिन्हें यहाँ बैठ कर कविताएँ पढ़नी हैं और प्रेम पत्र लिखने हैं। ये बेंच उन लोगों के लिए हैं जिनके पास प्रेम के लिए जगह नहीं है।

ये पूरा शहर एक अफ़सोस की तरह बसा है सीने में। ठीक मालूम नहीं कि क्यों। ठीक मालूम नहीं कि क्या होना था। ठीक मालूम नहीं कि इतना ख़ूबसूरत नहीं होना था तो क्या होना था। उदास ही होना था। हमेशा?

हाथों में इतना दर्द है कि चिट्ठियाँ नहीं लिखीं। पोस्टकार्ड नहीं डाले। ठंढे पानी से आराम होता था। सुबह उठती तो उँगलियाँ सूजी हयीं और हथेली भी। कुछ इस तरह कि रेखाओं में दिखते सारे नाम गड़बड़। डर भी लगता। कहीं तुम्हारा नाम मेरे हाथों से गुम ना जाए। जब हर दर्द बहुत ज़्यादा लगता तो दोनों हथेलियों से बनाती चूल्लु और घूँट घूँट पानी पीती। दर्द भी कमता और प्यास भी बुझती।

वो दिखता। किसी कहानी का महबूब। हँसता। कि इतना दुःख है। काश इतनी मुहब्बत भी होती। मैं मुस्कुराती तो आँख भर आती। हाथ उठाती दुआ में। कहती। सरकार। आमीन। 

इश्क़ के बाद तो मौत आती है। समझदारी नहीं।

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वो किसी वाहियात सी फ़िल्म को देख कर आयी थी। घिसी पिटी कहानी। बेमानी डायलोग और एक ही जैसे किरदार निभाते ऐक्टर्स। ज़िंदगी के हज़ार रंगों में परदे पर कोई रंग चमकता क्यूँ नहीं। 

चमकते मॉल के एस्केलेटर से लोग उतर रहे थे, चढ़ रहे थे। सब कुछ स्लो मोशन में ही था। रेलिंग पर हाथ टिकाए वो लोगों को सीधा, बेझिझक देख रही थी। हर चेहरे पर बेचैनी। हर चेहरे पर एक अजीब तलाश थी। कि जैसे सुख, सुकून, प्रेम, दोस्ती...सब कुछ मॉल में मिल जाएगा। लोग आते और गुज़र जाते उसके पास से। अचानक से उसे एक चेहरा याद आया। किसी की हँसी याद आयी। उसकी आँखों का रंग याद आया। उसके गले लगना याद आया। 'f*ck. प्यार हो रहा है मुझे उससे'। घबराहट हुयी। बेतरह। उसने याद करने की कोशिश की कि कब आख़िरी बार उसे किसी से प्यार होने पर घबराहट नहीं, ख़ुशी हुयी थी। कब दिल में ख़याल आया था, 'wow, प्यार हो रहा है'। उसे याद नहीं आया। प्यार उसे हमेशा एक लम्हे में हो जाता था। बिना आगे पीछे सोचे हुए। 

तो फिर ये क्या था? हिंदी फ़िल्में देखने से हुए बेतरह के फ़ितूर? हिंदी फ़िल्मों की और कौन सी बात सच होती है? लोग चार्टर्ड प्लेन से आते जाते हैं? पेरिस में छुट्ठियाँ मनाते हैं? नहीं ना? 

रेलिंग की ठंढ हाथों को भली लग रही थी। लड़की ने अपने नाख़ून देखे। बेतरह कुतरे हुए। लड़की। कि जो कभी मैनिक्योर कराने पार्लर भी नहीं गयी, पेरिस तो दूर की बात है। उसे क्यूँ लगता कि हिंदी फ़िल्मों का वो एक डाइयलोग सही है, 'लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते?'। ये कहाँ का आख़िरी नियम है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता। फ़िल्मों के सिवा कहीं भी तो नहीं लिखा है ऐसा। फ़िल्मों में उसके जैसे लोग होते भी तो नहीं। उस लड़के के जैसे भी नहीं। किसी डिरेक्टर को कहाँ मालूम है कि उसे उसकी कौन सी बात अच्छी लग गयी है। लड़के को ख़ुद कहाँ मालूम। 

किसी से साथ ख़ुशी या ग़म के किसी लम्हे को बाँटने की चाह दोस्ती भी तो होती है। गहरी। इसमें प्यार की मिलावट होनी ज़रूरी है। कुछ बेहद पसंद आया तो सबसे पहले माँ को फ़ोन करने का मन करता था ना। उसके नहीं रहने के बरसों बाद भी। फिर। हिंदी फ़िल्मों को सुधारने की ज़रूरत है। ये एक ढंग की फ़िल्म क्यूँ नहीं बनाते। एक बार। सिर्फ़ एक बार। एक्सेप्शन के लिए सही। दोस्ती सिर्फ़ लड़कों में होती है? लड़कियाँ रोड ट्रिप पे क्यूँ नहीं जातीं? जाने कितनी सारी चीज़ें और। लड़की सोचती रही। फिर ट्राइयल रूम में सफ़ेद शर्ट पहनी। गहरी नीली कि जो लगभग काली थी। जींस के जैसे लुक वाली, आसमानी। उसका दिल किया अपने अलमारी में रक्खे अट्ठारह सफ़ेद लिबासों में एक और जोड़ दे। मगर उसके काले रंग पर सफ़ेद बहुत कांट्रैस्ट करता था। एक और शर्ट पर पैसे बर्बाद करने से क्या फ़ायदा। 

मोबाइल देखती रही देर तक। सोचती रही। इन जगहों से उसकी ख़ुशबू कब जाएगी। उसकी आँखों से उसकी ख़ुशबू कब जाएगी। ख़ुशबू। उसकी उँगलियों में उसकी ख़ुशबू थी। सिर्फ़ इसलिए कि उसके नम्बर पर टाइप किए हज़ारों मेसेजेस थे। ड्राफ़्ट फ़ोल्डर्ज़ में। इससे कहीं ज़्यादा वो मेसेजेस थे जो उसने टाइप तक नहीं किए। कि कभी भेजने ही नहीं थे। कितना मुश्किल है उससे कहना, 'आइ मिस यू'।

कुछ फ़ैसले अपने हाथ में भी तो होते हैं। उसे कभी नहीं बताने का...गुम हो जाने का...या कि यूँ मुस्कुराने का जैसे सब पहले जैसा ही है। 'कि जहाँ से लौट गयी थी। वहीं पर डूब गयी हूँ। सुनो। कभी हम एकदम टूटे तो वो ब्लैक शर्ट दे दोगे मुझे? उसमें तुम बहुत अच्छे लगते हो। मैं नहीं चाहती मेरे बाद कोई लड़की तुम्हें उस शर्ट में देखे। पूछ लो, क्या करूँगी तुम्हारी शर्ट का। आग लगा दूँगी उसमें। बस। इतना तो कर सकती हूँ। मुहब्बत ना सही'।

'जब सब कुछ ही ख़त्म जो जाएगा। मैं आग लगा दूँगी, तुम्हारी ब्लैक शर्ट के साथ अपनी अट्ठारह सफ़ेद शर्ट्स को, तुम बताना...जो तुमने कहा था'। 'तुम मेरे बेस्ट फ़्रेंड बनना चाहते हो।'मैंने कहा था उस दिन भी, बहुत मुश्किल है मेरा बेस्ट फ़्रेंड बनना। मेरे आशिक़ों के बयान सुनने पड़ेंगे, मेरे लव लेटर एडिट करने पड़ेंगे। मेरे boyfriends के लिए तोहफ़े ख़रीदने चलना पड़ेगा मेरे साथ। बोलो। कर सकोगे सब? मगर उन दिनों मुझे नहीं लगा था कभी कि तुमसे गहरा प्यार होगा। कभी। 

लड़की। उसे दोस्त से ज़्यादा नहीं होने देगी कुछ। 

हम जो महसूस करते हैं उसे रोक नहीं सकते, मगर हम जो क़दम उठाते हैं, हम जो निर्णय लेते हैं, वो हमारे बस में हैं। लड़की आइना देखते मुस्कुरायी। वो पूरी तरह भूल गयी थी प्यार करना। पूरी तरह भूल गयी थी किसी दोस्त पर अपना हक़ जताना। मैं जा रही हूँ के बजाए, आइ मिस यू लिखना आसान नहीं था? सुसाइड लेटर लिखने के बजाए, sms करना आसान नहीं था?

दोस्ती आसान नहीं थी?
मगर लड़की। उफ़। उसे तो इश्क़ होना था। इश्क़। इश्क़ के बाद तो मौत ही आती है। समझदारी नहीं। फिर आख़िर वो कहानी का किरदार थी। कोई जीती जागती लड़की कहाँ। हैप्पी एंडिंग सिर्फ़ फ़िल्मों में होती है। किताबों की शुरुआत ही मरने से होती है। जीते जागते पेड़ को मार कर बनाया जाता है काग़ज़। उस पर छपी कोई किताब क़त्ल में डूबी होती है। ग़म में। तकलीफ़ में। काग़ज़ पर इश्क़ लिखते हैं। रिहाई नहीं। 

लड़की सोचती थी अपने रेजयूमे पर लिख दूँ...'मैं सुसाइड लेटर अच्छा लिखती हूँ'। फिर उसे वो सारे रक़ीब याद आए जिनकी उसने हत्या की थी और वो पागलों की तरह हँस पड़ी। 

'Why die when you can kill?'

आइ लव यू टू, शैतान । God is a postman (9)

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रूद्र ने सिखाया इतरां को। जब दिल करे। घास पर पड़ी रहना। बेफ़िक्र। आसमान में जो हो, उसे देखना। सूरज हो तो बंद आँखों से। चाँद या सितारे हों तो खुली आँखों से। हर रोशनी को हमेशा चूमने देना अपना माथा। आत्माओं की दुआ से बनती है रोशनी। सबसे शुद्ध। सफ़ेद। रोशनी का हर स्पर्श तुम्हें सुख से भर देगा। अपने अंधेरों को इन चमकती पुतलियों में बाँध कर नहीं रखना, हर रात वे चाहेंगी उड़ के बाक़ी अंधेरों में मिल जाना। उन्हें जाने देना। अंधेरों की ज़रूरत सिर्फ़ चिट्ठियाँ लिखते हुए होगी। उस समय अपनी रूह के सबसे अंदर झाँक के देखना। वहाँ हमेशा इतना अंधेरा तो मिल ही जाएगा कि उससे स्याही बन सके।

जब रूद्र नहीं होता इतरां घास पर पड़ी होती। बाल फैलाए। कभी सितारों को जोड़ कर अपनी मर्ज़ी की कहानियों को आसमान में फिरते हुए देखती। जन्म के समय से इतरां के लम्बे घुंघराले काले बाल थे। पाँच साल की हुयी इतरां तो मन्नत के हिसाब से तारापीठ में उसका मुंडन हुआ। उसके इतने सुंदर बालों पर उस्तरा चला तो दादी सरकार की आँख भर आयी। लेकिन बालों का क्या था। बढ़ आए फिर। बोर्डिंग स्कूल जाते हुए इतरां के बाल काँधे से नीचे थे। जाने के पहले कुछ दिन लगातार दादी सरकार ने उसे दो चोटियाँ गूँथनी सिखायीं ताकि वहाँ स्कूल में उसे कोई दिक़्क़त ना हो और बाल कटवाने ना पड़ें।

पहली बार हवाईजहाज़ से स्कूल देखा तो इतरां उसके तिलिस्म में क़ैद हो गयी। बादलों के बीच से दूर दूर तक रेत के धोरे दिख रहे थे और उनके बीच पानी की मरीचिका सा शाद्वल चमक रहा था। भूगोल के क्लास में पढ़ा हुआ ओएसिस वाक़ई कहीं ज़िंदा, साँस लेता हुआ दिखेगा, ऐसा तो उसने कभी सोचा भी नहीं था। एक लम्हे के लिए वो सब भूल गयी, पीछे छूटते हुए परिवार वाले, चवन्नी जैसे दोस्त, बुलेट की व्हीली…सब। रेगिस्तान का जादू घेरता है तो किसी और याद के लिए जगह कहाँ बचती है।

रूद्र के लौटने के बाद इतरां को महसूस हुआ कि इकतरफ़ा प्रेम आसान नहीं होता। रेत की प्यास का मुक़ाबला कोई मुहब्बत नहीं कर सकती थी। रेत उसके सारे आँसू सोख लेती और झील का पानी एक इंच भी नहीं बढ़ता। अभी तक उसके एक आँसू पर घर भर में फ़साद खड़ा हो जाया करता था। बोर्डिंग स्कूल उससे वो घास का क़ालीन छीन रहा था जिसपर पड़े रह कर रोशनी को आँखों में बुलाया जा सकता था।

पहला फ़ोन कॉल
नयी जीप में बैठ कर सब लोग शहर गए इतरां को फ़ोन करने के लिए। रूद्र। इंदर। दादी सरकार। घर के बाक़ी बच्चे। रूद्र ने सबको बताया था कि फ़ोन से इतरां की आवाज़ सुनी जा सकती है। इधर से भी बात कर सकते हैं। कॉल लगायी गयी। सबसे पहले दादी सरकार ने फ़ोन का चोंगा पकड़ा...'इतरां। इतरां। कैसी है बेटा…मेरी चंदा…इतरां.’ उधर से कोई आवाज़ नहीं। दादी की आवाज़ और ऊँची होती जा रही थी।

‘आहिस्ता बड़ी सरकार, इतना तेज़ बोलेंगी तो बिना फ़ोन के ही आवाज़ पहुँच जाएगी’। रूद्र ने अपनी घबराहट छुपाने के लिए बड़ी सरकार को छेड़ा और सारे बच्चे हँस पड़े। बड़ी सरकार से ठिठोली की हिमाक़त एक रूद्र ही कर सकता था। सरकार लेकिन सरकार थीं, फ़ोन बूथ वाले को हड़काया और फ़ोन इंदर को थमा दिया। इंदर ने आवाज़ में बहुत सा दुलार भर कर इतरां का नाम पुकारा। एक पल को तो लगा जैसे माही ने पुकारा हो अपनी बेटी को। लेकिन उधर से कोई भी आवाज़ नहीं आयी। अब रूद्र की बेसब्री और इंतज़ार नहीं कर सकती थी। इंदर से लगभग फ़ोन का चोंगा छीनते हुए इतरां का नाम पुकारा। 'इतरां। क्या हुआ। कुछ बोल तो सही। स्कूल पसंद नहीं आया? क्लास अच्छी नहीं है? खाना वाना देते हैं तुझे? किसी ने परेशान किया क्या। बता तो सही। क्या हुआ। इतरां। इत्ति। इत्तु। मेरी इतरमिश्री। कुछ बोल तो’

कोई भी आवाज़ नहीं।

रूद्र ने एक गहरी साँस ली और फ़ोन में हौले से पुकारा, ‘सरकार’।

फ़ोन के उस तरफ़ से सिर्फ़ एक सिसकी आयी।

सिसकी। सिर्फ़ एक सिसकी।

ठंढी। लोहे की कील। सीने में ठुकी हुयी। ख़ून का बहना रोकती। साँस का आना।

इतरां की सिसकी से ऐसा तीखा दर्द हुआ कि रूद्र का मन किया आँधी की तरह बुलेट पर उड़ता जाए, कोई जादू का क़ालीन मंगा ले कहीं से…कि स्कूल विस्कूल जाए भाड़ में, इतरां को उठा कर ले आए। उसके जीते जी इतरां रो जाए तो ऐसा जीना किस काम का। लेकिन इतरां सिर्फ़ उसकी थोड़ी थी, घर में किसी को भी मालूम हो जाए इतरां उस तरफ़ रो रही है, वे वाक़ई उसे स्कूल से उठा कर ले आते। इतरां के लिए ज़रूरी था वो पढ़े…और इसी स्कूल में पढ़े। रूद्र के चेहरे पर तबाह इमारत का सफ़ेद सन्नाटा फैलता गया। घर वाले पूछते रहे क्या हुआ, इतरां ने कुछ कहा या नहीं, लेकिन रूद्र ने कुछ नहीं कहा। ये ऐसा दुःख था जो किसी से बाँटा नहीं जा सकता था।

रूद्र ने बगरो को जब आख़िरी बार सीने से लगाया था तो उसने भी कुछ कहा नहीं था। एकदम चुप। सिर्फ़ एक सिसकी थी। अब तक सीने में चुभी हुयी। सिसकियों के पीछे की चुप नदी जानता था रूद्र। बाँध के छेद में ठोकी हुयी कील थी ऐसी सिसकी।

कॉल के बाद घर पर सब लोगों ने निर्णय लिया कि ये फ़ोन नाम की चीज़ बकवास है। चिट्ठी लिखी जाए इतरां को। शहर की सारी दुकानें तलाशी गयीं। सबने अपनी अपनी पसंद का काग़ज़ ख़रीदा। बच्चों ने झिलमिल और चिमकी ख़रीदी। चवन्नी ने पतंग बनाने का काग़ज़ ख़रीदा। उसने किसी फ़िल्म में देखा था कि प्रेमी प्रेमिका पतंग पर शायरी लिख कर भेजते हैं। इतरां के जाते ही चवन्नी ने ग्यारहवीं कक्षा के सभी लड़कों के बीच सीना चौड़ा कर कर ऐलान कर दिया था कि इतरां के लौट कर आते ही वे दोनों शादी कर लेंगे। पूरे घर वालों ने अपने अपने हिसाब से इतरां को चिट्ठी लिखी। रूद्र के पास कोई शब्द नहीं थे जो इतरां के काम आते। उसने पाब्लो नेरुदा की किताब, ’२० लव सौंग्स ऐंड अ सौंग औफ़ डिस्पेयर’ भेजा। इसके कई कई कई दिनों बाद तक इतरां के जवाब का इंतज़ार हुआ। पोस्टऑफ़िस वाले अगर इतरां से इतना प्यार नहीं करते तो सुबह शाम के सवालों से तबाह हो जाते। गाँव का डाकिया एक बार इतना परेशान हो गया कि उसने सोचा वो ख़ुद ही इतरां की तरफ़ से कोई चिट्ठी लिख दे। घर वालों को कुछ तो सुकून आएगा। सच बोलना बिलकुल आसान होता है लेकिन झूठ बोलने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए होती है। उसमें बात इतरां की थी तो झूठ बोलने में सबकी ही रूह कांपती।

चिट्ठी १
किसी के मर जाने के लिए उसका मर जाना ज़रूरी नहीं होता। दूर जाना भी मर जाना होता है।

चिट्ठी २
जेल हमेशा किसी पाप के लिए नहीं होती। कभी कभी भविष्य में होने वाले पापों के लिए पहले ही सज़ा भुगत लेनी होती है। क़िस्मत को हमारे जीवनकाल पर भरोसा नहीं होता। मान लो कहीं जल्दी मर गए तो। सिर्फ़ सज़ा भुगतने के लिए दूसरा जन्म लेना कितना मुश्किल है।

चिट्ठी ३
मुझे जवाब लिखने नहीं आते तो तुम लोग चिट्ठी लिखना बंद कर दोगे? सब नालायक हो तुम सब के सब। मैं वापस आयी ना तो देखना किसी से बात नहीं करूँगी। ग़ुस्सा मैं हूँ। तुम लोगों का कोई हक़ नहीं होता ग़ुस्सा होने का।

चिट्ठी ४
कल एक्जाम है। फ़ेल कर गयी तो वापस तो नहीं भेज देंगे? स्कूल उतना भी बुरा नहीं है। मैं यहाँ की टॉपर बनना चाहती हूँ।
लव यू आल।
मिस यू रूद्र।

चार चिट्ठियाँ लिखीं इतरां ने अपने पूरे स्कूल के टाइम में। बाक़ी तीनों तो ठीक हैं। कोहराम का कारण बनीं लेकिन आख़िरी चिट्ठी जो थी उसमें आख़िर में सिर्फ़ रूद्र के लिए मिस यू था। स्पेशल। घर का तापमान इतना बढ़ गया था उस रात कि एकबारगी तो लगा कि दादी सरकार रूद्र को दुबारा घर से निकाल देंगी। रूद्र के हाथ चिट्ठी लगने ही ना दे कोई। भाभियों ने थाली पटकने में कोई कसर ना रखी। बच्चे उसे बेमतलब चुट्टी काटते रहे दिन भर। रूद्र हरान परेशान की आफ़त की पुड़िया ने अब क्या लिख मारा है कि पूरा घर दुश्मन बना पड़ा है। 

देर रात रूद्र को जी भर सता कर सबका जी भर गया तो आख़िर बड़ी सरकार ने चिट्ठी रूद्र के हाथ में दी। दी भी क्या जैसे भीख दे रही हो। रूद्र का जी तो हुआ वहीं खोल ले लेकिन इतरां पर इतना हक़ महसूसता था वो कि सबकी नज़रों के सामने पढ़ नहीं सकता था। पूरा घर खा पी के शांत हुआ तो रूद्र घर से बाहर अपने पसंदीदा आम के पेड़ की ओर बढ़ गया। पूरे चाँद की रात थी। भयंकर गरमी में ऐसा महसूस हो रहा था जैसे दूर कहीं बारिश हुयी हो। घास पर लेटा रूद्र और चाँदनी में छिपे एक आध तारों को देखता रहा। चिट्ठी खोली तो चाँद इतरा रहा था। चाँदनी में चिट्ठी की आख़िरी लाइन चमक उठी। 
‘मिस यू रूद्र’। 
उसे ऐसा लगा जैसे घास नहीं क़ालीन है कोई, हवा में उड़ा जा रहा है। ख़ुद में बुदबुदाया। 
‘आइ लव यू टू, शैतान’।
***
लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. कहानी की ये 8वीं किस्त है. इसके पहले के हिस्सों के लिए इस लेबल पर क्रमवार पढ़ें। 

मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू

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आज मैं अपनी दो मुहब्बतों के बारे में लिख रही हूँ। मेरी आदत है जिससे इश्क़ होता है उसके प्रति बहुत ज़्यादा पजेसिव हो जाती हूँ। कुछ इस क़दर कि कभी अपनी आँखों में भी इश्क़ लरजे तो पलकें बंद कर लेती हूँ कि ख़ुद की ही नज़र लग जाएगी। मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू, और मेरा हमसफ़र।

बचपन से बॉलीवुड फ़िल्में देख कर लगता था कि बस प्यार एक ही बार होता है। उसमें भी दिल तो पागल है टाइप फ़िल्में देख कर तो सोलमेट वग़ैरह जैसे चीज़ें देखीं और लगा कि ऐसा कुछ होता होगा। लड़कपन की पहली आहट के साथ ज़िंदगी में प्यार भी दबे पाँव दाख़िल हुआ। मगर ये वो उम्र थी जहाँ प्यार आपसे ज़्यादा आपकी सहेलियों को पता होता है। उसकी हर बात पसंद होती है। उसके डिम्पल, उसकी हैंडराइटिंग, उसका डान्स, सब कुछ। उस उम्र ये भी लगता है कि उसे कभी भूल नहीं पायेंगे और कि प्यार दोबारा कभी नहीं होगा। मगर पहली बार दिल टूटता है तो लगता है कि इस प्यार से तो बिना प्यार के भले। मगर इसके बाद कई कई बार प्यार होता है और हर बार ये विश्वास ज़रा सा टूटता है कि उम्र भर का प्यार होता है। 

इसी दिल टूटने, जुड़ने, टूटने के दर्मयान लड़कपन गुज़र जाता है, घर पीछे छूट जाता है और दिल्ली को आँखों में बसाए हुए IIMC आ जाती हूँ। नौकरी। आत्मनिर्भरता। और एक नया आत्मविश्वास आता है। पुराने स्कूल के दोस्तों से बात होनी शुरू होती है। इश्क़ की पेचीदगी थोड़ी बहुत समझ आती है। चीज़ें उतनी सिम्पल नहीं लगती हैं जितनी बचपन की गुलाबी दुनिया में दिखती थीं। ऑफ़िस। लेट नाइट। नए प्राजेक्ट्स। ख़ुद की पहचान तलाशने का दौर था वो। जब मुझे पहली बार मिला तो जो पहली चीज़ महसूस की थी वो थी आश्वस्ति। कि मैं उसपर भरोसा कर सकती हूँ। इसमें बचपन का रोल था कि हमारे स्कूल का हेड प्रीफ़ेक्ट था वो। उसके साथ होते हुए कभी किसी चीज़ से डर नहीं लगता था। उसके साथ ज़िंदगी एक थ्रिल लगती थी। उन्हीं दिनों पहली बार ये भी महसूस किया था कि वो मेरा हमेशा के लिए है। बिना कहे भी। हमारे बीच हर चीज़ से गहरी जो चीज़ थी वो थी दोस्ती। 

शादी के ९ साल हो गए हैं अब साथ। हमारे बहुत झगड़े होते हैं। इतने कि लगता है कि आज तो बस जान दे ही दें। कूद वूद जाएँ छत पे चढ़ कर। लेकिन वो जानता है मुझे। वो जानता है मुझे हैंडिल करना। डेटिंग के शुरू में जो बातें हम करते थे, तुम मेरी पूरी दुनिया हो टाइप। वो अब भी सच हैं। मैं इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक उसको ही प्यार करती हूँ। एक सिर्फ़ उसको। किसी रोज़ कुछ अच्छा पहन लिया, चाहे एक झुमका ही क्यूँ ना हो, पहली तारीफ़ उससे ही चाहिए होती है। मेरे यायावर मन को उसके होने से ठहार मिलता है। घर मिलता है। 

उसे मोटरसाइकिल का शौक़ कभी नहीं रहा। इन फ़ैक्ट उसके दोस्तों में भी किसी को नहीं। कॉलेज में फिर भी कभी चलाया होगा लेकिन नौकरी पकड़ते ही उसने कार ख़रीदी। अभी भी उसे नयी कार, उसके माडल्ज़, इंटिरीअर्ज़ वग़ैरह सब बहुत मालूम रहती हैं। उसके क़रीबी दोस्त कि जो सारे IIT बॉम्बे से ही हैं, उनमें भी किसी के पास बाइक नहीं है। सब कार वाले लोग हैं। हाँ, उसके ऑफ़िस में, उसकी पूरी टीम में सबके पास रॉयल एनफ़ील्ड है। सबके ही पास। पहले साक़िब ने थंडरबर्ड ख़रीदी तो उसने एक आधी बार चलायी। लेकिन ज़्यादा नहीं।  लेकिन जब रमन ने डेज़र्ट स्टॉर्मख़रीदी तो उसको पहली बार थोड़ा रॉयल एनफ़ील्ड का शौक़ लगा। उन्ही दिनों कुणाल के एक दोस्त से बात होते हुए उसने कहा कि उसका एक दोस्त है जो रॉयल एनफ़ील्ड कस्टमाइज करता है। हमने बात की इस बारे में कि वो हाइट में कम लोगों के लिए बाइक छोटी कर देता है। हम दोनों बहुत दिन तक इसपर हँसते रहे कि बाइक का jpeg ड्रैग करके छोटा कर देता है। मगर बहुत दिन बाद आँखों में चमक आयी थी। कोई सोया सपना जागा था। कि शायद मैं सच में कभी ज़िंदगी में एनफ़ील्ड चला पाऊँगी। मगर ये सब मज़ाक़ लगता था। 

मेरा बर्थ्डे पास आ रहा था और मैं हमेशा की तरह उसको चिढ़ा रही थी कि क्या दोगे हमको। ऐसी ही नोर्मल सी शाम हम वॉक पर निकले थे तो कुणाल हमको एनफ़ील्ड के शोरूम ले गया और बोला, आज तुमको एनफ़ील्ड बुक कर देते हैं। हमको यक़ीन नहीं हो रहा था। लगा मज़ाक़ कर रहा है। लेकिन वो बोला कि सीरियस है। उसने पूरा पूछ वूछ लिया है। मेरे हिसाब से ऐडजस्ट हो जाएगी। 'एक ही ज़िंदगी है है हमारे पास। एनफ़ील्ड चलाना तुम्हारा सपना था ना? मेरे रहते तुम्हारा कोई सपना अधूरा रह जाए, ये मैं होने दूँगा? बताओ?'। हम सोच के गए थे कि डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदेंगे लेकिन शोरूम गए तो क्लासिक ५०० का नया रंग देखा। स्क्वाड्रन ब्लू। हम दोनों उसपर फ़िदा हो गए। उसी को बुक कर दिया। 

अब मैंने सोचा कि मोटरसाइकल और रॉयल एनफ़ील्ड में अंतर होता है। तो एक बार चलाना सीख लेते हैं। अपनी नयी बाइक पर हाथ साफ़ तो नहीं करूँगी। गूगल किया तो एक ग्रूप पाया, हॉप ऑन गर्ल्स  का, यहाँ लड़कियाँ ही लड़कियों को बुलेट सिखाती थीं। ये बात थोड़ी आश्वस्त करने वाली थी। मेरी ट्रेनर बिंदु थी। कोई पाँच फ़ुट पाँच इंच की छोटी सी दुबली पतली सी लड़की। मगर उसे रॉयल एनफ़ील्ड चलाते हुए देख कर कॉन्फ़िडेन्स आया कि हो जाएगा। दो दिन की चार चार घंटे की ट्रेनिंग। पहले दिन जो लौटी तो क़सम से लगा हथेलियाँ टूट जाएँगी। इतना दर्द था। लेकिन ज़िद्दी तो ज़िद्दी हूँ मैं। गयी अगले दिन भी। खुली सड़क पर पहली बार जब एनफ़ील्ड को रेज किया और वो हवा से बातें करने लगी तो लगा कि नशा इसे कहते हैं। 

अगस्त, फ़्रेंडशिप डे के अगले दिन बाइक की डिलेवरी थी। ऑफ़िस में इतना काम था कि कुणाल नहीं जा सका। उसके सिवा ऑफ़िस के अधिकतर लोग गए। मैं कार चलाते हुए सोच रही थी। मुहब्बत सिर्फ़ हमेशा साथ रहना ही नहीं होता है। जो दिन मेरे लिए बहुत ज़रूरी था, वहाँ कुणाल को ऑफ़िस में रहना था क्यूँकि एक ज़रूरी कॉल थी। उसका काम ज़रूरी है ताकि मैं अपने ऐसे शौक़ पूरे कर सकूँ। बाद में मैंने सोचा कि मैं अगले दिन तक इंतज़ार भी कर सकती थी। ये मेरी ग़लती थी। बाइक आने पर मैं इतनी ख़ुशी से पागल हो गयी थी कि इंतज़ार नहीं कर पायी। एक दिन रूकती तो हम दोनों साथ जा कर ले आते। 

ख़ैर। एनफ़ील्ड आयी तो घर आयी ही नहीं। आकाश ने वहीं से टपा ली। मेरे पैर नहीं पहुँचते थे ज़मीन तक। उसपर आकाश मेरा लाड़ला देवर है। तो बोला कुछ दिन हम चला लेते हैं भाभी। तो रहने दिए। इधर कुणाल बोल दिया था लेकिन उसको डर लगता था कि हमसे वाक़ई चलेगी या नहीं। आकाश को तो और भी डर लगता था। पहली बार कुणाल जब बैठा बाइक पर पीछे तो महसूस हुआ कि बाइक थोड़ा सा दबी और मेरे पैर थोड़े से पहुँचे। मगर बहुत कम चलाने को मिला। फिर सच ये है कि एनफ़ील्ड का वज़न २०० किलो है। इस भार को सम्हालने के लिए थोड़ी आदत लगनी ज़रूरी है। यहाँ गाड़ी हमको मिले ही ना। दोनों भाई लोग लेके फ़रार। इन फ़ैक्ट इसका नीला रंग एकदम नया आया था तो ऑफ़िस में भी सबको बहुत पसंद थी। नतीजा ये कि दोपहर की वॉक पर सब लोग एनफ़ील्ड से निकलने लगे। कुणाल ने भी महसूस किया कि अपनी एनफ़ील्ड की बात और होती है। मैं देख रही थी कि उसको भी पहली बार ज़रा ज़रा मोटरसाइकल का चस्का लग रहा था। बेसिकली रॉयल एनफ़ील्ड और बाक़ी मोटरसैक़िलस में बहुत अंतर होता है। पहली तो चीज़ होती है इसकी आवाज़। इसका वायब्रेशन। फिर डिज़ाइन भी क्लासिक है। और अगर इतने में भी दिल ना फिसला, तो फिर है इसकी पावर। ५०० सीसी की बाइक है। एक बार रेज दो तो ऐसे उड़ती है कि बस। 

एनफ़ील्ड का नाम रखना था अब। लड़के अपने एनफ़ील्ड का नाम अक्सर किसी लड़की के नाम पर रखते हैं। उसे अपनी गर्लफ़्रेंड या बीवी की तरह ट्रीट करते हैं। मगर यहाँ ये मेरी एनफ़ील्ड थी। तो इसका नाम कुछ ऐसा होना था कि जिससे मेरी धड़कनों को रफ़्तार मिले। फिर इन्हीं दिनों जब इतरां की कहानी लिखनी शुरू की थी तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मेरे पास मेरी अपनी रॉयल एनफ़ील्ड होगी। इसका नीला रंग। तो बस। नाम एक ही होना था। रूद्र। 

किसी भी तरह का टू वहीलर चलाना एक तरह का नशा होता है। चेहरे पर जब हवा लगती है तो वाक़ई ऐसा लगता है कि उड़ रहे हैं। बाइकिंग एक तरह की कंडिशनिंग होती है। मैंने अपने पापा से सीखी। बाइक के प्रति प्यार भी उनमें ही देखा। हमारी राजदूत मेरे जन्म के साल ख़रीदी थी पापा ने। हम ख़ुद को 'born biker'कहते हैं। मेरे परिवार में सबके पास टू वहीलर है। भाइयों के पास, कजिंस के पास। पापा, नानाजी, मामा, उधर चाचा के बच्चों के पास। मगर कुणाल के घर में सबको टू वहीलर से डर लगता है। घर में किसी भाई को परमिशन नहीं मिली। सबको ऐक्सिडेंट होने का डर भी लगता है। हालाँकि पहले घर में यामाहा rx १०० थी और सब लोग उसपर बहुत हाथ साफ़ किया है। आजकल भी एक मोटरसाइकल है। मगर वहाँ मोटरसाइकल को लेकर कोई जुनून नहीं है। फिर कुणाल के दोस्तों को भी शौक़ नहीं है। कुणाल के लिए मेरे बाइक चलाने से ज़्यादा डरावनी बात नहीं हो सकती। उसको हज़ार चीज़ों से डर लगता है। एनफ़ील्ड से गिरी तो कुछ ना कुछ टूटेगा ही। किसी को ठोक दिया तो उसको भी भारी नुक़सान होगा। उसपर मैं इत्ति सी जान और २०० किलो की मशीन। उसपे ५०० सीसी का इंजन। उसपर मेरा पागल दिमाग़ कि जो स्कूटी को ९० किमी प्रति घंटा पर उड़ाने को थ्रिल समझता था। ये सब जानते हुए। डरते हुए। फिर भी वो समझता है कि मेरे लिए एनफ़ील्ड क्यूँ ज़रूरी है। या मेरा सपना क्यूँ है। और इस सपने को उसने हक़ीक़त किया। मेरे लिए यही प्यार है। यही हमारी गहरी दोस्ती है। जहाँ आप दूसरे की कमज़ोरी नहीं, ताक़त बनते हैं। 
उसने जब पहली बार मुझे एनफ़ील्ड पर देखा तब भी उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं सच में चला लूँगी। उसे लगता था कि मैं ऐसे ही हवा में बात करती हूँ जब कहती हूँ की पापा ने मुझे राजदूत सिखायी थी। मगर धीरे धीरे मेरा भी कॉन्फ़िडेन्स बढ़ा और कुणाल का भी। 

हर बार जब पार्किंग से निकालती हूँ तो एनफ़ील्ड में पेट्रोल दौड़ता है और मेरी रगों में इश्क़। हर बार मुझे लगता है कि सपने देखने चाहिए। हर बार थोड़ा सा और प्यार हो जाता है उस लड़के से जिसके साथ २४ की उम्र में फेरे लिए थे मैंने। सात जनम तक, ५०० सीसी तक और जाने कितने किलोमीटर तक। जब तक मेरा दिल धड़के इसमें बस एक उसी का नाम है। 

उसके लिए लिखी मेरी सबसे पसंदीदा लाइन। 'Of all the things I am, my love, what I love most, I am yours'.

चश्मेबद्दूर। 

मेरी रॉयल एनफ़ील्ड - आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे

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मुझे बाइक्स का शौक़ तो बचपन से ही रहा लेकिन रॉयल एनफ़ील्ड का शौक़ कब से आया ये ठीक ठीक याद नहीं है। जैसा कि किसी के भी साथ हो सकता है, राजदूत चलाने के बाद पहली बार जब हीरो होंडा स्पलेंडर चलायी थी तो लगा था इससे अच्छी कोई बाइक हो ही नहीं सकती है। ऐकसिलेरेटर लेते साथ जो बाइक उड़ती थी कि बस! १२वीं तक मुझे हीरो होंडा सीबीजी बहुत अच्छी लगती थी। जान पहचान में उस समय हम सारे बच्चे अपने अपने पापा की गाड़ियों पर हाथ साफ़ कर रहे थे। कुछ के पास स्कूटर हुआ करता था तो कुछ के पास हीरो होंडा स्पलेंडर। जान पहचान में किसी के पास बुलेट हो, ऐसा था ही नहीं। उन दिनों पटना या देवघर में बुलेट बहुत कम चलती भी थी। आर्मी वालों के पास भले कभी कभार दिख जाती थी। हमें समझ नहीं आता कि किस पर मर मिटें। वर्दी पर। वर्दी वाले पर। या कि उसकी बुलेट पर। ख़ैर!
२००४ में कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में इंटर्नशिप करने दिल्ली आयी। मेरे बॉस, अनुपम के पास उन दिनों अवेंजर हुआ करती थी। जाड़े का मौसम था। वो काली लेदर जैकेट पहने गली के मोड़ से जब एंट्री मारा करता था तो मैं अक्सर बालकनी में कॉफ़ी पी रही होती थी। क्रूज बाइक जैसा कुछ होता है, पहली बार पता चला था। मैं घर से ऑफ़िस बस से आती जाती थी। टीम में साथ में मार्केटिंग में एक लड़का था, नितिन, उसके पास बुलेट थी। मेरी जान पहचान में पहली बार कोई था जिसके पास अपनी बुलेट थी। नितिन ने एक दिन कहा कि वो घर छोड़ देगा मुझे। हमारे घर सरोजिनी नगर में सिर्फ़ एक ब्लॉक छोड़ के हुआ करते थे। पहली बार बुलेट पे बैठी तो शायद वहीं प्यार हो गया था। बुलेट से। इस बात का बहुत अफ़सोस हुआ था कि हाइट इतनी कम है मेरी कि चलाने का सोच भी नहीं सकती।

IIMC के ग्रुप में भी कहीं कोई बुलेट वुलेट नहीं चलाता था। लेकिन उन दिनों ब्रैंड्ज़ के बारे में बहुत पढ़ चुके थे। कुछ चीज़ों की ब्रांडिंग ख़ास तौर से ध्यान रही। पर्फ़्यूम्ज़ की। दारू की। और मोटरसाइकल्ज़ की। हार्ले डेविडसन और एनफ़ील्ड ख़ास तौर से ध्यान में आयीं। इनके बारे में ख़ूब पढ़ा। इनके पुराने एड्ज़ देखे। पर अब बुलेट चलाने जैसा सपना देखना बंद कर दिया था। हमने जब नौकरी पकड़ी तो दोस्तों में सबसे पहले V ने एनफ़ील्ड ख़रीदी। उन दिनों थंडरबर्ड का ज़ोर शोर से प्रचार हो रहा था। उसकी लाल रंग की एनफ़ील्ड और उसके घुमक्कड़ी के किससे साथ में सुनने मिलते थे।
 इन दिनों ऑफ़िस के आगे का हाल 

शादी के बाद बैंगलोर आ गयी। कुणाल या उसके दोस्तों की सर्किल में कोई भी बाइकर टाइप नहीं था। कुछ साल बाद कुणाल की टीम में आया साक़िब खान। एनफ़ील्ड के बारे में क्रेज़ी। उन दिनों बैंगलोर में एनफ़ील्ड पर छः महीने की वेटिंग थी। साक़िब ने एनफ़ील्ड बुक क्या की, जैसे अपने ही घर आ रही हो बाइक। साक़िब को हम दोनों बहुत मानते भी थे। घर में किसी फ़ैमिली मेंबर की तरह रहा था हमारे साथ। साक़िब की थंडरबर्ड की डिलिवरी लेने वो, कुंदन और मैं गए थे। कुणाल ने अपनी कम्पनी शुरू की तो टीम में साथ में रमन आया। पिछले साल रमन ने भी डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदी। टीम में योगी के पास भी पहले से एनफ़ील्ड थी। ऑफ़िस में सब लोग बाइक बाइक की गप्पें मारते थे अब। कुणाल भी कभी कभार चला लेता था। इन्हीं दिनों उसके दोस्त से बात हुयी जो बाइक्स मॉडिफ़ाई करता है और कुणाल ने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू ख़रीद दी।

मेरी हाइट पाँच फ़ीट २ इंच है और एनफ़ील्ड की सीट हाइट ८०० सेंटिमेटर है। बाइक ख़रीदने के पहले कुणाल से उससे डिटेल में बात की कि कितना ख़र्चा आता है, क्या प्रॉसेस है वग़ैरह। तो बात ये हुयी थी कि एनफ़ील्ड के क्लासिक मॉडल में सीट के नीचे स्प्रिंग लगी होती हैं। स्प्रिंग निकाल के फ़ोम सीट लगा दी जाएगी तो हाइट कम हो जाएगी। ख़र्चा क़रीबन ३ हज़ार के आसपास आएगा। हम आराम से बाइक ख़रीद के ले आए। बाइक पर बैठने के बाद मुश्किल से मेरे पैर का अँगूठा ज़मीन को छू भर पाता था, बस। वो भी तब जब कि स्पोर्ट्स शूज पहने हों जिसमें हील ज़्यादा है। बिना जूतों के तो पैर हवा में ही रह रहे थे। निशान्त ने कहा, अब तो सच में गाना गा सकती हो, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे'।

एनफ़ील्ड आयी लेकिन जब तक कोई पीछे ना बैठा हो, हम चला नहीं सकते थे, और ज़ाहिर तौर से, कोई मेरे पीछे बैठने को तैयार ना हो। कुणाल बैठे तो उसको इतना डर लगे कि अपने हिसाब से बाइक बैलेंस करना चाहे। इस चक्कर में बाइक को आए दस दिन हो गए। १८ तारीख़ को राखी थी। हमारे यहाँ राखी के बाद भादो का महीना शुरू हो जाता है जिसमें कुछ भी शुभ काम नहीं करते हैं। हमने बाइक की पूजा अभी तक नहीं करायी थी कि आकाश को छुट्टी नहीं मिल रही थी बाइक घर पहुँचाने की। ये वो महीना था जिसमें पूरे वक़्त सारी छुट्टियाँ कैंसिल थीं। सब लोग वीकेंड्ज़ पर भी पूरा काम कर रहे थे। राखी के एक दिन पहले पापा से बात हो रही थी, पापा ख़ूब डाँटे। 'एनफ़ील्ड जैसा भारी गाड़ी ले लिए हैं, रोड पर चलाते है और ज़रा सा पूजा कराने का आप लोग को फ़ुर्सत नहीं, कल किसी भी हाल में पूजा कर लीजिए नै तो भादो घुस जाएगा, बस' (पापा ग़ुस्सा होते हैं तो 'आप'बोलके बात करते हैं)। अब राखी के दिन आकाश को आते आते दोपहर बारह बज गया और मंदिर बंद। ख़ैर, दोनों भाई राखी बाँध के ऑफ़िस निकला, आकाश बोल के गया कि शाम को आ के पूजा करवा देगा। शाम का ५ बजा, ६ बजा, ७ बजा। मेरा हालत ख़राब। फ़ोन किए तो बोला अटक गया है, आ नहीं सकेगा। अब कमबख़्त एनफ़ील्ड ऐसी चीज़ है कि बहुत लोग चलाने में डरते हैं। मैंने अपने आसपास थोड़ी कोशिश की, कि चलाना तो छोड़ो, कोई पीछे बैठने को भी तैयार हो जाए तो मंदिर तो बस घर से ५०० मीटर है, आराम से ले जाएँगे। कोई भी नहीं मिला। साढ़े सात बजे हम ख़ुद से एनफ़ील्ड स्टार्ट किए और मुहल्ले में चक्कर लगा के आए। ठीक ठाक चल गयी थी लेकिन डर बहुत लग रहा था। कहीं भी रोकने पर मैं गाड़ी को एकदम बैलेंस नहीं कर सकती थी।

तब तक बाइक का रेजिस्ट्रेशन नम्बर आ गया था। मैं थिपसंद्रा निकली कि स्टिकर बनवा लेंगे। साथ में मंदिर में पूछती आयी कि मंदिर कब तक खुला है। पुजारी बोला, साढ़े नौ तक। हम राहत का साँस लिए कि ट्रैफ़िक थोड़ा कम हो जाएगा। नम्बर प्लेट पर नम्बर चिपकाए। स्कूटी से निकले कि रास्ता देख लें, इस नज़रिए से कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ स्पीड ब्रेकर है। इस हिसाब से कौन से रास्ते से जाना सबसे सही होगा। एनफ़ील्ड निकालते हुए क़सम से बहुत डर लग रहा था। एक तो कहीं भी बंद हो जाती थी गाड़ी। क्लच छोड़ने में देर हो जाए और बस। फिर घबराहट के मारे जल्दी स्टार्ट भी ना हो। ख़ैर। किसी तरह भगवान भगवान करते मंदिर पहुँचे तो देखते हैं कि मंदिर का गेट बंद है और बस एक पुजारी गेट से लटका हुआ बाहर झाँक रहा है। हम गए पूछने की भाई मंदिर तो साढ़े नौ बजे बंद होना था, ये क्या है। पुजारी बोला मंदिर बंद हो गया है। हमारा डर के मारे हालत ख़राब। उसको हिंदी में समझा रहे हैं। देखो, भैय्या, कल से हमारा दिन अशुभ शुरू हो जाएगा। आज पूजा होना ज़रूरी है। आप कुछ भी कर दो। एक फूल रख दो, एक अगरबत्ती दिखा दो। कुछ भी। बस। वो ना ना किए जा रहा था लेकिन फिर शायद मेरा दुःख देख कर उसका कलेजा पसीजा, तो पूछा, कौन सा गाड़ी है। मैं उसके सामने से हटी, ताकि वो देख सके, मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू। उसके चेहरे पर एक्सप्रेसन कमाल से देखने लायक था। 'ये तुम चला के लाया?!?!?!'हम बोले, हाँ। अब तो पुजारी ऐसा टेन्शन में आया कि बोला, इसका तो पूरा ठीक से पूजा करना होगा। फिर वो मंदिर में अंदर गया, पूरा पूजा का सामग्री वग़ैरह लेकर आया और ख़ूब अच्छा से पूजा किया। आख़िर में बोला संकल्प करने को जूते उतारो। हम जूता, मोज़ा उतार के संकल्प किए। फिर वो बाइक के दोनों पहियों के नीचे निम्बू रखा और बोला, अब बाइक स्टार्ट करो और थोड़ा सा आगे करो। हम भारी टेन्शन में। पुजारी जी, बिना जूता के स्टार्ट नहीं कर सकते। पैर नहीं पहुँचता। वो अपनी ही धुन में कुछ सुना नहीं। स्टार्ट करो स्टार्ट करो बोलता गया। हम सोचे, हनुमान मंदिर के सामने हैं। पूजा कराने आए हैं। आज यहाँ बाइक हमसे स्टार्ट नहीं हुआ और गिर गया तो आगे तो क्या ही चलाएँगे। उस वक़्त वहाँ आसपास जितने लोग थे, फूल वाली औरतें, पान की दुकान पर खड़े लड़के, जूस की दुकान और सड़क पर चलते लोग। सबका ध्यान बस हमारी ही तरफ़ था। कि लड़की अब गिरी ना तब गिरी। हम लेकिन हम थे। बाइक स्टार्ट किए। एक नम्बर गियर में डाले, आगे बढ़ाए और निम्बू का कचूमर निकाल दिए। वालेट में झाँके तो बस ५०० के नोट थे जो भाई से भोर में ही रक्षाबंधन पर मिले थे। तो बस, ५०० रुपए का दक्षिणा पा के पुजारी एकदम ख़ुश। ठीक से जाना अम्माँ(यहाँ साउथ इंडिया में सारी औरतों को लोग अम्माँ ही बोलते हैं, उम्र कोई भी हो)। घर किधर है तुम्हारा।


हम कभी कभी ऐसे कारनामे कर गुज़रते हैं जिससे हम में इस चीज़ का हौसला आता है कि हम कुछ भी कर सकते हैं। एक कोई लगभग पाँच फ़ुट की लड़की २०० किलो, ५०० सीसी के इस बाइक को इस मुहब्बत से चलाती है कि सारी चीज़ें ही आसान लगती हैं। घर आते हुए मैं गुनगुना रही थी, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है कभी तुमने मुझे, उड़ते हुए, बोलो?'

जो लिखनी थीं चिट्ठियाँ

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मैं तुम्हारे टुकड़ों से प्यार करती हूँ। पूरा पूरा प्यार।

तुम्हारी कुछ ख़ास तस्वीरों से। तुम में कमाल की अदा है। तुम्हारे चलने, बोलने, हँसने में...तुम्हारे ज़िंदगी को बरतने में। तुम जिस तरह से सिर्फ़ कहीं से गुज़र नहीं जाते बल्कि ठहरते हो...तुम्हारे उस ठहराव से। इक तस्वीर में तुमने काला कुर्ता पहन रखा है। सर्दियों के दिन हैं, तुम्हारे गले में एक गहरा लाल पश्मीने का मफ़लर पड़ा हुआ है। ऐसी बेफ़िक्री से कि उसमें लय है। तुम थोड़ा झुक कर खड़े हो, तुम्हारे हाथ में कविता की एक किताब है। पढ़ते हुए अचानक जैसे तुमने खिड़की से बाहर देखा हो। मेट्रो अपनी रफ़्तार से भाग रही है लेकिन मैंने कैमरे में तुम्हारे चेहरे का वो ठहरा लम्हा पकड़ लिया है। तुम प्रेम में हो। मेट्रो की खिड़की के काँच पर तुम्हारा अक्स रिफ़्लेक्ट हो रहा है...तुम अपने चेहरे को आश्चर्य से देख रहे हो कि जैसे तुम्हें अभी अभी पता चला है कि तुम प्रेम में हो। तुम थोड़ा सा लजाते हो कि जैसे कोई तुम्हारे चेहरे पर उसका नाम पढ़ लेगा। ये तुम्हारे साथ कई बार हो चुका है। मगर तुम्हें यक़ीन नहीं होता कि फिर होगा। उतनी ही ताज़गी के साथ। दिल वैसे ही धड़केगा जैसे पहली बार धड़का था। तुम ख़ुद को फिर समझा नहीं पाओगे। ये सब कुछ एक तस्वीर में होगा। उस तस्वीर से मुझे बेतरह प्यार होगा। बेतरह। 

तुम्हारी लिखी एक कहानी है। किताब में मैंने गहरे लाल स्याही से underline कर रखा है। उस पंक्ति पर कई बार आते हुए सोचती हूँ उस औरत के बारे में जिसके लिए तुमने वो पंक्ति लिखी होगी। मैं लिखना चाहती हूँ वैसा कुछ तुम्हारे लिए। जिसे पढ़ कर कोई तुम्हें जानने को छटपटा जाए। कोई पूछे कि मैंने वाक़ई कभी तुम्हारे साथ ऐबसिन्थ पी भी है या यूँ ही लिख दिया है। काँच के ग्लास में ऐबसिन्थ का हरा रंग है। सामने कैंडिल जल रही है। मैंने तुम्हारी किताब से प्यार करती हूँ। बहुत सा। कुछ लाल पंक्तियों के सिवा भी। कि उन पंक्तियों का स्वतंत्र वजूद नहीं है। वे तुम्हारी किताब में ही हो सकती थीं। तुम्हारे हाथ से ही लिखा सकती थीं। वे पंक्तियाँ शायद कालजयी पंक्तियाँ हैं। 'I love you'की तरह। सालों साल प्रेमी जोड़े एक दूसरे से कुछ शब्दों के हेरफेर में ऐसा ही कुछ कहते आ रहे हैं। किसी और ने कही होती ऐसी पंक्तियाँ तो मुझ पर कोई असर ना होता। लेकिन तुम्हारे शब्द हैं इसलिए इतना असर करते हैं। 

तुम्हारे पर्फ़्यूम से। मैंने एक बार यूँ ही पूछा था तुमसे। तुम कौन सा पर्फ़्यूम लगाते हो। मैं उस रोज़ मॉल में गयी थी और एक टेस्टिंग पेपर पर मैंने पर्फ़्यूम छिड़क कर देखा था। कलाई पर रगड़ कर भी। उसके कई दिनों बाद तक वो काग़ज़ का टुकड़ा मेरे रूमाल के बीच रखा हुआ करता था। तुमसे गले लगने के बाद मुझे ऐसा लगता है तुम्हारी भीनी सी ख़ुशबू मेरे इर्द गिर्द रह गयी है। मुझे उन दिनों ख़ुद से भी थोड़ा ज़्यादा सा प्यार होता है। तुम्हें मालूम है, मैं तुमसे कस के गले नहीं लगती। लगता है, थोड़ी सी रह जाऊँगी तुम्हारे पास ही। लौट नहीं पाऊँगी वहाँ से। 

मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारे अधूरेपन से प्यार है। 

ये मुझे विश्वास दिलाता है कि कहीं मेरी थोड़ी सी जगह है तुम्हारी ज़िंदगी में। उस आख़िरी पज़ल के टुकड़े की तरह नहीं बल्कि यूँ ही बेतरतीब खोए हुए किसी टुकड़े की तरह। किसी भी नोर्मल टुकड़े की तरह। जो कहीं भी फ़िक्स हो सकता है। किसी कोरे एकरंग जगह पर। चुपचाप। 

इश्क़ इक जिस्म की फ़रमाइश करता कि जिसे अंधेरे में चूमा जा सके...

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उस लड़की को वक़्त बाँधने की तमीज़ नहीं थी। उसकी घड़ी की तारीखें एक दिन पीछे चलती थीं। उसकी घड़ी के मिनट बीस मिनट आगे चलते थे और सेकंड की सुई की रफ़्तार इस बात से तय होती थी कि लड़की किसका इंतज़ार कर रही है। उसकी ज़िंदगी में कुछ भी सही समय पर नहीं आता। ना इश्क़, ना महबूब।

एक वीरानी और एक सफ़र उसमें घर बनाता गया था। लड़की वक़्त से नहीं बंध सकती थी इसलिए सड़कों के नाम उसने अपनी उम्र क़ुबूल दी थी। थ्योरी औफ़ रिलेटिविटी की उसे इतनी ही समझ थी कि चलती हुयी चीज़ों में समय का हिसाब कुछ और होता है। कम, ज़्यादा या कि मापने की इकाइयाँ नहीं मालूम थीं उसे, बस इतना कि चलते हुए वक़्त को ठीक ठीक मालूम नहीं होता उसे किस रफ़्तार से बीतना होता है। वो चाहती कि धरती जिस रफ़्तार से सूरज के इर्द गिर्द घूमती है, वैसी ही तेज़ी से वो चला सके अपनी रॉयल एनफ़ील्ड। उसे अपनी रॉयल एनफ़ील्ड से प्यार था। उसकी धड़कन रॉयल एनफ़ील्ड की डुगडुग की लय में चलती थी जब वो सबसे ज़्यादा ख़ुश हुआ करती थी। 

इश्क़ उसकी रफ़्तार छू नहीं पाता और महबूब हमेशा पीछे छूटती सड़क पर रह जाता। एनफ़ील्ड के छोटे छोटे गोल रीयर व्यू मिरर तेज़ रफ़्तार पर यूँ थरथराते कि कुछ भी साफ़ नहीं दिखता। इस धुँधलाहट में कभी कभी लड़की को ऐसा लगता जैसे पूरी दुनिया पीछे छूट रही है। महबूब तब तक सिर्फ़ एक बिंदु रह जाता बहुत दूर की सड़क पर। नीले आसमान और पहाड़ों वाले रास्ते के किसी मोड़ पर पीछे छूटा हुआ। लड़की हमेशा चाहती कि कभी इश्क़ कोई शॉर्टकट मार ले और किसी शहर में उसके इंतज़ार में हो। शहर पहुँचते ही बारिश शुरू हो जाए और लड़की गर्म कॉफ़ी और बारिश की घुलीमिली गंध से खिंचती जाए एक रोशन कैफ़े की ओर…

कैफ़े। जिसमें कोई ना हो। बारिशों वाली शाम लोग अपने घर पहुँच जाएँ बारिश के पहले। मुसाफ़िरों और सिरफिरों के सिवा। सिरफिरा। फ़ितरतन सिरफिरा। कि जो नाम पूछने के पहले चूम ले। लड़की के दहकते गालों से भाप हो कर उड़ जाए सारी बारिश। वक़्त को होश आए कि इस समय मिलायी जा सकती है घड़ियाँ ठीक ठीक। वक़्त चाहे मिटा देना पिछले सारे गुनाहों के निशान कुछ इस क़दर कि शहर की बिजली गुल हो जाए। अंधेरे में लड़का तलाश ले लड़की के बालों में फँसा हुआ क्लचर…उसकी मज़बूत हथेली में टूट कर चुभ जाए क्लचर का पिन। लड़की के बाल खुल कर झूल जाएँ उसकी कमर के इर्द गिर्द। उसके बालों से पागलपन की गंध उठे। बेतहाशा चूमने के लिए बनी होती हैं ठहरी हुयी, बंद पड़ी घड़ियाँ। वक़्त नापने की इकाई को नहीं मालूम कि चूमने को कितना वक़्त चाहिए होता है पूरा पूरा।

अंधेरे को मालूम हो लड़के की शर्ट के बटनों की जगह। लड़की की उंगलियों को थाम कर सिखाए कि कैसे तोड़े जाते हैं बटन। लड़की लड़के का नाम तलाशे सीने के गुमसे हुए बालों में…के वहीं उलझी हो सफ़र की गंध और सड़क का कोलतार…कि उसके सीने पर सिर रख के महसूस हो कि दुनिया की सारी सड़कें यहीं ख़त्म होती हैं। अंधेरे में ख़ून का रंग भीगा हुआ हो। लड़के के बारीक कटे होठों से बहता। रूह को चक्खा नहीं जा सकता, इश्क़ इक जिस्म की फ़रमाइश करता कि जिसे अंधेरे में चूमा जा सके। इश्क़ हमेशा उसकी आँखों या उसकी आवाज़ से ना हो कर उसके स्वाद से होता। लड़की के दाँतों के बारीक काटे निशानों में पढ़े जा सकते प्रेम पत्र और दुनिया भर की सबसे ख़ूबसूरत कविताएँ भी। कोरे बदन पर लिखा जाता इश्क़ के विषय पर दुनिया का महानतम ग्रंथ। 

कैफ़े की शीशे की दीवारों के बाहर दुनिया चमकती। बहुत प्रकाश वर्ष पहले सुपर नोवा बन कर गुम हो जाने वाले तारे लड़की को देख कर हँसते। उसकी आँखों में बह आते आकाश गंगा के सारे तारे। अंधेरे में स्याही का कोई वजूद नहीं होता इसलिए लड़का लिखता लड़की की हथेली पर अपना नाम कि जो क़िस्मत की रेखा में उलझ जाता। लड़की मुट्ठी बंद कर के चूम लेती उसका नाम और फूँक मार कर उड़ा देती आसमान में। ध्रुव तारे के नीचे चमकता उसका नाम। वक़्त को होश आता तो शहर के घड़ी घर में घंटे की आवाज़ सुनाई देती। रात के तीन बज रहे होते। सुबह को आने से रोकना वक़्त के हाथ में नहीं था और इस नशे में लड़के ने लड़की की कलाई से उसकी ठहरी हुयी घड़ी खोल फेंकी थी। अँधेरा सिर्फ़ बदन तक पहुँचाता, खुले हुए कपड़ों तक नहीं। यूँ भी गीले कपड़ों को दुबारा पहनने से ठंढ लग जाती। बारिश बंद हो गयी थी लेकिन इस बुझ चुके शहर में बिजली आने में वक़्त लगता। 

कैफ़े पहाड़ की तीखी ढलान पर बना हुआ था। वहाँ के पत्थरों पर दिन भर बच्चे फिसला करते थे। लड़का और लड़की उन्हीं पत्थरों के ओर बढ़े। लड़के ने इन पत्थरों को कई सालों से जाना था। उसे मालूम था इनसे फिसल कर गिरना सिर्फ़ प्रेम में नहीं होता, इनसे फिसल कर मौत तक भी जाया जा सकता था। ये पहली बार था कि उसने अंधेरों को यूँ गहरे उतर कर जिया था। लड़के को हमेशा लगता है कुछ चीज़ें नीट अच्छी होती हैं, उनमें मिलावट नहीं करनी चाहिए। यहाँ अँधेरा पूर्ण था मगर अब उसे रोशनी का एक टुकड़ा चाहिए था। प्रेम चाहिए था। क़तरा भर ही सही, लेकिन इश्क़ चाहिए था। धूप के सुनहले स्वाद को चखते हुए उसे लड़की की आँखों का मीठा शहद चाहिए था।

लड़की ने बचपन में पढ़ा था कि दुनिया की सारी सड़कों को एक साथ जोड़ दिया जाए तो वे चाँद तक पहुँच जाएँगी। वो अपनी उँगलियों पर अपनी नापी गयी सड़कें जोड़ रहीं थीं लेकिन हिसाब इतना कच्चा था कि अंधेरे में एक हाथ की दूरी पर उनींदे सोए लड़के तक भी नहीं पहुँच पा रहा था। उसे पूरा यक़ीन था कि लड़का हिसाब का इतना पक्का होगा कि भोर के पहले दुनिया की सड़कें जोड़ कर चाँद तक पहुँच जाएगा और वो उसे फिर कभी नहीं देख पाएगी। चाँद रात में भी नहीं। लड़की को हमेशा लगा था इश्क़ कोई रूह से बाँध कर रख लेने वाली चीज़ है। एक छोटी सी गाँठ की तरह। मगर आज उसे पहली बार महसूस हुआ था कि इश्क़ बदन के अंदर किसी को सहेज कर रख लेने की चीज़ है। उसके एक टुकड़े को ख़ुद में एक एक कोशिका जोड़ जोड़ कर फिर से नया कर देने का सच्चा सा अरमान है। माँ बनने की ख़्वाहिश है। शहरों की ख़ाक छानते हुए उसने शब्दों, कविताओं और कहानियों का इश्क़ जिया था मगर पहली बार उसने इश्क को बदन के अंदर खुलता महसूस किया था। किसी की साँसों और धड़कनों की भूली हुयी गिनती में उलझता महसूस किया था। इश्क़ की इस परिभाषा को लिखने को उसने थोड़ी सी रोशनी माँगी थी। कुछ नौ महीने माँगे थे। 

लड़की ने जी भर कर ख़ुद को जिया था। सड़कों। शहरों। अंधेरों में डूब कर। ये इक आख़िरी रात के कुछ आख़िरी पहर थे। कल की सुबह में धूप थी। इंतज़ार था। ये उस लड़की की आख़िरी रात थी। अगली सुबह उसने घड़ी का समय ठीक किया। तारीख़ मिलायी और उस आदमी को नज़र भर देखा जो उसे ठहरी हुयी निगाह से देख रहा था। कि जैसे दोनों जानते थे यहाँ से कहीं और भटकना नहीं है।

रोशनी में गर्माहट थी। औरत को मालूम था, वो उम्मीद से थी।

एक नदी सपने में बहती थी

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मुझे पानी के सपने बहुत आते हैं। और इक पुरानी खंडहर क़िले जैसी इमारत के भी। ये दोनों मेरे सपने के recurring motifs हैं।

***
कल सपने में एक शहर था जहाँ अचानक से बालू की नदी बहने लगी। ज़मीन एकदम से ही दलदल हो गयी और उसमें बहुत तेज़ रफ़्तार आ गयी कि जैसे पहाड़ी नदियों की होती है। फिर जैसे कि कॉमिक्स में होते हैं मेटल के बहुत बड़े बड़े सिलिंड्रिकल ट्यूब थे जिनमें बहुत बड़ी बड़ी स्पाइक लगी हुयी थीं। ये भी उस रेत की नदी में रोल हो रहे थे कि नदी के रास्ते में जो आएगा उसका मरना निश्चित है। बिलकुल लग रहा था सुपर कमांडो ध्रुव के किसी कॉमिक्स में हैं। शहर के सब लोग एक ख़ास दिशा में चीख़ते चिल्लाते हुए भाग रहे थे। मैं पता नहीं क्यूँ बहुत ज़्यादा विचलित नहीं थी। शायद मुझे सपने में मरने से डर नहीं लगता। वहीं शहर के एक ओर कुछ छोटी पहाड़ियों जैसी जगह थी। कुछ बड़े बड़े पत्थर थे, जिनको अंग्रेज़ी में बोल्डर कहते हैं। मैं एक पत्थर पर चढ़ी जहाँ से पूरा शहर दिख रहा था। बालू में धँसता...घुलता...गुम होता...जादू जैसा कुछ था...तिलिस्म जैसा कुछ...उस पत्थर से कोई दो फ़ीट नीचे कूदते ही सामने के पत्थर पर एक दरवाज़ा था। मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि इटली का कोई शहर था। मैं दरवाज़े से उस शहर आराम से जा सकती थी। फिर मैंने देखा कि पत्थर पर साथ में मेरी सास भी हैं। मैंने उनसे हिम्मत करके कूदने को कहा। कि सिर्फ़ दो फ़ीट ही है। और कि मैं हूँ।

फिर सीन बदल जाता है। उसी शहर में एक नदी भी थी। नदी किनारे बड़ा सा महल नुमा कोई पुरानी हवेली थी जिसमें कुछ पुराने ज़माने के लोग थे। वहाँ वक़्त ठहरा हुआ था। ठीक ठीक मालूम नहीं ६० के दशक में या ऐसा ही कुछ। लोगों के कपड़े, कटलरी और उनका आचरण सब इक पुराने ज़माने का था। नदी शांत थी कि जैसे पटना कॉलेज के सामने बहती गंगा होती है। नदी में कुछ लोग खेल खेल रहे थे। मैं किनारे पर थी और नदी में कूदने वाली थी। तभी देखती हूँ कि नदी में बहुत बड़े बड़े हिमखंड आ गए हैं। ग्लेशियर के टुकड़े। बहुत विशाल। और नदी में भी अचानक से बहुत सी रफ़्तार आ गयी है। वे जाने कहाँ से बहुत तेज़ी से बहते चले आ रहे हैं। नदी का पानी बर्फ़ीला ठंढा हो गया है। कि ठंढ और रफ़्तार दोनों से कट जाने का अंदेशा है।

वहीं कहीं एक दोस्त है। बहुत प्यारा। वो सामने की टेबल पर बैठा है मेरे साथ। हमारे बीच कॉफ़ी रखी हुयी है। उसने मेरा गाल थपथपाया है। दुनिया हमारे चारों ओर बर्बाद हो रही है लेकिन उसे शायद किसी चीज़ की परवाह नहीं है कि उसके सामने मैं बैठी हूँ। कि हम साथ हैं।

उन्हीं पत्थरों के बीच पहुँची हूँ फिर। वहाँ बहुत नीचे एक छोटा कुआँ, कुंड जैसा है या कि कह लीजिए तालाब जैसा है। मोरपंख के आकार में और रंग में भी। चारों ओर धूप है। पानी का रंग गहरा नीला, फ़ीरोज़ी और मोरपंखी हरा है। मैं ऊँची चट्टान से उस पानी में डाइव मारती हूँ। डाइव करते हुए पानी की गर्माहट को महसूस किया है। पूरे बदन के भीगने को भी। मैं पानी में गहरे अंदर जाती जा रही हूँ, बहुत अंदर, इतना कि अंदर अँधेरा है। बहुत देर तक पानी में अंदर जाने के बाद वो गहराई आयी है जहाँ पर ऊपर से नीचे कूदने का फ़ोर्स और पानी की बॉयन्सी बराबर हुयी है। फिर पानी का दबाव मुझे ऊपर की ओर फेंकता है। मैं पानी से बाहर आती हूँ। और जाने किससे तो कहती हूँ कि अच्छा हुआ मुझे मालूम था कि पानी में डूबते नहीं हैं। वरना इतना गहरा पानी है, मैं तो बहुत डर जाती।

फिर सपने में एक शहर है जो ना मेरा है ना उसका। मेरे पास कोई चिट्ठी आयी है। मैं उससे बहुत गहरा प्रेम करती हूँ। वो मेरे सामने बैठा है। मैं सपने में भी जानती हूँ कि ये सपना है। हम काफ़ी देर तक कुछ नहीं कहते। फिर मैं उनसे कहती हूँ, 'इस टेबल पर रखे आपके हाथ को मैं थाम सकती हूँ। क्या इजाज़त है?', सपने में उन साँवली उँगलियों की गर्माहट घुली हुयी है। मैं जानती हूँ कि ये सपना है। मैं जानती हूँ कि ये प्रेम भी है।

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मालूम नहीं कहाँ पढ़ा था कि सपने ब्लैक एंड वाइट होते हैं। मेरे सपनों में हमेशा कई रंग रहते हैं। कई बार तो ख़ुशबुएँ भी। पिछले कई दिनों से मैंने ख़ुद को इस बात कर ऐतबार दिलाया है कि इश्क़ विश्क़ बुरी चीज़ है और हम इससे दूर ही भले। लेकिन मेरे सपनों में जिस तरह प्रेम उमड़ता है कि लगता है मैं डूब जाऊँगी। जैसे मैं कोई नदी हूँ और बाढ़ आयी है। मैंने अपनी जाग में इश्क़ के लिए दरवाज़े बंद कर दिए हैं तो वो सपनों में चला आता है। 

मैं इन सपनों में भरी भरी सी महसूसती हूँ। कोई बाँध पर जैसे नदी महसूसती होगी, ख़तरे के निशान को चूमती हुयी। डैम पर बना तुम वो ख़तरे का निशान हो...और तुम्हें चूमना तो छोड़ो...तुम्हें छूने का ख़याल भी  मेरे सपनों को ख़ुशबू से भर देता है। फिर कितने शहर नेस्तनाबूद होते हैं। फिर पूरी दुनिया में ज़मीन नहीं होती है पैर टिकाने को। मैं पानी में डूबती हुयी भी तुम्हारी आँखों का रंग याद रखती हूँ। 

तुमसे इक उम्र दूर रहना...इक शहर...इक देश दूर रहना भी कहाँ मिटा पाता है इस अहसास को। प्रेम कोई कृत्रिम या अप्राकृतिक चीज़ होती तो सपने में इस तरह रह रह कर डूबती नहीं मैं। नदियों का क्या किया जा सकता है? मुझे नदियों को नष्ट करने का कोई तरीक़ा नहीं आता। इस नदी में तुम्हारे ख़याल से उत्ताल लहरें उठती हैं। कहाँ है वो गहरा कुआँ कि जिसमें समा जाती हैं नदियाँ?

जानां, अपनी बाँहें खोलो, समेट लो मुझे, मैं तुम में गुम हो जाऊँ। 

बचपन से बिसरता स्पर्श - १

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जिन दिनों हम ब्लॉग लिखना शुरू किए थे २००५ में उन दिनों ब्लॉग की परिभाषा एक ऑनलाइन डायरी की तरह जाना था। वो IIMC की लैब थी जहाँ पहली बार कुछ चीज़ें लिखी थीं और उनको दुनिया के लिए छोड़ दिया था। बिना ये जाने या समझे कि यहाँ से बात निकली है तो कहाँ तक जाएगी। हिंदी में ब्लौग्स बहुत कम थे और जितने थे सब लगभग एक दूसरे को जानते थे। मैंने अपने इस ऑनलाइन ब्लॉग पर जो मन सो लिखा है। कहानी लिखी, कविता लिखी, व्यंग्य लिखा, डायरी लिखी। सब कुछ ही। उन दिनों किताब छपना सपने जैसी बात थी। वो भी पेंग्विन से। मगर तीन ‘रोज़ इश्क़ मुकम्मल’ हुआ और पिछले तीन सालों में बहुत से रीडर्स का प्यार उस किताब को मिला। इन दिनों लिखना भी पहले से बदल कर क़िस्से और तिलिस्म में ज़्यादा उलझ गया। फिर फ़ेसबुक पर लिखना शुरू हुआ। लिखने का एक क़ायदा होता है जिसमें हम बंध जाते हैं। पहले यूँ होता था कि हर रोज़ के ऑफ़िस और घर की मारामारी के बीच का एक से दो घंटे का वक़्त हमारा अपना होता था। मैं ऑफ़िस से निकलने के पहले लिखा करती थी। मेरी अधिकतर कहानियाँ एक से दो घंटे में लिखी गयी हैं। एक झोंक में। फ़ेसबुक पर लिखने से ये होता है कि दिन भर छोटे छोटे टुकड़ों में लिखते हैं जिसके कारण शाम तक ख़ाली हो जाते हैं। पहले होता था कि कोई एक ख़याल आया तो दिन भर घूमते रहता था मन में। गुरुदत्त पर जब पोस्ट्स लिखी थीं तो हफ़्ते हफ़्ते तक सिर्फ़ गुरुदत्त के बारे में ही पढ़ती रही। ब्लॉग पर लिखने की सीमा है। १०००-१५०० शब्दों से ज़्यादा की पोस्ट्स बोझिल लगती हैं। यही उन दिनों लिखने का अन्दाज़ भी था। इन दिनों चीज़ें बदल गयी हैं। कहानी लगभग २०००-३००० शब्दों की होती है। कई बार तो पाँच या सात हज़ार शब्दों की भी। इस सब में मैं वो लिखना भूल गयी जो सबसे पहले लिखा करती थी। जो मन सो। वो।

तो आज फिर से लौट रही हूँ वैसी ही किसी चीज़ पर। अगर मैं अपने ब्लॉग पर लिखने से पहले भी सोचूँगी तब तो होने से रहा। यूँ कलमघिसाई ज़रूरी भी है।
आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्टिकल शेयर की। स्पर्श पर। मैं बहुत सी चीज़ें सोचने लगी। ज़िंदगी के इतने सारे क़िस्से आँखों के सामने कौंधे। ऐसे क़िस्से जो शायद मैं अपने नाम से कभी ना लिखूँ। कई सारे परतों वाले किरदार के अंदर कहीं रख सकूँ शायद।
मैं बिहार से हूँ। मेरा गाँव भागलपुर के पास आता है। मेरा बचपन देवघर नाम के शहर में बीता। दसवीं के बाद मेरा परिवार पटना आ गया और फिर कॉलेज के बाद मैं IIMC, दिल्ली चली गयी PG डिप्लोमा के लिए। मेरा स्कूल को-एड था और उसके बाद ११th-१२th और फिर पटना वीमेंस कॉलेज गर्ल्ज़ ओन्ली था।
स्पर्श कल्चर का हिस्सा होता है। हम जिस परिवेश में बड़े हुए थे उसमें स्पर्श कहीं था ही नहीं। बहुत छोटे के जो खेल होते थे उनमें बहुत सारा कुछ फ़िज़िकल होता है। छुआ छुई का तो नाम ही स्पर्श पर है। लुका छिपी का सबसे ज़रूरी हिस्सा था ‘धप्पा’ जिसमें दोनों हाथों से चोर की पीठ पर झोर का धक्का लगा कर धप्पा बोलना होता था। पोशमपा भाई पोशमपा में हम एक दरवाज़ा बना कर खड़े होते थे और बाक़ी बच्चे उसके नीचे से गुज़रते थे। बुढ़िया कबड्डी में एक गोल घेरा होता था और एक चौरस। गोल घेरे में बुढ़िया होती थी जिसका हाथ पकड़ कर विरोधी टीम से बचा कर दौड़ते हुए दूर के चौरस घेरे में आना होता था। कबड्डी में तो ख़ैर कहाँ हाथ, कहाँ पैर कुछ मालूम नहीं चलता था। रस्सी कूदते हुए दो लड़कियाँ हाथ पकड़ कर एक साथ कूदती थीं और दो लड़कियाँ रस्सी के दोनों सिरों को घोल घुमाती रहती थीं। 

अगर हम बचपन को याद करते हैं तो उसका बहुत सा हिस्सा स्पर्श के नाम आता है। बाक़ी इंद्रियों के सिवा भी। शायद इसलिए कि हम सीख रहे होते हैं कि स्पर्श की भी एक भाषा होती है। मेरे बचपन की यादों में मिट्टी में ख़ाली पैर दौड़ना। छड़ से छेछार लगाना। जानना कि स्पर्श गहरा हो तो दुःख जाएगा…ज़ख़्म हो जाएगा भी था। 

स्पर्श के लिए पहली बार बुरा लगना कब सीखा था वो याद नहीं, बस ये है कि जब मैं छोटी थी, लगा लो कोई std.५ में तब मेरी बेस्ट फ़्रेंड ने कहा था उसको हमेशा ऐसे हाथ पकड़ कर झुलाते झुलाते चलना पसंद नहीं। मैं जो गलबहियाँ डाल कर चलती थी, वो भी नहीं। लगभग यही वक़्त था जब मुहल्ले के बच्चे भी दूसरे गेम्स की ओर शिफ़्ट कर रहे थे। घर में टीवी आ गया था। इसी वक़्त मुहल्ले में चुग़ली भी ज़्यादा होने लगी थी। किसी के बच्चों को पीट दिया तो उसकी मम्मी घर आ जाती थी झगड़ा करने। फिर कोई नहीं सुनता था कि उसने पहले चिढ़ाया था या ऐसा ही कुछ। घर में कुटाई होती थी। यही समय था जब मारने के लिए छड़ी का इस्तेमाल होना शुरू हुआ था। उसके पहले तो मम्मी हाथ से ही मारती थी। इसी समय इस बात की ताक़ीद करनी शुरू की गयी थी कि लड़कों को मारा पीटा मत करो। और लड़के तो ख़ैर लड़के ही थे। नालायकों की तरह क्रिकेट खेलने चले जाते थे। ये अघोषित नियम था कि लड़कियों को खेलाने नहीं ले जाएँगे। हमको तबसे ही क्रिकेट कभी पसंद नहीं आया। क्रिकेट ने हमें लड़की और लड़के में बाँट दिया था। 

क्लास में भी लड़के और लड़की अलग अलग बैठने लगे थे। ऐसा क्यूँ होता है मुझे आज भी नहीं समझ आता। साथ में बैठने से कौन सी छुआछूत की बीमारी लग जाएगी? सातवीं क्लास तक आते आते तो लड़कों से बात करना गुनाह। किसी से ज़्यादा बात कर लो तो बाक़ी लड़कियाँ छेड़ना शुरू कर देती थीं। हम लेकिन पिट्टो जैसे खेल साथ में खेलते थे। हमको याद है उसमें एक बार हम किसी लड़के को हींच के बॉल मार दिए थे तो वो हमसे झगड़ रहा था, इतना ज़ोर से बॉल मारते हैं, हम तुमको मारें तो…और हम पूरा झगड़ गए थे कि मारो ना…बॉल को थोड़े ना लड़की लड़का में अंतर पता होता है। पहली बार सुना था, ‘लड़की समझ के छोड़ दिए’ और हम बोले थे, हम लड़का समझ के छोड़ेंगे नहीं, देख लेना। इसके कुछ दिन बाद हमारे साथ के गेम्स ख़त्म हो गए। ठीक ठीक याद नहीं क्यूँ मगर शायद हम भरतनाट्यम सीखने लगे थे, इसलिए।

मेरे जो दोस्त 6th के आसपास के हैं, उनसे दोस्ती कुछ यूँ हैं कि आज भी मिलते हैं तो बिना लात-जुत्ते, मार-पीट के बात नहीं होती है। मगर इसके बाद जो भी दोस्त बने हैं उनके और मेरे बीच एक अदृश्य दीवार खिंच गयी थी। मुझे स्कूल के दिनों की जो बात गहराई से याद है वो ये कि मैं किसी का हाथ पकड़ के चलना चाहती थी। या हाथ झुलाते हुए काँधे पर रखना चाहती थी। छुट्टी काटना चाहती थी। इस स्पर्श को ग़लत सिखाया जा रहा था और ये मुझे एक गहरे दुःख और अकेलेपन से भरता जा रहा था। स्पर्श सिर्फ़ दोस्तों से ही नहीं, परिवार से भी अलग किया जा रहा था। कभी पापा का गले लगाना याद नहीं है मुझे। मम्मी का भी बहुत कम। छोटे भाई से लड़ाई में मार पिटाई की याद है। चुट्टी काटना, हाथ मचोड़ देना जैसे कांड थे लेकिन प्यार से बैठ कर कभी उसका माथा सहलाया हो ऐसा मुझे याद नहीं। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। ये पहली बार था कि मैंने कुछ चाहा था और उलझी थी कि सब इतने आराम से क्यूँ हैं। किसी और को तकलीफ़ क्यूँ नहीं होती। किसी और को प्यास नहीं लगती। अकेलापन नहीं लगता? सब के एक साथ गायब हो जाने का डर क्यूँ नहीं लगता। 

लिख रही हूँ तो देख रही हूँ, कितना सारा कुछ है इस बारे में लिखने को। कुछ दिन लिखूँगी इसपर। बिखरा हुआ कुछ। स्पर्श के कुछ लम्हे जो मैंने अपनी ज़िंदगी में सहेज रखे हैं। शब्द में रख दूँगी। 

तब तक के लिए, जो लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, आपने आख़िरी बार किसी को गले कब लगाया था? परिवार, पत्नी, बच्चों को नहीं…किसी दोस्त को? किसी अनजान को? किसी को भी? जा कर ज़रा एक जादू की झप्पी दे आइए। हमको थैंक्स बाद में कहिएगा। या अगर पिट गए, तो गाली भी बाद में दे सकते हैं। 
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