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राइटर्स डायरी: मिडनाइट मैडनेस

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जिन्हें आता है लिखना. और जो जानते हैं मेरा पता. जिन्होंने कभी मेरे शब्दों को पढ़ कर सोचा कि मैंने उनके मन की बात लिखी है. जिनके पास है कलमें. सस्तीं. महँगी. टूटी हुयी या कि साबुत. जिन्हें बचपन में माँ ने ऊँगली पकड़ के लिखना सिखाया हिंदी का ककहरा और जिन्होंने स्कूल में सीखी होगी अंग्रेजी. जो कि बात कर सकते हैं दो भाषाओं में या कि किसी एक में भी. 

जिनका इतना बनता है हक कि मुझसे पूछ सकें...अपना पता दो, तुम्हें ख़त लिखना है. जिन्होंने कभी नहीं किया मुझसे प्यार. वे कि जो मेरे साथ घूम कर आये हैं दुनिया के बहुत से उदास शहर. जो कि मेरी सिसकी सुनते हैं जब मैं पोलैंड के यातना शिविर से लिखती हूँ शब्दों को अनवरत. 

जो कि रहते हैं मेरे शहर में. सांस लेते हैं इसी मौसम में कि जो सर्द हो कर भरता जाता है मेरे लंग्स में उदासियाँ. वो भी जिन्होंने चखी है ब्लैक कॉफ़ी शौक़ में मेरे साथ...और इस वाहियात आदत को भूल आये हैं किसी बिसरी हुयी गली.

जिनके पास जिद की है कभी कि लिखो कि तुम्हारे लिखने से ज़िंदा हो उठती हूँ मैं...तुम्हारे शब्दों से आती है संजीवनी की गंध. जिन्होंने भेजी है मेरे नाम किताबें बगैर चिट्ठियों के.

जो कि मुस्कुराते हैं जब मेरी उंगलियों से झरते हैं ठहाके और मेरी किताब में मिलते हैं उन्हें छुपाये हुए मोरपंख...चौक का चूरा और आधी खायी हुयी पेंसिलें. वे जिन्हें मालूम है मेरी पसंद की फिल्में...मेरे पसंद का संगीत...और मेरे पसंद के लोग. कि जो जानते हैं कि डाइनिंग टेबल पर रखे पौधे का इक नाम है. और कि बोगनविला में पानी देते हुए मैं कौन सा गीत गुनगुनाती हूँ. 

मेरी आँखों का रंग. मेरी आवाज़ का डेसीबेल. मेरी चुप्पी की चाबी. मेरी पसंदीदा कलर की शर्ट और मेरे फेवरिट झुमके. 

अगर कभी मैंने वाकई जान दे दी तो तुम क्या कह कर खुद को समझाओगे?
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सोचती है लड़की और फिर मुल्तवी करती है डायरी लिखना. पूछती है खुद से कि इतनी तकलीफ क्यों होती है उसे छोटी छोटी बातों पर. दोस्तों से बात करना पसंद क्यों नहीं है उसे. और ये भी पूछना चाहती है खुद से कि उसने हरी स्याही से लिखना क्यूँ शुरू किया है. उसे मालूम है इस रंग का जहर जिंदगी को सियाह करता जाता है.

उसकी पसंद के सारे आर्टिस्ट्स जल्द रुखसत हो गए हैं दुनिया से. उसे उनसे मिलने का मन करता है. दोस्तियाँ. विस्कियाँ. सिगरेटें. सारी बुरी आदतें छोड़ देना चाहती है वो. पढ़ती है नीत्ज़े को. "Be careful, lest in casting out your demon you exorcise the best thing in you."इक अँधेरी कालकोठरी में धकेल देती है पिंजरा. उसकी परछाई कैद थी उसमें. मोहल्ले की आंटियों का दिया हुआ 'बुरी लड़की'का तमगा. कॉलेज में साथियों के लिखे नोट्स...'यू आर वेरी डोमिनेटिंग', सर के साथ की गयी जिद...मुझे नहीं करना किसी के साथ कोई ग्रुप प्रोजेक्ट. मैं अकेले कर लूंगी. पिछले कई सालों के मेंटल सुसाइड लेटर्स. सोचना कि किसी का नाम भी लिखना है आखिरी ख़त में या नहीं. 

फेसबुक आप्शन देता है कि आप किसी को नोमिनेट कर दें कि आपकी मृत्यु के बाद वो आपके अकाउंट को हैंडल कर सके. फेसबुक की पहुँच को देखते हुए लगता है कि वो मीडियम्स से जल्दी ही कोई कॉन्ट्रैक्ट कर लेंगे. मरने के बाद भी आप इन सर्टिफाइड मीडियम्स के थ्रू अपने फेसबुक फ्रेंड्स से कांटेक्ट में रहेंगे. जहन्नुम या स्वर्ग, जहाँ भी आप गए वहाँ से पोस्ट्स भेज सकेंगे. मैं बस यही सोच कर परेशान होती हूँ कि स्वर्ग में हमेशा अप्सराएं नाच रही होती हैं...मेरे देखने को वहाँ क्या है? जिंदगी तो जिंदगी, मरने के बाद भी भेदभाव होगा...आपने कभी किसी पुरुष अप्सरा के बारे में सुना है? हाँ एक आध गन्धर्व होंगे, मगर कोई रम्भा, मेनका, उर्वशी टाइप फेमस हो, ऐसा भी नहीं है. क्या मुसीबत है. इससे अच्छा तो जी ही लें. या फिर जो सबसे खूबसूरत और सही ऑप्शन है...जहन्नुम के दरवाजे खुले ही हैं हमारे लिए. यूँ भी इतने काण्ड मचा डाले हैं...बहुत हुआ तो एक आध पैरवी लगेगी और क्या. 

फेसबुक आप्शन देता है कि आप किसी को नोमिनेट कर दें कि आपकी मृत्यु के बाद वो आपके अकाउंट को हैंडल कर सके. फेसबुक की पहुँच को देखते हुए लगता है कि वो मीडियम्स से जल्दी ही कोई कॉन्ट्रैक्ट कर लेंगे. मरने के बाद भी आप इन सर्टिफाइड मीडियम्स के थ्रू अपने फेसबुक फ्रेंड्स से कांटेक्ट में रहेंगे. जहन्नुम या स्वर्ग, जहाँ भी आप गए वहाँ से पोस्ट्स भेज सकेंगे. मैं बस यही सोच कर परेशान होती हूँ कि स्वर्ग में हमेशा अप्सराएं नाच रही होती हैं...मेरे देखने को वहाँ क्या है? जिंदगी तो जिंदगी, मरने के बाद भी भेदभाव होगा...आपने कभी किसी पुरुष अप्सरा के बारे में सुना है? हाँ एक आध गन्धर्व होंगे, मगर कोई रम्भा, मेनका, उर्वशी टाइप फेमस हो, ऐसा भी नहीं है. क्या मुसीबत है. इससे अच्छा तो जी ही लें. या फिर जो सबसे खूबसूरत और सही ऑप्शन है...जहन्नुम के दरवाजे खुले ही हैं हमारे लिए. यूँ भी इतने काण्ड मचा डाले हैं...बहुत हुआ तो एक आध पैरवी लगेगी और क्या.

मेरे पागलपन का लिखने के अलावा कोई इलाज़ भी नहीं है. ब्लॉग पर पिछले दस साल से लिखते हुए ऐसी आदत लग गयी है कि कहीं और लिखने का मन भी नहीं करता. कुछ दिन ऐसे ही मौसम चलेंगे इधर. मूड के हिसाब से. आपको अच्छी चीज़ें पढ़ने का शौक़ है तो किताबें पढ़ा कीजिए. मैंने इधर हाल में हरुकी मुराकामी की नॉर्वेजियन वुड और काशी का अस्सी पढ़ी हैं. मुराकामी मेरे पसंदीदा लेखक हैं...ये किताब शायद बहुत दिनों तक मेरी फेवरिट रहेगी. काशी का अस्सी उतनी अच्छी नहीं लगी...बीच में बोरियत भी हुयी...पर कुछ टुकड़ों में अच्छी किताब है. मैंने फिल्म मोहल्ला अस्सी का ट्रेलर देखा था और सोच रही थी कि किताब ऐसी ही है या डायरेक्टर ने सिनेमेटिक लिबर्टीज ली हैं. फिल्म देखे बिना ठीक ठीक कहना मुश्किल है.

मेरा हाथ इक्कीस जुलाई को टूटा था. पिछले कुछ दिनों में बहुत सी फिल्में देखीं. किताबें पढ़ीं. सोचा बहुत कुछ. दिन दिन भर इंस्ट्रुमेंटल म्यूजिक सुना. कल से एक्सरसाइज करना है. धीरे धीरे हाथ में भी मूवमेंट आ जायेगी. बाइक चलाने में जाने कितने दिन लगेंगे. कार एक्सीडेंट के बाद टोटल लॉस डिक्लेयर कर दी गयी है. लौट कर घर नहीं आएगी. अब कोई नयी कार खरीदनी होगी. उदास हूँ. बहुत ज्यादा. पापा कहते हैं चीज़ों से इतना जुड़ाव नहीं होना चाहिए. मैं सोचती हूँ. लोगों से जुड़ाव कोई कम तकलीफ देता हो ऐसा भी तो नहीं है.

अब कुछ दिन एकतरफा बातें होंगी. बातों का मीडियम तलाश रही हूँ. ब्लॉग. पोडकास्ट. डायरी. कुछ ऐसा ही. पिछले दस सालों में जिन लोगों के साथ ब्लॉग्गिंग शुरू की थी, उनमें से बहुत कम लोग आज भी लिखते हैं. रेगुलर तो कोई भी नहीं लिखता. पहले ब्लॉग और उसपर कमेंट्स की कड़ी हुआ करती थी. वो दिन लौट कर तो क्या ही आयेंगे अब. स्पैम के कमेंट्स के कारण मैंने मोडरेशन लगा दिया है ब्लॉग पर. फिर भी कभी कभी दिल करता है कि कुछ न सुनूं...जैसे कि आज. अभी.

बहरहाल...
थे बहुत बेदर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बेमहर सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद

उन से जो कहने गये थे "फ़ैज़"जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बत सब बातों के बाद

फेयरवेल डियर फाबिया, यू वेयर द बेस्ट कार एवर

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"दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं."पहली बार लोगों को दो खांचों में बाँटना शायद इसी डायलॉग से शुरू किया था. लोग जिन्हें बाइक चलानी पसंद है...और लोग जिन्हें कार चलानी पसंद है. ऐसा भी कोई हो सकता है जिसे ये दोनों पसंद हों...या जिसे ये दोनों नापसंद हों ये नहीं सोचते थे. अब लगता है कि ऐसे भी लोग हैं जो पैदल चलना चाहते हैं...या पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते हैं...या साइकिल चलाते हैं. उन दिनों नहीं लगता था. राजदूत चलाने के बाद हम अपने आप को बहुत बड़े तुर्रम खां समझते थे.(बहुत हद तक अब भी समझते हैं). पटना में जब स्कूल आने जाने के लिए कुछ दोस्तों को स्कूटी मिली तो मम्मी बोली कि तुमको भी दिला देते हैं. हम जिद्दी...स्प्लेंडर दिला दो. स्कूटी नहीं चलाएंगे, लड़कियों की सवारी है. उन दिनों खुद को बेहतर जान भी तो रहे थे...लड़की होने का मतलब कमजोर होना...बाइक नहीं चलाना...सभ्य बनना...जबकि बाइक चलाना यानी आवारागर्दी करना...बिंदास होना...और जाने क्या क्या. तो इस चक्कर में स्कूल बस से ही स्कूल आते जाते रहे. बाइक के प्रति जितना प्यार था, कार के प्रति उतनी ही नाराज़गी भी थी. कार बोले तो डब्बा. छी. कौन चलाएगा. तुर्रा ये कि मैंने कार चलानी सीखी तक नहीं. के हम जिंदगी भर में कभी कार नहीं चलाएंगे. 

दिल्ली में अपनी दूसरी नौकरी में थी...२००७ में इन हैण्ड सत्ताईस हज़ार रुपये आते थे. होस्टल का किराया ढाई हज़ार था. मैं मारुती के शोरूम में जा कर अपने लिए वैगन आर देख आई थी. डाउनपेमेंट चालीस हज़ार रुपये और हर महीने कोई सात हज़ार की ईएमआई. शौक़ था कि अपनी खुद की नयी कार खरीद कर मम्मी को उसमें घुमाएंगे. शौक़ भी ऐसा कि कार सीखेंगे तो अपनी गाड़ी में ही...उधार की गाड़ी में नहीं. मगर कहीं बैठे किसी की नज़र लगनी थी. माँ के नहीं रहने के बाद न बाइक न कार का कोई शौक़ रहा. बैंगलोर आई तो जाने पहले के तेवर कहाँ गुम थे. अपने लिए काइनेटिक फ्लाईट खरीदी. के जिसमें जान बसने लगी. किसी को चलाने नहीं देती हूँ. सॉलिड पजेसिव. 

कुणाल बाइक के प्रति वैसे ही बेजार है जैसे मैं कार के प्रति. बैंगलोर के बारिश वाले मौसम में कार खरीदना जरूरी हो गया था. हमने सोचा कि वैगन आर लेंगे. के मैं चलाना सीखूंगी तो जाहिर है बहुत जगह ठोकुंगी ही गाड़ी को. अपनी पसंद की गाड़ी खोजते खोजते हम स्कोडा शोरूम में पहुंचे. वहां रेड कलर की फाबिया लगी हुयी थी. मालूम नहीं धूप का असर था कि क्या...हम दोनों को उससे पहली नज़र का प्यार हो गया. कुछ दिन तो बहुत चैन से कटे. मगर जब सासु माँ बैंगलोर आई तो हम दोनों कहीं भी जाने के लिए कुणाल पर डिपेंडेंट थे...कुणाल को ऑफिस में काम हुआ करता था बहुत बहुत सा. समझ आया कि बिना कार सीखे तो जिंदगी नहीं चलने वाली. मारुती ड्राइविंग स्कूल में कार सीखी. धीरे धीरे एक्सपर्ट हो गए. गाड़ी बहुत जगह ठुकी भी. हमने उन डेन्ट्स को वैसे ही रहने दिया. यहाँ कार अधिकतर मैंने ही चलायी. कुणाल हमेशा से उसे कहता भी पूजा की कार था. कार मेरे घर और मेरी तरह बेतरतीब रहती थी. रोड ट्रिप पर गए तो चिप्स के पैकेट, जूस के कार्टन, टोल की रसीदें...सब कार में. हम कितनी सारी लॉन्ग ड्राइव्स पर गए. 

ऑफिस की मीटिंग्स में मैं अपनी कार लेकर जाती थी. टाइटन की कितनी सारी मीटिंग्स में हम अपनी गाड़ी में गए थे...कि क्लाइंट सर्विसिंग वालों के साथ नहीं जायेंगे, वो कभी भी आपको डिच करके दूसरी मीटिंग के लिए चले जाते हैं. ऑफिस की आउटिंग में सब मेरी कार में क्यूंकि उस समय तक टीम में किसी के पास कार नहीं थी. देर रात की पार्टी के बाद लोगों को उनके घर छोड़ने जाना भी मेरा काम था. मैं हर पार्टी में designated ड्राईवर हुआ करती थी. सबने हमेशा कहा भी है कि लड़की होने के बावजूद मैं बहुत अच्छी गाड़ी चलाती हूँ. मुझे बैंगलोर की अधिकतर जगहों की कार पार्किंग पता थी. कुणाल से कहीं ज्यादा. मैं परफेक्ट पैरलल पार्क करती हूँ. इन फैक्ट कुणाल वैसी पार्किंग नहीं कर पाता जैसे कि मैं करती हूँ. एकदम स्मूथ. उसे आश्चर्य भी होता है.

हाँ लॉन्ग डिस्टेंस ड्राइविंग मैंने कभी नहीं की थी. हाइवे पर मुझे डर लगता था. हमारे रोड ट्रिप्स में सबसे ज्यादा साकिब और कभी कभी मोहित भी रहा है. बाकी की ड्राइविंग कुणाल की. मैं आगे की पैसेंजर सीट में गूगल मैप्स लिए सारथी का काम करती थी. जिन दिनों पेपर मैप्स हुआ करते थे, मेरे पास साउथ इंडिया का एक असल मैप था, जो कि हमेशा गाड़ी में पड़ा रहता था. इसी तरह बैंगलोर का एक मैप हमेशा गाड़ी में रहता था. मेरा स्पेस का सेन्स बहुत सही है...दिशायें...सड़कें...मुझे नींद में भी ध्यान रहता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं. पोंडिचेरी हम कितने बार गए. कूर्ग. महाबलीपुरम. चेन्नई. जाने कितने शहर. जाने कितनी रोड ट्रिप्स.

बैंगलोर एयरपोर्ट मेरे घर से पचास किलोमीटर दूर है. आउटर रिंग रोड के बाद हाईवे शुरू हो जाता है. उस रास्ते पर मैंने खूब कार चलाई है. लोगों को एअरपोर्ट रिसीव करना और ड्राप करना मेरा फेवरिट काम था. कुणाल कभी शहर से बाहर गया था तो रात के डेढ़ दो बजे सुनसान सड़कों पर अकेले गाड़ी चलाने में भी बहुत मज़ा आता था. फुल वोल्यूम में म्यूजिक लगा कर. उड़ाते जाते थे बस. मैं एसी ऑन नहीं कर सकती थी. एक तो पिक-अप ख़राब होता था, बाहर का साउंड फीडबैक नहीं मिलता था और मुझे सांस लेने में तकलीफ भी होती थी. लास्ट ट्रिप में हम कूर्ग जा रहे थे. मैंने पहली बार हाईवे पर कार चलाई. पूरे तीन सौ किलोमीटर खुद चला के ले गयी. बहुत अच्छा लगा. कुणाल भी बोला कि हम बहुत अच्छा चलाते हैं हाईवे पर भी. हम आगे की रोड ट्रिप्स प्लान कर रहे थे. कि कुणाल आराम से पीछे सोयेगा...हम गाड़ी चलाएंगे...कहाँ कहाँ जायेंगे वगैरह वगैरह. मैसूर भी जाना है इस बीच बहुत दिन हमको. तो हम पूरी तरह कॉंफिडेंट थे कि खुद से आयेंगे जायेंगे.

वापसी में हम ही चलाने वाले थे, लेकिन कुणाल का मन कर गया...वैसे भी ८ लेन हाइवे था...उसमें कार चलाने में बहुत मज़ा आता है. चार के आसपास का वक़्त था...भूख लगी थी. कुछ दूर पर कॉफ़ी डे था. हम जाने का सोच रहे थे. एक स्पीडब्रेकर था...कुणाल ने कार धीमी की और एकदम अचानक से पीछे किसी गाड़ी ने फुल स्पीड में गाड़ी ठोक दी हमारी. कमसे कम 140 पर चली रही होगी. वो शॉक इतना तेज़ था कि कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है. चूँकि सीट बेल्ट लगाए हुए थे तो कोई मेजर चोट नहीं आई. एक्सीडेंट इतनी जोर का था कि गाड़ी आगे चलाने लायक नहीं थी. हमने एक टो करने वाले को बुलाया और टैक्सी कर के बैंगलोर वापस आ गए. 

वापसी में हम ही चलाने वाले थे, लेकिन कुणाल का मन कर गया...वैसे भी ८ लेन हाइवे था...उसमें कार चलाने में बहुत मज़ा आता है. चार के आसपास का वक़्त था...भूख लगी थी. कुछ दूर पर कॉफ़ी डे था. हम जाने का सोच रहे थे. एक स्पीडब्रेकर था...कुणाल ने कार धीमी की और एकदम अचानक से पीछे किसी गाड़ी ने फुल स्पीड में गाड़ी ठोक दी हमारी. कमसे कम 140 पर चली रही होगी. वो शॉक इतना तेज़ था कि कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है. चूँकि सीट बेल्ट लगाए हुए थे तो कोई मेजर चोट नहीं आई. एक्सीडेंट इतनी जोर का था कि गाड़ी आगे चलाने लायक नहीं थी. हमने एक टो करने वाले को बुलाया और टैक्सी कर के बैंगलोर वापस आ गए. 

उस वक़्त ये कहाँ सोचे थे कि कार अब कभी वापस आएगी ही नहीं. वरना शायद एक नज़र प्यार से देख कर अलविदा तो कहती उससे. अचानक ही छिन गया हो कोई. मगर एक्सीडेंट इसे ही कहते हैं. इन्स्युरेंस वालों ने जब हमारी फाबिया को टोटल लॉस डिक्लेयर कर दिया तो रो दी मैं. कितना सारा कुछ था...हमने तो कितने लम्बे सफ़र के सपने देखे थे. पापा कहते हैं चीज़ों से इस तरह जुड़ाव नहीं होना चाहिए. दोस्त भी कहते हैं, 'इट वाज जस्ट अ कार'...और मैं...जो कि दिल टूटने पर सम्हाल ले जाती हूँ खुद को...अजीब से खालीपन से भरी हुयी हूँ पिछले कई दिनों से. बात मैं उन्हें कभी समझा नहीं सकती. मैंने फिर से किसी को टेकेन फॉर ग्रांटेड लिया था. कुणाल ने पूछा...तुम चलोगी...मगर मुझसे नहीं होता. मैं नहीं गयी. यहाँ हूँ. अनगिन तस्वीरों में घिरी हुयी. आज कार के पेपर्स साइन हो गए. किसी और के नाम हो गयी गाड़ी...अब शायद वे उसके स्पेयर पार्ट्स करके बेच देंगे...बॉडी कोई कबाड़ी उठा लिए जाएगा. 

बच जाती हूँ मैं. गहरी उदास. डियर फाबिया. आई एम सॉरी कि मैंने तुमसे कभी कहा नहीं.
आई लव यू. तुम मेरी पहली कार थी...और मेरा पहला पहला प्यार रहोगी.
हमेशा. हमेशा. हमेशा.

जहाँ भी रहो...अपने जाम में हमारे नाम की बर्फ डालना मत भूलना.

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'कहाँ जा रही हो जानेमन?',
'जहन्नुम'
'इतना बड़ा बक्सा लेकर? इसमें क्या मंटो उस्ताद के लिए किताबें ले जा रही हो?'
'गोश्त ले जा रही हूँ. कलेजी. तुझ जैसे जले बुझे लोगों की हाय. तू मेरे मंटो का पीछा छोड़ के मर क्यूँ नहीं जाती?'
'मरें तेरे आशिक़...इस बेतरह खूबसूरत दुनिया से रुखसत होने को जब तक मंटो का पर्सनल लेटर नहीं आएगा...हम तो न जाने वाले हैं...हाँ तू जा ही रही है तो ये ले...मेरा रूमाल लेते जा सरकार के लिए...उन्हें कहना, बंदी उनके इश्क़ में अपनी जिंदगी बर्बाद कर रही है...वे मुझे जल्द बुलावा भेजें कि हालत बहुत नाज़ुक है'.
'तेरी नाज़ुक हालत से मंटो का क्या कनेक्शन? ये सब इस कमबख्त सिगरेट का किया धरा है...इतनी सिगरेट न पिया कर...यूँ भी तेरा जिगर जला हुआ है...जुबान जल जायेगी तो और जली कटी बातें किया करेगी'
'इत्ती चिंता है तो एक आध अपने आशिकों का कोटा मेरे नाम करती जा'
'मैं घूमने जा रही हूँ...मर नहीं रही जो अपने आशिकों का कोटा तेरे नाम कर दूं...और दुनिया में लड़कों की कमी पड़ गयी है...तुझसे सेकंड हैण्ड माल में कब से इंटरेस्ट होने लगा?'
'तेरी छुअन से नार्मल लड़के भी नशीले हो जाते हैं मेरी जान...हम तो उन्हें वहां वहां चूमेंगे जहाँ तुम्हारे निशान बाकी होंगी...तू न सही...तेरे यार सही'
'मैं न सही? दिन भर, रात भर मेरे कमरे में घर बनाया हुआ है...आखिरी बार अपने घर कब गयी थी? कपड़े मेरे पहनेगी...माँ को मुझसे ज्यादा तेरी पसंद के बारे में पता है...पापा तेरे कैरियर को लेकर परेशान हैं...भाई तेरा दिया फ्रेंडशिप बैंड पहनता है, मेरी लायी राखी नहीं...मेरे आशिकों की गिनती मेरे से ज्यादा तुझे याद है...और मैं कितनी चाहिए तुझे बे?'
'पर तुझे मुझसे प्यार नहीं होता'
'क्यूंकि तूने मंटो पर बुरी नज़र डाल रखी है. तू मंटो को छोड़ दे, मैं पूरी की पूरी तुम्हारी'
'घाटे का सौदा मैं नहीं करती मेरी जान'
'मर फिर. मैं कुछ नहीं बता रही कि कहाँ जा रही हूँ. फुट यहाँ से...कर ले जो करना है'
'देख, कर तो मैं बहुत कुछ सकती हूँ...तू हाथ तो लगाने दे'
'उफ़. लड़के क्या कम आफत थे जो तुमने ये नया शगल पाला है. आई एम स्ट्रेट'
'स्ट्रेट बोले तो सीधी...माने कि जलेबी की तरह'
'भुक्खड़...हमेशा खाने का सोचेगी'
'सोचो, तुम दुनिया की आधी आबादी से इश्क़ करने का चांस मिस कर रही हो'
'तुम्हें ऐसा लगता है कि मुझे इश्क़ की कमी है? जितना है उतनी आफत है...इससे ज्यादा हैंडल नहीं होगा मुझसे'
'यू आर अंडरएस्तिमेटिंग योरसेल्फ...अगर किसी से हैंडल होगा तो तुमसे होगा...कोई ख़ास अंतर नहीं है...तुम एक बार सोच के तो देखो...अपने दिमाग की खिड़कियाँ खोलो मेरी जान...ये लिहाफ हटाओ'
'अच्छा...तो अभी तक इस्मत का जादू चढ़ा हुआ है तेरे सर माथे...मंटो की जगह उससे प्यार कर लो...तुम्हें तो औरतें पसंद आती हैं'
'इस्मत में तेरी वाली बात नहीं है'
'अच्छा...कौन सी बात?'
'हॉटनेस मेरी जान...इस्मत में हॉटनेस की कमी है'
'तुम बायस्ड हो.'
'हाँ, हूँ. मेरा हक बनता है'
'तुम्हें इस्मत से इसलिए प्यार नहीं है क्यूंकि मुझे इस्मत से प्यार नहीं है.'
'अब तुम खुद को ओवरएस्टीमेट कर रही हो. तुम्हें क्या लगता है मेरी जिंदगी तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमती है? तुम्हारे बगैर मैं किसी को नापसंद भी नहीं कर सकती?
'मुझे तुझसे उस तरह का प्यार नहीं होगा कभी. कित्ती बार बोलूंगी तो बात समझ आएगी तुझे?'
'कभी नहीं आएगी. पर वो झगड़ा तो अपन जिंदगी भर कर सकते हैं...फिलहाल ये सामान कहाँ के लिए बाँध रही है वो बता'
'अपने देश में एक नदी है. चम्बल. वहाँ. एक फकीर रहता है'
'चम्बल किनारे डाकू होते हैं. फकीर नहीं.'
'डाकू हॉट हुए तो मुझे दिक्कत नहीं है.'
'मरने का इतना शौक़ है तो हिमालय जा के मर. पहले एक आध किताब लिख मार. न हो तो सुसाइड लेटर्स की एक किताब लिख दे...इतने तो ड्राफ्ट्स लिखे पड़े हैं. तेरे जाने के बाद ये सब मेरा हो जाएगा?'
'तू मेरे सामान से दूर रह. और यूं भी डाकू और फ़कीर में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. दोनों दुनिया को ठुकराए हुए लोग होते हैं...ज्ञान जहाँ से मिले लपेट लेना चाहिए. चम्बल किनारे का डाकू भी जीना सिखा सकता है'
'तू मर जाने की वजह टाइप करने वाली चलती फिरती टाइपरायटर है...तुझे जीना कोई नहीं सिखा सकता'
'चम्बल की खासियत मालूम है तुझे...चम्बल उलटी बहती है...दक्खिन से उत्तर की तरफ...जबकि भारत की सारी नदियाँ उत्तर से दक्खिन बहती हैं'
'तो?'
'मने, चम्बल की धार उलटी है...चम्बल के किनारे का फ़कीर दुनिया से उलट होगा...उसे मैं समझ आउंगी'
'ये किसने कहा? बात की है तूने फ़कीर से...उसका फेसबुक पेज है? व्हाट्सऐप्प पर उसकी प्रोफाइल पिक दिखा'
'मुझे ये सब नहीं मालूम है'
'तो फिर?'
'बस...कुछ है तो जो मुझे खींच रहा है उस ओर...मैं जानती हूँ चम्बल किनारे कोई फ़कीर है जिसके पास मेरे हिस्से के सारे सवाल होंगे'
'और मेरे सवालों का जवाब कौन देगा? ये किसने गोली दी है तुझे नदियों की दिशा के बारे में? नील नदी भी उत्तर से दक्खिन बहती है...तो? नील नदी के किनारे चली जाएगी?'
'चली जाती अगर कोई मेरा टिकट कटा देता'
'मैं भी चलूंगी तेरे साथ?'
'क्यूँ?'
'इन उलटे पुल्टे प्लान्स का कुछ नहीं होगा...कोई जरूरत नहीं है जाने की...तुझे क्या लगता है कि वाकई चम्बल किनारे कोई फ़कीर बैठा होगा?'
'जानेमन...कुछ न होगा तो तजरबा होगा'
'घंटा होगा...तेरा दिमाग खराब है'
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आपको किसी ने बताया कि चम्बल उल्टी दिशा में बहती है? या कि किसी फ़कीर के बारे में ही?
अब भी उसके लिखे खतों से चम्बल की उजाड़ उदासी बहती है...बीहड़ों में कुछ जिद्दी यादें डाका डालने को तैयार रहती हैं हर वक़्त. दुनिया से किसी एक लड़की के गुम हो जाने से किसी को फर्क नहीं पड़ता. मैं देखती हूँ कि सब पहले जैसा चल रहा है. लोग उसके इंतज़ार के बिना जीने की आदत डाल चुके हैं. मुझे ठीक ठीक याद नहीं मैं उसकी कौन सी बात मिस करती हूँ सबसे ज्यादा. अक्सर मुझे लगता है कि मुझे सबसे ज्यादा दुःख इस बात का होता है कि उसके बिना मंटो से मुहब्बत करने में कोई जायका नहीं.
दोस्त. दुश्मन. परिवार. सब अपनी अपनी जगह है...बहुत खोजने से शायद मिल जाते हैं...या इनके बिना जी जा सकती है ज़िन्दगी. मगर एक अच्छा रकीब...उफ्फ्फफ्फ्फ़. बहुत किस्मत से मिलता है. बहुत. 

तो मेरे रकीब...चियर्स. जहाँ भी रहो...अपने जाम में हमारे नाम की बर्फ डालना मत भूलना.

तालपत्र, संस्कृत की लिपियाँ और इतिहास की चिप्पियाँ

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मुझे याद है कि जब मैं स्टैण्डर्ड एट या सेवेन में थी तो मुझे लगता था हम हिस्ट्री क्यूँ पढ़ते हैं. सारे सब्जेक्ट्स में मुझे ये सबसे बोरिंग लगता था. एक कारण शायद ये भी रहा हो कि हमारी टीचर सिर्फ रीडिंग लगा देती थीं, अपनी तरफ से कुछ जोड़े बगैर...कोई कहानी सुनाये बगैर. उसपर ये एक ऐसा सब्जेक्ट था जिसमें बहुत रट्टा मारना पड़ता था. पानीपत का युद्ध कब हुआ था से हमको क्या मतलब. कोल्ड वॉर चैप्टर क्यूँ था मुझे आज भी समझ नहीं आता. या तो हमारी किताबें ऐसी थीं कि सारे इंट्रेस्टिंग डिटेल्स गायब थे. अब जैसे प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध को अगर कोई टीचर रोचक नहीं बना पा रहा है तो वो उसकी गलती है. उन कई सारे किताबों पर भारी पड़ती थी एक कहानी, 'उसने कहा था'. मुझे लगा था कि टेंथ के बाद हिस्ट्री से हमेशा के लिए निजात मिल गयी.

बीता हुआ लौट कर आया बहुत साल बाद 2006 में...नया ऑफिस था और विकिपीडिया पहली बार डिस्कवर किया था. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि मैं द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में क्यों पढ़ रही थी...शायद हिटलर की जीवनी से वहाँ पहुंची थी या ऐसा ही कुछ. उन दिनों जितना ही कुछ पढ़ती जाती, उतना ही लगता कि दुनिया के बारे में कितना सारा कुछ जानने को बाकी है. उस साल से लेकर अब तक...मैंने इन्टरनेट का उपयोग करके जाने क्या क्या पढ़ डाला है. विकिपीडिया और गूगल के सहारे बहुत सारा कुछ जाना है. उन दिनों पहली बार जाना था कि खुद को और इस दुनिया को बेहतर जानने और समझने के लिए इतिहास को समझना बहुत जरूरी है.

ग्रेजुएशन में मैंने एडवरटाइजिंग में मेजर किया है. दिल्ली में जब पहली बार ट्रेनिंग करने गयी तो वो एक ऐड एजेंसी थी. उन दिनों कॉपीराइटर बनने के लिए भाषा परफेक्ट होनी जरूरी थी. प्रूफ की गलतियाँ न हों इसलिए नज़र, दिमाग सब पैना रखना होता था. कॉमा, फुल स्टॉप, डैश, हायफ़न...सब गौर से हज़ार बार चेक करने की आदत थी. बात हिंदी की हो या इंग्लिश की...मेरे लिखे में कभी एक भी गलती नहीं हो सकती थी. न ग्रामर की न स्पेलिंग की...और इस बात पर मैं स्कूल के दिनों से काफी इतराया करती थी.

अंग्रेजी का एक टर्म है 'occupational hazard'यानि पेशे के कारण होने वाली परेशानियाँ. जैसे कि फौजी को छुट्टियाँ नहीं मिलतीं. सिंगर को किसी भी ग्रुप में लोग हमेशा गाने के लिए परेशान कर देते हैं. कवि से लोग कटे कटे से रहते हैं. डॉक्टर से सब लोग बीमारियों की बहुत सी बातें करते हैं वगैरह वगैरह. तो ये कॉपीराइटर के शुरू के तीन महीनों के कारण मेरी पूरी जिंदगी कुछ यूँ है कि हम शब्दों पर बहुत अटकते हैं. लिखा हुआ सब कुछ पढ़ जाते हैं. फिल्मों के लास्ट के क्रेडिट्स तक. रेस्टोरेंट के मेनू में टाइपो एरर्स देखते हैं...यहाँ तक कि हमें कोई लव लेटर लिख मारे(अभी तक लिखा नहीं है किसी ने) तो हम उसमें भी टाइपो एरर देखने लगेंगे. जब पेंग्विन से मेरी किताब छप रही थी, 'तीन रोज़ इश्क़'तो उसकी बाई लाइन थी 'गुम होती कहानियाँ'. जब किताब का कवर बन के आया तो मैंने कहा, 'कहानियां'में टाइपो एरर है, बिंदु नहीं चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होगा. मेरे एडिटर ने बताया कि पेंग्विन चन्द्रबिन्दु का प्रयोग अपने किसी प्रकाशन में नहीं करता. मुझे यकीन नहीं हुआ कि पेंग्विन जैसा बड़ा प्रकाशक ऐसा करता है. कमसे कम आप्शन तो दे ही सकता है, अगर किसी लेखक को अपने लेखन में चन्द्रबिन्दु चाहिए तो वो खुद से कॉपी चेक करके दे. मगर पहली किताब थी. हम चुप लगा गए. अगर कभी अगली किताब लिखी तो इस मुद्दे पर हम हरगिज़ पीछे नहीं हटेंगे.

भाषा और उससे जुड़ी अपनी पहचान को लेकर मैं थोड़ा सेंटी भी रहती हूँ. मुझे अपने तरफ की बोली नहीं आती...अंगिका...मेरी चिंताओं में अक्सर ये बात भी रहती है कि भाषा या बोली के गुम हो जाने के साथ बहुत सी और चीज़ें हमेशा के लिए खो जायेंगी. बोली हमारे पहचान का काफी जरूरी हिस्सा है. मुझे अच्छा लगता है जब कोई बोलता है कि तुम्हारे हिंदी या इंग्लिश में बिहारी ऐक्सेंट आता है. इसका मतलब है कि दिल्ली और अब बैंगलोर में रहने के बावजूद मेरे बचपन की कोई चीज़ बाकी रह गयी है जिससे कि पता चल सके कि मेरी जड़ें कहाँ की हैं.

ओरियेंटल लाइब्रेरी में रखे रैक्स में तालपत्र
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मैसूर युनिवर्सिटी का ये शताब्दी साल है. इस अवसर पर एक कॉफ़ी टेबल बुक का लेखन और संपादन कर रही हूँ जो कि यूनिवर्सिटी द्वारा जनवरी में प्रिंट होगा. प्रोजेक्ट की शुरुआत में हम वाइसचांसलर और रजिस्ट्रार से मिलने गए. यूनिवर्सिटी में ओरिएण्टल लाइब्रेरी है. हमने रिसर्च की शुरुआत वहीं से की...इस लाइब्रेरी में कुल जमा 70,000 पाण्डुलिपियाँ हैं, जिनमें कुछ तो आठ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी हैं. मैंने पांडुलिपियों की बात सुनी तो सोचा कि एक आध होंगी. अभी तक जितनी भी देखी थीं वो सिर्फ संग्रहालयों में, वो भी शीशे के बक्से में. यहाँ पहली बार खुद से छू कर ताड़ के पत्तों पर लिखा देखा. इनपर लिखने के लिए धातु की नुकीली कलम इस्तेमाल होती थी...तालपत्र पर लिखने वालों को लिपिकार कहते थे. कवि, लेखक, इत्यादि अपनी रचनायें कहते थे और लिपिकार उन्हें सुन कर तालपत्रों पर उकेरते जाते थे. 
उसे लाइब्रेरी कहने का जी नहीं चाहता...ग्रंथालय कहने का मन करता है. लोहे के पुराने ज़माने के रैक और लोहे की जालीदार सीढियाँ. ज़मीन से तीन तल्लों तक जाते रैक्स और उनपर ढेरों पांडुलिपियाँ. एक अजीब सी गंध. पुरानी लकड़ी की...लेमनग्रास तेल की...और पुरानेपन की. जैसे ये जगह किसी और सदी की है और हम किसी टाइम मशीन से यहाँ पहुँच गए हैं. सन के धागे से बंधे तालपत्र. उनपर की गयी नम्बरिंग. मैंने सब फटी फटी आँखों से देखा. मुझे पहली बार मालूम चला कि संस्कृत को देवनागरी की अलावा कई और लिपियों में लिखा गया है. कन्नड़. ग्रंथ. तमिल. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. उन्होंने दिखाया कि कन्नड़ में लिखी गयी संस्कृत के श्लोकों के बीच खाली जगह नहीं दी गयी थी. संस्कृत में वैसे भी लम्बे लम्बे संयुक्ताक्षर होते हैं लेकिन बिना किसी स्पेस के लिखे हुए श्लोकों को पढ़ना बेहद मुश्किल होता है. फिर हर लिपिकार की हैण्डराइटिंग अलग अलग होती है...हमें वहां मैडम ने बताया कि कुछ दिन तो एक लिपिकार की लिपि समझने में ही लग जाते हैं. उन्होंने ये भी बताया कि देवनागरी में तालपत्रों पर लिखने में मुश्किल होती थी क्योंकि देवनागरी में अक्षरों के ऊपर जो लाइन खींची जाती है, उससे तालपत्र कट जाते थे और जल्दी ख़राब हो जाते थे.
तालपत्र- ओरियेंटल लाइब्रेरी, मैसूर, clicked by my iPhone

मैसूर गए हुए दो महीने से ऊपर होने को आये लेकिन ये तथ्य कि संस्कृत किसी और लिपि में भी लिखी जाती है, मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था. मगर फिर पिछले कुछ दिनों से एक्सीडेंट के कारण कुछ अलग ही प्राथमिकताएं हो गयीं थीं तो इसपर ध्यान नहीं गया. कल फिर प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया तो बात यहीं अटक गयी. एक दोस्त से डिस्कस कर रही थी तो पहली बार ध्यान गया कि संस्कृत या फिर वेद...मेरे लिए ये दोनों inter-changeable हैं. मैं जब संस्कृत की बात सोचती हूँ तो वेद ही सोचती हूँ. फिर लगा कि वेद तो 'श्रुति'रहे हैं. तो पूरे भारत में अगर सब लोग वेद पढ़ रहे होंगे या कि सीख रहे होंगे तो लिपि की जरूरत तो बहुत सालों तक आई भी नहीं होगी...और जब आई होगी तो जिस प्रदेश में जैसी लिपि का प्रचलन रहा होगा, उसी लिपि में लिखी गयी होगी.

बात फिर से आइडेंटिटी या कहें कि पहचान की आ जाती है. मैंने शायद इस बात पर अब तक कभी ध्यान नहीं दिया था कि मैं एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी हूँ और उसके बाद देवघर में पली बढ़ी. वेद और श्लोक हमारे जीवन में यूँ गुंथे हुए थे कि हमारी समझ से इतर भी एक इतिहास हो सकता है इसपर कभी सोच भी नहीं पायी. अगर आप देवघर मंदिर जायेंगे तो वहां पण्डे बहुत छोटी उम्र से वेद-पाठ करते हुए मिल जायेंगे. उत्तर भारत की इस पृष्ठभूमि के कारण भी मैंने कभी संस्कृत के उद्गम के बारे में कुछ जानने की कोशिश भी नहीं की. आज मैंने दिन भर भाषा और उसके उद्गम के बारे में पढ़ा है. भाषा मेरी समझ से कहीं ज्यादा चीज़ों के हिसाब से बदलती है...इसमें बोलने वाले का धर्म...उस समय की सामाजिक संरचना...सियासत...कारोबार... बहुत सारी चीज़ों का गहरा असर पड़ता है.

Brahmi script on Ashoka Pillar,
Sarnath" by ampersandyslexia 
भारत की सबसे पुरानी लिपि ब्राह्मीहै. 250–232 BCE में बने अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि के उद्धरण हैं. ब्राह्मी लिपि से मुख्यतः दो अलग तरह के लिपि वर्ग आगे जाके बनते गए...दक्षिण भारत की लिपियाँ जैसे कि तमिल, कन्नड़, तेलगु इत्यादि वृत्ताकार या कि गोलाई लिए हुए बनीं जबकि उत्तर भारत की लिपियाँ जैसे कि देवनागरी, बंगला, और गुजराती में सीधी लकीरों से बनते कोण अधिक थे. संस्कृत को कई सारी लिपियों में लिखा गया है. 

मेरी मौसी ने संस्कृत में Ph.D की है. इसी सिलसिले में आज उनसे भी बात हुयी. अपनी थीसिस के लिए उन्होंने ग्रन्थ लिपि सीखी थी और इसमें लिखे कई संस्कृत के तालपत्रों को बी ही पढ़ा था. उन्होंने एक रोचक बात भी बतायी...लिपिकार हमेशा कायस्थ ही हुआ करते थे. इसलिए कायस्थों की हैण्डराइटिंग बहुत अच्छी हुआ करती है. 

जाति-व्यवस्था के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था. अपने ब्राह्मण होने या अपने कायस्थ दोस्तों की राइटिंग अच्छी होने के बारे में भी इस नज़रिए से कभी नहीं देखा था. अब सोचती हूँ कि गाहे बगाहे हमारा इतिहास हमारे सामने खड़ा हो ही जाता है...हमारी जो जड़ें रही हैं, उनको झुठलाना इतना आसान नहीं है. इतने सालों बाद सोचती हूँ कि वाकई इतिहास को सही तरह से जानना इसलिए भी जरूरी है कि हम अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचें.

भाषा और इसके कई और पहलुओं पर बहुत दिन से सोच रही हूँ. कोशिश करूंगी और कुछ नयी चीज़ों को साझा करूँ. इस पोस्ट में लिखी गयी चीज़ें मेरे अपने जीवन अनुभवों और थोड़ी बहुत रिसर्च पर बेस्ड हैं. ये प्रमाणिक नहीं भी हो सकती हैं क्योंकि मैं भाषाविद नहीं हूँ. कहीं भूल हुयी होगी तो माफ़ की जाए.

किस्सा-ए-बदतमीज़ शाहज़ादा, पागल लड़की और नीली स्याही

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कभी कभी लगता है हमसे ड्रामेबाज़ कोई और हो तो हम जानते नहीं. शाम में मूड बना...आंधी तूफ़ान की तरह घर से निकले हैं....भागते मूड को पकड़ना जरूरी था...दिल तो ये भी कर रहा था कि कोई विस्की टाइप चीज़ होता तो नीट पी जाते बोतल से ही...मगर घर पर था नहीं और दूर जा के लाने का इन्तेजाम नहीं था...मने कि बाइक चलाना अभी डॉक्टर अलाव नहीं किया है...हम उसको बोले कि हम दो बार चला लिए पिछले हफ्ते तो हमको घूरा...कि हमसे पूछने का मतलब ही क्या है जब अपने ही मन का करती हो...पर खैर दस दिन का बात है और फिर हम अपने हाथ का जो चाहे इस्तेमाल कर सकते हैं...मार पिटाई...ढिशूम ढिशूम वगैरह वगैरह.

तो शाम को उधर से ही डोलते डालते आये थे कि बस...आज तो जो करवा लो हमसे...बीड़ी पहले कभी खरीदी नहीं थी...पान की दूकान पर पूछे तो बोला यहाँ नहीं आगे मिलेगा...आगे मिलेगा...तीन और पान का दूकान पर पूछे तब जा के चौथे पर बोला कि हाँ है...दो पैकेट बीड़ी खरीदे...वहीं से धूंकते हुए घर आये...कान में इयरफोन लगा हुआ था फुल साउंड में...रंगरेज़ मेरे सुनते हुए आये...
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बहुत सी बीड़ी धूंकने के बाद बावले होने का मौसम आया था. लड़की ने जाने कब से शैम्पू नहीं किया था...बालों में शहर का मौसम इस कदर उलझ गया था कि बस...हर कश में मुहब्बत सा जलता था...पहली बार इश्क हुआ था तो भी ऐसा ही लगा था.
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'ये १७वीं बीड़ी है मेरी जान. कलेजा जल जाएगा', मेरे होठ चूमते हुए उसने पूछा, 'अब किससे इश्क़ हो गया है तुझे?'
'मौत से'
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घर पर खूब सारा डांस किया...खूब सारा...सर दर्द के मारे फटा जा रहा था...खुमार की तरह शब्द चढ़ रहे थे...बहुत बहुत बहुत दिनों बाद...लग रहा था मैं पूरी पूरी लिक्विड बन गयी हूँ और बस कागज़ पर उतर जाऊं किसी तरह...बीड़ी रखने को ऐशट्रे मिल नहीं रही थी...कानों में हेडफोन लगे हुए थे...बोस वाले...कि बस आगे दुनिया फिर मुझे दिखती कहाँ है. इधर बहुत सोचने लगती हूँ मैं...अच्छा बुरा...जाने क्या क्या. सही गलत. मेरे अन्दर वो जो पागल लड़की रहती थी, उसे जेल में डाल दिया था. वो मुझे पागल कर रही थी. सलीके से जीना पहले कहाँ आता था मुझे. न चीज़ों को परफेक्ट करना.

इधर लिखने की आदत छूट गयी है तो शब्द आते हैं तो उनको लिखने का डिसिप्लिन गायब था...उँगलियाँ बौरा रही थीं...और फिर ये भी लग रहा था कि शब्दों में नहीं हो पायेगा...कुछ और मीडियम चाहिए इनको. तो बस. हेडफोन ऑन था ही. लैपटॉप पर रिकॉर्ड कर दिया. ये इसलिए नहीं है कि कोई इसे पसंद करे....ये इसलिए है कि मेरे अन्दर इक लड़की रहती है...दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की. उससे मुझे बेपनाह इश्क़ है...अब ये गुनाह है तो गुनाह सही.
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तुम्हें देखना चाहिए उसे. अभी. इस लम्हे. इस शहर की किसी बालकनी से...इस बेमुरव्वत शहर की किसी खिड़की से...इस नामुराद शहर की किसी सड़क पर चलते हुए...यूँ झूमते हुए...खुद के इश्क़ में यूं डूबी हुयी कि मौत के गले पड़ जाए तो मौत पीछा छुड़ा कर भाग ले पतली गली से.
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इक दुष्ट शहजादा था...हाँ, वही...जिसने लड़की का दिल चुरा लिया था...इस बार वो उसकी नीली स्याही की दवात लिए भागा है...बताओ, शोभा देता है उसको...शहजादा होकर भी ऐसी हरकतें...उफ़...आपको कहीं मिले तो समझाना उसे...ठीक?

जीने से इतर

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अन्दर एक विशाल खालीपन है. वैक्यूम. जैसे अन्तरिक्ष में होता है.
हम लिखते हैं कि इस खालीपन को भर सकें किसी तरह. शब्दों से. चुप्पी से. कहानियों से. उलटे-पुल्टे किरदारों से. हम लिखते हैं कि मुट्ठी मुट्ठी शब्दों से भर सकें एक कोना ही सही. कहीं एक घर बना सकें शब्दों का और रह सकें उसमें. हम शब्दों से खड़ी करते हैं दीवार. अपनी सुरक्षा के लिए. कि जिससे टिक कर महसूस किया जा सके अपने होने को भी. 

हम लिखते हैं कि भूल न जायें कि हमारा होना क्यों है. हम कई बार इसलिए भी लिखते हैं कि इसके सिवा हमें और कुछ नहीं आता. हमने अपनी जिंदगी में किसी को शब्दों के सिवा कुछ नहीं दिया है. हम दर्ज करते जाते हैं अपने दिन. रात. सुबह. शहर. व्हिस्की की ब्रांड. सिगरेट का धुआं. गाड़ियों का शोर. अनजान शहरों में मिले अजनबी के बच्चों के नाम. ट्रेन पर दिखा कोई गहरे लाल शर्ट पहने खूबसूरत लड़का. किसी म्यूजियम में किसी तस्वीर के सामने बैठी लड़की...जो फ्रेम में दिखती है इतनी खूबसूरत कि लगती है फ्रेम का हिस्सा. 

हम लिखते हैं कि हमें लगता है दुनिया लुप्त होती जा रही है. देखते देखते गायब हो जाते हैं लाल पोस्टबॉक्स. अगर हम न लिखें तो कोई जानेगा भी नहीं कि हुआ करता था यहाँ एक लाल डब्बा कोई. हम लिखते हैं पोस्टकार्ड कि दूर देश बैठे हमारे दोस्त गायब न हो जाएँ दुनिया से. कागज़ के इक टुकड़े पर हम लिखते हैं एड्रेस तो पुख्ता हो जाती है उनकी मौजूदगी. उन्हें कोई यूं ही मिटा नहीं सकता फिर दुनिया के मानचित्र से. हम लिखते हैं घुल जाने वाली शाम के बारे में. कि हम जानते हैं इस होटल में हमारे सिवा शायद ही कोई और देख रहा होगा इस 'heartbreakingly beautiful'शाम को. हम करते हैं जिद कि हमें पश्चिम दिशा का कमरा मिले कि सिर्फ हमारे लिए जरूरी होता है सूर्यास्त. 

हम लिखते हैं कि हमें कोई समझ नहीं सकता. हम लिखते हैं इकतरफे ख़त. हमारी दोस्तियों में भी बची रह जाती है थोड़ी सी जगह. हम लिख लिख कर उस जगह को पाट देना चाहते हैं. हम दिल की दरकी हुयी दरारों को भर देना चाहते हैं कविताओं से...कहानियों से...हैप्पी एंडिंग से. हम जाना चाहते हैं ग्रेवयार्ड. पढ़ते हैं किसी कब्र के पत्थर पर लिखी कहानी कोई. किसी के जीने का गुलाबी पन्ना. किसी के होने का सबसे खूबसूरत अहसास. हम लिखते हैं कि हमें नहीं आता है तसवीरें खींचना. हम लिखते हैं कि हमें चुप रहना नहीं आता. 

हम लिखते हैं कि भूल न जाएँ हम कौन हुआ करते थे. हमारा कोई दुश्मन नहीं. अपने दुश्मन हम खुद हुआ करते हैं. हम देर रात सुबकते हुए कहते हैं अपने बेस्ट फ्रेंड्स को...हमें इन लोगों से क्यूँ हुआ करता है इश्क़...हम क्यूँ नहीं जी सकते बाकी लोगों की तरह. हुआ होगा तुम सबके साथ ये हादसा भी कभी. कोई चाहता है लिखना वैसा जैसे कि लिखते हो तुम...मगर कोई नहीं चाहता वैसा जीना कि जैसे जीते हो तुम. इन तकलीफों को बुला कर अपने दिल में रिफ्यूजी कैम्प नहीं खोलना चाहता है कोई. 

हम अभिशप्त लोग हैं. जीने को अभिशप्त. हमें सीमाएं समझ नहीं आतीं. हम ताउम्र परेशान रहते हैं कि हमसे कहाँ गलतियाँ हुयीं और के ये दुनिया इतनी सिंपल क्यूँ नहीं है जैसी हमें लगती है. किसी से बात करने का मन हुआ तो बात क्यों नहीं की जा सकती...कितना मुश्किल होता है बात करना. आखिर हम क्यूँ कर सकते हैं किसी से भी बात. एअरपोर्ट पर कस्टम ऑफिसर से अचार के बारे में मज़ाक कर सकते हैं. होटल के रिसेप्शन पर लोगों को पोस्टकार्ड के पीछे लिखी हिंदी के छोटे से ख़त का अंग्रेजी अनुवाद कर सकते हैं. हम अगर पूरी दुनिया से बात कर सकते हैं तो उससे क्यों नहीं कर सकते जिससे करने को जी चाह रहा है. ऐसा कौन सा आसमान टूट पड़ता है बात करने से. क्या हो जाता है. क्या. बटरफ्लाई इफ़ेक्ट. उनसे एक रोज़ बात करने से कहीं समंदर में तूफ़ान आ जाता है. है न? 
डैलस आये हुए तीन दिन हुए. कहीं गयी नहीं हूँ. खिड़की से गहरे नीले आसमान से गुज़रते सफ़ेद बादल दिखते हैं. गाड़ियों का शोर आता है. उदासी और आलस का गहरा और खतरनाक कॉम्बिनेशन है. हम चाहते हैं कि लिख लिख कर सारी उदासी को ख़त्म कर दें. आज शहर घूमने जायेंगे. थोड़ी दारू पियेंगे. थोड़ी तसवीरें खींचेंगे. भेजेंगे कुछ पोस्टकार्ड. अपने बदतमीज दोस्तों को. जहाँ गाड़ियां इतनी तेज़ी से गुज़रती हैं कि जिंदगी भी नहीं गुज़रती...उस शहर में लेना चाहती हूँ एक गहरी सांस और चीखना चाहती हूँ अपने सारे दोस्तों का नाम. आई मिस यू. ब्लडी इडियट्स.

राइटर्स डायरी - डैलस में रंगों का नृत्य

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गंध है कोई. रेंगते कीड़ों जैसी चढ़ती जा रही है पैरों पर. काली लताओं जैसी. किसी गौथ टैटू की तरह. शायद आज दोपहर Millenium series की किताब 'Girl in the spider's web'पढ़ी है इसलिए. ये पूरी सीरीज मुझे बहुत पसंद आई है. लिसबेथ वैसी हिरोइन है जैसा मैं रचना चाहती हूँ बहुत दिनों से...मगर शायद थोड़ा सा बचा जाती हूँ लिखते हुए 'प्लेयिंग सेफ'जैसा कुछ. मगर किसी दिन मैं अपनी कलम को पूरी तरह से निर्भीक बना सकूंगी और रच सकूंगी किसी ऐसी लड़की को जिस पर मुझे गर्व हो.
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मुझे शब्दों की प्यास लगती है. जिन्दा शब्दों की. जिन्हें किसी जीते जागते इंसान ने लिखा है. मैं शब्दों को पढ़ते हुए इमैजिन करना चाहती हूँ उसको. उसके चेहरे पर के भाव. उसके शहर का मौसम. मगर ऐसा सारे लेखकों के साथ नहीं है. कुछ हैं जो अपने लिखे में घुले-मिले हैं. कुछ आर्टिस्ट इसी तरह होते हैं. अपनी कला में घुलेमिले. उनकी कला उनके मर जाने के हज़ारों साल बाद भी ज़िंदा रहती है. क्यूंकि उन्होंने अपनी हर कलाकृति में अपनी रूह का एक हिस्सा रख दिया होता है. मैं जब किसी म्यूजियम में पेंटिंग्स देखती हूँ तो अकस्मात् किसी पेंटिंग के सामने बहुत देर तक ठहर जाती हूँ. ब्रश स्ट्रोक्स की ऊर्जा को महसूसती हूँ. पहली बार पिकासो की पेंटिंग देखी थी वियेना में तो महसूस किया था कि महान होना शायद इसी को कहते हैं. इतने साल बाद भी उसके ब्रश स्ट्रोक्स लगता था जैसे अभी अभी उकेरे गए हों. जैसे आर्टिस्ट एक गीला कैनवास यहीं रख कर हाथ साफ़ करने गया हो. मैं उसके लौट आने का इंतज़ार करती हूँ. उलझे हुए बिम्ब और प्रतीकों वाली उस पेंटिंग के पीछे उसकी मनोदशा को जानना चाहती हूँ. इस जान पहचान के पीछे इस बात का भी हाथ रहता है कि मैंने उस आर्टिस्ट के बारे में कितना जाना है. शायद कर्ट कोबेन की आवाज़ की मर्मान्तक पीड़ा मुझे इसलिए महसूस होती है कि मैं उसके डायरी के पन्नों से गुज़र चुकी हूँ. मगर फिर भी...कर्ट की आँखों में जो स्याह अँधेरा है...उसे लाइव सुनते हुए मैं जैसे जानती हूँ कि वो इस लम्हे नज़र उठा कर देखेगा...वो देखता है और फिर जैसे स्क्रीन नहीं रहती, यूट्यूब नहीं रहता, वक्त एक बिंदु हो जाता है...मैं ठीक सामने होती हूँ उसके...उस लम्हे. मैंने उसे वाकई तब सुना है जब वो गा रहा था...'माय गर्ल माय गर्ल'. 
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मैं उसके शब्दों को अपनी ऊँगली में लेकर मसलना चाहती हूँ. बचपन में चोट लगती थी तो गेंदा के पत्तों को यूं ही मसल कर उनका रस टपकाते थे हमारे स्पोर्ट्स टीचर. ताज़ा घाव से खून बह रहा होता था. रस उसमें घुलमिल जाता. वे फिर पत्तों से ही घाव को दबा देते और अपनी जेब से एकदम साफ़ रुमाल निकालते...सफ़ेद रंग का, और पट्टी बाँध देते. फिर पीठ ठोकते हुए कहते कि खिलाड़ी को गिरने से डर नहीं लगना चाहिए. उन दिनों हम लड़के और लड़कियों में बंटे हुए नहीं थे. हम बस अपने हिस्से का खेल ठीक से खेलना चाहते थे. मैं ४०० मीटर की धावक हुआ करती थी. मुझे उन दिनों लम्बी पारी का खेल समझ आता था. अपनी सारी एनर्जी शुरू में नहीं झोंकनी चाहिए. आखिर के लिए बचा कर रखनी चाहिए. उन दिनों ज़ख्मों पर मिटटी भी रगड़ दिया करते थे हम. मिट्टी से भी घाव भर जाया करते थे. या कि उम्र ऐसी थी. बिना किसी चीज़ के भी घाव भर जाते.
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मैं पढ़ती हूँ उसका लिखा एक वाक्य. कविता का एक टुकड़ा होता है. संजीवनी बूटी के दो बूँद टपकाए गए हों जीभ पर जैसे. मैं जी उठती हूँ. 
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लास्ट टाइम डैलस आई थी तो आर्ट म्यूजियम लगभग रोज़ ही चली जाती थी. पहले दिन एक स्पेशल एक्जीबिशन लगा हुआ था, ''Between action and the unknown'. 'काजुओ शिरागा'एक जापानी आर्टिस्ट जो कि एक ख़ास ग्रुप 'गुटाई'के सदस्य थे. इसकी कहानी काफी रोचक थी. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान अपनी आइडेंटिटी क्राइसिस के दौर से गुज़र रहा था. कला और समाज में इसकी क्या जरूरत है...जब जीने के लिए बाकी चीज़ें ज्यादा जरूरी हों और समाज बहुत दिनों तक सिर्फ जीवन की बेसिक जरूरतों को किसी तरह पूरा करने में सक्षम रहा हो...जहाँ मौत और भूख चप्पे चप्पे पर दिखती हो ऐसे में कला सिर्फ साक्षी भाव से चीज़ों को देखना नहीं हो सकता...कला को भी कहीं न कहीं चीज़ों से जुड़ना होगा. चीज़ों से सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव काफी नहीं है, इसके अलावा भी कई स्तरों पर एक कलाकार को कोशिश करनी होगी कि कला को बेहतर आत्मसात कर सके. अपनी सीमाओं से ऊपर उठ सके. अपने कैनवास से इतर सोच सके. 
The artist काजुओ को जब उसके गुरु ने कहा कि पेंटिंग को उसके माध्यम से इतर होकर कुछ नया देखना और सोचना होगा...सिर्फ ब्रश उठा कर कैनवास पर किसी दृश्य को उतार देने से बढ़ कर भी कुछ होना चाहिए कला में. तो काजुओ ने 'गति'को पेंटिंग का केंद्र बनाया. उसने कैनवास को ज़मीन पर रखा और छत से एक रस्सी लटकाई...कैनवास पर जगह जगह पेंट उड़ेला और नंगे पांवों से पेंट करना शुरू किया. ये पेंट एक नृत्य सरीखा था. काजुओ का कहना था कि उन्हें पेटिंग एक मूवमेंट की तरह महसूस होती है और वे उसकी लय में कैनवास पर झूमते जाते हैं...उनका पेंट करना बहुत हद तक गति को माध्यम देने जैसा था. पेंटिंग की इस शैली को 'एक्शन पेंटिंग'या 'काइनेटिक पेंटिंग'भी कहते हैं. काजुओ को इन पेंटिंग्स को बनाते हुए आध्यात्मिक अनुभव हुए थे. कला दीर्घा में इन पेंटिंग्स को देखते हुए मैं इनके सम्मोहन में खो जाती हूँ. अधिकतर पेंटिंग्स अपने आप में एक पूरी दुनिया हैं...एक गहन भाव जो पेंटिंग्स से रिसता हुआ महसूस होता है...आत्मा को संतृप्त करता हुआ. उन्हें छूने का मन करता है. हर पेंटिंग एक सान्द्र विलयन है. किसी दूसरी दुनिया का दरवाज़ा. कैनवास गीला लगता है. जैसे छूने से रंग उतर आयेंगे जिंदगी में. मैं देर तक सोचती हूँ. अगर कोई मुझे कहे कि ऐसी कहानी लिखो जिसमें शब्द न हों...ऐसी कविता जिसमें लय न हो...ऐसा अनुभव जिसमें कुछ भी पहले जैसा नहीं हो तो मैं क्या करूंगी. क्या कोई नया माध्यम बना पाऊँगी. नया. घबराहट होती है. शब्दों की प्यास लगती है. फिर.
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कल मैं कब्रिस्तान गयी थी. पूरी दोपहर कब्रों पर लिखी इबारतें पढ़ती रही. लोगों के जन्म मरण की तारीखें. उनका काम. उनके नाम लिखे संदेसे. सोचती रही कि कैसा होता होगा मरने के बहुत सालों बाद भी जरा सी जमीन पर अपना अधिकार जमाये रखना. 

कोई कब्रिस्तान होता है दिल. यूं ही दफन रहते हैं कितने लोग. नाम. तारीखें. इक आधी इबारत कोई. मगर कब्रिस्तान के बारे में डिटेल में फिर कभी. फिलहाल. कोई कहानी है. कुछेक पोस्टकार्ड्स हैं और खोये हुए स्टैम्प्स. इस बार स्याही की बोतल लेकर आई थी कि कम न पड़ जाए. मगर इस बार लिखा नहीं है कुछ. फिर किसी दिन. फिर किसी शाम के रंग में. घुलते. बहते. मिलेंगे खुद से. मुस्कुराएंगे उड़ते हुए हवाईजहाज़ को देख कर. कहेंगे अलविदा. और वाकई जा सकेंगे तुम्हारे दिल के इस कब्रिस्तान से बाहर. अपना कोई वजूद तलाशते हुए. 

<इक गहरी साँस. जैसे अटका हुआ है कोई नाम. कोई किरदार. किसी कहानी का अंत>

राइटर्स डायरी - गुमे हुए शब्दों का नास्टैल्जिया

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दोस्त. कुछ नहीं बचा है लिखने को. और जो है वो बस इतना है कि कागज़ पर एक बार लिख कर देख लिया जाए जी भर के. और आग लगा दी जाए. सिगरेट भी इसलिए ही होती है न कि लम्हे भर को जरा सी बेकरारी हो...जरा सा नशा...कि हल्का हल्का सा लगे सब कुछ. खूबसूरत. दिलकश. और जान देने जितना मीठा.

मैंने इश्क़ के लिए अपने शहर के दरवाज़े बंद कर दिए हैं. हमेशा के लिए. हालांकि 'हमेशा'एक खतरनाक शब्द है कि जिसके इस्तेमाल के पहले दास्ताने पहनने जरूरी होते हैं वरना लिखे हुए हर शब्द में एक 'finality'आ जायेगी. कि जैसे अंतिम सत्य लिखा जा चुका हो.

मैं जिस शहर में हूँ वहां बहुत से पुल हैं जिन्हें लोग प्यार से फ्लाईओवर कहते हैं. ये पुल नहीं होते तो जिंदगी थोड़ी धीमी होती. जैसे कि अपने देश में होती है. लोग जरा धीमे गुज़रते. जैसे कि मेरे दिल से गुज़रते हैं. मुझे सब कुछ मालूम हो जाता है उनके बारे में. वो कार में कौन सा गीत बजा रहे हैं. उनकी आँखों में कितना इंतज़ार है. उनकी कलाई पर बंधी घड़ी में जो इंतज़ार है वो किसी के दिल तक जा कर ख़त्म होता है कि या कि किसी पुल के ठीक बीचोबीच की एकतरफा ड्राइव तक. मैं सैन फ्रांसिस्को गयी थी. जानलेवा खूबसूरत शहर है. कोई इस बेइंतेहा खूबसूरत शहर से गुज़र कर जान कैसे दे सकता है? कोई ड्राइव कर के उस पुल तक जाता है. अक्सर टैक्सी में. दो माइल के उस पुल के बीच तक पैदल चलता है...नीचे...बहुत नीचे गहरा नीला पानी है. मैं जानती हूँ कि लोग वहां से जान क्यों दे देते हैं. वहां से जान देना एकदम आसान लगता है. बिलकुल लम्हे भर की बात होती है. कि जैसे प्यार हो जाता है किसी से. लम्हे भर में. वैसा ही कुछ. 

मैंने इस बार बहुत कम पोस्टकार्ड लिखे. कुछ कहने को दिल नहीं कहता. कुछ ऐसा नहीं कि रह जाए किसी की उँगलियों में फिरोजी स्याही की तरह. मुझे आजकल लिखने में दिक्कत आ रही है. जिस किताब पर काम कर रही हूँ, उसके लिए भी कुछ लिख नहीं पा रही. शब्द जैसे रहते ही नहीं दिमाग में...फिसल कर बह जाते हैं. चिकना घड़ा हो गयी हूँ मैं. याद आता है कि ये बिम्ब मैंने पहले भी कभी इस्तेमाल किया है. शब्दों के यूं रूठ के चले जाने का अक्सर यही महीना होता है. बेरहम सितम्बर. बहुत सालों पहले पंकज ने एक पोस्ट लिखी थी 'वेक मी अप व्हेन सेप्टेम्बर एंड्स'. मैंने पहली बार वो गाना उसी बार सुना था. उस साल से हर साल, जब भी सितम्बर में उदास हुयी हूँ गीत की याद आई है. धीरे धीरे ये पंकज का गाना न रह कर मेरा गाना हो गया है. उदास मौसम का गाना. किसी के चले जाने का गीत. कि जब शब्द नहीं मिलते हैं. 

मुझे ब्लॉग्गिंग करते हुए दस साल हो जायेंगे इस नवम्बर. साथ के लोगों ने लिखना लगभग बंद कर दिया है. एक समय में लिखना सबके साथ किसी  कौलेज कैंटीन में गप्पें करने जैसा था. मैं दिल्ली से बैंगलोर आई थी. इस अजनबी शहर में दोस्त नहीं थे. उनकी कमी ब्लॉग ने पूरी की. हम एक दूसरे का लिखा पढ़ते थे. एक दूसरे के बारे में परेशान होते थे. जुड़ते थे. कि जैसे शायद असल लोगों से भी नहीं जुड़े कभी, वैसे. पीडी का दोबजिया बैराग. डॉक्टर अनुराग के जीवन के अनुभव...अच्छा होना...अच्छा इंसान और अच्छा डॉक्टर बनना. अज़दक के पोडकास्ट कि जिन रास्तों से 'जरा सा जापान', पचास साल का आदमी'और 'माचिस'जैसी चीज़ों के पीछे का संगीत ढूँढने की तलब लग जाती थी. अपूर्व की 'तीन बार कहना विदा'और उसके पोस्ट से भी बेहतर कमेंट्स...कि जलन हो जाए उससे...उन दिनों किसी का लिखा पढ़ कर परेशान होना नार्मल सा था...लेखक की तारीफ करूँ कि दोस्त के लिए परेशान होऊं. कॉफ़ी विद कुश वाले सेलिब्रिटीज(अफ़सोस हम कभी उतने फेमस न हो पाए). 

उसपर चीज़ थी चिट्ठाचर्चा...और उसपर अनूप शुक्ल की अद्भुत चर्चा, खुद के लेखन में ओरिजिनल होना नार्मल है, लेकिन दूसरों के लिखे को इस तरह से पेश करना कि बाकियों को पढ़ने में मज़ा आये बहुत मुश्किल था. अनूप जी मेरे लिए किंगमेकर रहे हैं. उनकी पारखी नज़र ने एक से बढ़कर एक लोगों से परिचय कराया है. सुबह सुबह चिट्ठाचर्चा खोले बिना हमारा दिन शुरू नहीं हो सकता था. लोगों को धकिया के ब्लॉग शुरू करवाना...बंद पड़े ब्लॉग को कोई कमेन्ट लिख कर जिन्दा कर देना ये सब नार्मल हुआ करता था. मैं आज यहाँ डैलस में बैठ कर नोस्टालजिक हो रही हूँ. रात हो गयी है बहुत. प्रोजेक्ट पर काम भी करना है. 

सोचती हूँ कि लिखना मुश्किल इसलिए है कि बात बंद है. लिखना फिर से उस डायरी की तरह हो गया है जिसे कोई नहीं पढ़ता. उन दिनों कितना आसान था किसी को गरियाना कि लिखा करो. अब कितने फॉर्मल से हो गए हैं. हँस के रह जाते हैं कि तुम लिखोगे ऐसा मुगालता हम नहीं पाल रहे. मगर लगता है कि काश होता ऐसा. किसी दिन लॉग इन करते तो देखते कि साइडबार भरा पड़ा है नयी पोस्ट्स से. धकमपेल हो रखी है. जी भर के गरियाये हैं सबको कि कमीनों एक ही साथ नींद से जाग गए हो. किसको पहले पढ़ें. 

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन... 

बहुत साल पहले एक पोस्ट लिखी थी 'नीट विस्की पीना कि उसने आज कहा है कि वो तुमसे प्यार करता है'इस पोस्ट पर चुन चुन के कातिल कमेन्ट आये थे...मेरा अब तक का सबसे फेवरिट कमेन्ट का हिस्सा...ये गूगल वूगल पर नहीं नहीं मिलेगा. पोस्ट किताब में छपी है...कमेंट्स मेरे पास रखे हैं, फोल्ड किये खत जैसे. बस कभी कभी पढ़ के मुस्कुरा लेते हैं...ऐसे भी दिन थे जीवन में.

"सही बात है यहाँ..जरा सा पोस्ट मे व्हिस्की-विस्की की दो बूंदें टपकाओ और देखो कि दुनिया भर के गजटेड बेवड़े पुलियों-कुलियों के नीचे से निकल-निकल कर जमा हो जाते हैं आ कर अपना खाली गिलास ले कर..सिंगल माल्ट, ब्लेंडिग, टेक्स्चर, कोन्याकिंग, बनगंध और इलाकेभर के दारुहट..बड़ा संगीन माहौल बन गया है..बोले तो..खैर अपन तो ’कोला से कोला टकराये भोला हो बदनाम’ टाइप प्राणी हैं..जब दिल करता है तो दारू की दुकान (पुलिया वाली) के पास से गुजर भर जाते हैं..हफ़्ता हैंगओवर मे कटता है..वो भी मुफ़्त..(कभी कुछ ’मै नशे मे हूँ’ लेबल वाले प्राणियों से बतिया भी लेते हैं..फ़ार द सेम एफ़ेक्ट)."

सिगरेट एक आदिम तलब है. कि जो नींद और जाग का फर्क नहीं जानती.

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शहर कभी कभी अपनी बत्तियां बुझा देता और खुद को गाँव होने के दिलासे देता. पॉवरकट की इन रातों में लड़की की नींद टूट जाती. आसमान एक फीके पीले रंग का होता. गर्मी की ठहरी हुयी दोपहरों का. जब ये रंग धूल का हुआ करता था. इस रंग का कोई नाम नहीं था. लड़की चाहती थी इस रंग में ऊँगली डुबा ले और जुबां से चख कर कहे...उदासी.

बिजली कट जाने से कहीं भी रौशनी की कोई लकीर नहीं होती जो रात के माथे पर चुभे और लड़की को अपने बेतरतीब घर में अमृतांजन ढूंढना पड़े. उसे याद नहीं आता कि वो आज से करीबन दस साल पहले अपने बैग में हमेशा अमृतांजन क्यूँ रखा करती थी. 

लड़की उन दिनों ख़ामोशी पहनना सीख रही होती. बिजली चले जाने से हर ओर चुप्पी होती. पंखों के चलने की आवाज़ नहीं होती. फ्रिज चुप पड़ा होता. सड़कों के स्ट्रीट लैम्प भी एक दूसरे से इशारे में ही बात करते थे, इसलिए बिजली कटने के बाद वे भी चुप देख ही पाते थे एक दूसरे को और ठंढी सांस भरते बस. 

सिगरेट एक आदिम तलब है. प्यास से गला सूखने की तरह. कि जो नींद और जाग का फर्क नहीं जानती. लड़की ने अँधेरे में अंदाज़ से सिगरेट का पैकेट तलाशा है. डाइनिंग टेबल पर दो पैकेट पड़े हैं. ब्लू लीफ और मार्लबोरो. उसे ध्यान है कि घर में बीड़ी भी है. ब्लू लेबल भी. फ्रिज में बर्फ भी. इन सब की याद सलीके से आती है उसे. किट किट किट आवाज़ है. चिंगारी दिखती है. पहला लाइटर काम नहीं करता. शायद फ्लूइड ख़त्म हो गया होगा. अँधेरे में मालूम नहीं कर सकती. वो याद करने की कोशिश करती है कि माचिस कहाँ मिलेगी घर में. पूजाघर में होगी कि नहीं. गैस के लाइटर से जलाई जाए. फिर वहीं टेबल पर दूसरा लाइटर मिल जाता है. अँधेरा और ख़ामोशी एक दूसरे के पर्याय हैं शायद. बिजली जाने के साथ बहुत सी आवाजें डूब जाती हैं. स्तब्ध रात है. दूसरे लाइटर से सिगरेट जलती है. कागज़ और अन्दर मुड़े-तुड़े टोबैको लीफ के पत्तों के जलने की आवाज़ आती है. ये बहुत ही फीकी आवाज़ है जो सिर्फ ऐसी एकदम चुप रातों में सुनी जा सकती है. लड़की एक लंबा, गहरा कश खींचती है. सिगरेट का लाल सिरा ज़रा तेज़ी से जलता है. उसे अपने दायें गाल पर लाल रौशनी महसूस होती है. दिखती है. 

रात बहुत शांत है. बहुत. बहुत दूर की रेलगाड़ी की आवाज़ आ रही है. स्टेशन लेकिन किसी और शहर का याद आता है उसे. एक शाम. सूरज डूब चुका था. रात इतनी चुप है कि उसे लगता है महबूब के दिल की धड़कन सुन सकती है. रात के सीने पर हाथ रखती है. महसूसती है अपनी कलाई से उठता इको. वो गहरी नींद सो रहा है. लड़की सॉफ्ट व्हिसल करती है. शोले की धुन. उसका दिल करता कि वो माउथऑर्गन बजाये. बहुत बहुत साल हो गए. रात की चुप में उसकी धीमी व्हिसल बहुत दूर तक जाती है. महबूब की खिड़की तक, चांदनी की तरह दबे पाँव उतरती है कमरे और चूम लेती है उसके होठ. उफ़...आज फिर उसने सिगरेट पी थी.

यूँ वो तानाशाही थी...मगर वे एक दूसरे को सरकार कहा करते थे. उन दिनों दुनिया का कारोबार बड़ी आसानी से चल रहा था. लोग एक दूसरे को धर्म के नाम पर मार देने को उतारू नहीं थे. ग़ुलाम अली के कॉन्सर्ट में वे एक दूसरे को एक तिरछी नज़र देख लेना चाहते थे कभी कभार. उन दिनों आज़ादी नहीं थी मगर ख्वाहिशों की दुनिया में एक आध छोटे गुनाहों की इज़ाज़त थी. उन दिनों गहरी नींद में चीखें नहीं दबी होती थीं. उन दिनों. नींद गहरी हुआ करती थी. हर शहर में बिजली चौबीस घंटे रहती थी. लड़की अपने एयरकंडीशंड कमरे में सोती थी. उसका होटल का कमरा नॉन-स्मोकिंग था और उसमें बालकनी नहीं थी. लड़की के पास बीड़ी भी नहीं हुआ करती थी उन दिनों और ना उसकी कलाई पर जले के निशान. उन दिनों उसकी कलाई पर महबूब के नाम का पहला अक्षर लिखा होता था. 

लड़की अँधेरा तलाशती चलती, शिकारी कुत्तों की तरह. अँधेरा उससे भागता रहता. कभी कभी वो हवाईजहाज में बैठती तो आधी धरती घूम आती मगर सूरज ठीक उसकी खिड़की के साथ साथ चलता रहता. झपकी भर भी नींद नहीं मिलती. जब से लड़के ने उसकी आँखें चूमी थीं, उसकी पलकें पारदर्शी हो गयीं थीं. उसे सोने के लिए अँधेरे की जरूरत पड़ती थी.

लड़की उसके शब्दों से छिलती थी. कटती थी. मगर फिर भी उसके शब्द मांगती थी. उसके शब्दों में इतनी धार थी कि सीने में धंस जाए तो जान चली जाए. लड़का जानता था. इसलिए अपने ख़त छुपा के रखता था. किसी शाम जब लड़की को बिलकुल मर जाने का मर करता तो उससे कहती...जीते जी तुमको कोई क्रेडिट नहीं दिया लेकिन कसम से, अपने मरने का क्रेडिट तुमको ही दे कर जायेंगे. पूरा का पूरा. 

लड़की बहुत कड़वी हो गयी थी इन दिनों. सस्ती सिगरेट की तरह. घटिया शराब की तरह. बासी कॉफ़ी की तरह. उसका प्याला कि जो इश्क़ से यूं लबालब भरा था कि छलका पड़ता था...खाली हो गया था...और टूट गया था. लेकिन वो किसी से भी नहीं कहना चाहती थी...यू नो...यू हैव टू लव मी बैक.

Let's begin from the end. अंत से शुरू करते हैं.

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धूप की सुनहली गर्म उँगलियाँ गीले, उलझे बालों को सुलझाने में लगी हैं. आज गहरे लाल सूरज के डूब जाने के बहुत बाद तक भी ऐसा लगेगा जैसे धूप बालों में ठहरी रह गयी है. मुझे अब गिन लेना चाहिए कि तुम्हें गए कितने साल हुए हैं. मेरे शहर में ठंढ की दस्तक सुनाई नहीं देती है...मैं दिल्ली में रहती तो मुझे जरूरी याद रहता कि तुम्हारे जाने के मौसम बीते कितने दिन हुए हैं. धुंध इतनी गहरी नहीं होती कि कमरे में टंगा कैलेण्डर दिखाई न पड़े. अगर तुम्हारे जाने के मौसम को चेहरे की बारीक रेखाओं से गिना जा सके तो मैं कह सकती हूँ कि तुम्हारे जाने के सालों में मैं बूढ़ी हो गयी हूँ. आजकल मेरे जोड़ों में दर्द रहता है और मैं अपनी कलम में खुद से इंक नहीं भर सकती. यूं घर नाती पोतों से भरा पड़ा है लेकिन मेरी कलमों के बजाये वे मुझे कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. अब सोच रही हूँ कि कार्टरिज का इस्तेमाल शुरू कर दूं. आखिर ख़त तो तुम्हें टाइप करके नहीं भेज सकती ना. पेन्सिल से लिखने में मिट जाने का डर लगता है. पेन्सिल यूं भी सालों के साथ फेड करती जाती है. अब ये न कहो कि हमारे साल ही कितने बचे हैं या फिर ये कि मैं अब तुम्हें ख़त नहीं लिखती. मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि अब भी सुबह का पहला ख्याल तुम्हारे नाम की गुलाबी स्याही में डूबा ही उगता है. हाँ अब उम्र के इस दौर में चटख रंगों के प्रति मेरा रूझान कम हो गया है और मैं सोचने लगी हूँ कि काली स्याही दरअसल काफी डीसेंट दिखती है. हमारे उम्र के हिसाब से. नहीं? ग्लिटर वाली कलम से छोटे छोटे दिल बनाने का मौसम अब कभी नहीं आएगा.

पिछले साल मेरे पड़ोस में एक नया परिवार आया है. उनका बड़ा बेटा ऐनडीए में पढ़ता है. फिलेटली का शौक़ है उसे. जाने कहाँ कहाँ के डाक टिकट इकट्ठे कर रखे हैं उसने. मैं उसकी बात हरगिज़ नहीं मानती लेकिन हुआ यूं कि एक दोपहर मैं इसी तरह बाल सुखा रही थी धूप में...शॉल में छुपे हाथों मे लिफ़ाफ़े थे. वो बालकनी में आया और उसने पेस्ट्री का बौक्स बढ़ाया मेरी तरफ...लिफाफा हाथ से फिसल गया और ज़मीन पर गिर पड़ा. उसने लिफाफे पर लगे डाक टिकट को देख कर बता दिया कि ये हांगकांग का स्टैम्प है...तिरासी में लागू हुआ था. फिर हम बातें करने लगे. मैंने उसे किताबों का रैक दिखाया जहाँ तुम्हारे सारे ख़त रखे हुए हैं. यूं तो बहुत ही तमीजदार बच्चा है, अपनी सीमाएं जानता है मगर शायद उस जेनरेशन ने इतने ख़त देखे नहीं हैं तो उत्साह में पूछ लिया कि मैं आपके ख़त पढ़ सकता हूँ. मैंने भी क्या जाना था कि उसे ऐसा चस्का लग जाएगा...हाँ बोल दिया. मुझे जानना चाहिए था तुम्हारे खतों का जादू ही ऐसा है, एक जेनरेशन बाद भी असर बाकी रहेगा.

मुझे डर ये लगता है कि बार बार खोलने बंद करने से कहीं बर्बाद न हो जाएँ तुम्हारे ख़त. इस बार दीवाली में बड़ी बहू जब घर की सफाई कर रही थी तो उसे आईडिया आया था कि खतों को लैमिनेट करा देते हैं. कोई गलत बात नहीं कही थी उसने मगर ऐसा सोच कर भी मुझे ऐसी घबराहट हुयी कि क्या बताऊँ. जैसे जीते जी अनारकली को जिंदा दीवार में चिन दिया हो. तुम्हारे ख़त तो जिंदा हैं...सांस लेते हैं...उन्हें छूती हूँ तो तुम्हारी उँगलियों की खुशबू रह जाती है पोरों में...वो शामें याद आती हैं जब दिल्ली के सर्द कोहरे में तुम्हारा एक हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच लिए रहती थी देर तक...सूरज डूब जाने तक. पता है, जाड़े के दिनों में शॉल में हाथ छुपे रहते हैं तो कई दोपहरों में मैं कोई न कोई लिफाफा लिए धूप में बैठी रहती हूँ. यूँ लगता है तुम पास हो और मैंने थाम रखा है तुम्हारा हाथ. सिगड़ी की गर्माहट होती है तुम्हारे लिफाफों में. इसलिए मुझे गर्मियां पसंद नहीं आती हैं. मैं हर साल जाड़ों का इंतज़ार करती हूँ.

उसका नाम अंकुर है. बड़ा ही प्यारा बच्चा है. छुट्टियों में घर आता है तो पूरा मोहल्ला गुलज़ार हो जाता है. आये दिन पार्टियाँ होती हैं. ठहाके मेरे कमरे तक सुनाई देते हैं. वो सबका हीरो है. लड़के उसके साथ क्रिकेट खेलने के लिए जान दिए रहते हैं और लड़कियों का तो पूछो मत. मेरी बड़ी पोती भी उन दिनों बड़े चाव से सजने लगती है. हर ओर रंग गुलाबी यूं होता है कि मुझे इस उम्र में भी अपने दिन याद आने लगते हैं कि जब तुम छुट्टियों में शहर आते थे. मैं कुछ कांच की चूड़ियाँ पहन लेती थी, कि गोरी कलाइयों में सारे रंग फबते थे. चूड़ियों से ये भी तो होता था कि मेरे आने जाने से तुम्हें आहट सुनाई पड़ जाए और तुम बालकनी से झाँक लो. इक रोज़ अचानक तुम्हें सामने पा कर कितना घबरा गयी थी...दरवाज़ा हाथ पर ही बंद कर दिया था. वो तो चूड़ियाँ थीं, वरना कलाई टूट जाती. उफ़. किस अदा से तुमने गिरे हुए कांच के टुकड़े उठाये थे कि बुकमार्क बनाओगे. तुम्हारी किताबों में मेरी चूड़ियों की खनखनाहट भर गयी थी. मेरी खिलखिलाहटें भी तो. तुम शहर में होते थे तो मैं काजल लगाती थी...के आँखें सुन्दर दिखें और इसलिए भी कि मेरी इन चमकती आँखों को नज़र ना लगे किसी की. मैं जो अधिकतर गले में मफलरनुमा दुपट्टा डाले मोहल्ले में मवालियों की तरह डोला करती थी, तुम्हारे आने से झीने दुपट्टे ओढ़ने लगती थी. काँधे से कलाइयों तक कि दुपट्टे की खूबसूरती नुमाया हो. तुम शहर में होते थे तो लगता था कि दिन को सूरज इसलिए उगता है कि तुम किसी बहाने घर से बाहर निकलो और मैं तुम्हें देख सकूं. उन दिनों में तुम्हारे घर की हर चीज़ के ख़त्म हो जाने की मन्नतें माँगा करती थी. कभी चायपत्ती, कभी चीनी, कभी सब्जियां...तुम और तुम्हारी वो साइकिल. उफ़. तुम्हारी मम्मी अक्सर तुम्हें पूछ लेने बोलती थी मेरे घर में कि कोई सामान ख़त्म तो नहीं है. मेरा बस चलता तो उन दिनों घर की सारी रसद चूल्हे में झोंक आती. महज़ तुमसे एक लाइन ज्यादा बात करने के लिए.

गर्मी की बेदर्द दुपहरों में कभी कभी अंकुर घर चला आता है. मेरी बड़ी पोती को लगता है कि वह बहाने से उसे देखने आता है और वो मेरी स्टडी में आती जाती रहती है. आजकल सजने का अर्थ भी तो बदल गया है. मेरे दुपट्टे निकल आते थे और यहाँ मिन्नी की मिनी स्कर्ट्स निकल आती हैं. पगली है थोड़ी, उसे समझाउंगी एक दिन कि अंकुर को तुम्हारी लॉन्ग लेग्स में नहीं तुम्हारी नीली आँखों में इंटरेस्ट है...तुम्हारी टेबल पर फेंके हुए तुम्हारे जर्नल में लिखी उल्टी पुल्टी कविताओं में और तुम्हारे कमरे में लगे बेहिसाब पोस्टर्स में. पिछली बार पूछ रहा था मुझसे कि तुम क्या वाकई कवितायें लिखती हो. उसका एक दोस्त भी राइटर है और बड़ा होकर दूसरा शेक्सपीयर बनना चाहता है. वो सोचता है कि मिन्नी उसके दोस्त को समझा सकेगी कि शेक्सपियर एक डायनासोर था और उसकी प्रजाति के लोग लुप्त हो गए हैं. इस तरह से अंकुर अपने दोस्त की अझेल कवितानुमा कहानियों से बच जाएगा. वो मुझसे तुम्हारा पता मांग रहा था एक रोज़...पूछ रहा था कि मेरी जेनरेशन में सारे लोग इतने खूबसूरत ख़त लिखा करते थे क्या एक दूसरे को...और अगर ख़त इतने खूबसूरत थे तो फिर किताबों की जरूरत भी क्या पड़नी थी किसी को. मगर ये तब की बात है जब मैंने उसे ये नहीं बताया था कि तुमने किताबें भी लिखी हैं. कहानियां भी और कवितायें भी.

खतों में तुम्हारा नाम नहीं इनिशियल्स होते थे. एक दिन अंकुर ने जिद पकड़ ली कि वो तुम्हारा पूरा नाम जानना चाहता है और तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ना चाहता है. मैंने बात को टालने की बहुत कोशिश की मगर वो तुम्हारा दीवाना हो चुका था. मैं नहीं बताती तो शायद किसी और से पूछता. और फिर जाने कितना सच उसे सुनने को मिलता. तो मुझे लगा कि बेहतर होगा कि मैं ही उसे बता दूं.

तुम्हें सत्ताईस की उम्र में मरने का बहुत शौक़ था न. बचपन का ये मज़ाक जिंदगी की क्रूर सच्चाई बन जाएगा ये किसने सोचा था. हम अपनी अपनी नयी नौकरी में सुहाने सपने बुन रहे थे. छोटेमोटे मीडियाहॉउस में नौकरी लगी थी लेकिन हम खुश थे कि अपनी बात को बेहतर तरीके से लोगों तक पहुंचा पायेंगे. हमने पहली बार साथ मिल कर एक कौमिक्स शुरू करने का सोचा था. ज़ी डायलॉग लिखता और मैं स्केच करती. हम उस उम्र में थे कि जब दुनिया बदल देने के ख्वाबों पर यकीन होता है.

हमारा समाज एक टाइम बम पर बैठा था और पलीते में लगी चिंगारी किसी को नहीं दिखी थी. विश्व में किसी भी बड़ी घटना की व्यापकता को नापने का पैमाना मौतें हुआ करती थीं, बात सिर्फ चंद इक्की दुक्की मौतों की थी. ये दार्शनिक, साहित्यकार और इतिहासकार थे जो कि अपने विषय में प्रतिष्ठित विशेषज्ञ थे और जिनका पूरे विश्व में मान था. मीडिया ने लोगों का ध्यान हल्के विषयों के प्रति भटका दिया कि उन्हें भी डर था कि आग जल्दी न भड़क जाए. गहरा मुद्दा सबकी नज़र से छिपा हुआ था. समाज की परेशानी का कारण भूख, गरीबी, बेरोजगारी थी मगर लोगों के उन्माद को दिशा धर्म की मशाल दे रही थी. हम एक मुश्किल समय में जी रहे थे जहाँ धर्म हमारा इकलौता आश्रय भी था और इकलौता हथियार भी.

सब अचानक ही शुरू हुआ था. जैसे एक ही समय में. एक महीने के अन्दर. उस महीने विश्व के हर कोने और हर धार्मिक बस्ती को एक ही इन्टरनेट कनेक्शन से जोड़ा गया था. आदर्श सरकारों को लगा था कि इससे लोग एक दूसरे से बेहतर जुड़ेंगे, मगर जैसा कि डायनामाईट और ऐटम बम के साथ हुआ था. तकनीक का गलत इस्तेमाल होने लगा. चूँकि इस वर्चुअल दुनिया में किसी को ट्रैक करना मुश्किल था, आतंकवादी और दहशतगर्द लोगों को डराने और धमकाने लगे. वर्चुअल दुनिया की दीवारें नहीं होतीं मगर असल दुनिया में लोग धार्मिक बस्तियों के बाहर दीवारों का निर्माण करने लगे थे. यही नहीं पहचान के लिए धार्मिक चिन्हों का प्रचलन भी बढ़ गया था. लोगों को ये डर लगा रहता था कि कहीं वे गलत धर्म के लिए न मारे जाएँ.

उन्ही दिनों में मैंने और जीरो ने कोमिक्स शुरू की और उनका नाम दिया 'ज़ीरो'ये आईडिया उसका ही था. शून्य से शुरुआत करना. हमने एक ऐसा कोमिक्स लिखा जो धर्म आधारित था, लेकिन हमने हीरो और हीरोइन अलग अलग धर्मों के लिए थे और एक ऐसे काल्पनिक समाज की रचना की थी जिसमें हर व्यक्ति दो या तीन धर्म को मानता है. हमने एकदम आधुनिक किरदार रचे जिनके नाम तकनीक की सबसे नयी खोजों पर आधारित थे. हमारे किरदारों के टाइटल हमेशा मॉडर्न फिजिक्स के पार्टिकल के नाम पर होते थे 'ऐटम, टैकीऑन, बोसॉन, फोटोन, क्वार्क'इत्यादि. 

हमारे देखते देखते विश्वयुद्ध देश की सीमाओं में नहीं बल्कि धार्मिक बस्तियों के दरवाज़ों के बाहर होने शुरू हो गए थे. भीषण धार्मिक दंगों की व्यापकता बढ़ती ही जा रही थी. लोग दिनों दिन कट्टरपंथी होते जा रहे थे. एक उन्माद था जिसकी लपेट में पूरा विश्व आता जा रहा था. मैं और ज़ीरो चूंकि मीडिया से जुड़े थे इसलिए अपनी इस काल्पनिक दुनिया में जाने अनजाने किसी न किसी खबर के इर्द गिर्द चीज़ें बुनने लगे थे. हमारी दुनिया के इश्वर मोबाइल टावर में रहा करते थे. उनका आशीर्वाद तेज़ इन्टरनेट स्पीड और डेटा के रूप में मिलता था और तपस्या के लिए लोग इन्टरनेट से दूर रहने की कसमें खाते थे. 

हमने अपनी कॉमिक स्ट्रिप कभी ऑनलाइन नहीं डाली थी, हम इसे छापते थे और ये लोगों तक बंट जाते थे. एक दिन किसी फैन ने उत्साह में आ कर बहुत सारी स्ट्रिप्स को स्कैन कर के अपलोड कर दिया. दुनिया को शायद ऐसे ही किसी बहाने की जरूरत थी. ज़ीरो नयी जेनरेशन का पोस्टर बॉय था. दुनिया भर में इस धार्मिक हिंसा से थके हुए लोगों ने ज़ीरो को अपना इश्वर मानना शुरू कर दिया. कुछ दिन तक तो लोगों को लगा कि ये क्षणिक रूझान है, वर्ल्ड कप फीवर की तरह. उतर जाएगा. मगर जब मामला तूल पकड़ने लगा तो कट्टरपंथियों ने ज़ीरो के निर्माताओं की खोज शुरू कर दी. हम दोनों अंडरग्राउंड हो गए. ये ख़त उन्ही दिनों लिखे गए थे. 

हर देश की सरकार ने 'ज़ीरो'की कॉपीज ज़ब्त करने की कोशिश की, लेकिन ज़ीरो वायरल हो गया था और नयी जेनरेशन हथियारों से तौबा कर चुकी थी. 'अहम् ब्रह्मास्मि'की तरह 'आई एम ज़ीरो'एक नारा, एक फलसफा बनता चला गया. मैं और ज़ीरो इसके लिए तैयार नहीं थे. हर नयी कॉमिक स्ट्रिप दुनिया को दो हिस्सों में बांट देती. पुराना और नया. ज़ीरो हेटर्स और ज़ीरो लवर्स. कट्टरपंथी और ज़ीरोपंथी.

फिर एक दिन एक ख़त आया. ज़ीरो का आखिरी ख़त. उसने आत्महत्या कर ली थी.
'व्हाट?'अंकुर जैसे नींद से जागा था. किसी मीठे सपने से. 'बट व्हाई?' 

हम इस दुनिया का हिस्सा होते चले गए थे. एक नया पंथ बनने लगा था. हमने एक काल्पनिक दुनिया बनायी थी. इसके सारे सिरे थामने में बहुत एनर्जी लग जाती थी. हम इतने वोलेटाइल समय में रह रहे थे कि ज़ीरो को कुछ दिन और भी अगर लिखा जाता तो शायद बात हमारे सम्हालने से बाहर हो जाती. हमने ज़ीरो की रचना जब की थी तो एक ऐसी दुनिया की कल्पना की थी जिसमें सेना की जरूरत नहीं रहे क्यूंकि इंसान की ह्त्या का हक किसी को भी नहीं था. उस रोज़ अख़बार में एक ग्रुप की तस्वीर आई थी जिसमें ज़ीरोपंथी वालों ने कट्टरपंथियों को अपने धार्मिक निशान मिटाने को मजबूर कर दिया था. बात यहाँ से शुरू हुयी थी...यहाँ से बात किसी और जंग तक जाती ही जाती.

'फिर?'अंकुर किसी ख्याल में खोया तुम्हारे खतों को उलट पुलट रहा था. 

अचानक से तुमसे वो चीज़ छिन जाए जिसमें तुम्हारी आस्था है...और तुम १५ से २० साल के बच्चे हो तो तुम कैसे रियेक्ट करोगे? दुनिया में चारों ओर खलबली मच गयी. अराजकता. अनुशाशनहीनता. बच्चे पागल हो गए थे. रोने धोने और सुबकने से जब ज़ीरो के वापस आने की कोई राह नहीं मिली तो वे विध्वंसक हो गए. उन्होंने तोड़फोड़ शुरू कर दी. 

बड़ों की दुनिया में हड़कंप मच गया. इस तरह की दिशाहीनता घातक थी. ये एक वैश्विक समस्या थी, हमारा भविष्य खतरे में था और हमारे वर्तमान का कोई हल दिख नहीं रहा था. एक 3 डी कर्फ्यू लागू किया गया जो रियल और वर्चुअल दोनों दुनिया के बाशिंदों पर बाध्य था. हर देश में अनिश्चितकाल के लिए मिलिट्री रूल लागू किया गया. समस्या का हल जल्दी तलाशना जरूरी था. एक सेक्योर हॉटलाइन पर दुनिया के हर देश के लीडर को मेसेज भजे गए और सब दिल्ली में इकट्ठे हुए. उनमें से कई लोग मुझसे बात करना चाहते थे. उन्हें लगता था मेरे पास इसका कोई उपाय होगा...या शायद कोई सही दिशा. मुझे आज भी वो मीटिंग रूम याद है. लगभग २०० लोग थे उसमें. सबके पास लाइव इन्टर्प्रेटर डिवाइस थी ताकि वो मुझे सुन सकें. मेरे पास भविष्य की कोई प्लानिंग नहीं थी...मगर हमारे वर्तमान के लिए जरूरी था कि कहानी कि शुरुआत के सारे एलीमेंट्स उनसे डिस्कस किये जाएँ. वे सब ज़ीरो के बारे में और जानना चाहते थे. मैं उन्हें बता रही थी कि जैसे हमें बचपन से सिखाया जाता है कि हम किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रार्थना कर सकते हैं...हम मज़ार पर भी जाते थे और चर्च में भी, मंदिर में भी हाथ जोड़ते थे और स्तूप में भी. हमारा इश्वर एक भी था और उसके हज़ार रूप भी थे. इन्हीं कुछ बेसिक चीज़ों के हिसाब से हमने किरदार रचे जिनपर किसी एक धर्म का हक नहीं था. मैंने उन्हें अपने इनिशियल स्केचेस दिखाए, अपना आईडिया जितना डिटेल में हो सके डिस्कस किया और बाहर आ गयी.

कई सारे लोगों को लगा था कि ज़ीरो को रचने वाले किसी बड़े संगठन का हिस्सा होंगे जिसकी अपनी फिलोसफी होगी और तरीके होंगे. उनके समाधान में कई विरोधाभास थे...हम कई बार चीज़ों को जबरन पेचीदा करना चाहते हैं जबकि वे होती एकदम सिंपल हैं. लेकिन साथ ही चीज़ों का अत्यंत सरलीकरण भी बुरा होता है. जैसे कि हम ऐसे समाज में रहते हैं जिसके लोगों को किसी वाटरटाइट खांचे में बांटना नामुमकिन था. पर हुआ वही 'डेस्पेरेट टाइम्स कॉल फॉर डेस्पेरेट मेजर्स'. वर्ल्ड आर्डर का नया नियम लागू हुआ...बेहद सख्ती से...दुनिया एक धर्म को मान कर विध्वंस की तरफ जा रही थी. इसका एकदम सिंपल उपाय निकाला गया.

'एक ही धर्म के लोग शादी नहीं कर सकते'. दुनिया के बाकी सारे नियम ख़त्म कर दिए गए थे. बॉर्डर्स ख़त्म कर दिए गए. लोग विश्व नागरिक हो गए थे. इस नियम को दुनिया के सारे दस्तावेजों से मिटाया गया और पूरा पूरा इतिहास फिर से लिखा गया. जैसे कि जीने का तरीका हमेशा से ऐसा ही रहा था. अनगिन भाषाओं में लोग पिछले कई सालों का इतिहास बदलने में लगा दिए गए. इसमें सारे धर्म और धार्मिक चिन्ह, पूजा करने की जगहें, एक दूसरे से मिला दी गयीं, कुछ वैसा ही कि जैसे मैंने और ज़ीरो ने शुरू में लिखी थीं. कई सारी किंवदंतियाँ लिखी गयीं. तुम इसे एक तरह का प्रोपगंडा भी कह सकते हो.
'तो आपका कहना है कि धर्म की सारी हिस्ट्री मैनुफैक्चर्ड है?'
'हाँ'वी आल वांट द कन्वीनियेंट ट्रुथ. हमें आसान सच चाहिए होता है. लोगों को अपनी ज़िन्दगी में कोई खलल नहीं चाहिए था. वे मिलिट्री रूल के तले दबे नहीं रह सकते थे. नियम की बहुत खामियां थीं...लोगों को आइडेंटिटी क्राइसिस होते थे. मनोवैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका सामने आया और उन्होंने लोगों को हर तरह से मदद की. धीरे धीरे सबने इसे एक्सेप्ट कर लिया. सब कुछ ऐसे चलने लगा जैसे कहीं कोई युद्ध कभी हुआ ही नहीं था. तानाशाही में बहुत बल होता है. सरकारें चाहे तो कुछ भी कर सकती हैं. जर्मनी के बारे में तो तुमने पढ़ा ही होगा. कैसे एक पूरा देश जीनोसाइड में इन्वोल्व था और कई बार लोगों को मालूम भी नहीं था कि वे किसी बड़ी मशीनरी का हिस्सा है. अनेक धर्मों में अपनी आइडेंटिटी ढूँढने को ग्लैम्राइज किया गया. और देखो, तुम सोच भी नहीं सकते कि एक ऐसा वक़्त था जब धर्म के लिए लड़ाइयाँ होती थीं. तुम्हारी पीढ़ी के अधिकतर बच्चे कमसे कम तीन धर्म में विश्वास करते हैं'
'तो केओस नाम का कोई इश्वर नहीं था जिसने वृन्दावन में रासलीला की, जिसमें सारे धर्म के अलग अलग इश्वर आये थे? 
'उनका नाम कृष्ण था'
'तो केओस था कौन?'
'केओस इस न्यू वर्ल्ड आर्डर का इश्वर था जिसे हमने रचा था'
'कोई कभी सवाल नहीं करता इन चीज़ों पर?'
'हमें आसान जिंदगी चाहिए अंकुर, ये बहुत मुश्किल सवाल हैं और सच जानकार भी तुम इतिहास को बदल नहीं सकते हो. लोग अभी भी रिसर्च करते हैं कि इसका क्या फायदा हुआ...इन फैक्ट तुम अपनी अकादमी में अभी इन चीज़ों के बारे में जानोगे. तुम्हें मालूम कि आर्मी का क्रेज इतना ज्यादा क्यों है लोगों में?'
'नहीं. क्यों?'
'क्योंकि सिर्फ उनके पास सच है. पूरा का पूरा सच. तुम्हें जब इतिहास पढ़ाया जाएगा तो कोई पन्ने ढके नहीं जायेंगे. पूरा का पूरा कड़वा सच बताया जाएगा तुम्हें. अभी के तुम्हारे क्लासेस के पहले तुम्हें ध्यान करने को कहा जाता होगा. तुम्हारे मेंटल टेस्ट्स भी हुए होंगे...सिर्फ वही लोग जो इस लायक है कि सच का भार वहन कर सकें उन्हें सब कुछ बताया जाता है'
'ये सब इतना मुश्किल क्यों है'
'क्यूंकि तुम्हें चुना गया है. अभी तुम्हारी जगह कोई नार्मल बच्चा होता तो इस सब को सिरे से ख़ारिज कर देता और अपनी उम्र के लोगों से मिलने चला जाता. बैठ कर मेरी चिट्ठियां नहीं पढ़ता. मेरी कहानियों में यकीन नहीं करता'
'मेरे यकीन करने से सच बनता है?'
'हाँ'
'कितने लोगों को बतायी है आपने ये पूरी बात?'
'सिर्फ अपने साइकैट्रिस्ट को'
'साइकैट्रिस्ट?'
'हाँ. पर वो कहता है मैं सिजोफ्रेनिक हूँ. मुझे लोग दिखते हैं जो सच में होते नहीं'
'मेरी तरह?'

या कि जब तुम मुझे दोस्त बुलाते हो. या जान.

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शहरों को पता होता है. चारागर गलियों का पता. शहर की पुरानी हवेलियों में रहते हैं पुराने नीम-हकीम. कि जो ख़तरा-ए-जान होते हैं कि उन्हें रूह का इलाज आता है. उनके लिए नहीं होती है एक ज़िन्दगी की कीमत कि वे टाँके डालते हैं सदियों तड़पती रूह में. उन्हें मालूम होता है कि हिज्र होता है कई जन्मों पुराना भी...के महबूब होता है कई जन्मों से लापता...कि उन्हें आता है उदास आँखें पढ़ने का हुनर इसलिए उनसे डरते हैं किताबों और रिसालों वाले डॉक्टर. 

तुम्हारे शहर की कातिल गलियां ढूंढती हैं मुझे...तुम्हारी धड़कनों का फरेब निकलता है मेरी तलाश में छुरा लेकर. मैं किसी गुमान में जीती हूँ कि तुम्हें मेरे सिवा कोई समझ नहीं सकता. मैं तुम्हारी नब्ज़ पर ऊँगली रख कर गिनाती हूँ तुम्हें तुम्हारे महबूबों का नाम. मैं पढ़ना जानती हूँ तुम्हारी धड़कनों की भाषा. कि मैं तुम्हारी प्रेमिका नहीं...चारागर हूँ. मेरे दोस्त. मेरी जान तुममें बसती है. 

मैं तुमसे पूछना चाहती हूँ इश्क़ के सिम्पटम्स कि बेचैनियों को विस्की फ्लास्क में कैद करना आता है मुझे. मैं बहुत दिन से तलाश रही हूँ इक सिगरेट केस कि जिसमें रखे जा सकें खतों के माइक्रोजीरोक्स. तुम माइक्रो ज़ेरोक्स समझते हो न मेरी जान? इन्ही चिप्पियों से जिंदगी के एक्जाम में चीटिंग की जा सकती है और लाये जा सकते हैं खूब सारे नंबर. तुम्हें क्लास में फर्स्ट आने का बहुत शौक़ था न हमेशा से? मैंने सारे सवालों के जवाब तुम्हारे लिए इकठ्ठा कर दिए हैं. लिखे नहीं हैं...जरूरत ही नहीं पड़ी. तुम्हें इतने लोगों ने ख़त लिखे हैं कि तुम्हें मेरे शब्दों की कोई जरूरत नहीं रही कभी.  

यूँ तुम खुद फ़रिश्ते हो. तुम सा चारागर दूसरा नहीं. मगर जानते तो हो. डॉक्टर्स आर द वर्स्ट पेशेंट्स. तुम खुद का इलाज नहीं कर सकते. तुम्हें चुभती भी तो मासूम चीज़ें हैं. तुम्हारी ऊँगली के पोर में चुभे हैं तितली के पंख. तुम्हारे पांवों में सुबह की ओस. तुम्हारी आँखों में चाँद नदी का पानी. तुम्हारे काँधे पर किसी का जूड़ापिन चुभे तो कोई भी निकाल सकता है, मगर किसी ने पीछे से तुम्हारे काँधे पर हाथ रखा और उसकी खुराफाती उँगलियों की पहली छुवन रह गयी. इसे देखने के लिए जो नज़र चाहिए वो न तुम्हारे पास है न तुम्हारे बाकी किसी डॉक्टर के पास.

मैं जानती हूँ कैसा होता है तुम्हारे इश्क़ में होना. चाँद को गुदगुदी करना. सूरज से ठिठोली करना. समंदर सी प्यास में जीना. आसमान सा इंतज़ार ओढ़ना. सब पता है मुझे. इसलिए मुझे सिर्फ तुम्हारे ठीक हो जाने से मतलब है...कि तुम दुबारा टूट सको. तुम्हारी चारागरी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए मुझे जिंदगी से.
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आखिर में मुझे कुछ पता नहीं होता कि मुझे क्या चुभता है. कि तुम मुझे दोस्त बुलाते हो. या जान.

या कि उसकी कलाई पर सिगरेट से जलाया हुआ तुम्हारा नाम.
या कि व्हीली करते हुए गिरने पर हुए मल्टीप्ल फ्रैक्चर्स
या कि माइग्रेन रात के डेढ़ बजे
या कि रूट कैनाल सर्जरी

या कि जब तुम मुझे दोस्त बुलाते हो. या जान.

दुआओं के पत्थर पर लिखा था जाने किसका तो नाम

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सब कुछ दुआओं का ही था...सुनी, अनसुनी, ठुकराई हुयी...

लड़की खुदा से पूछना चाहती थी कि जिस अजनबी से कभी मिले भी नहीं, उसकी तकलीफें उसे नीम नींद में क्यूँ चुभती हैं. वो अपनी टूटी धड़कनों को किसी उदास नदी में बहा आना चाहती थी मगर उसे नहीं मिलता था कोई आँसुओं का पुल कि जिसके रास्ते वो वापस लौट सके नीली धूप के देश में वापस. उसके गीले कपड़ों में रहने लगी थीं बहुत सी चिड़ियाएं कि जिनकी चहचाहट से लड़के की नींद खुलती थी. 

उन दोनों के बीच दुआओं के पुल थे...वे अपने अपने छोर से देखते रहना चाहते एक दूसरे को लेकिन पुल के बीच होती रहती बारिशें और उनके हिस्से एक दूसरे की भीगी, उदास आँखें ही आतीं.

वो थक कर बैठना चाहते मगर चैन के पत्थर पर लिखा होता जाने किसका नाम. वे चाहते कि हज़ारों फीट गहरी नदी में छलांग लगा दें और एक साथ ही मर जाएँ. फिर शायद खुदा या शैतान के मोहल्ले में उन्हें अलॉट हो आमने सामने के मकान. उनके इर्द गिर्द दुनिया का कितना कारोबार चलता रहता लेकिन वे एक दूसरे को अपने ख्यालों में बेहद करीब रखते. लड़की अपनी चूड़ियों में बांध रखती उसकी आँखों का रंग तो लड़का अपनी शर्ट की पॉकेट में रखता लड़की की चोटियों से खुला हुआ रिबन. 

उन्हें कुछ जोड़ नहीं सकता था इसलिए वे सिगरेट पिया करते थे बेतरतीब...बेहिसाब...कि जब भी पुल के इस छोर पर लड़की के लाइटर की लौ लपकती, लड़का उस लम्हे एकदम साफ़ देख पाता उसका चेहरा...और जैसे ही लड़का जलाता लाइटर, लड़की जान जाती कि उसने आज कौन सा परफ्यूम लगाया है. वे देर तक अपनी उँगलियों में फंसी सिगरेट देखते रहते और उस दिन की कल्पना करते जब फायर ब्रिगेड वाले पुल की आग बुझा देंगे...वे टूटे हुए पुल के अपने अपने छोर से कूदेंगे...बीच हवा में भरेंगे एक दूसरे को बांहों में और फिर गिरते जायेंगे तेज़ी से...गहरी नदी के नीले पानी की ओर...साथ.

इश्क़ तिलिस्म

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'आप गज़ब हैं मैडम जी. भोरे भोर कोई ओल्ड मौंक खोजता है का? अभी तो ठेका खुलबे नै किया होगा नै तो हम ला देते आपके लिए.'
'अरे न बाबू, क्या कहें. पीने का नहीं, चखने का मन हो रहा है. जुबान पर घुलता है उसका स्वाद. किसी पुरानी मीठी याद की तरह. एक ठो दोस्त हुआ करता था मेरा. बहुत साल पहले की बात है. बुलेट चलता था. तुम कभी मोटरसाइकिल चलाये हो?
'हाँ मैडम जी, राजदूत था हमरे बाबूजी के पास'
'अरे वाह. हम भी राजदूत ही चलाना सीखे थे पहली बार...तो रिजर्व का तो फंडा पता ही होगा तुमको.'
'हाँ मैडम जी, पेट्रोल ख़त्म होने पर भी जरा सा एक्स्ट्रा टंकी में जो रहता है...वोही न'
'हाँ हाँ...वोही...तो ऊ दोस्त हमरा रिजर्व में रहता था...माने...बहुत गम हो रहा...दिल टूटा हुआ है...किसी से बतियाने का मन कर रहा है...वैसेही...उसके लिए इश्क़ बॉर्डरलाइन पर हुआ करता था. हम ज़ब्त करके रखते थे खुद को...सब से इश्क़ ही हो जाएगा तो रोयेंगे कहाँ जा कर?'
'ऊ तो बात है...लेकिन आपका लड़की लोगन से कहियो दोस्ती नै था क्या?'
'उहूँ...लड़की लोग बहुत फीकी होती है...पनछेछर...बूझते हो न...हमसे बात करने में माथा ख़राब हो जाता है सबका...किसी को गुस्से में हरामी बोल दिए तो बस मुंह फुला के बैठ गयी. लड़का लोग बेहतर है न...और वैसे भी चूँकि हम लड़की हैं तो माँ...बहन का गाली हमको लगता नहीं है न...बुझे न...'
'गाली देना तो बहुत मुस्किल है मैडम जी...हमरी पिछली गर्लफ्रेंड हमको एही गाली के चलते छोड़ कर चली गयी थी...एक दिन साला गुस्से में उसके बाबूजी को कुछ बोल दिए थे'
'सब का अपना अपना कमजोरी होता है बाबू, हमरा भी था.'
'अच्छा आपको भी कौनो चीज़ का चस्का लगा था का मैडम जी?'
'अरे. गज़ब चस्का था. दिन रात खुमार में बीतता था. अब तो हम सुधर गए हैं. नै तो हमपर भी चढ़ता था नशा. कि ओह.'
'कौंची का आदत था मैडम जी?'
'अरे बाबू, इशक...का...इश्क का...इश्श्श्श्क ...आह वे दिन...वो लोग...वो जुबान पे चाशनी सा नाम उनका...शहज़ादे...'
'कहाँ के शहज़ादे थे हुज़ूर?'
'इश्क़ तिलिस्म के'
'हम तो कभी नाम नै सुने इसका'
'था एक तिलिस्म बाबू...हमने भी अपने तिलिस्म में कई शहज़ादे बंद करके रखे थे.'
'कहाँ मैडम जी...दरभंगा इस्टेट में का?'
'धत पगले, सब तिलिस्म ईट पत्थर का नहीं बना होता है...एक तिलिस्म रूह का भी होता है.'
'कभी कभी आपका बात हमको एकदम्मे नै समझ में आता है मैडम जी. ई रूह माने आत्मा ही ना...रूह का कैसन तिलिस्म होता है?'
'का बताएं बाबू...कैसन तिलिस्म होता था...अब तो सब बात ख़तम हो गया है...हम अपना खाली दिल लिए दुनियादारी में झोंक दिए खुद को. एक ज़माने में इश्क़ तिलिस्म हुआ करता था.'
'और कुछ बताइये न मैडम जी तिलिस्म के बारे में'
'तिस्लिम...हाँ...रूह का तिलिस्म था. देखो, कुछ लोगों के लिए इस दुनिया का इश्क़ काफी नहीं पड़ता...उन्हें इश्क़ और गहरा चाहिए होता है...इश्क के कई रंग होते हैं...गुलाबी से शुरू होते हुए गहरा नीला...तुमने आग की लौ देखी है न...वैसे ही होता जाता है इश्क...सबसे ऊंचाई पर पहुँचता है तो गहरा नीला हो जाता है. खुदा कुछ ख़ास लोगों को चुनता है ऐसे इश्क़ के लिए. उनका सुख और दुःख रूह तक पहुँचता है. सब लोग इस इश्क़ को बर्दाश्त नहीं कर पाते कि ये इश्क़ जब टूटता है तो रूह का एक हिस्सा हमेशा के लिए लापता हो जाता है. मैंने इस इस इश्क़ के इर्द गिर्द सीमा रेखा बना दी...कि ऐसे टूटे हुए लोग यूं भी दुनिया के लिए गुम चुके होते हैं. ये मेरी सल्तनत थी...जिसका नाम था 'इश्क़ तिलिस्म'.
'सच में था, ऐसा जगह कहीं पर?'
'हाँ. पता नहीं ये कौन दीवाने थे जिन्होंने मेरी आँखों में इस तिलिस्म का रास्ता देख लिया था...वे इश्क़ में डूबते तो बस बाशिंदे हो जाते तिलिस्म के...तिलिस्म सबकी रूहों के हिस्से से बनता जाता था और खूबसूरत...खुशरंग...और मायावी.'
'फिर तिलिस्म टूटा कैसे?'
'तिलिस्म में एक शहज़ादा था...मेरा सबसे फेवरिट...मुंहलगा एकदम...शेरो शायरी का शौक़ था हम दोनों को...एक दिन फैज़ का शेर सुनाते हुए कहता है, "और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा"...हम शेर का बाकी हिस्सा सुनाये उसको, "मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग"...तो बोलता है पहली सी मुहब्बत नहीं चाहिए...चाबी चाहिए...हमको तिलिस्म का चाबी दे दो...हम ई दिन रात यहाँ तुमरे तिलिस्म में बंधे बंधे नहीं बिता सकते हैं...हमरा दम घुटता है. हम बाहर भी हवा खाने जायेंगे...बाकी लड़की लोग को भी ताड़ेंगे...'
'फिर? नहीं दिए न चाभी उसको...गज़ब बोका नियन बोल रहा था...ई कोई शेयर्ड अपार्टमेंट थोड़े है कि सब्बे को एक एक ठो चाबी चाहिए'
'नहीं बाबू...दे दिए उसको चाबी...बहुत प्यारा था हमको...उसका एक्को बात टाल नै सकते थे हम'
'ऊ लौट के नहीं आया न?'
'अरे नहीं. लौट के नहीं आता तो ठीक था. वो महीनों, सालों गायब रहता...उसके इंतज़ार में तिलिस्म पर उदासी का मौसम गहराने लगता. तिलिस्म के बाशिंदे आत्महत्या करना चाहते. हर कुछ दिनों में कोई कलाई काट के मर जाता. कोई नदी में कूद कर जान दे देता'
'अरे बाबा रे...खतरनाक ही था एकदम'
'हाँ रे बाबू...मगर शहज़ादे को कोई फर्क नहीं पड़ता...वो सालों बाद भी ऐसे लौटता जैसे सारी सल्तनत उसकी ही है...और होती भी. वो पांच मिनट भी रुकता तो तिलिस्म में रहमतों की बारिश होती. सारे ज़ख्म भर जाते.'
'और कुछ बताइए न मैडम जी...कैसा दिखता था शहज़ादा?'
'सांवला सा था. सुनहली आँखें. लम्बा. छरहरा. उम्र जैसे उस तक आ कर ठहर गयी थी. लम्बे काँधे तक के हल्के घुंघराले बाल. उसके मुस्कुरा भर देने से दुआओं की नदी लबालब भर जाती थी. सारी बुरी आदतें भरी थीं उसमें. चेन स्मोकर था और शौकिया बीड़ी पीता था...जहन्नुम के आर्किटेक्चर पर काम कर रहा था. गज़ब प्यास का बना था वो. उसकी बांहों में होती थी तो और कुछ नहीं याद रहता. जिस्म से सांस. रूह से इश्क. दिल से सारे पुराने आशिकों के नाम. सब गुमशुदा हो जाते थे. डिस्क फॉर्मेट हो जाती थी पूरी की पूरी'
'फिर?'
'फिर. उससे मिलना जितना खूबसूरत था उसके जाने के बाद का खालीपन उतना ही खूंख्वार. उसके जाने के बाद इश्क़ तिलिस्म में बेतरतीब लोग भरते चले जाते. मैं इस बात का भी ख्याल रखना भूल जाती कि तिलिस्म में भटकते लोगों का कोई और ठौर नहीं है. मेरे मूड के हिसाब से वहां का माहौल बदलता...कभी वीराना...कभी रेगिस्तान...कभी समंदर. तिलिस्म के बाशिंदे कितना भी खुद को ढालने की कोशिश करते पर उन्हें करार नहीं आता. हम एक व्यूह का हिस्सा होते जा रहे थे...जहाँ से वापस लौटना हमें नहीं आता था'
'आप बचाने का कोसिस नै किये तिलिस्म को?'
'रूह का धागा यूं तो बहुत मज़बूत होता है लेकिन उसकी भी सीमा होती है. इश्क़ तिलिस्म की सबसे खूबसूरत बात थी कि यहाँ वक़्त ठहर गया था. हम अपने सबसे खूबसूरत लम्हों को बार बार जी सकते थे. दोहराव भी जानलेवा हो सकता है मुझे ये बात पहली सुसाइड से ही समझ लेनी चाहिए थी. मगर उसी दिन शहज़ादा लौटा था तिलिस्म में तो मैं सब छोड़ कर उसके पास भागती चली गयी थी. फिर साल दर साल मौतें होती रहीं और मैं उनसे कतरा के निकलती रही...डर इतना ज्यादा बढ़ गया था कि हिम्मत ही नहीं होती कि आंकड़ों को देखना कहाँ से शुरू करूँ. अपनी पसंदीदा यादों को लूप पर चलाते हुए लोग पागल होने लगे थे. इस पागलपन में उन्हें जिंदगी और मौत का अंतर समझ नहीं आने लगा था. मुझे उन दिनों जिंदगी का कोई मकसद नहीं दिखता था...जिस रोज़ मेरी रूह ने पहली बार मौत को छू लेने की ख्वाहिश की, मौत को तिलिस्म में आने को हलकी दरार मिल गयी...बस फिर उसने दबे पाँव अपना सम्मोहन फैलाया और तिलिस्म के सारे बाशिंदे दुआओं की नदी में डूब गए...मैंने उनमें से हर एक की लाश को खुद बाहर निकाला. उनकी कब्रें खोदीं...चिताएं जलायीं...और देर तक मौत की गंध में डूबी बैठी रही. तिलिस्म अब जानलेवा हो गया था. मैंने सोचा कि ताला बदल दूं मगर फिर जाने क्यों शहज़ादे का ख्याल आ गया..तो बस एक ख़त लिख कर रख दिया...फिर लौट कर इतने सालों में नहीं गयी हूँ'
'शहज़ादा लौटा क्या?'
'मालूम नहीं...एक बीड़ी पिलाओगे?'
'आप बीड़ी भी पीती हैं मैडम जी?'
'नहीं बाबू...शहज़ादे की एक यही चीज़ बाकी रह गयी है...उसके तो नहीं हो सके...बीड़ी के हो के रह गए हैं'.
'बस इतना.'
'बस इतना.' 
'देखो कहानी कहानी में बहुत वक़्त निकल गया. ठेका से एक ठो ओल्ड मौंक ला दो.'
'आप गज़ब हैं मैडम जी...ओल्ड मौंक, बीड़ी...आपको देखकर हरगिज़ नै लगता है कि आपको ई सब भी शौख होगा...अपने ऊ दोस्त को फोन कर लीजिये'
'अभी नहीं. चार पैग के बाद. कोक भी लेते आना साथ में'
'मैडम जी, चार पैग तो हो गए...अब?'
'एक और बना दो'
'ओके मैडम जी'
'क्या हुआ...ग्लास अब तक भरा क्यूँ नहीं?'
'भरा तो है मैडम जी...आइस भी डाली है...'
'नहीं बाबू...ग्लास खाली है...बीड़ी भी ख़त्म हो गयी...तुमको खम्बा लाने बोले थे न ओल्ड मौंक का...ये पव्वा काहे लेकर आये हो?'
'मैडम जी...आप काहे गुस्सा हो रही है....पूरा पैग बना दिए...और पव्वा कहाँ है...खम्बा ही तो है ओल्ड मौंक का...और ये दो ठो बण्डल रखा है न बीड़ी का...क्या हो गया मैडम जी?'
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दोपहर की कड़ी धूप का रंग बदलने लगा था...बुलेट की आवाज़ दिल की धड़कनों पर हावी हो रही थी. दोस्त ने आज किस जनम का बदला लिया था मालूम नहीं जो अपने साथ शहज़ादे को उठा लाया था बुलेट पर. सारी ओल्ड मौंक उतर गयी कमबख्तों को देख कर. शहज़ादे की मुस्कराहट से तिलिस्म ज़िंदा होने लगा था. मैंने शहज़ादे को झुक कर सलाम किया, बीड़ी का आखिरी गहरा कश मारा...हाई हील की सैंडिल तले चिंगारी बुझाई और एक उदास आखिरी लाइन कही उनसे 'गुस्ताखी माफ़ हो शहज़ादे' . दोस्त के साथ बुलेट पर बैठी...काँधे पर हाथ रखा, चुपके से उसके कान में कहा...'जान, मुझे यहाँ से दूर ले चलो...बहुत बहुत बहुत दूर'. बुलेट की पिकअप के दीवाने यूं ही नहीं थे हम. एक्सीलेरेटर पर उसका हाथ घूमा. उसने जोर का ठहाका मारा...जिसमें मेरी हँसने की आवाज़ मिलती गयी...हमारी साझी हँसी बुलेट की आवाज़ से भी ज्यादा ऊंची थी.

उस दिन इश्क़ तिलिस्म बस बंद हुआ था. ख़त्म आज होता है.

मुराकामी, मोने और जरा मनमर्जियाँ

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मेरे गूगल मैप्स में एक दिन की हिस्ट्री उभर आई. मेरी करेंट लोकेशन से तुम तक पहुँचने में बहुत से देश...बहुत सा समंदर...बहुत से रास्ते लांघने पड़ते...गूगल कह रहा था...नो डायरेक्ट रूट फाउंड...सही ही तो है न. तुम तक पहुँचने का कोई सीधा रास्ता तो है नहीं.
बहुत से दुःख. बहुत सी उलझन. बहुत सी खुशफहमियों को छू कर गुज़रता है तुम तक पहुँचने का रास्ता. इसमें अवसाद के नीले दिन भी आते हैं...चुप्पी की गहरी खाई भी आती है...नमक भरा आँसुओं का समंदर भी आता है...हिचकियों के ऊंचे पहाड़ भी आते हैं...मगर बात है कि इन सब हादसों से गुज़र कर भी तुम्हारे पास जाने का कोई पक्का रास्ता मिलता नहीं. सोचना ये भी है न कि तुमसे मिल ही लेंगे...फिर? 
हर बार वही इंतज़ार के इंधन को जमा करते रहेंगे...जब बहुत सा इंतज़ार हो जाएगा...इतना कि तुम तक पहुंचा जा सके...फिर तुम्हारे शहर आने का रास्ता तलाशेंगे...
गूगल फिर कहेगा...नो डायरेक्ट रूट फाउंड. इस बार हम गूगल की बात मान लेंगे और तुम्हें तलाशने की इस हिस्ट्री को हमेशा के लिए डिलीट कर देंगे.
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मैंने एक मुराकामी की नावेल पढ़ी. फिर. मुराकामी आजकल मेरे पसंदीदा लेखक हैं. किताब का नाम है स्पुतनिक स्वीटहार्ट. इसमें एक लड़का है जो एक दिन एक लड़की को अपना घर शिफ्ट करने में मदद करता है. लड़का एक स्कूल में टीचर है. बच्चों को पढ़ाता है. लड़की उसे अक्सर रात बेरात फोन करती है. वो उनींदा बात करता है उससे, लड़की कहती है कि वो जानती है कि उसकी बातों का कोई सर पैर नहीं है...मगर लड़के को एक बार उस लड़के के हिस्से का भी सोचना चाहिए...वो इतनी देर रात नींद और ठंढ में चल कर इस फोन बूथ तक आई है...और सिक्के वाले इस फोन बूथ से उसे फोन कर रही है...लड़के का भी कोई फ़र्ज़ है उसकी बातें सुने. लड़का उसकी सारी बातें सुनता रहता है. कितने कितने दिन. इस पूरी दुनिया में एक उस लड़की के साथ ही उसे नजदीकी महसूस होती है. इक रोज उसे अचानक से पता चलता है कि लड़की गुम हो गयी है, 'डिसअपीयर्ड इन थिन एयर'. वो उस ग्रीक द्वीप पर जाता है जहां से वह गायब हुयी है. उसका कोई पता नहीं चलता. वो जानता है कि लड़की मरी नहीं है कहीं...उसे कैसे तो लगता है वो किसी अँधेरे कुँए में गिर गयी है. पुलिस और डिटेक्टिव लगे होते हैं मगर उसका कोई पता नहीं चलता. लड़का जानता है कि लड़की किसी दूसरी दुनिया में चली गयी है. जैसे आईने के दूसरी तरफ वाली. उसे इंतज़ार रहता है कि लड़की फोन करेगी. 

फोन की घंटी बजती है. लड़की उससे कह रही है, 'सुनो तुम्हें मुझे यहाँ आ कर मुझे यहाँ से ले जाना होगा...मैं एक फोन बूथ में हूँ जो मालूम नहीं किधर है...मगर तुम यहाँ आ कर मुझे ले जाना...अच्छा मैं फोन रख रही हूँ, मेरे पास सिक्के ख़त्म हो रहे हैं'.
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मुराकामी की दूसरी नावेल, नार्वेजियन वुड भी ऐसे ही कहीं ख़त्म होती है. मुझे दोनों बार ये किरदार बड़े अपने से लगे हैं. बड़े तुम्हारे से भी. तुमने अगर मुराकामी को नहीं पढ़ा है तो तुम्हें जरूर पढ़ना चाहिए. मेरा मुराकामी को ट्रांसलेट करने का भी मन कर रहा है. हिंदी में. इतनी खूबसूरत चीज़ें अपनी भाषा में नहीं होंगी तो भाषा गरीब ही रहेगी.
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आजकल मेरे दिन बहुत उलझन भरे बीत रहे हैं. इतना सारा कुछ हो जा रहा है लिखने को और फुरसत धेले भर की भी नहीं है. इसी चक्कर में सच और कल्पना का घालमेल हो जाता है. मुझे ध्यान नहीं रहता कि कितनी बातें सच में हुयी हैं और कितनी बातें सोची हुयी भर हैं.
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मैं एटलांटा में म्यूजियम गयी थी. वहां मैंने मोने(Monet) की पेंटिंग देखी. यूं इसके पहले भी मैंने मोने को देखा है मगर या तो मैं किसी और मूड में रही होउंगी कि ध्यान नहीं गया. हम कभी कभी एक खास मूड में होते हैं कि जब आर्टिस्ट को देख कर हैरत से भर जाते हैं. रेजोनेंस होता है...कि हम भी वही कुछ सोच रहे होते हैं कि जो आर्टिस्ट सोच रहा होता होगा. मोने की पेंटिंग में एक कोहरे में डूबी बिल्डिंग है. इस एक्जिबिट में पेटिंग के आगे शीशे की परत नहीं लगाई गयी थी कि जैसा अक्सर बाकी पेंटिंग्स में होता है. पेंटिंग की अपनी एनेर्जी होती है. अपना औरा. कि जो इस पेंटिंग में था. मैं बहुत देर तक उस पेंटिंग के सामने खड़ी उसे एक्टुक देखती रही. गुलाबी, बैगनी और लैवेंडर रंग की पेंटिंग इतनी जीवंत थी कि वाकई लगता था कोहरे के पीछे की बिल्डिंग दिख रही है. कोहरे की परतें थीं...और जैसे सब कुछ चलायमान था...वो पेटिंग न केवल जीवंत थी बल्कि मुखर भी थी...उसे देखते हुए मेरी आँखें भर आई थीं. कि दुनिया में कितनी खूबसूरती है. और कि हम कहाँ जा रहे हैं ऐसे भाग भाग के. उसके ठीक बगल में एक और पेंटिंग थी जिसमें वसंत ऋतु के पेड़ एक झील में रिफ्लेक्ट होते हैं...हरा, सुनहला, पीला गुलाबी...कई रंग थे. ये पेंटिंग मोने ने अपने नाव से बनायी थी. उसने एक नाव को स्टूडियो में कन्वर्ट कर दिया था. उस मौसम, उस धूप को मोने ने हमेशा के लिए पेंटिंग में कैप्चर कर दिया था.

आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. उनका लिखा कहीं हमारे मर्म को छूता है. it touches a raw nerve. कुछ टहकता है अन्दर. इसलिए महान आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. कर्ट कोबेन को पहली बार डिस्कवर किया था तो ऐसे ही लगा था कि जैसे रूह तक पहुँच रही हो उसकी आवाज़. मोने को देखती हूँ तो यूं ही उसके पेंटब्रश के स्ट्रोक्स...इतना रियल है सब...इतना सच. मैं आभासी दुनिया में कैद थी और जैसे अचानक ही इस दुनिया में पहुँच गयी हूँ जहाँ रंग ऐसे कच्चे हैं कि उँगलियों में लगे रह जाते हैं. 

किसी पेंटिंग की फोटो देखने और असल पेंटिंग देखने में कितना अंतर होता है ये भी पहली बार महसूस किया. कि कला को उसके असल रूप में देखने की जरूरत होती है. हम जो कॉन्सर्ट या ओपेरा की रिकोर्डिंग सुनते हैं और जो असल में लाइव ओपेरा होता है उसमें ज़मीन आसमान का अंतर होता है. मैंने पहली बार जब वियेना में ओपेरा सुना था तो इसी तरह सीने में अटका कुछ महसूस हुआ था. रूह को छूने वाला कुछ. 

और फिर मुझे लगता है कि इस दौर में शायद लोग आभासी के पीछे रियल का अनुभव भूलते जा रहे हैं. कितने लोग पेंटिंग्स देखना चाहते हैं. मेरे कुछ दोस्त अभी भी चकित होते हैं कि मुझे म्यूजियम में क्या देखना होता है. कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें पेंटिंग समझ नहीं आती है. मुझे भी पहले पेंटिंग समझ नहीं आती थी. लगता था कि क्या है कि लोग जान दिए रहते हैं पेंटिंग को लेकर. अब पहली बार महसूस किया है. ऐसी चीज़ जादू ही होती है. उसमें कैद एक लम्हा फॉरएवर के लिए वैसा ही रहेगा. हमेशा. तुम जब भी उस पेंटिंग के पास खड़े होगे तुम उस शहर, उस मौसम, उस फीलिंग तक पहुँच जाओगे. पहली बार महसूस हुआ कि काश मोने की एक पेंटिंग खरीद सकने लायक पैसे होते तो मैं भी एक पेंटिंग अपने घर में रखती. छोटी सी ही सही. मगर ऐसा जादू कि उफ़. 

विन्सेंट वैन गौग की आत्मकथा, लस्ट फॉर लाइफ एक जगह विन्सेंट करुणा से कहता है, 'कितनी दुःख की बात है कि गरीब आदमी के पास कला के लिए पैसे नहीं है. वो एक टुकड़ा कैनवस भी अपने घर पर नहीं रख सकता. उसे कला की सही समझ है. उसे पेंटिंग के भाव समझ आयेंगे. मगर अमीर आदमी कला खरीद सकता है जबकि उसे कला की कुछ भी समझ नहीं है और वह सिर्फ नाम के लिए ख्यात पेंटिंग्स खरीदता है कि अपने ड्राइंग रूम में टांग दे और अपने दोस्तों के सामने कह सके, ये पेंटिंग में इतने पैसों में खरीदी है.'.

मैंने शायद बहुत किताबें नहीं पढ़ी हैं. अपनी किताब को लेकर अभी भी संशय में रहती हूँ जब कि छपने के पांच महीने में 'तीन रोज़ इश्क़'का पहला एडिशन सोल्ड आउट हो गया, बिना किसी अतिरिक्त प्रचार प्रसार के...मुझे समझ नहीं आता कि मैं लोगों से क्या बात करूंगी. मैं किसी महान आर्टिस्ट के बारे में बात भी करूंगी तो उसकी टेक्निक या उसकी खासियत के बारे में नहीं...बल्कि उसे देखकर मुझे जो महसूस होता है उसके बारे में बात करूंगी. मुझे बहुत सी चीज़ें समझ नहीं आतीं. मॉडर्न आर्ट तो कई बार वाकई बदसूरत होता है. जैसे एटलांटा में एक एक्जीबिशन था फैशन पर. वहां एकक एक ड्रेस के पीछे आधे आधे घंटे की फिलोसफी थी. और ड्रेस न दिखने में खूबसूरत, न पहनने में प्रैक्टिकल. डिजाईन या फिर विसुअल आर्ट्स के बारे में मेरा मानना ये है कि डिजाईन को एक्प्लेनेशन की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए. अगर पढ़ कर समझना पड़े तो वो मेरे हिसाब की चीज़ नहीं.
कला भी इश्क़ जैसी होती है. यहाँ कोई चीज़ रूह तक पहुँचती है. लम्हे भर में और ताउम्र गिरफ्त में लेती है. यहाँ लॉजिक काम नहीं करता कि आको ये आर्टिस्ट पसंद आना चाहिए. मुझे पिकासो की पेंटिंग कमाल लगी थी. बेसिरपैर, लेकिन कमाल. उसके सिम्बोलिज्म को पढ़ कर उसको समझने से पहले भी पेंटिंग में कुछ था जो अपनी ओर खींचता था.
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और फिर जानती हूँ कि वोंग कार वाई को एक बार मिलने की ख्वाहिश कितनी जरूरी है. अंगकोर वात जाना क्यों रूह के लिए है...दिमाग और लॉजिक के लिए नहीं.
और इतना भी कि कहना किसी को...मैं एक बार आपकी उँगलियाँ चूमना चाहती हूँ...जिंदगी का एक मकसद कैसे हो सकता है. क्यूंकि कला समझने की नहीं, महसूसने की चीज़ है.
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लिखते हुए शिकागो में दिन उग आया है. कमरे की खिड़की से बेतरह खूबसूरत सुबह दिख रही है. आज मोने को देखने जाउंगी शिकागो म्यूजियम में. आज कुछ तसवीरें. मेरी आँखों से ऐसी दिखती है दुनिया.


हमारी एक ही रकीब है...मौत

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'ब्रितानी साम्राज्य के बारे में तो पढ़े हो ना बाबू, कि ब्रितानी साम्राज्य में कभी सूरज डूबता ही नहीं था...वैसा ही है हमारे शहज़ादे की सल्तनत...दिन या रात का कोई भी लम्हा ले लो...दुनिया के किसी छोर पर उनके सल्तनत का कोई बाशिंदा, उनके इश्क में गिरफ्तार...उनकी याद में शब्दों के बिरवे रोप रहा होगा...'
'ये आपको कैसे पता मैडम जी?'
'अरे मत पूछो बाबू...बहुत झोल है इस कारोबार में...हम पहले जानते तो ये इश्क की दुकानी न करते...खेत में हल चला लेते, छेनी हथौड़ी उठा लोहार बन जाते...आटा चक्की भी चला लेना इससे बेहतर है...ये इश्क मुहब्बत के कारोबार में घाटा ही घाटा है...आज तक कभी धेले भर कि कमाई भी नहीं हुयी है. दुनिया भर में रकीब भरे हुए हैं सो अलग.'
'जो मान लो आपको धोखा हुआ हो तो?'
'ना रे बाबू...ई रूह की इकाई है...इसके नाप में कोई घपला नहीं है. रकीबों के कविता में मीटर होता है न...मीटर समझते हो?'
'वही जो ग़ज़ल में होता है...वैसा ही कुछ न?'
'हाँ बाबु...वही...तो जब भी हमारा कोई रकीब कविता लिखता है...तो हमारा दिल उसी मीटर से धड़कने लगता है...१-२-१-२ या कभी छोटी बहर हुयी तो बस २-२ २-२.'
'छोटी बहर?'
'मुन्नी बेगम को सुना है?
अहले दैरो हरम रह गये | तेरे दीवाने कम रह गए
बेतकल्लुफ वो गैरों से हैं | नाज़ उठाने को हम रह गए'
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उस दिन के पहले कभी उन्हें गाते नहीं सुना था. तेरह चाँद की रात थी. मैडम जी कहती थीं कि तेरह नंबर बार बार उनकी जिंदगी में लौट कर आता है. चाँद को पूरा होने में कुछ दिन बाकी थे. उनके गाने में उदासी भरी खनक थी. जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाले लोग खुल कर उदास भी कहाँ हो पाते हैं. मैं सोचता था कि मैडम जी के कैलेण्डर में अमावस्या कभी आती भी होगी कि नहीं. उनकी हँसी में इक जरा सी फीकी उदासी का शेड हुआ करता था और उनकी गहरी उदासी में भी मुस्कुराहटों का नाईट बल्ब जलता था...ज़ीरो वाट का...उससे रौशनी नहीं आती...रौशनी का अहसास होता है.

मैडम जी बहुत खुले दिल की हैं. उनके सारे मातहत बहुत खुश रहते हैं. यूं समझ लो, लौटरी ही निकलती है उनके साथ काम करने की...कभी किसी से ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं की है. पूरे डिपार्टमेंट में किसी ने उन्हें चिल्लाते नहीं सुना है. अभी पिछले साल फिर से उन्हें जिले को बेस्ट एडमिनिस्ट्रेटेड डिस्ट्रिक्ट का अवार्ड मिला है. इतनी कम उम्र में, औरत हो कर भी ऐसा मुकाम कि बड़े बड़े सोचते रह जायें. जिस इलाके में जाती हैं लोग उनके कायल हो जाते हैं. हर जगह फब जाती हैं...हर जगह घुल जाती हैं. हमारी मैडम जी, क्या बताएं शक्कर ही हैं...मीठी एकदम. उनके रहते किसी चीज़ की चिंता की जरूरत नहीं. अभी पिछले महीने बेटे के कॉलेज की फीस देनी थी...जब जगह से इंतज़ाम करने के बाद भी दस हज़ार रुपये कम पड़ रहे थे. आखिरी दिन था. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. बेखयाली में सुबह से काम गलत सलत हुए जा रहे थे. कभी फाइल में गड़बड़ कर देता कभी लंचबौक्स किसी और जगह भूल आता. मैडम जी ने खाना खाने के बाद बुलाया और खुद पूछा कि बात क्या है. पैसों का सुन कर थोड़ा सा हँसी...मगर ये मज़ाक उड़ाने वाली हँसी नहीं थी कि चुभ जाती...ये बचपने वाली हँसी थी...जैसे बचपन में माँ को हँसते हुए सुना था कभी कभी.

'तुम गज़ब बकलोल हो रे...दुनिया में इतना बड़ा बड़ा आफत सब है और तुम ई जरा सा दस हज़ार से लिए सुबह से बौरा रहे हो...इस मुसीबत का तो सबसे आसान उपाय है न. पैसे दे देंगे तो कोई दिक्कत नहीं होगी ना? हमको जब बेमौसम ताड़ का कोआ खाने का मन होता है तो तुमको मालूम होता है न कि कौन जगह जा के मिलेगा जाते सीजन में...हम बोलते हैं तुमको तो ला के देते हो कि नहीं? तो तुमको कुछ चाहिए तो हम हैं न तुम्हारे लिए. तुमको का लगता है जी...खाली सैलरी के लिए तुम काम करते हो कि हमारे लिए काम करते हो?'

एक बार जो मैडम जी के साथ काम कर लिया हो उसका फिर किसी के साथ काम करना मुश्किल ही होता था. डिपार्टमेंट के बाकी बाबूसाहब लोग बंधुआ मजदूर की तरह ट्रीट करते थे. हमारा भी जी है ऐसा कहाँ सोचा होगा कोई. उनके लिए तो बस अर्दली हैं हम. उनके हिसाब से सोना-जागना-खाना-पीना सब. यही सब काम हम मैडम जी के लिए भी करते थे लेकिन प्यार का दो बोल में बहुत अंतर हो जाता है. सरकार सैलरी देती थी लेकिन हमारे लिए तो सरकार मैडम जी ही...और कोई सरकार हम कभी जाने नहीं.

एक दिन ऐसे ही इवनिंग कॉलेज के फॉर्म्स ले आयीं कि तुम एडमिशन ले लो. पढ़ाई में हम तुम्हारा हेल्प कर देंगे. बारवीं पास के लिए दुनिया बहुत छोटी है. ग्रेजुएट हो जाओगे तो बहुत दूर तक जा सकोगे. होशियार तो तुम बहुत हो, हमको दिखता है साफ़. जिन्दगी भर यही चौथी ग्रेड का काम थोड़े करोगे...कल को शादी होगा...बच्चे होंगे...जरा आगे बढ़ जाओगे तो समाज में इज्जत बढ़ेगा, उसपर लड़की अच्छी मिलेगी सो अलग. हमको उस समय तो पढ़ना आफत ही लग रहा था...लेकिन मैडम जी कभी दिक्कत होने नहीं दीं. मेरा क्लास शुरू होते ही खुद से ड्राइव करके घर जाने लगी थीं. डिपार्टमेंट में बहुत बार लोग दबे मुंह बोला भी कि रात बेरात समय ठीक नहीं है...कोई दुर्घटना हो गया तो कौन जिम्मेदारी लेगा. मैडम जी को लेकिन मुंह पर बोलने का हिम्मत तो दुनिया में किसी को था नहीं. मैडम जी अपने लिए एक लाइसेंसी रिवोल्वर खरीद लायीं. रात को प्रैक्टिस करतीं तो पूरा मोहल्ला गूंजा करता. बड़े बाबू एक बार मैडम को समझा रहे थे कि अकेले रात को ड्राइव करना सुरक्षित नहीं है अकेली औरत के लिए. मैडम जी बोलीं कुछ नहीं. रिवोल्वर निकाल कर डेस्क पर रख दिहिस कि ई हम्मर पार्टनर है...'कोल्ट...सिंगल एक्शन आर्मी', इससे ज्यादा केपेबल कोई आदमी है आपके पास तो बतलाइये...हम उसको साथ लेकर चला करेंगे. अब जेम्स बौंड ही आ जाए लड़ने तो पहले शायद उसको घर बिठा के ग़ज़ल सुनवाना पड़ेगा...लेकिन उसके अलावा हम सब कुछ हैंडल कर सकते हैं'.

मैडम जी में खाली टशन नहीं था. मर्द का कलेजा था उनका. बिना आवाज़ ऊंची किये अपनी बात दमदार तरीके से रखना हम उनसे सीखे हैं. कभी उनको लगा ही नहीं कि औरत होना कोई कमजोरी भी है. और लगता भी क्यूँ. उनके पिताजी आर्मी में कर्नल थे. शेरदिली उनको विरासत में मिली थी. बाकी मार्शल आर्ट्स ट्रेनिंग तो थी ही...उसपर रही सही कसर रिवोल्वर ने पूरी कर दी...उनसे जो भिड़ने आये भगवान् ही बचा सकता है उसको. 

देखते देखते दिन निकल गए. एक्जाम में हम डिस्टिंक्शन से पास हो गए. रिजल्ट लेकर मैडम जी के पास आये तो बोलती हैं अगले महीने प्रोमोशन के लिए अप्लाई कर दो अब से जान धुन कर पढ़ो. एक्जाम के पहले एक महीना का छुट्टी हम सैंक्शन कर देंगे. अफसर बनने का ख्वाब पहली बार मैडम जी ही रोपीं थीं आँख में. उन दिनों तो बस गाँव भर में में एक आध ही लोग बन पाए थे अफसर. मैं दिन दिन भर ऑफिस में खटता और फिर शाम होते ही मैडम जी लालटेन साफ़ करवा कर बैठकी में मेरी किताबें जमा करवा देतीं. ऐसी पर्सनल कोचिंग किसी को भी क्या मिली होगी. उनपर जैसे धुन सवार थी. किसको जाने क्या प्रूव करना था. 

साल में लगभग तीन चार बार उनके नाम किसी अस्पताल से ख़त आते. हमेशा गहरे नीले लिफ़ाफ़े में. जब भी ये ख़त आते मैडम जी जरा उदास रंगों के कपड़े पहनने लगतीं. घर में गज़लें बजतीं. फीका खाना बनवातीं. न मसाला. न हल्दी. बड़े मनहूस ख़त होते थे. उन दिनों मैडम जी सिर्फ ओल्ड मौंक पिया करती थीं. देर रात जागती रहतीं और सिगरेट के डिब्बे खाली होते रहते. उन्हीं दिनों मैंने उन्हें पहली बार बौक्सिंग प्रैक्टिस करते भी देखा था. अजीब जूनून चढ़ता था उनपर. आँखों में खून उतर आता. फिर एक दिन अचानक से देखता कि सुबह सुबह उन्होंने कोई सुर्ख गुलाबी साड़ी पहनी है. सूजी हुयी आँखों पर काला चश्मा चढ़ा लिया है. मैं जान जाता था कि मौसम बदल दिए गए हैं. अब अगली नीली चिट्ठी तक सब ठीक चलेगा. 

उस दिन एक्जाम देकर लौटा था. मूड अच्छा था. महीने भर से पागलों की तरह पढ़ रहा था. लौटते हुए मैडम जी के लिए रजनीगंधा के बहुत से फूल ले लिए. मैडम जी को खुशबूदार फूल बहुत पसंद थे. बहुत सी उनके पसंद की सब्जियां भी खरीद लीं...कि आज तो दो तीन आइटम बनायेंगे. ठेके पर से विस्की का अद्धा लिया कि आज तो मूड अच्छा ही होगा मैडम जी का...आराम से विस्की पियेंगी और खाना खायेंगी. पेपर अच्छा हुआ था तो लग रहा था कि शायद अफसर बन ही जाऊं. ख़ुशी ख़ुशी उनके घर का गेट खोल कर अन्दर घुसने को था कि पोर्टिको में गाड़ी लगी देखी. मैडम जी जल्दी घर आ गयीं थीं. घर की ओर आ ही रहा था कि मुन्नी बेगम की आवाज़ कानों में पड़ी, 'हम से पी कर उठा न गया, लड़खड़ाते कदम रह गए'. सत्यानाश! नीले लिफाफे को आज ही आना था. मनहूस. 

कॉल बेल पर ऊँगली रखते ही मैडम जी का ठहाका गूंजा और मैं जान गया कि टेप नहीं बज रहा...मैडम जी खुद गा रही थीं. दरवाजा किसी लड़के ने खोला. कोई पंद्रह साल उम्र रही होगी उसकी. मैडम जी ने बताया कि ये छोटे शाहज़ादे साहब हैं. दुनिया को अपने ठेंगे पर रखते हैं. बड़े होकर एस्ट्रोनॉट बनेंगे. फिलहाल किसी तरह मैनेज कर रहे हैं इस दुनिया को...जल्दी ही इनके पास इनका अपना स्पेसशिप होगा...इन्होने प्रॉमिस किया है कि हर प्लैनेट पर एक पोस्टऑफिस खोलेंगे और मुझे बहुत सारे पोस्टकार्ड भेजेंगे. मैंने उतना टेस्टी खाना अपनी जिंदगी में फिर कभी नहीं खाया है. रात को हँसी ठहाके गूंजते रहे. छोटे शाहज़ादे साहब अपने नानाजी के किस्से सुना रहे थे...अपनी मम्मा के किस्से सुना रहे थे और बस पूरी रात किस्सों-कहानियों में गुज़र गयी. मैंने चैन की साँस ली कि मैं फालतू घबरा रहा था.

मगर ये तूफ़ान से पहले की शांति थी.

इस बार कई कई कई दिनों तक घर में मुन्नी बेगम गाती रहीं. ग़ज़ल का एक एक शेर...एक एक शब्द याद हो गया था मुझे...गाना शुरू होने के पहले का संगीत...बीच का संगीत...सब कुछ...मैडम जी ने शायद खाना खाना कम कर दिया था. कुक रोज झिकझिक करती थी...कुछ तो खाया करो दीदी...ऐसे जान चला जाएगा. मैं अपनी आँखों के सामने उनको टूटते देख रहा था. वो आजकल बात भी कम किया करती थीं. ऑफिस का काम ख़त्म और मैं अपने घर वापस. रिजल्ट आने में अभी एक हफ्ता बाकी था. उस दिन बहुत खोज कर ताड़ का कोआ लेते आया कि मैडम जी शौक़ से कुछ तो खायेंगी. के जो भी बात उन्हें अंदर अन्दर खाए जा रही थी...अब उसके असर बाहर भी दिखने लगे थे.

'तो नीले लिफाफों में क्या आता है मैडम जी?'
'लिफाफों में उनकी कवितायें, गजलें, नज्में, कहानियां...जो कुछ भी उन्होंने लिखा होता है नया वो आता है. हर बार एक नए रकीब का चेहरा आता है...शाहज़ादे की मुहब्बत कुबूलनामा आता है इनमें'
'मगर वो आपको क्यूँ भेजते हैं ये सब...उन्हें मालूम नहीं होता कि आपको तकलीफ होती है'
'अरे बाबू, शाहज़ादे को इतनी फुर्सत कहाँ...इतनी फिकर कब...ये तो मैंने एक जासूस बिठा रखा है...वही भेजता रहता है मुझे ये सब...मर जाने का सामान'
'लेकिन मैडम जी, शहजादे को कभी आपसे इश्क था न?'
'अरे न रे पगले...कभी सुना है कि चाँद को इश्क़ हुआ है किसी से?, उनकी चांदनी में भीगे हुए खुद का अक्स देखा था आईने में एक बार...खुद से ही इश्क़ हुआ था उन दिनों...बस उतना ही था...सुन रहे हो, मुन्नी बेगम हमारे दिल का हाल गा रही हैं, 'देख कर उनकी तस्वीर को, आइना बन के हम रह गए'.

डॉक्टर कहते हैं उस रात उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा था. हॉस्पिटल में एडमिट कर के हफ्ते भर ऑब्जरवेशन कह दिया डॉक्टर ने. मेरा जोइनिंग लेटर भी मैडम जी के पते पर ही आया. लेटर बौक्स में एक नीला लिफाफा भी पड़ा था. दिल तो किया कि उसे वहीं आग लगा दूं. यूं ही कम आफत पड़ी है मैडम जी पर जो ये नीला लिफाफा और दे दूं उनको. कहीं कुछ हो गया तो क्या कह के खुद को माफ़ करेंगे.

हॉस्पिटल में उन्हें देखा तो वो करीबन खुश लग रही थीं. चेहरे की चमक लौट आई थी. नर्सेस से छेड़खानी कर रही थीं. मेरा ज्वायनिंग लेटर देख कर वो ख़ुशी से पगला गयीं...डॉक्टर्स तो घबरा गए कि उन्हें ख़ुशी के मारे हार्ट अटैक न आ जाए. मगर फिर उन्होंने नीला लिफाफा देखा और ख़ुशी जैसे फिर से हॉस्पिटल के उदास पर्दों के पीछे कहीं दुबक गयी. इस बार मैडम जी ने लिफाफा खुद नहीं खोला...मुझे दे दिया कि खोल कर पढ़ो. ख़त में दिल तोड़ने वाली इक नज़्म लिखी थी...कि अब लौट आओ...तुम्हारे बिना यहाँ जी नहीं लगता. ख़त पर तारीख साल २००५ की थी. मैंने कहा कि आपके शाहज़ादे इतनी बेख्याली में लिखते है कि दस साल पहले की तारीख डाल देते हैं. मैडम जी हमारी बात पर मुस्कुरा रही थीं...वही मुस्कराहट जिसमें एक छटांक भर ज़ख्म झलक जाता है...
'बाबु, हमारी एक ही रकीब हो सकती थी, वही एक रही है. मौत. किसी और की औकात जो हमारे होते शहज़ादे को अपने ख्यालों में भी सोच ले...कसम से सपनों में घुस के मारते'
'और शहजादे?'
'को गए हुए पंद्रह साल होने को आये, जीने के लिए कुछ खुशफहमियां चाहिए होती हैं. उन दिनों डिलीवरी होने वाली थी...और मेरी हालत देख कर डॉक्टर्स ने मुझे डिनायल में रहने दिया...मैंने उनकी डेड बॉडी तक नहीं देखी...शायद इसलिए आज तक कभी यकीन भी नहीं हुआ कि वो नहीं है इस दुनिया में...हम खुद को दिलासे देते रहते हैं कि वो किसी और के पहलू में हैं...कभी उठ कर हमारी चौखट पर दुबारा आयेंगे'
'तो शहजादे को आपसे इश्क था?'
'बेइंतेहा'
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ग़ज़ल ख़त्म होने को थी...लूप में फिर से प्ले होने के पहले...मुन्नी बेगम गा रही थीं...मुकम्मल...'पास मंजिल के मौत आ गयी, जब सिर्फ दो कदम रह गए'.
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द राइटर्स डायरी: जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?

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इस साल मैंने लगभग ८६००० किलोमीटर का सफ़र तय किया है. कई सारे शहर घूमे हैं. कितनी सड़कें. कितने लोग. कितने समंदर. नदियाँ. झीलें. मुझे लोगों से बात करना पसंद है. मैं उन्हें खूब कहानियां सुनाती हूँ. उनके खूब किस्से सुनती हूँ. ---
बचपन का शहर एक पेड़ होता है जिसकी जड़ें हमारे दिल के इर्द गिर्द फैलती रहती हैं. जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है हम इन जड़ों की गहराई महसूस करते हैं. इन जड़ों में जीवन होता है. हम इनसे पोषित होते हैं. 
घर. होता है. घर की जड़ें होती हैं. तुम कहाँ के रहनेवाले हो...के जवाब वालीं. हमारा गाँव दीनदयालपुर है. हम देवघर में पले-बढ़े. पटना से कॉलेज किये. दिल्ली से इश्क़ और मर जाने के लिए एक मुकम्मल शहर की तलाश में हैं. कई सारे शहर मुझ से होकर गुज़रे इन कई सालों में. मुझे सफ़र में होना पसंद है. सफ़र के दरमयान मैं अपने पूरे एलेमेंट्स में होती हूँ. बंजारामिजाजी विरासत में मिली है. पूरी दुनिया देख कर समझ आया कि एक दुनिया हमारे अन्दर भी होती है. जहाँ हर शहर अपने गाँव की कोई याद खींचे आता है. रेणु का लिखा इसलिए रुला रुला मारता है कि उसमें भागलपुरी का अंश मिलता है. इसलिए मेरे पापा मेरी पूरी किताब पढ़ते हैं तो उन्हें याद रहता है गाँव...अदरास...इसलिए जब विकिपीडिया पर पढ़ती हूँ कि अंगिका लुप्तप्राय भाषा की कैटेगरी में है तो मेरे अन्दर कोई गुलाब का पौधा मरने लगता है. अगर मेरे बच्चे हुए तो उन्हें कैसे सिखाउंगी अंगिका. उनकी पितृभाषा होगी अंगिका. मैं क्या दे सकूंगी उन्हें. हिंदी और अंग्रेजी बस. इनमें खुशबू नहीं आती. मैं कैसे बताऊँ उस छटपटाहट को कि जब कोई डायलॉग मन में तो भागलपुरी में उभरता है मगर उसको आवाज़ नहीं दे सकती कि मेरे पास शब्द नहीं हैं. कि मैं न अपनी दादी के बारे में लिख पाउंगी कभी न नानीमाय के बारे में. मैं अपना गाँव देखती हूँ जहाँ अधिकतर कच्चे घर अब पक्के होते गए हैं और उनमें बड़े बड़े ताले लटके हुए हैं. हाँ, गाँव का कुआँ अब सूखा नहीं है. बड़ा इनारा अब कोई जाता नहीं पानी लेने के लिए. सबके घर में बिजलरी की बोतल आ गयी है. दूर शहर में रह कर गाँव के लिए रोना बेईमानी है. मगर याद आता है तो क्या करूँ. जितना सहेजना चाहती हूँ न सहेजूँ? पापा को बोलते हुए सुनती हूँ तो कितने मुहावरे, रामायण की चौपाइयां, मैथ के इक्वेशन सब एक साथ कह जाते हैं...रौ में...उनकी भाषा में कितने शब्द हैं. मैंने ये शब्द कैसे नहीं उठाये...कहाँ से तलाशूँ. कहाँ पाऊँ इन्हें.
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किसी को एक कहानी सुना रही थी, 'हूक'पर अटक गयी. हूक किसे कहते हैं. मैं मुट्ठी भर अंग्रेजी के शब्दों में उसे कैसे बताऊँ कि हूक किसे कहते हैं. ये शब्द नहीं है. अहसास है. उसने किया होगा कभी इतनी शिद्दत से प्रेम कि समझ पाए हूक को?
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तुम्हारी किसी कविता को पढ़ कर जो 'मौसिम'विलगता है मन में...'विपथगा'का मतलब भूलती हूँ मैं...और माँ के हाथ के खाने के स्वाद को कहते हैं हूक. कहाँ से समझाऊं मैं उसे. मुझसे फोन पर बात कर रहा होता है और पीछे कहीं से उसकी माँ पुकार रही होती है उसको, 'आबैछियो', चीखता है वो...मैं हँसती हूँ इस पार. जाओ. जाओ. किसी बेरात दुःख या ख़ुशी पर माँ की याद चुभती है. सीने में. शब्द है 'माय गे...कुच्छु छै ऐखनी घरौ मैं...बड्डी भूख लग्लौ छौ'. हूक. चूड़ा दही का स्वाद है. भात खाते हुए आधे पेट उठना है कि माँ के सिवा किसी को मालूम नहीं कि हमको कितने भात का भूख है.
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हम जिस शहर लौट कर जाना चाहते हैं, वहाँ जा नहीं सकते...क्यूंकि वो शहर नहीं, साल होता है. सन १९९९. फरवरी.
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हूक तुमसे कभी न मिलने का फैसला है. इश्क़ से की गयी वादाखिलाफी है. तुम्हारी हथेली में उगता एक पौधा है...कि जिसकी जड़ों की निशानी हैं रेखाएं...जिनमें न मेरा नाम लिखा है न चेहरा.
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तुमसे मिले बिना मर जाने की मन्नत है. बदनसीबी है. दिल के पैमाने से छलकता मोह है.
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तुम्हें दफ्न करने के बाद कितने शहर दफन किये उस मिट्टी में. कितने समन्दरों से सींचा दिल का बंजर कोना मगर उसे भी रेगिस्तान बनने की जिद है. कितना कुछ समेटती रहती हूँ शहरों से. क्राकोव में एक कब्रिस्तान देखा था. वहाँ लोग छोटे छोटे पत्थर ला के रख जाते थे कब्रों पर. उनकी याद की यही निशानी होती थी. गरीबी के अपने उपाय होते हैं. तुम्हारी कब्र पर याद का ऐसा ही कोई भारी पत्थर है. शहरों से पूछती हूँ तुम्हारा पता. बेहद ठंढी होती हैं दुनिया की सारी नदियाँ. उनपर बने कैनाल्स पर के लोहे के पुल दो टुकड़ों में बंटते हैं...बीचो बीच ताकि स्टीमर आ जा सके. मैं बर्फीले पानी में अपनी उँगलियाँ डुबोये बैठी हूँ. सारा का सारा फिरोजी रंग बह जाए. सुन्न हो जाएँ उँगलियाँ. फिर शायद तुम्हें पोस्टकार्ड लिखने की जिद नहीं बांधेंगी. 
काश तुम्हें भूल जाना भी लिखना भूल जाने जितना आसान होता.
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तुम मेरी जड़ों तक पहुँचते हो. मुझे मालूम नहीं कैसे. तुम्हारे शब्दों को चख कर गाँव के किसी भोज का स्वाद याद आता है. पेट्रोमैक्स और किरासन तेल की गंध महसूस होती है उँगलियों में. अगर नाम कोई बीज होता तो कितने शहरों में तुम्हारी याद के दरख़्त खड़े हो चुके होते.
तुम्हें पढ़ती हूँ तो हूक सी उठती है. और मैं साँस नहीं ले पाती. 
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तुम्हारी सिगरेट के पैकेट में दो ही बची रह गयी हैं. जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?
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इधर बहुत दिनों से किसी चीज़ की फुर्सत नहीं मिली है. सोचने भर की नहीं. आज जरा इत्मीनान है. जाने क्यूँ मौत के बारे में सोच रही हूँ.
कि मैं किताबें पढ़ते हुए मर जाना चाहूंगी.

द राइटर्स डायरी: आस्था की लौ...आत्मा को रौशन करती हुयी

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इस साल मैं पहली बार अमेरिका गयी हूँ. पहला शहर जो मैंने देखा वो डैलस था. हयात वाले होटल के पाँच माइल के रेडियस में कार की सर्विस देते हैं...कहीं भी आने जाने के लिए. रिचर्डसन के जिस एरिया में मैं ठहरी थी वहाँ से दो तीन चर्च दिखते थे. मैं अपने पहले दिन इत्तिफाकन उनमें से दो के पास गुजरी, सोचा कि यहाँ के चर्च भी देख लेते हैं. इसके पहले यूरोप गयी हूँ या फिर थाईलैंड...दोनों जगह क्रमशः चर्च और मंदिर हमेशा खुले हुए ही देखे हैं. यूरोप का कोई छोटे से गाँव में छोटा सा चैपल भी होता है तो भी उसके दरवाज़े खुले होते हैं. अपने देश का तो कहना ही क्या...यहाँ भी लगभग सारे मंदिर सारे वक़्त खुले ही रहते हैं. तो मैं चर्च के मेन दरवाज़े पर पहुंची. वो बंद था. फिर मुझे लगा कि शायद कहीं कोई छोटा दरवाज़ा होगा तो वो भी बंद मिला. मैंने सोचा कि ये एक चर्च बंद है...चलो कोई बात नहीं, किसी दूसरे में चले जायेंगे. अगली बार शटल से जाते हुए जो ड्राईवर थी, कैरोलिन, उससे पूछे कि यहाँ कोई चर्च है जो खुला होगा...कल मैं इस बगल वाले में गयी तो बंद था. वो पहले तो इस बात पर बहुत चकित हुयी कि मैं हिन्दू हूँ तो मुझे चर्च क्यूँ जाना है. तो उसे पूरे रास्ते मैं ये समझाती आई कि हमारे यहाँ किसी भी धर्म के पूजा स्थल पर जा सकते हैं. हम घूमते हुए चर्च भी चले जाते हैं, मज़ार भी और बौद्ध या जैन मंदिर भी. (एक मन तो किया कि उसको DDLJ दिखा दें. काजोल को देख कर अपनेआप समझ में आ जाएगा उसको.

बात परवरिश और स्कूल/कॉलेज की भी है. मेरी पढ़ाई देवघर में कान्वेंट स्कूल में हुयी. जैसी कि मेरे जान पहचान के अधिकतर लोगों की हुयी है. घर परिवार में भी, लगभग सारे बच्चे ऐसे ही इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़े हैं. सेंट फ्रांसिस, डॉन बोस्को, लोयोला हाई स्कूल...मेरे स्कूल में अधिकतर टीचर्स केरल से आये थे. कुछ सिस्टर्स वगैरह थीं और कुछ लोकल टीचर्स भी. हम स्कूल असेम्बली में 'त्वमेव माता'भी गाते थे और 'देयर शैल बी शावर्स ऑफ़ ब्लेसिंग्स'भी गाते थे. 'इण्डिया इज माय कंट्री...आल इंडियंस आर माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स'वाला प्लेज भी लेते थे. इसके बाद अक्सर 'आवर फादर इन हेवेन होली बी योर नेम'पढ़ते थे...और फिर क्लास्सेस शुरू होती थीं. हमारी प्रिंसिपल पहले सिस्टर जोस्लेट और फिर सिस्टर कैरोलीन रही थीं. हमने उन्हें हमेशा सादगी से रहते और पढ़ाई के प्रति बहुत सिंसियर देखा था. हममें से अधिकतर की आइडियल हमारी प्रिंसिपल होती थीं. पटना में मेरी 12th के लिए मैं सेंट जोसफ कान्वेंट गयी. वहाँ स्कूल में एक छोटा सा चैपल था. मैं अक्सर सुबह स्कूल में क्लास आने के पहले वहां चली जाती थी. मन बहुत परेशान रहा या ऐसा कुछ. वहाँ जाते हुए एक चीज़ पर अक्सर मेरा ध्यान जाता था. हम जो हिन्दू स्टूडेंट होते थे, हमेशा अपने जूते बाहर खोल कर जाते थे...कि हमें मंदिर जैसी आदत थी...लेकिन जो क्रिश्चियन स्टूडेंट्स होती थीं, वे जूते पहन पर ही अन्दर चली जाती थीं क्यूंकि उन्हें ऐसा करने नहीं कहा गया था. हमारा क्लास शुरू होने के पहले वहां रोज़ 'आवर फादर इन हेवेन'कहना होता था. हमारी मोरल साइंस टीचर हमें मज़ाक में पूछती थी कि हम छुट्टियों में 'आवर फादर इन हेवेन'नहीं कहते, भगवान को भी छुट्टी दे देते हैं. इसपर हम सब लड़कियां खूब हँसती थीं. पटना विमेंस कॉलेज भी कैथोलिक सिस्टर्स का इंस्टिट्यूट है. पर यहाँ चूँकि हम बड़े हो गए थे तो कोई मोर्निंग असेम्बली वगैरह नहीं होती थी. यहाँ भी कोलेज के अन्दर एक छोटा सा चैपल था. वहां एक्जाम वगैरह के पहले मैं या मेरी कुछ दोस्त जाया करती थीं. कई बार हम किसी स्टेज परफॉरमेंस के पहले भी जाया करते थे. 

डैलस में मेरी कार ड्राईवर कैरोलीन ने बताया कि यहाँ चर्च हफ्ते में सिर्फ संडे को खुलते हैं. मुझे अपनी स्कूल की सिस्टर याद आ गयी, 'बहुत मजे हैं तुम्हारे भगवान के, हफ्ते में सिर्फ एक दिन काम करता है...हमारे यहाँ तो सारे भगवानों को पूरे हफ्ते काम करना होता है...त्योहारों में तो ओवरटाइम भी'. उसे मैं बहुत फनी लगी थी. जिसे आज सेकुलर कहते हैं...वो हमारे लिए हमेशा इतना साधारण रहा है कि कभी सोचने की जरूरत भी नहीं पड़ी. हमें बचपन से हर भगवान के सामने सर झुकाने की शिक्षा दी गयी थी. चूँकि हम बहुत घूमे हैं, तो देश में कई सारे मंदिर, बौद्ध स्तूप, मजार और मस्जिद भी गए हैं. पापा, मम्मी और भाई के साथ. बड़े होने के बाद पहली बार कश्मीर गए जब इन चीज़ों की थोड़ी बहुत समझ आने लगी थी...तो इस बात पर बहुत तकलीफ हुयी कि हज़रत बल में मस्जिद में अन्दर औरतों का जाना प्रतिबंधित है. मैं सोच रही थी कि उन्हें कितना खराब लगता होगा कि अन्दर जाने नहीं देते हैं. क्यूंकि दिल्ली में जामा मस्जिद में जाने दिया था. आगरा में भी. मुझे बचपन के और भी कई मस्जिद ऐसे ही याद थे जहाँ अन्दर जाने दिया जाता था.

घर में मम्मी कभी पूजा करने बोली नहीं...तो कभी पूजा करने मना भी नहीं की. व्रत वगैरह भी कभी कभार रख लेते थे. माँ और पापा दोनों रोज पूजा करते थे. घर के लोगों की यादों में सबसे क्लियर उनके पूजा करने का ढंग आता है. मम्मी का, दादी का, दिदिमा का, नानाजी का, पापा का...सबके अपने अपने चुने हुए मन्त्र और अपने अपने मंत्रोचार थे. देवघर चूँकि शंकर भगवान की नगरी है तो हम सब भोले बाबा के भक्त. अब उनका इम्प्रेशन ऐसा कि भूल वगैरह आराम से माफ़ कर देते हैं. तो पूजा पाठ में कोई गलती हो जाए तो ज्यादा परेशान नहीं होते थे. दिल्ली आने तक ऐसा ही बना रहा. जन्मदिन या पर्व त्यौहार में मंदिर जाना और कभी मूड हुआ तो पूजा कर लेना. भगवान में आस्था बहुत थी. मम्मी के जाने के बाद भगवान में विश्वास एकदम अचानक टूट गया. पूजा करनी बंद कर दी. घर की कुछ रस्में तो करनी पड़ती हैं...तो जहाँ जहाँ पूजा आवश्यक थी, वहां की, पर अपने मन से कभी मंदिर जाना या घर में भी पूजा करनी एकदम बंद है. शायद कभी वे दिन लौटें...मगर फ़िलहाल मन में श्रद्धा नहीं उभरती.
हमने हाल में नयी गाड़ी खरीदी है. स्कोडा ओक्टाविया. कल गाड़ी का रजिस्ट्रेशन था. उसके बाद मैं अपने एक दोस्त से मिलने गयी. अचानक ही मूड हो गया. बहुत दिन बाद गाड़ी हाथ में थी. बारिश का मौसम था. चल दिए. उसको कॉल किया कि मैं आ रही हूँ तेरे घर. वो ओडिसी और कुचिपुड़ी डांस करती है. इतना खूबसूरत कि बस. बड़ी बड़ी आँखें. उसे साधारण रूप से काम करते हुए देखती हूँ तो भी उसमें एक लय दिखती है. उसके चलने में, बोलने में, हंसने में. आंध्र की है...और बिहारी से शादी की है. iit का लड़का. उसका एक छोटा बेटा है. चार साल का लगभग. कल दरवाज़ा खोली तो देखे कि एकदम साड़ी में है, हम खुश होके बोलते हैं कि 'मेरे लिए'तो पट से जवाब आता है, 'औकात में रह'. कल कोई तो तुलसी पूजा थी, उसके लिए तैयार हुयी थी. हुयी तो पूजा के लिए ही तैयार न :) 

उनका अपना घर है. हाल में शिफ्ट हुए हैं. वहां पूजा के लिए अलग से कमरे का एक हिस्सा है. इसी में वो डांस प्रैक्टिस भी करती है. पूजा के हिस्से को अलग करने के लिए एक लकड़ी का नक्काशीदार जाली वाला पार्टीशन है. कल वहीं बैठी. वो मुझे बता रही थी कि आज दीवाली की तरह तुलसी के आसपास दिया जलाते हैं. उसका पूजाघर छोटा सा तीन स्टोरी रैक का बना हुआ था. एक ड्रावर जिसमें बहुत तरह के डिब्बे रखे थे. राम लक्ष्मण सीता की एक बड़ी तस्वीर. उसके ऊपर सुनहले रंग की छतरी. कांसे के राम, लक्ष्मण, सीता...हनुमान जी और गणेश जी. कई सारे अलग अलग साइज के दिए थे. कुछ कांसे के, कुछ चाँदी के. पंचमुखी दिया. सब अलग अलग साइज़ के दिए जोड़ों में थे. उसने दीयों को ऊंचाई के हिसाब से लाइन में रखा तो जैसे सीढ़ियाँ बन गयीं थीं. उसने मुझे बताया कि कैसे कांसे के वो राम लक्ष्मण सीता को लाने की कहानी है.

एक भजन है, नॉर्मली भजन में लिखने वाले का और जगह का नाम आता है. उसे एक भजन बहुत पसंद था और वो जानना चाहती थी कि वो कहाँ लिखा गया है. जब उसे उस ग्राम का नाम पता चला तो उसका मन था वहां जाने का. यहीं बैंगलोर के पास का एक गांव था. इत्तिफाक से वहीं पर उसका एक डांस प्रोग्राम आ गया. जब वह उस ग्राम में गयी और उस मंदिर में गयी जहाँ वो भजन लिखा गया था तो ऐसा हुआ कि पूजा के बाद पंडित और दर्शनार्थी सब चले गए और वो मंदिर में अकेली, सिर्फ भगवान के सामने थी. उस समय उसने वहाँ वो संगीत चलाया और उसपर उस छोटे से गाँव के उस छोटे से मंदिर में सिर्फ भगवान के लिए उसी भजन पर एक छोटा सा नृत्य किया. ये एक आत्मा को छूने वाली घटना थी. इसी के बाद उस शहर में एक दुकान में उसे ये भगवान की प्रतिमाएं मिली थीं. 

इधर बहुत दिन से मेरी पूजा बंद है. बाकी लोगों को भी मैं पूजा करते देखती हूँ तो वे एकाग्रचित्त नहीं होते. उनका मन कहीं और लगा होता है. पूजा एक रूटीन सी हो जाती है. मगर उसे देखना ऐसा नहीं था. उसे देखने पर मन में कोई पवित्र सी भावना जगती थी. जैसे कि वो सब कुछ प्रेम में, भक्ति में डूब कर कर रही है. उसके लिए सामने रखी मूर्तियों में प्राण थे और वो अपने इष्ट की ख़ुशी के लिए सब कर रही थी. पूजा. धूप. चन्दन. अगरबत्ती. पूजा करते हुये उसकी चूड़ियों की खनक भी सुन्दर लगती थी.

उसने कहा कि वो मुझे वो भजन सुनाएगी. एक ही पंक्ति सुन कर जैसे रोम रोम में अलग सा अहसास हुआ था. जैसे भगवान वाकई सुन रहे हो. बिना किसी वाद्ययंत्र के सिर्फ कोरी आवाज़. कुछ करने के लिए वो उठी. और जब वापस बैठ कर उसने भजन फिर गाना शुरू किया तो मुझे लगा कि ये मुझे रिकॉर्ड कर लेना चाहिए. शायद वो फिर से मेरे लिए गा दे...लेकिन अभी की उसकी आवाज़ सिर्फ राम तक पहुँचने के लिए है. मैंने चुपचाप मोबाइल से इसकी रिकॉर्डिंग कर ली. ये एक मुश्किल निर्णय था. मैं वहां डूबना चाहती थी उस आवाज़ में. मगर मैं उसे सहेजना भी चाहती थी. दिए की लौ में उसका चेहरा कितना सुन्दर दिख रहा था. मुझे बहुत साल पहले की गाँव की याद आई. तुलसी चौरा पर दिया दिखाती चाची, मम्मी, दीदी...सब एक ही जैसी लगती थी. दिव्य. 

ये एक अनुभव था. इसे मैं यहाँ इसलिए लिख रही हूँ कि बहुत साल बाद मैंने इस आवाज़ से अपने अन्दर रौशनी महसूस की है...उस भजन से जैसे भगवान खुश होकर जरा सा मेरे मन में भी बस गए हैं. ये इतनी खूबसूरत चीज़ है कि बिना बांटे रहा नहीं गया. शायद कभी मेरे मन में भी शंकर भगवान के प्रति आस्था वापस आएगी...तो मैं अपनी आवाज़ में कुछ वो भजन गा सकूंगी जो मैंने सीखे थे. धर्म ठीक ठीक मालूम नहीं क्या होता है, मेरे लिए जिस चौखट पर सर झुक जाए वहीं भगवान हैं...आस्था मन के अँधेरे को रौशन करती दिये की लौ है...जरा सी उम्मीद है...जरा सा सुकून.

मगर फिलहाल आप उसे सुनिए...

अमलतास की डाल पर खिलती दोस्तियाँ

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'तुम क्या चाहती हो मेरी दोस्त?'. उसका ये पूछना मुझे मोह गया था...कि उसके पूछने में एक कोमलता थी...एक आर्दता थी...न समझ पाने की खीझ नहीं...नहीं समझे जाने का उसका आत्मानुभूत अनुभव था. प्रेम ने मुझे कई बार छला है. मित्रता के आवरण में आता है और हमेशा पीठ पर प्रेम का खंजर भोंकता है. उसे इस व्यवहार से मैं इस तरह उलझ गयी थी कि किसी भी व्यक्ति के जरा भी करीब आने में मुझे डर लगता था.

वो मुझे ऐसे ही किसी मोड़ पर मिला था. यूँ वो शहर कोई भी हो सकता था. मेरे पसंदीदा शहर दुनिया के नक़्शे में बिखरे हुए हैं. स्विट्ज़रलैंड में बर्न...अमरीका में शिकागो या कि हिंदुस्तान में कन्याकुमारी. मगर हमें किसी ऐसे शहर में मिलना नहीं लिखा था जिसकी गलियों में खुशबू हो...जिसकी हवाओं में उस शहर की शिनाख्त की जा सके. हमें ऐसे शहर में मिलना था जिसकी गलियां नामालूम हो. पौलिश यातना शिविरों में कैदियों से उनका नाम छीन लिया जाता था. हम जिस चौराहे पर मिले थे उसका परिचय भी ऐसे ही धूमिल कर दिया गया था ताकि हम कभी भी लौट कर वहाँ नहीं जा सकें. 

चौराहे पर एक डाकघर था जहाँ से मैंने टिकट खरीदे थे और वहीं सीढ़ियों पर बैठी पोस्टकार्ड लिख रही थी. जब सारे पोस्टकार्ड्स पर मेसेज और पता लिख दिया और स्टैम्प चिपका दिए तो मैं देर तक आसमान देखती रही. नीले आसमान की छोटी छोटी पुर्जियां दिख रही थीं सुनहले पेड़ के पत्तों के बीच से. हवा के झोंके में किसी पुकार का संगीत नहीं घुला था. मैं एक एक करके पोस्टकार्ड नीले डब्बे में गिरा रही थी जब मैंने उसे सामने से आते देखा. चुंकि मुझे मालूम नहीं था कि ये शहर कौन सा है तो मैं ये भी नहीं जान सकती थी कि वो इस शहर में हो सकता है. उसकी मुस्कान में एक प्रतीक्षा थी. जैसे उसे मालूम था कि इस नामालूम शहर के इसी डाकघर तक मुझे आना है. उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया...उसकी बंधी मुट्ठी में एक अमलतास का फूल था. मगर इस शहर में तो अमलतास नहीं खिलते.

'मेरा पोस्टकार्ड मुझे दे दो...यहाँ से गिराओगी तो खो जाएगा...मेरा शहर यहाँ से तेरह समंदर पार है'. मेरा दायाँ हाथ उसने थाम रखा था...हम दोनों की हथेलियों के बीच एक अमलतास का फूल साँस ले रहा था. मेरे बाँयें हाथ में उसके नाम का पोस्टकार्ड था जिसे मैं लेटर बौक्स में गिराने ही वाली थी. मगर उसे सामने सामने कैसे दे दूँ ये पोस्टकार्ड...अभी इसके मिलने का वक़्त तय नहीं हुआ है. मुझे संगीत के नोटेशंस याद आये...सम पर मिलना था उसे ये पोस्टकार्ड. अगर वो अभी मेरा लिखा पढ़ लेगा तो जिंदगी के ताल में ब्रेक आ जाएगा.

'तुम्हें समंदर गिनने आते हैं?'मैंने उसका पोस्टकार्ड करीने से अमलतास के फूल के साथ अपनी नोटबुक में रख दिया. हवा में बहुत ठंढ थी. वेदर रिपोर्ट वालों ने कहा था कि आज मौसम की पहली बर्फ गिरेगी. उसने अपनी कोट की जेब से दस्ताने निकाले और पहनने लगा. मेरे पास आधी उँगलियों वाले दस्ताने थे. इनमें उँगलियों के पोर बाहर निकले रहते हैं. मैं पूरे ढके हुए दस्ताने नहीं पहन सकती. कलम को छू न सकूँ तो मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगती है. उसने मुझसे एक दस्ताने की अदलाबदली कर ली. हम दोनों मिसमैच वाले दस्ताने पहन कर हँस रहे थे. मुझे लगा कि हमारी हँसी उजले फाहों की तरह गिर रही है मगर फिर उनकी ठंढक ने बताया कि बर्फ गिरने लगी है. हम वहाँ से बेमकसद किसी ओर चल पड़े. उसके काले कोट पर बर्फ के फाहे यूँ दिखते थे जैसे मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा हुआ है. साथ चलते हुए हमारी उँगलियों के पोर एक दूसरे को छूते हुए चल रहे थे. जैसे हमारे बीच कोई तीसरा बहुत प्यारा दोस्त है जिसने हम दोनों की हथेलियाँ थाम रखी हैं.

वो शनिवार का दिन था और शहर के लोग छुट्टियाँ बिताने गाँव की ओर निकल गए थे. अगर चाहना पर दुनिया चलती तो उस वक़्त हम दोनों एक नोटबुक, एक कलम और नए शहर बनाने की बहुत सी कल्पनाएँ चाहते थे...हम उसी वक़्त अपनी पसंद का एक शहर बना सकते थे जिसमें मेरी पसंद के फूल खिलते और उसकी पसंद का मौसम आता. मगर इस ठंढ में हमें पहले इक शांत जगह चाहिए थी जहाँ अलाव जल रहे हों और बेहतरीन विस्की या ऐसी कोई चीज़ मिल सके कि जिससे उँगलियों के पोरों में जमी ठंढ पिघल सके. सामने मेट्रो स्टेशन था. हम दोनों ने पहली मेट्रो ले ली. दिन के ग्यारह बज रहे थे, हमारे पास इतनी फुर्सत थी कि हम धरती का एक पूरा राउंड लेकर आ सकते थे. मगर हम पहले ही स्टॉप पर उतर गए. वह एक छोटा सा पहाड़ी गाँव था जिसका फ्रेंच नाम था...मेरे पसंदीदा गीत 'ला वियों रोज'की तरह कोई पोएटिक सा नाम. 

गाँव की सड़कें बहुत पुराने पत्थर की बनी थीं. इसी राह से क्रन्तिकारी और प्रेमी दोनों गुज़रे होंगे. पुरानेपन में एक कालजयी गंध थी. एक रेस्तरां से ब्रेड के बनने की मीठी खुशबू आ रही थी और टेबलों पर अलाव की छोटी डोल्चियाँ रखी थीं. दास्ताने उतारते हुए हम फिर से हँस पड़े. 'मैं तुम्हारा ये दस्ताना रख लूँ?'उसने मेरा वाला दस्ताना अपनी कोट की जेब में रख लिया था. 'एक दस्ताने का क्या करोगे, तुम्हें पसंद हैं तो जोड़ा रख लो.', मैं अपने हाथ से उतार कर उसे अपना दस्ताना देने लगी कि उसने रोक दिया. 'नहीं दोस्त, एक ही चाहिए...तुम्हें याद करने को इतना काफी है...दोनों रख लूँगा तो तुम पर शायद कोई हक जताने लगूँ.'

आर्डर लेने आई हुयी औरत की उम्र कोई चालीस साल होगी...मुस्कुराती है तो गालों में गहरे गड्ढे पड़ते हैं और उसकी आँखों में बहुत काइंडनेस दिखती है. हम दोनों एक लम्बे से नाम वाला कोई ड्रिंक आर्डर करते हैं जिसमें पड़ने वाली कोई भी सामग्री हमें समझ नहीं आती. धूप का एक तिकोना टुकड़ा हमारे ठीक बीचो बीच लकड़ी की मेज पर आराम फरमाने लगता है. हमारी ड्रिंक काली चाय थी जिसमें दालचीनी, लौंग, अदरक और जायफल की तेज़ गंध थी...साथ में अल्कोहल की तीखी गर्माहट भी थी. हम दोनों ने अपनी अपनी ड्रिंक में दो चार चम्मच शहद मिलाई...हर सिप में 'शायद'का स्वाद आता है...जैसे 'शायद ये एक सपना है', 'शायद मैं सिजोफ्रेनिक हो रही हूँ', 'शायद मैं एक नयी कहानी लिख रही हूँ'...ऐसे ही बहुत से जायकेदार शायदों की चुस्की लेते हुए हम देर तक एक दूसरे को देखते रहे. 

'अच्छा विश...अपने बारे में एक एक फैक्ट से शुरू करते हैं बातें...तुम्हारा पूरा नाम क्या है?'
'मेरा कोई नाम नहीं है...तुमने एक दोस्त की विश की थी इसलिए मैं तुम्हारे रास्ते भेज दिया गया. भगवान के कारखाने में हम जैसे लोग लिमिटेड एडिशन में बनाये जाते हैं. तुमने बड़े सच्चे दिल से मुझे माँगा है, इसलिए मैं आ गया हूँ...जब तुम्हारी ये जरूरत पूरी हो जायेगी...मैं गुम जाऊँगा और तुम्हें मेरी कोई याद भी नहीं रहेगी.'
'तो तुम मेरी चाहना के कारण आये हो?'
'हाँ मेरी दोस्त...तुम क्या चाहती हो?'
'इस वक़्त तो मैं कुछ भी नहीं चाहती विश...अगर ये सपना है तो ऐसे गहरे...मीठे और सच से लगे वाले कुछ और सपने...अगर ये एक कहानी है तो ऐसी कुछ एक और लम्बी कहानियां...जिंदगी से ज्यादा शिकायत नहीं है मुझे'
'तो मैं कभी कभी मिलने आता रहूँगा तुमसे...यूँ ही. कोई तीन एक साल में एक आध बार?'
'तीन साल थोड़े ज्यादा है...तुम साल में एक बार नहीं आ सकते?'
'दोस्त, मेरे आने का मौसम चाहिए तुम्हें?'
'अगर मैं हाँ कहूँ तो तुम मेरी बात मान लोगे?'
'चलो अगर मान लिया तो क्या नाम दोगी उस मौसम को?'
'नाम नहीं...इस मौसम के लिए एक फूल होगा...अमलतास...मुझे जिस साल तुम्हारी बहुत याद आएगी मैं तुम्हें अमलतास के फूल भेजा करूंगी लिफाफों में'
'सिर्फ फूल? ख़त नहीं भेजोगी?'
'नहीं विश...तुमसे करने को ख़त में बातें नहीं होतीं...तुमसे मिल कर जान रही हूँ कि कागज़ पर लिखे शब्दों का एक ही आयाम होता है...वे यूँ बात नहीं कर सकते. अब मुझे नहीं लगता मैं तुम्हें कभी ख़त लिख सकूंगी. अब तुम्हारी तलब लगेगी तो तुम्हें आना पड़ेगा.'
'हक की बात आ ही जाती है न मिलने से?'
'हक नहीं है...दुआएँ हैं...अमलतास जैसी...सुनहली पीली...शांत' 

मैं अपनी नोटबुक से वही अमलतास का फूल निकाल कर उसके काले कोट के बटनहोल में लगा देती हूँ. फूल गिर न जाए इसलिए अपने बालों से एक क्लिप निकाल कर उसे फिक्स कर देती हूँ. चेहरे पर एक लट बार बार झूल आ रही है. मैं नोटबुक देखती हूँ तो उसमें एक और अमलतास का फूल पाती हूँ. उसे निकाल कर टेबल पर रखती हूँ तो देखती हूँ वहाँ एक और अमलतास का फूल है...धीरे धीरे टेबल पर एक गुच्छे अमलतास के फूल जमा हो जाते हैं. विश मेरी ओर देख कर मुस्कुराता है. मैं उसकी. वो लम्हा बहुत मीठा है. अमलतास के मौसमों में जो शहद बनता है...उतना मीठा. कभी कभी महसूस होता है जिंदगी में कि सब कुछ शब्द नहीं होते...बातों से नहीं बनी होती दुनिया. मुस्कुराहटों. अमलतास के फूलों. फिर कभी मिलने की दुआओं. और विस्की की स्वाद वाली चाय की भी बनी होती है. विश. कितना प्यारा नाम है न. 

इसके कोई तीनेक साल तक अमलतास का मौसम नहीं आया. मैं कभी गुलमोहर के देश जाती तो कभी वाइल्ड आर्किड वाले पहाड़...कभी मोने की वाटर लिलीज वाले शहर...ऐसे ही किसी दिन विश का फोन आता है...वो मुझसे फोन पर पूछता है, 'दोस्त, तुमने तो इतनी दुनिया देखी है...जरा नक्शा देख कर बताओ...मेरे घर से तेरह समंदर दूर कौन सा शहर पड़ता है? मुझे जाने क्यूँ लगता है कि मैं कभी उस शहर में मिला हूँ तुमसे'. मैं गिनती हूँ तो दुनिया के तेरह समंदर पूरे होते हुए वापस उसके शहर तक ही पहुँच जाती हूँ. 'ऐसा कोई शहर दिखता तो नहीं है मगर मेरी डायरी में एक पोस्टकार्ड रखा है जिसपर तुम्हारे घर का पता है और स्टैम्प्स भी लगे हुए हैं...कितना भी याद करूँ, मुझे याद नहीं आता कि मैंने ये पोस्टकार्ड गिराया क्यूँ नहीं. उसके अगले पन्ने में एक अमलतास का सूखा फूल भी रखा है. उस पूरे साल मैं जिन देशों में रही हूँ उनमें से किसी में भी अमलतास नहीं खिलता...तुम्हें कोई अमलतास का फूल याद है?'. 

उस वक़्त हम एक दूसरे से तेरह समंदर दूर के शहरों में होते हैं लेकिन जब अपनी अपनी चाय सिप करते हैं तो बारी बारी से दालचीनी...लौंग...जायफल...सारे स्वाद आने लगते हैं. मौसम सर्द होने लगा है. मैं अपने कोट की जेब में हाथ डालती हूँ...दोनों जेबों से अलग अलग दस्ताने निकलते हैं. खिड़की से अमलतास की एक डाली अन्दर पहुँच गयी है. कोपलें हैं. अमलतास खिलने के मौसम में अभी वक़्त है शायद. एक साल. शायद बहुत साल और. मैं उसे बुलाना नहीं चाहती...वो बेतरह व्यस्त होगा...मुझे पक्का यकीन है. फोन रखने पर याद आया कि मैंने सोचा था उससे पूछूंगी, 'विश. तुम्हारे काले कोट पर लगा अमलतास का फूल ताज़ा है या सूख गया?'.

बुकमार्क के नक्शे पर मिलते लोग

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रातें खुली किताबों जैसी होतीं हैं. उसे रातें नहीं पसंद. उसे खुली किताबें भी नहीं पसंद. न वे लोग जो किताबों को बेतरतीबी से बरतते हैं. उसे पास भतेरे बुकमार्क्स होते. वो जगह जगह से बुक मार्क इकठ्ठा करते चलती. कभी कोई न भेजा हुआ पोस्टकार्ड. स्टैम्प्स के निकल जाने के बाद के खाली स्टीकर वाले खाके. कभी फूल तो कभी कोई तिनका ही कोई. कहीं से मैग्नेटिक बुकमार्क तो कहीं मेटल वाले. किसी बुकमार्क में बत्ती जलती. तो कोई रेशम के रिबन से बना होता. कुछ भी बुकमार्क हो सकता था. ट्रेन की टिकट्स. पसंदीदा कैफे का बिल. उसके क्रश के सिग्नेचर वाला कोई पेपर नैपकिन. सिगरेट की खाली डिब्बी. कुछ भी. 

जिस दुनिया में इतना सारा कुछ हो सकता है बुकमार्क्स के लिए, वहाँ खुली किताबें क्यूँ होतीं? उसे लोग कहते कि उनका जीवन खुली किताब है. वो उनसे कहना चाहती, किताब बंद कर के रख दीजिये...कोई कॉफ़ी गिरा देगा...उड़ती चिड़िया बीट कर देगी...कोई पन्नों पर किसी भी ऐरे गैरे का फोन नंबर लिख मारेगा. जिंदगी इतनी फालतू नहीं और किताबें तो खैर और भी नहीं. क्यूँ होना खुली किताब. कि जैसे रात के पहर. सब मालूम चलता था. वो कितनी रात जगी थी. व्हाट्सएप्प पर लास्ट लॉग इन कितने बजे था. उसने रात को सोने के पहले कॉफ़ी पी या ग्रीन टी, ओल्ड मौंक या नीट विस्की...सिगरेट या बीड़ी...किसी को याद किया या नहीं...कोई गाना सुना या नहीं...ग़ालिब को पढ़ रही थी या फैज़ को...सब कुछ. खुली किताब सा था. ये खुली किताब उसे बिलकुल पसंद नहीं आती थी. 

उसे किताबें लोगों जैसी लगतीं...परत दर परत खुलतीं...हर पन्ने में कुछ और लिखा होता और सब कुछ जाने लेने का सस्पेंस उसे किताब आखिरी पन्ने से पढ़ने को मजबूर कर देता कई बार...कि जैसे किसी रिश्ते को हड़बड़ी में कोई नाम दे दिया जाए, 'दोस्ती', फिर आप उम्र भर उस लेबल से चिपके रहोगे और चाह कर भी बाहर नहीं निकल पाओगे. ये तो फिर भी गनीमत है, मान लो कोई कच्ची उम्र रही और बिहार जैसे किसी प्रदेश में रहना हुआ...तब तो एक ही रिश्ता हो सकता था किताबों से या लड़कों से, रक्षा का, 'भैय्या'. कितनी बार किताबों को आग में झोंक देने का मन किया है उसका. मगर किताबों का काम था उसकी रक्षा करना...और ये काम उन्होंने उसके भाइयों से बेहतर किया...किताबें उसे ज़माने की नज़रों से बचाती थी. स्लीपर कम्पार्टमेंट में चलते हुए वह देश के सहिष्णुता भरे माहौल में गाँधी की लिखी 'सत्य के प्रयोग'में आँखें घुसाए रहती. उसके चश्मे और किताब रुपी ढाल के पार कोई निगाह उस तक नहीं पहुँच सकती. अपनी अकेली ट्रेन यात्राओं में उसने समझ लिया था कि किताबें आपकी बेस्ट फ्रेंड हो या न हों...आपकी सबसे अच्छी बॉडीगार्ड जरूर हो सकती हैं. वो अक्सर कोई बड़ी भारी, मोटी सी किताब लिए चलती. अंग्रेजी में हो तो और भी अच्छी. कभी कभी इन किताबों के अन्दर नागराज के कोमिक्स भी रख के पढ़ लेती और अपनी इस जीत पर पूरे रास्ते मुस्कुराती जाती. स्लीपर का ऊपर का कम्पार्टमेंट कभी भी दम घुटने नहीं देता. बहुत गर्मियों में उसका भुजे हुए चावल के लावा जैसा हाल हो जाता और सर्दियों में नाक एकदम टमाटर हुयी जाती. लेकिन हर बार, किताबों के पीछे वह हमेशा खुद को बहुत सुरक्षित महसूस करती.

रांची से उसके गाँव के रस्ते में बस यही एक ट्रेन का रूट पड़ता था. वो रांची स्टेशन पर चढ़ती बाकी लड़कियों को देखती. अपने जींस टी शर्ट और उसके ऊपर पहने ढीले ढाले जैकेट में वो अलग ही नज़र आतीं. सब्भ्रांत. लड़के उन्हें नज़र बचा बचा कर देखते. उसकी तरह पूरे बदन का एक्स रे नहीं करते. लड़की उनके हाथों में कई बार 'कॉस्मोपॉलिटन'जैसी अंग्रेजी मैगजीन देखती और गहरी सांस भरती. एक बार उसने बुक स्टाल पर मैगजीन उठा कर देखी भी थी मगर सौ रुपये की किताब और उसपर के गहरे मेकउप और कम कपड़ों वाली कवर फोटो की लड़की को देख कर ही उसे यकीन हो गया कि ये किताब वो हरगिज़ अपने स्लीपर कम्पार्टमेंट की किसी भी बर्थ पर नहीं पढ़ सकती है. ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए तो कमसे कम एसी थ्री टायर का टिकट कटाना ही होता. सलवार कुर्ता पहने, दुपट्टे से बदन पूरा लपेटे, एक काँधे में कैरी बैग टाँगे धक्का मुक्की में कम्पार्टमेंट में चढ़ना अपने आप में आफत थी. एक तरफ उनके हाथ में महंगे बैग्स हुआ करते थे. पहिये वाले इन बैग्स को खींचने में कहाँ की मेहनत. आराम से एक हाथ में मैगजीन, एक हाथ में बक्से का हैंडिल. कानों में हेडफोन्स लगे हुए. ट्रेन आई नहीं कि अपना बैग सरकाती आयीं और आराम से चढ़ गयीं. लड़की कल्पना करती कि कभी उसकी दिल्ली जैसे किसी शहर में नौकरी लगेगी. फिर वो अपने पैसे से एसी टू टायर का टिकेट कटाएगी और पूरे रास्ते खिड़की वाली बर्थ पर बैठे हुए कभी बाहर के नज़ारे देखेगी तो कभी कॉस्मोपॉलिटन पढ़ेगी. अगर साथ की बर्थ के लोग अच्छे हुए...या कोई खूबसूरत लड़का हुआ तो पर्दा नहीं लगाएगी वरना अपना पर्दा खींच कर चुपचाप अपने छोटे से एकांत सुख में डोलती जायेगी. बंद किताब जैसी. 

स्लीपर में तो वो खाना खुद लेकर चढ़ती. माँ की सख्त हिदायत रहती कि रास्ते का कुछ भी लेकर खाना पीना नहीं है. कभी कभी उसे चाय की बड़ी तलब लगती. मगर फिर उसे वो सारे अख़बार के कॉलम्स याद आ जाते जिनमें नशीली चाय पिला कर न केवल लोगों के सामान की लूट-पाट हुयी, बल्कि कई बार तो जान तक चली जाती रही है. उसके पड़ोस में रहने वाली सहेली की फुआ का जौध ऐसे ही कॉलेज ज्वायन करने जा रहा था. लुटेरों को शायद खबर होगी कि कॉलेज एडमिशन का टाइम है, इस वक़्त लड़के अक्सर फीस के पैसे साथ लेकर चलते हैं. उस घटना में उसी ट्रेन में साथ जाते हुए पांच लड़के एक साथ उनके चंगुल में फंसे थे. बिहिया स्टेशन से अधमरी हालत में रेलवे पुलिस बल उन्हें उठा कर लाया था. हफ़्तों इलाज चला था तब जा कर नार्मल हो पाए थे लड़के. लेकिन एसी टू टायर में तो रेलवे के आधिकारिक चाय वाले होते हैं. युनिफोर्म पहन कर चाय बेचते हैं. आज भले वो तीस रुपये की चार कप चाय पीने का सपना भी नहीं देख सकती लेकिन एक दिन तो ऐसा होगा कि पूरी ट्रेन जर्नी में वो किताब पढ़ती आएगी और जब उसका मन करेगा या जब चाय वाला गुज़रता रहेगा, एक कप चाय माँग लेगी. अगर किसी से बातचीत होने लगी तो दोनों के किये दो कप चाय बोल देगी और खुद ही बिना शिकन के पर्स से साठ रुपये निकाल कर दे भी देगी...हँस कर कहते हुए...कि अजी साठ रुपये होते भी क्या हैं...देखिये न डॉलर तक आजकल ७० रुपये होता जा रहा है. जैसे जैसे उसके फाइनल इयर के एक्जाम के दिन पास आ रहे थे उसकी कल्पनाएँ एसी टू टायर ही नहीं आगे अमरीका तक भाग रही थीं. अब जाहिर है, अमरीका तक भारतीय रेल की पटरियां तो नहीं बिछी थीं. 

अभी पिछले महीने ही तो मोहल्ले में शादी थी तो बरात आने के बाद जनवासे का मुआयना करने वह भी अपने भाइयों के साथ गयी थी. एक बार घर से बाहर निकल जाने के बाद लड़का लड़की में भेद नहीं रहता. दौड़ दौड़ कर बाहर का बहुत सा काम किया था उसने शादी में. पंडाल बुक करने से लेकर खाने के मेनू के आइटम्स में उसकी राय पूछी गयी थी. इस बार उसने चाचा से लाड़ भरे स्वर में कह दिया कि वो भंडारी बन कर कमरे में आटे तेल का हिसाब नहीं रखेगी. वह भी भाइयों के साथ जनवासा जायेगी. एक्जाम ख़त्म हो गए थे. नयी नौकरी का ज्वायनिंग लेटर उसका पसंदीदा बुकमार्क था उन दिनों. वह फिर से दोहरा कर पाश को पढ़ रही थी. सब लोग खाना खाने गए हुए थे, मैरिज हॉल के तीनों एसी कमरे लड़के वालों के लिए बुक थे जिनमें से एक की चाभी उसे भी दी गयी थी. जयमाला के फूल उसी कमरे में रखे थे. थाल सजा कर वो कमरे में रखने के लिए आई थी. इस कमरे में सिर्फ एक ही बक्सा रखा था और बाकी कमरों की तरह आईने के पास लिपस्टिक और जल्दी में फेंकी गयी बिंदियों के स्टीकर नहीं थे. ये कमरा जाहिर तौर से लड़का और उसके दोस्तों के इस्तेमाल के लिए था. उसने थाल करीने से टेबल पर रख दिया कि तभी बिस्तर के सिरहाने उसकी नज़र पड़ी. वो देखते ही पहचान गयी. नोबल पुरस्कार विजेता विस्लावा सिम्बोर्स्का की कविताओं का संकलन, 'Map'की एक प्रति वहां रखी हुयी थी. उसने पहली बार अख़बार में इस लिटरेचर में नोबल पुरस्कार से सम्मानित सिम्बोर्स्का के बारे में पढ़ा था. उनके भाषण का एक छोटा सा हिस्सा अनुवादित होकर उनकी तस्वीर और किताब के कवर के साथ छपा था. किताब ने उसे बेतरह अपनी ओर खींचा था. कुछ तो उस तस्वीर में इंतज़ार और कुछ उसके अपने खुद के सपने जिसमें दुनिया के नक़्शे के कई देश देखने थे उसे. वह रांची में अपने बुकसेलर को कितनी बार बोल चुकी थी लेकिन किताब की प्रति अभी तक नहीं आई थी. उत्सुकता में उसने किताब का पहला पन्ना खोला...लेखिका के नाम के ऊपर हरी स्याही में लिखा था, 'आई लव यू...'कुछ इस तरह से कि पूरा वाक्य बन जाता था, आई लव यू विस्लावा सिम्बोर्स्का. उसने किताब खोली कि अन्दर से फ्लाइट टिकट बाहर गिर गया. हड़बड़ में उसने टिकट की जगह थाल से उठा कर कुछ गुलाब की पंखुड़ियाँ वहाँ डाल दीं. टिकट पर किसी विराग भट्टाचार्य का नाम लिखा हुआ था. 'विराग?!'ये कैसा नाम हुआ...कौन रखता है अपने बच्चे का नाम, विराग! वहां रुकना ठीक नहीं था. किताब को देख कर उसका मन डोल रहा था. यूँ उसने आज तक कभी किसी की किताब चुराई नहीं थी, लेकिन कभी आज तक ऐसी ईमान डोला देने वाली किताब उसके हाथ लगी भी तो नहीं थी. चुपचाप कमरे से बाहर आ गयी. 

फिर तो बाकी शादी में क्या ही मन लगना था. बार बार सोचती रही कि इन सारे लड़कों में विस्लावा सिम्बोर्स्का से प्रेम करने वाला बंगाली विराग होगा कौन. हल्ले हंगामे में शादी कटी. अगले दिन दीदी की विदाई हो गयी. इसके तीन दिन बाद वहीं रिसेप्शन भी था. वो चूँकि दीदी की थोड़ी ज्यादा ही मुन्हलगी थी तो पूरे ससुराल वालों ने भी बड़े प्यार से उसे इनवाईट किया था. बड़े ऊंचे खानदान में बियाही थी दीदी. रिसेप्शन से पहले अपनी एक छुटकी ननद को भेज दिया था उसे पूरे घर को दिखाने के लिए. कमरे में किताब पर उसकी फिर से नज़र पड़ी. इस बार तो उसने तय कर लिया कि ये मिस्टर विराग जो भी हैं, फिर से किताब खरीद के पढ़ लेंगे मगर उसे अगर अभी ये किताब नहीं मिली तो शायद उसकी जान जरूर चली जायेगी. छुटकी को जरा सा भटका कर उसने किताब अपने पर्स में रख ली. रिसेप्शन में घड़ी घड़ी उसका मन उसे काट खाने को दौड़ता. कितनी सारी फिल्मों के सीन याद आते. किसी ने बैग खोल कर देख लिया तो. नतीजन उसने उस बड़े से बैग को पल भर भी खुद से अलग नहीं किया. फोटो खिंचाने तक में बैग टाँगे रही. 

सही गलत क्या होता है इसका सच सच निर्धारण बहुत मुश्किल है. उसने सोचा था किताब की फोटोस्टेट करा के अगले ही दिन दीदी के यहाँ खुद जा के रख आएगी किसी बहाने से. या किसी के हाथ भिजवा देगी. मगर सोच के दायरे में सारी संभावनाएं कहाँ आ पाती हैं. अगले दिन दीदी के नंबर पर फोन किया तो पता चला कि वो हनीमून पर सिंगापुर चली गयी है. सरप्राइज था. अकेले घर में जा कर किताब रखने की तो उसकी हिम्मत नहीं पड़ी. अब जिस किताब को लाने से सीने पर इतना बड़ा बोझ था उसे कम करने का एक ही उपाय था...किताब का सही उपयोग. उसने किताब न केवल खुद पढ़ी बल्कि जिद कर कर के लोगों को पढ़वाई. अपने हिसाब से कई कविताओं के कच्चे पक्के अनुवाद करने की इच्छा पहली बार तब ही जागी थी. पूरे गाँव में बैठ कर उसके साथ विस्लावा की कविताओं में किसी को कोई इंटरेस्ट नहीं था, किसी को इंटरेस्ट था भी तो इस बात में कि वो लड़का कौन था. बहुत मेहनत करके उसने अपनी पसंदीदा कविताओं का अनुवाद किया और किताब के पब्लिशर के पास एक चिट्ठी भेजी कि मैं इससे कोई लाभ नहीं उठाना चाहती हूँ मगर ये कवितायें यहाँ दूर तक पहुचेंगी अगर मुझे अनुवाद को यहाँ के कुछ अख़बारों और मैगजींस में छापने की अनुमति दी जाए, उसने कुछ कविताओं का अनुवाद संलग्न कर दिया था. बचपन से दोनों भाषाओं में पढ़ना काम आया था. उसके अनुवाद में कविता की आत्मा के रंग चमकते थे. पब्लिशर का जवाब हफ्ते भर में आ गया था. लिखने का सिलसिला अनुवाद से शुरू हुआ और उसकी खुद की कविताओं का रास्ता खुलता गया. बचपन से वो खुद में अहसासों की एक झील बनाती जा रही थी और इस रास्ते से झरना फूटा था. उस दिन के बाद उसने मुड़ कर नहीं देखा. 

कवितायें उसकी खासियत थीं. वो अपने सारे खाली वक़्त में अलग अलग भाषाएँ सीखती. किसी किताब के अनुवाद के पहले उस भाषा का कामचलाऊ ज्ञान हासिल करती. उसके अंग्रेजी अनुवाद को पढ़ती. उसके मूल भाषा में लिखे को पढ़ती. वहां के लोगों के जीवन के बारे में पढ़ती. वहां के लोगों से इन्टरनेट के माध्यम से जुड़ती और कविता के श्रोत को समझने की कोशिश करती. सारा लिखा आत्मसात करने के बाद जव वो अनुवाद करती तो कविता का नैसर्गिक सौंदर्य इस तरह उभरता कि समझना मुश्किल होता कि अनुवाद ज्यादा खूबसूरत है या असल कविता. उसकी मेहनत और अनुवाद के प्रति उसकी दीवानगी को देखते हुए कई सारे लेखकों और प्रकाशक उससे जुड़ते गए. जिस सफ़र की शुरुआत ही 'Map'से हो तो नक़्शे पर के शहर तो उसे देखने ही थे. देखते देखते उसने फुल टाइम कविता लिखने, उसपर बात करने और अनुवाद करने को दे दिया. पेरिस, प्राग, बर्लिन, क्राकोव...कई सारे शहर से उसके नाम आमंत्रण आते.एक दिन...क्रैकोव से उसके लिए न्योता आया. सिम्बोर्स्का के प्रकाशक ने उसे बुलाया था. एक बड़ा सेमीनार था जिसमें सिम्बोर्स्का के लेखन, उसकी शैली और उसके प्रभाव पर चर्चा थी. सारे प्रमुख अनुवादकों को बुलवाया गया था.

लड़की ने इतने सालों में कभी Map की खुद की प्रति नहीं खरीदी थी. फ्लाइट में बैठते हुए लड़की ने वही पुरानी किताब निकाली और पढ़ने लगी. याद में शादी की गंध, खुशबुयें और वो अनजान लड़का भी घूमता रहा. रास्ते में उसे हलकी सी झपकी आ गयी. नींद खुली तो देखा कि बगल वाली सीट पर का पुरुष किताब बड़े गौर से पढ़ रहा है. चौड़ा माथा. तीखी नाक. गोरा शफ्फाक रंग. खालिस पठान खूबसूरती. उसने गला खखारा लेकिन वो तो जैसे किताब में डूब ही गया था. आखिर उसने उसे काँधे पर हल्का का हाथ रख के एक्सक्यूज मी कहा. वो चौंका और एक शरारती मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा.
'माफ़ कीजिये, मेरी किताब'
'जी'
'आप मेरी किताब पढ़ रहे हैं'
वो एक ढिठाई के साथ बोला, 'अच्छा, तो आपका नाम विराग भट्टाचार्य है, देखने से तो नहीं लगता'. किसी नार्मल केस में वो हँस देती और पूरी कहानी बयान कर देती, मगर यहाँ सेमीनार में जाने वाले कई ख्याल और शादी की मिलीजुली यादों में डूब उतरा के उसका मूड कुछ खराब सा था.
'मेरा नाम विराग भट्टाचार्य नहीं है, लेकिन ये किताब मेरी है'
'अरे, ऐसे कैसे मान लूं कि आपकी है...क्या सबूत है?'
'मेरी नहीं है तो क्या आपकी है...आपके पास क्या सबूत है कि ये आपकी किताब है?'
'क्यूंकि ये किताब मैंने खुद विराग से चुराई थी'
'जी...मतलब'...वो एकदम ही अचकचा गयी थी.
'बात कोई दस साल पुरानी है...मेरा दोस्त शिकागो से बड़े शौक़ से Map लेकर आया था और हम दोनों को उसे पढ़ जाने का भूत सवार था. मुझे शादी में आना था, बस मैंने चुपचाप उसकी किताब उठा कर अपने बैग में रख ली...शादी में जूते चोरी होना तो सुना था, किताब चोरी करने वाली सालियाँ पहली बार देख रहा हूँ'
'जी!'
'जी'
'आप झूठ बोल रहे हैं'वो सिटपिटा गयी थी.
'ठीक है मैं झूठ बोल रहा हूँ तो क्या विराग भी झूठ बोल रहा है...विराग...बता जरा इनको'
और उसकी बगल वाली सीट पर मंद मंद मुस्कुराता उसका बंगाली विराग भट्टाचार्य था...जो कि शादी में आया ही नहीं था तो उसे दिखता कैसे. 
'मैडम, ये मेरी ही किताब है...शायद आपको याद हो, इसमें एक एयर इण्डिया का टिकट भी था...मैं उसे बुकमार्क की तरह इस्तेमाल कर रहा था.'
इस हालात में हँसने के सिवा कोई चारा नहीं था. तीनो ठठा कर हँस पड़े. विराग और आहिल में शर्त लगी थी. विराग का कहना था कि किसी लड़के ने किताब उड़ाई होगी, आहिल का कहना था कि लड़की ने. फिर पूरा सफ़र बड़े मज़े में बात करते करते कटा. Map से शुरू हुआ सफ़र उन्हें अनजाने पास ले आया था. और वे मिले भी तो कहाँ, क्रैकोव जाने वाले प्लेन में! बातों बातों में कब प्लेन के लैंड करने का वक़्त आ गया मालूम भी नहीं चला. अब बात थी कि किताब किसके पास जाये. आहिल ने कहा कि टेक्निकली किताब कभी उसकी थी ही नहीं फिर भी जिस किताब से इतनी कहानियां बनी हैं उसपर उसका कोई हक नहीं है. वो अलबत्ता खुश बहुत था कि उसकी मारी हुयी किताब कितने दूर तक पहुंची. तीनों फिर सेमीनार में मिलने वाले ही थे. इन फैक्ट वे एक ही होटल में ठहरे थे. विराग ने किताब वापस करते हुए कहा कि बाकी सब तो ठीक है, हाँ बुकमार्क नहीं है...आप चाहें तो मेरा बोर्डिंग पास इस्तेमाल कर सकती हैं. 

लड़की खुश थी. गुज़रते सालों के दरमयान किताबों को ढाल बनने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हाँ उनसे कहानियां जरूर निकलती थीं कई सारी. लेकिन Map के जिंदगी में आने और आज आखिरकार विराग और आहिल से मिलना कोई कहानी नहीं कविता जैसा खूबसूरत था...सिम्बोर्स्का की कविताओं जैसा. लड़की मुस्कुराते हुए उसके बोर्डिंग पास बुकमार्क को किताब में रख रही थी.

एक अम्ल से भरा शीशे का मर्तबान है. जिसमें रूह गलती जाती.

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लड़की आधी रात को पसीने में तर बतर उठती. कमरे में ग्रीन टी की अजीब तिक्त गंध घुली होती. जैसे न पिए जाने का बदला ले रही हो. उसे लिखने के लिए सन्नाटा चाहिए होता था. जिसमें किसी की साँसों का और आधी नींद के सपनों का शोर न हो. मोबाईल में कुछ बेसिरपैर के मेसेज आये हुए होते व्हाट्सएप्प पर. फेसबुक में भी कुछ ऐरे गिरे लोग कुछ बेसिरपैर की बातें लिख जाते. कुछ फालतू की तसवीरें होतीं जो बिलकुल ही कूड़ेदान में फेंकने के लिए होती. वह उस दस सेकंड की बर्बादी के लिए खुद को कोसती...उनलोगों को कोसती जो ये तसवीरें भेजना चाहते थे. सिगरेट की खराश गले में उतरी होती. वो नीम नींद में ही सिरहाने रक्खा बीड़ी का डिब्बा खोलती और माचिस की खिस खिस में नाराज़ होती कि घर के इस अजायबखेल में लाइटर गुमशुदा होना कब बंद होगा. ऐशट्रे खाली होती. उसे याद आता कि दरवेश कितने दिनों से घर नहीं आया है. आखिरी बार कब लगाया था उसके बालों में बादाम का तेल...जरा सी उसकी मीठी महक बाकी रही है....जरा सा त्वचा पर चिकनाहट का धोखा कोई. उसके अपने खुद के बाल उलझे हुए हैं. उसे याद नहीं आखिरी बार बालों में कंघी कब की थी...याद होनी चाहिए ज्यादा जरूरी चीज़ें कि जैसे आखिरी बार मन से खाना कब खाया था. 

शायरा आधी रात को पसीने में तरबतर उठती कि उसे लगता बातें ख़त्म हुयी जा रही हैं. वो बताना चाहती किसी को कि शिकागो में जब वो मोने की पेंटिंग के पास खड़ी थी तो वक़्त रुक गया था...स्पेस, टाइम...सब कुछ उलझ गया था और कि वह ऐसा महसूस कर रही है कि जैसे उसी वक़्त वहीं खड़ी है कि जब मोने पेंटिंग बना रहा था. मगर दुनिया भर के मर्द एक जैसे होते. वे उससे उसके कपड़ों के बारे में जानना चाहते. औरत जानती कि कपड़ों का सिर्फ पर्दा है. वे जानना चाहते हैं कि पर्दा उठा सकें. बढ़ती उम्र के साथ बातें उसे और बेज़ार करती जातीं और वो कड़वी तम्बाकू चबाते हुए कहना चाहती कि सारे मर्द एक जैसे होते हैं. वह अपने शरीर से बेसुध होती जाती मगर जाने कैसे इस बेसुधपने में एक अजीब आकर्षण होता. उसकी त्वचा की ताम्बई चमक मद्धम हो गयी थी...जाड़ों में तो अब उनमें दरारें पड़ जाती थीं. वो अपने नाखूनों से खुरच कर आड़ी तिरछी रेखाएं बनाती. वो अनजाने भी अपनी त्वचा पर सींखचे खींच रही होती. कुछ आदतें बड़ी जिद्दी होती हैं. न छूने देने की उसकी जिद उसकी त्वचा को ही नहीं जिंदगी को भी रूखा करती जा रही थी. वसंत बीत चुका था. बारिश ख़त्म हो गयी थी. जाड़ों के दिन थे. हाड़ कंपाने वाले जाड़ों के. उसे लेकिन किसी के बदन की गर्मी नहीं चाहिए होती. उसे बातें चाहिए होतीं. बातों को दिल की भट्ठी में झोंक कर वो उम्र भर लम्बी ठंढ काटना चाहती थी. दीवानेपन की भी क्या क्या कहानियां होतीं हैं. 

उसके अन्दर का किस्सागो कभी कभी पागल हो जाता. वो चीखना चाहती कि आखिर क्या रक्खा है इस बदन में. मेरी कहानियों को सुनो. मेरी आँखों और मेरे होठों को मत देखो. मेरे शब्दों से इश्क करो. मुझसे नहीं. ये जिस्म तो मिट्टी में मिल जाना है. मगर वे उसके शब्दों में उसका जिस्म तलाशते रहते. उसकी गंध. उसका इत्र. उसकी अभिमंत्रित आवाज़. उसे चूमना चाहते सड़क किनारे किसी पेड़ की ओट में. सीढ़ियों भरे गलियारों में. कला दीर्घाओं में. किताब के पन्नों में भी. जिस्म एक अम्ल से भरा शीशे का मर्तबान हो जाता जिसमें रूह गलती जाती. वो कहानियों को कपड़े पहनाती चलती. किरदारों को शर्म में डुबो डुबो आत्महत्या करने को मजबूर कर देती. रूमान की जगह भुखमरी लिखती. मुहब्बत की जगह फाके वाली दोपहर और विरह की जगह मौत लिखती. मगर फिर भी उसके किरदार संदल से गमकते. उसकी आँखें ध्रुवतारे सी चमकतीं. कहीं न कहीं छूटे रह ही जाते काढ़े हुए रूमाल...किसी कालर पर लिपस्टिक का दाग कोई या कि किसी के काँधे पर अलविदा की गंध. हाथ की रेखाओं में उग आता बदन सराय का नक्शा और हर मुसाफिर उसके जिस्म की झील में कपड़े उतार कर अपने सफ़र की सारी धूल धो देना चाहता. 

एक दिन उसके बदन में बड़े बड़े नागफनी के कांटे उग आये. तीखे और जहरीले. उसे छूना तकलीफदेह होने लगा. उससे हाथ मिलाने भर से ऐसे ज़ख्म उगते कि भरने में हफ़्तों लग जाते. वो यूँ तो बहुत खुश होती मगर उँगलियों में भी कांटे उग आये तो उसके लिए लिखना मुश्किल हो गया. वो जब तक एक पन्ना लिखती कटा हुआ काँटा फिर से पूरा उग आता. आखिर उसने कहानियां न लिखने का फैसला किया. ये उसके अन्दर दफ्न कहानियां थीं जो कांटे बनकर उसके जिस्म से उग आई थीं. यूं भी कहानियों ने उसके लिए हमेशा ढाल का काम किया था. इसी बीच एक रोज़ दरवेश आया. वो सो रही थी. दरवेश ने माथे पर स्नेह से हाथ रख कर दुलराया तो कांटे भी सो गए. दरवेश बहुत देर तक उसके सिरहाने बैठ कर दुआएं कहता रहा. खुदा मगर उन दिनों काफी व्यस्त था. अधिकतर दुआएँ बैरंग वापस लौट आती थीं. दरवेश ने एक एक करके लड़की के बदन से सारे कांटे तोड़े. हर ज़ख्म के ऊपर कविता का फाहा रखता और सिल देता. मगर काँटों का गुरूर था. वे भीतर की ओर उगते गए. लड़की ने अपनी तकलीफ किसी से नहीं कही. बस उसने किसी से भी मिलना जुलना बंद कर दिया. 

इसके बहुत बहुत रोज़ बाद शाम की हवा में क्लासिक अल्ट्रामाइल्ड्स की गंध घुलने लगी. लड़की की उँगलियों में उसका गहरा लाल लोगो उभरा. इक यायावर उसके दिल से गुज़र रहा था. उसे लड़की के ज़हरीले काँटों के बारे में कुछ पता नहीं था. जाते हुए उसने लड़की को बांहों में भींच लिया...जैसे यहाँ से कहीं न जाना हो आगे...लड़की के सीने के बीचो बीच धंसा था एक ज़हरीला काँटा...उसकी रूह को बेधता हुआ.
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