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Channel: लहरें
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कोहरे में सीलता. धूप में सूखता. कन्फुजियाता रे मन.

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क्या करेगी रे लड़की ड्राफ्ट के इतना सारा पोस्ट का. खजाना गाड़ेगी घर के पीछे वाली मिटटी में कि संदूक में भरे अपने साथ ले जायेगी जहन्नुम? कहानी पूरा करने के लिए तुमको कोई लिख के इनवाईट भेजेगा...हैं...बताओ. दिन भर भन्नाए काहे घूमती रहती हो?

भोरे भोरे छः बजे कोई पागल भी ई मौसम में उठता नहीं है. कितना धुंध था बाहर. मन सरपट दिल्ली काहे भागता है जी...और जो दिल्लिये भागना है तो एतना बाकी शहर घूमने के लिए जान काहे दिए रहते हो रे? भोरे उठे नहीं कि धौंकनी उठा हुआ है...कौन लोहा है जी...दिल न हुआ कारखाना हो गया...गरम लोहा पीटने वाला लुहार हो गया...खून वैसे चलता है जैसे असेम्बली लाइन पर अलग अलग पार्ट. ऊ याद है जो मारुती के फैक्ट्री गए थे गुडगाँव में...कितना कुछ नया था वहां देखने को.

लेकिन बात ये है कि छुट्टी मिलते ही दिल दिल्ली काहे भागता है. जैसे एक ज़माने में पटना में आ के बस गए थे लेकिन दिल रमता था देवघर में. वहां का सब्बे चीज़ बढ़िया. अब कैसा तो देवघर भी पराया हो गया. घर है कहाँ? कहीं जा के नहीं लगता कि घर आ गए हैं. केतना तो चिंता फिकिर माथे पे लिए टव्वाते रहते हैं...यार ई स्पेल्लिंग सही नहीं है. जो शब्द दिमाग में आये उसका स्पेलिंग नहीं आये तो माथा ख़राब हो जाता है. भोरे भोर बड़बड़ा रहे हैं.

अबरी देवघर गए तो सीट के रसगुल्ला खाए...एकदम बिना कोई टेंशन लिए हुए कि वेट बढ़ेगा तो देखेंगे बैंगलोर जा के. सफ़ेद वाला...पीला वाला और ढेर सारा छेना मुरकी. अबरी गज़ब काम और भी किये कि एतना दिन में पहली बार सबके लिए खाना भी बनाए. वैसे तो हम बेशरम आदमी शायद नहियो बनाते लेकिन गोतनी को देख कर लजा गए...नयी बहुरिया...आई नहीं कि चौका में घुस गयी...सबको चाय बना के पिलाई और सब्जी बना रही थी. चुल्लू भर पानी डूब मरने को तो हमको मिलने से रहा. उसका आलू गोभी का सब्जी देख कर बुझा रहा था कि चटनी नियन भी खायेंगे तो घर में पूरा नहीं पड़ेगा. कुल जमा आदमी घर में उस समय था १८ चार पांच कम बेसी मिला के.

धाँय-धाँय जुटे एकदम. छठ का ठेकुआ बनाने में बाकी सब लोग था. तुरत फुरत आलू छील के काटे...फिर बैगन और टमाटर. हेल्प के लिए दू ठो लेफ्टिनेंट भी थी...छुटकी ननद सब...छौंक लगा के आलू बैगन डाले. इधर तब तक रोटी का कुतुबमीनार बनाना शुरू किये. सब्जी सिझा तो मसाला डाल के भूने और फिर टमाटर डाल दिए. इतने लोग का खाना पहले कभी बनाए नहीं थे लेकिन आज तक कभी नमक मसाला मेरे हाथ से इधर उधर नहीं हुआ था तो डर नहीं लगा. खाना बनाते हुए याद आ रहा था मम्मी बताती थी कैसे शादी के बाद ससुराल आई तो उसको कुछ बनाने नहीं आता था और ऊ सब सीखी धीरे धीरे. हमको खाली उतना लोग का आटा सानना नहीं बुझा रहा था. हम जब तक कुणाल का ब्रश खोज के उसको देने गए तब तक आटा कोई तो सान दिया था.

कभी कभी लगता है हम अजब जिद्दी और खत्तम टाइप के इंसान है. इतना लोग का रोटी नॉर्मली ऐसे बनता है कि एक कोई बेलता है, दूसरा फुलाता है. अब हमको सब काम अपने करना था...कोई और करे तो नौटंकी...रोटी जल रहा है, नै कच्चा रह रहा है...दुनिया का ड्रामा. सब ठो बन गया तो सोचे एक महान काम और कर लें, पता नै कब मौका मिले फिर. नहा के परसाद का ठेकुआ भी छाने खूब सारा. लकड़ी वाला चूल्हा में बन रहा था ठेकुआ...खूब्बे धाव था उसमें. हमको खौला हुआ तेल से बहुत डर लगता है तो ठेकुआ झज्झा पे धर के डाल रहे थे घी में...कहाँ से सीखे मालूम नहीं...अपना खुद का इन्वेंशन है कि किसी को देखे. घर पर लोग बोला 'लूर तो सब्बे है इसको...खाली कोई काम में मन नहीं लगता है'. थोड़ा देर के लिए तो मेरा भी मन डोल गया. सोचने लगे कि सब लोग कितना काम करती हैं रोज...अगला बार से छुट्टी पर घर आयेंगे तो रोज खाना बनायेंगे सब के लिए. पता नहीं सच्चे कर पायेंगे कि नहीं.

देवघर में खाना में इतना स्वाद आता है कि बैंगलोर में हम कुछो कर लें नहीं आएगा. भुना हुआ रहर का दाल में निम्बू और अपने खेत का चावल...आहा. सुबह नीती वाला सब्जी भी ख़ूब बढ़िया बना था आलू गोभी का लेकिन मेरे खाने टाइम तक बचा ही नहीं था. नानी लोग बोल रही थी कि इतना अच्छा बिना प्याज लहसुन वाला आलू बैगन ऊ कभी नहीं खायी थी. घर पर बचपन से बिना प्याज लहसुन के ही खाना बनता देखे हैं तो असल सब्जी हमको भी बिना प्याज वाला ही बनाना आता है. जब तक दादी थी तब तक तो घर में कभी नहीं आया.

नीती एक दिन खूब अच्छा चिली पनीर भी बना के खिलाई सबको. गोलू हमको बोला...भाभी अब आप भी कुछ खिलाइए ऐसा बना के...इतना दिन हो गया. हम तो हाथ खड़ा कर दिए हैं...हमसे नै होगा. कुछ और करवा लो...लिखवा लो, पढ़ाई करवा लो...तत्काल टिकट कटवा लो हमसे. खाना बनाना हमसे नै होगा. गज़ब सब काण्ड करते हैं हम भी...अबरी तीन बार देवघर स्टेशन गए टिकट कटाने. फॉर्म भर कर लाइन में लगे हुए फोन पर तत्काल टिकट कटाए. वृन्दावन में जा के भर दम मिठाई ख़रीदे और घर आ गए. और एक स्पेशल काम किये...स्कूल जा के सर से मिले. उसपर एक ठो डिटेल में पोस्ट लिखेंगे आराम से.

दस बीस ठो नागराज और ध्रुव का कोमिक्स खरीदे. छठ स्पेशल ट्रेन इत्ता लेट हुआ कि फ्लाईट छूट गया. वापस आये हैं तो तबियत ख़राब लग रहा है. अबरी पापा से मिलने भी नहीं जा सके. पाटली में इतना भीड़ था कि दम घुटने लगा...झाझा में उतर कर जनशताब्दी पकड़ के वापस देवघर आ गए. आज भोरे से कैसा कैसा तो दिमाग ख़राब हो रहा है. बुझा ही नहीं रहा है कि क्या क्या घूम रहा है माथा में. एक ठो दोस्त को बोले हैं कि आज गपियाते हैं आ के. ऊ भी पता नहीं जायेंगे कि नहीं.

भोरे सोचे कि पापा को फोन करके पूछें कि मन काहे बेचैन रहता है हमेशा...फिर सोचे पापा परेशान हो जायेगे. खूब देर तक बैठ के पुराना फोटो सब देखे. स्विट्ज़रलैंड का, पोलैंड का, अलेप्पी और जाने कहाँ कहाँ तो. कुछ देर गुलाम अली को सुने...फिर भी सब उदास लग रहा था...तो DDLJ का गाना लगा दिए. अनर्गल लिख रहे हैं पोस्ट पर. सांस लेने को दिक्कत हो रही है.

देख तो दिल कि जाँ से उठता है 
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

झूलती हरियाली, नीला आसमान और बूंदों का ओपेरा

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यूँ मुझे सरप्राइज होना कभी पसंद नहीं है. चीज़ों को लेकर इतनी पर्टिकुलर हूँ कि शायद ही कभी कोई मेरी पसंद का कुछ ला पाता है. बहुत कम लोग हैं जो अधिकारपूर्वक ये कह सकते हैं कि 'तुम्हें ये पसंद आएगा'. कल ऑफिस पहुंची तो पता चला हमें बेसमेंट से ऊपर शिफ्ट कर दिया गया है. ऑफिस में नया कमरा बना था कंटेंट और डिजाइन टीम के लिए, सबसे ऊपर वाले तल्ले पर. 

दरवाज़ा खोलते ही मिजाज हरा हो गया एकदम. हॉल में सफ़ेद दीवारें थीं...खुला खुला...हवादार और हर खिड़की पर झूलते हुए गमले. टेबल के पास कोई छः इंच की जगह पर छोटे छोटे फूलों वाले गमले. बहुत सारी धूप और रौशनी. ग्यारह बजे ऑफिस जाने का नतीजा ये कि सबसे अलग वाली खिड़की मिली मगर फायदा ये कि पूरी की पूरी खिड़की मेरी...किसी से शेयर करने की जरूरत नहीं. 

सीट से सामने खुला आसमान दिखता है, एकदम नीला और उसमें सफ़ेद बादल. लैपटॉप से नज़रें उठाओ और रिचार्ज हो जाओ. इन फैक्ट जगह इतनी अच्छी थी कि किसी का काम करने का मन नहीं करे...यहाँ दिन भर खयाली पुलाव पकाए और शेयर करके खाए जा सकते थे...कहानियां बुनी जा सकती थीं और खूबसूरत संगीत सुना जा सकता था. जगह इतनी अच्छी कि सुबह सुबह ऑफिस जाने का दिल करे. बाकी के ऑफिस के सारे लोग भी आ कर कह रहे थे कि ये अब वाकई क्रिएटिव रूम लगता है...कि वे भी यहाँ बैठ कर काम करना चाहते हैं. कमरे की सारी दीवारें सफ़ेद हैं सिवाए इस वाली के जिसका रंग डार्क ग्रे है...दोपहर को जब धूप गिरती है तो शेड्स बन जाते हैं और फिर बाहर के नीले आसमान को एक बेहतरीन कंट्रास्ट देते हैं. कल आइफोन से ही बहुत सी फोटो खींची...आज अपना डीएसएलआर ले कर जा रही हूँ. 

हम जिस जगह रहते हैं, उसको बेहतर किया जा सकता है कई मायनों में...इसके लिए सिर्फ सोच की जरूरत होती है. यहाँ जो गमले हैं वो नारियल रेशे की बुनी हुयी हैं, ये जोर्ज ने अपने भाई से केरला से मंगवाए थे. सन्डे को पूरा दिन वो इन गमलों की सही जगह और बाकी डेकोरेशन करता रहा. छोटी छोटी चीज़ों से कितना असर पड़ता है. थोड़ी सी हरियाली...जरा सा खुला आसमान...और क्या चाहिए? आज मैं कुछ और किताबें ले जा रही हूँ कि अब ये जगह अपनी सी लगती है, जिसे अपने हिसाब से सजाया और संवारा जा सकता है. 

ऑफिस की व्यस्ताओं के कारण लिखने का एकदम वक़्त नहीं मिला. इन फैक्ट जब से लिखना शुरू किया है, ये पहला साल है जब मैंने इतना कम लिखा है, बाकी सालों से आधा. कई बार इस चीज़ को लेकर काफी कोफ़्त होती है कि मेरे लिए जीने का मायना सिर्फ लिखने के पैमाने में नापा जा सकता है. अगर लिखती नहीं हूँ तो समझ नहीं आता कि पूरा साल गया कहाँ...किधर गायब हुआ...क्या करते बीता. यूँ बहुत सी चीज़ें की हैं प्रोफेशनली मगर उनसे जाने क्यूँ न गर्व का भाव आता है न वैसी संतुष्टि मिलती है. 

कल शाम होते होते काले बादल घिर आये और तेज़ बारिश हुयी. टप्पर की छत पर बूंदों ने ऐसी धमाचौकड़ी मचाई कि हम बगल वाली सीट पर बैठे व्यक्ति को सुन नहीं सकते थे. बारिश बेहद तेज़ थी...बिजली का कड़कना दिखता और फिर जोर से बादल गरजते...ठीक बारिश के बीच बना घर जैसा कोई...एक ऐसा द्वीप जो बाकी दुनिया से कटा है. कमाल थी वो आवाज़...संगीत जैसी...ऊंचे सुर के आलाप जैसी...जहाँ कहानी का क्रेसेंडो हो. अभी जेनरेटर बैक अप नहीं है तो बिजली जाने के बाद अँधेरे में बस बिजली का चमकना...बूंदों का शोर और जाने कितनी कहानियां उमड़ती घुमड़ती हुयीं. 

शब्दों में यकीन करने वाले लोगों के लिए सब कुछ तो शब्द ही हैं...इसलिए...थैंक यू जोर्ज. 

तुम रे हम्मर पोखर के चंदा

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ऐ सुनो न, महादुष्ट और चोट्टेकुमार, मुझे एक चिट्ठी लिखो न! हे आलसावतार...तुमसे कोढ़ी भी लजा जाए. हमरा एतना चिट्ठी पढ़े हो बैठ के जाड़ा में...चूल्हा में पकाया अल्लू खाते हुए. भुक्खड़ रे, ई सब से ऊपर उठ के एक ठो हमको चिट्ठी लिखो न. ऐसे कईसे चलेगा रे...खाली कोहरा पी के जिए आदमी बतलाओ...ठंढा का दिन आया, हाथ गोड़ अकड़ रहा है. ए गो तुमरा चिट्ठी आता तो हम भी न बैठ के अलाव तापते हुए पढ़ते. बचवन सब को बतलाते ई हमार चोट्टा दोस्त है...तुम लोग अगर बेसी सुधरे हुए निकल गए कहीं गलती से तो तुम सबको इसी के पास भेज देंगे, चोट्टागिरी का ट्यूशन लगाने.

ऊ पिछला जाड़ा याद है तुमको? कैसा एकदम भरदम पानी पड़ा था? खेत का मेड़ बह गया था. भोरे भोर भागे थे कुदाल ले कर. यादे से बिसरता नै है रे. कंपकपाते लौटे थे तो माई तुमरे लिए धाव लगा के रखी थी. तुम नै होते तो चार बेटी के घर में खेती बाड़ी कैसे चलता रे. मैय्या कहबे करती थी तुमको 'तारणहार'...ठिक्के न कहती थी. तुम नै होते तो कुच्छो नै होता घर में ठीक से. ऊ साल याद है जब दिदिया जिद्दी एकदम पकड़ ली थी कि मेला जईबे करेगी. भर दिन खाना नै खायी, फिर तुमरे बोलने से उसको भरोसा हुआ था और कोई तरह दू फांक चूड़ा निगली थी. तुम नै होते तो दिदिया मर जाती न उही साल.

घर में सब केतना अच्छा तो है रे...मेरे घर में...तुमरे घर में...एक हमीं दोनों चोट्टे निकल गए. ऊ कहते हैं 'एक पिता के विपुल कुमारा, होइ पृथक गुण शील अचारा...इसके आगे वाला याद है तुमको...जिसमें हम हमेशा तुमको गंवारा कहते थे. वैसे देखो तो गंवारा होना कोई गाली नहीं है...उसपर हम दोनों एक्के गाँव के थे...तभियो...गंवार तुम्ही कहलाये हरदम. इस्कूल में तो कक्षा चार तक हम हरदम तुमरे साथ में बैठे थे. सब खेला भी तो हमको तुमसे बेसी बढ़िया आता था. केतना दिन तुमको गुरूजी के मार से बचाए. तुमरा कोपी सब हमरे पास रहता था, नै तुमको कभियो होस रहे...कहीं भुतला आओगे. एक बार हमको बात बात में ध्यान नै रहा, तुमरे कॉपी में लिख लिए सब...तुम उही वाला कोपी पर रामनौमी का लिस्ट बना के चल दिए थे अदरास. बाकी सामान तो ठीक आ गया था मगर कितना कुटाये थे हम दोनों. दिमाग कहाँ भटकल रहता था तुम्हारा भगवान् जाने. झगड़ा जो करें तो बरगला दिए हमको हरदम्मे.

हमको लगता है तुमरे में बदमासी का गुण तुमरी दादी से आया है. अजनास थी एकदम्मे...उसके जैसा कहीं कोई नै था जिसको हम तुम कभी जाने...नहीं? तुमरी दादी हमको बेसी मानती थी तुमसे, हमरा रंग तुमसे बेसी था, एहिलिये. तुम केतना भी गंगा मिट्टी रगड़ के नहा लो तुम्हरा रंग हमसे बेसी साफ़ कभियो नै होगा. हमरे जैसा गोरा तो चार गाँव भर में कोइय्यो नै था. हंसो नै बेसी दांत चियार के...मज़ाक नै सुनाये हम. दादी कहती थी कि हमरे जैसन सुन्दर लड़की का हरदम जल्दी बियाह हो जाता है, लेकिन हमरी दिदिया सब है एही लिए टाइम लगेगा. ऊ टाइम में दादी हमको पढ़ के कलक्टर बनने बोलती थी. दादी को के बताया कि कलक्टर का जिंदगी अच्छा होता है. बेचारा कैसा तो खटारा जीप में गाँव गाँव भटकता है. पिछले बार जो टायर पंचर हुआ था घर के बाहर कैसा बोका जैसा देख रहा था नया कलक्टर हमको. ऐसा पढ़ के कौन गाँव का नाम रोशन किया जी...सब पढ़ाई लिखाई में इतना नै बताया कि लड़की को ऐसे आँख फाड़ फाड़ के नै देखते हैं. बेसी पढ़ाई लिखाई ले डूबी और क्या. हमको सब बुझाता है. दादी लोग एकदम भोली होती है रे...जरा सा अख़बार पढ़ के सुना दिये उसी में सपनाने लगी कि लड़की कलक्टर बनेगी. बताओ रे, के जा के पढ़ने देता मुंगेर में. जरा जो अच्छा बतियाने लगते हैं उसी में सब हल्ला करता है कि लड़की बहस गयी है.

तुम तो हमसे उमर में दू साल बड़े हो, तुम तो हमसे बेसी दुनिया देखे होगे...बेसी जानते होगे सब चीज़. तुमको कैसे नै बुझाया कि हमरा बियाह कहीं और होयेगा तो हमको दुखायेगा. हमको थोड़ा पहले बुझा जाता तो हम मना कर देते. बाबूजी हमरा बात एक बार सुनते तो...सीधे थोड़े न ऊ कलक्टर से बियाह देते हमको. हमको नै बनना था कलक्टरनी रे. हम तुमरे घर रहते...दादी का गोड़ दबाते, करकी गैय्या को पहला रोटी खिलाते...इसी में हमरा सुख था. काहे ला जाए रे आदमी तीन नदी तेरह पहाड़ दूर. घर का केतना याद आता है के तुमको का बताएं. हम छोटे थे न तुमसे, हमको समझने में देर हो गया के एक दिन तुम सब से दूर चले जायेंगे. बाकी लोग के बिना जीने का घुट्टी तो माय बचपन से घोर के पिला दी थी...तोरे बगैर जीने का कोई बोलबे नै किया रे. हमको कोई बताता ना...हम बूझ जाते. बुड़बक थोड़े न हैं हम.

दीदी को जब बिट्टू होने वाला था हम गए थे न उसका ससुराल, आरा. कैसा तो जी लगता था ऊ शहर में...हरदम जैसे दम घुटता रहे. दिदिया बोलती थी हमरे दिमाग में है खाली सब खुराफात...केतना बढ़िया सहर है. चमचम लाईट है. दिन रात बिजली रहता है. शाम को लैम्प, लालटेन कोई चीज़ जरूरी नहीं. बटन दबाव और भक से उजियार हो जाता है. हम ऊ उजियार में तुमको बहुत्ते याद किये रे. जीजाजी भी बहुत मानते थे. रोज मिठाई लेते आते थे घर लौटे समय लेकिन बोली बहुत रक्खा. एकदम करेला जैसा. स्कूल में बिन्नी बोलबे करती थी, आरा छपरा वाला आदमी का बोली बहुत ख़राब होता है. दिदिया बताएगी नै लेकिन हमको लगता है उसपे जीजाजी हाथ भी उठाये हैं रे. यहाँ केतना हल्ला करती थी तुमको याद है...वहां कुछ नै बोलती है, कोई जिद नै करती है. एकदम कैसी तो...एकदम...माय जैसी हो गयी है रे. सब पानी चला गया उसका. हम रोज लिखते थे न तुमको पोस्टकार्ड, बताओ. हमको चिन्नी बतलाया कि तुम रोज घर आते थे...माई तुमको अल्लू भून के देती थी और तुम हंस हंस के हमरा चिट्ठी पढ़ते थे. तुम हैय्ये हो चोट्टा रे...हम का कोई लतीफा भेजे रहते थे तुमको!

अच्छा रे, एक बात बताओ, तुम ऐसे दुखाओगे का जिनगी भर, टीस जैसन? कभियो तो कम होगा न दरद? भागो फुप्फू से बतियाये तो बोली बाल बच्चा हो जाएगा तो ई सब नै याद आएगा. ऊ और बहुत समझाई रे, लड़की बियाह के बाद ई सब नै बोलना चाहिए...ई सब सोचना भी नै चाहिए...मेहमान जी बहुत अच्छे हैं. उनका खाली ख्याल करना चाहिए. चाहिए तो बहुत होता है रे...होता काहे नहीं है हमसे कभी चाहिए वाला चीज़? इतना सारा सवाल का के जवाब देगा?

बड़का बड़का सवाल सब जाने दो...ई बताओ, हमको एगो चिट्ठी लिखोगे न? पोस्टमैनवा को तकते तकते पथरा गए रे...एतना तो अहिल्या भी नै इंतज़ार की थी रे भगवान राम का.



सुग्गा रे मोर, पाहुना रे, ललका गोटी हमार
तुम रे हम्मर पोखर के चंदा, तुम हमरे चोट्टाकुमार

एगो चिट्ठी लिखो रे हमको...

खंडित ईश्वर की साधना

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मेरे बिना तुम हो भी इसपर मुझे यकीन नहीं होता. खुदा होने का अहं है. मैंने तुम्हें रचा है. बूंद बूँद रक्त और सियाही से सींचा है तुम्हें. मेरे बिना तुम्हारा कोई वजूद कैसे हो सकता है. तुम्हें रचते हुए कितना कितना तो खुद को रखती गयी हूँ तुम्हारे अन्दर. अपने बागी तेवर. अपने आसमान से ऊंचे ख्वाब. अपने वो किस्से जो किसी दरख़्त की खोह में छुपा रखे थे. तुमने सारा कुछ जिया जो मैंने अपनी लिस्ट में लिख रखा था. फिर अचानक से कैसी जिद पकड़ ली तुमने कि कागज़ की नाव बन उफनती गंगा में उतर गए. इश्क ही तो हुआ था तुम्हें मुझसे...ऐसा गुनाह तो नहीं था कि जिसकी माफ़ी न हो. हुआ तो था मीरा को भी इश्क...अपने श्याम से. देखा तो था अपने इष्ट को उसने गीत के हर बोल में...जहर के प्याले में. तुम्हें डर लगता था तो मुझसे कहा होता, मैं तुम्हें एक कमरे के घर में नज़रबंद कर देती. मगर तुम्हें तो मुझसे दूर जाने की जिद थी. तुम्हें ये कौन सी दुनिया देखनी है जिसका हिस्सा मैं नहीं हूँ.

सोचती हूँ मेरे बिना तुम कैसे जीते होते. गंगा किनारे काली रेत पर बैठते हो और दूर तक खरबूजे की कतार दिखती है तो हँसते हो अब भी कि खरबूजे का रंग कैसा है. जैसे ताड़ पर चीरा लगाते हैं न, वैसे ही दिल पर चीरा लगा हुआ है तुम्हारे, जिससे ज़ख्म ज़ख्म इश्क रिसता है...उसपर गंगा मिटटी की पट्टी कर दो. शायद कुछ दिन में भर जाए. इश्क नशे की तरह चढ़ता है मेरी जान, फिर बाढ़ के आने की जरूरत नहीं होती डूबने के लिए.

तुम्हें रचने का सुख अलौकिक था. सारे किरदारों में तुम मेरे सबसे पसंदीदा हो. तुम्हारी हर चीज़ परफेक्ट करने के लिए कितनी कोशिशें की थीं, और किसी के लिए जगी मैं ब्रह्म मुहूर्त में कभी? नहीं न...वो तो सिर्फ तुम्हारी आँखों का रंग लिखना था इसलिए. लोग कहते हैं सूरज की लाली फूटने के पहले अँधेरा सबसे ज्यादा गहरा होता है. बिना खुद महसूस किये उसे उस गहरे अँधेरे को तुम्हारी आँखों में कैसे उतार सकती. अलार्म लगा कर उठी थी. सुबह ठंढ पड़ने लगी है आजकल. निंदाये हुए में एक लम्बी सी जैकेट पहनी और स्कार्फ लपेटा. अँधेरे को महसूस करने के लिए जरूरी था कि रौशनी का श्रोत पास न हो. सिर्फ उम्मीद पर जियें कि थोड़ी देर में सूरज उगेगा. अँधेरे को आत्मसात करने के लिए तन्हाई जरूरी होती है. खुले आसमान के नीचे अपनी पसंद के तारे चुनने का सोच के गयी थी मगर भूल ये गयी कि चश्मे के बिना कुछ दिखेगा नहीं. वो अँधेरा सम्पूर्ण था. उसमें कुछ दिख नहीं रहा था...सिवाए ध्रुव तारे की मद्धम और फैली रौशनी, जैसे रोने के बाद की आँखों से दिखती है दुनिया...धुली हुयी. ये बिलकुल सही रंग था तुम्हारी आँखों के लिए. बस इतनी सी ही रोशनी भी कि तुम देख सको कागज़ और कलम कि जहाँ से तुम्हारा वजूद तैयार होता था.

तुम्हारी तीखी जबान के लिए मैंने कितने उन दोस्तों से बात की जिनसे मिले ज़माने गुज़र गए थे. उन्हें आता ही नहीं था तमीज़ से बोलना. बात बात में गालियाँ, बात बात में तकलीफ पहुँचाने वाले किस्से. अपने नियमों पर किसी की जिंदगी उधेड़ के रख दें. उन्हें कितना भी समझाऊं कि मैं जिंदगी अपने हिसाब से जीती हूँ और मुझे और किसी चीज़ की जरूरत नहीं है. वे थमते नहीं, एक एक करके वाकये निकलते और मेरी गलतियों पर प्यार के बोल नहीं कटाक्ष की मिर्ची रखते. उनसे मिलना जरूरी हुआ करता लेकिन. वे अक्खड़ दोस्त ही मेरे इतने साहसी होते थे कि पाँव में लगी मरहमपट्टी खोलते. हफ्ते भर पहले धंसे कांटे को निकलने के दर्द के मारे मैं उसे घाव बन जाने देती थी. वे मेरी चीखों से बेअसर रहते और ब्लेड को धिपा कर घाव बहा देते और फिर उसमें से काँटा निकालते. उन्हें न मवाद से डर लगता, न खून से. उन्हें बस इस बात से मतलब था कि मैं कोई चुभती चीज़ दिल में लिए न घूमूं. जिन अधमरे रिश्तों को मैं सहेजे चलती थे, वे उन्हें गला घोंट कर मार डालते. इतनी हिकारत भर देते कि भूलना आसान हो जाता मेरे लिए. हाँ, उनकी दी हुयी तकलीफें ऐसी होती थीं कि उसी वक़्त मर जाने का दिल करता...मगर उनके जाने के बाद हमेशा हल्का महसूस होता. वे तीखे थे, रूखे थे मगर सच्चे थे. तुम्हारी तरह.

पूरे सफ़र में सबसे खूबसूरत पड़ाव था तुम्हारी संगीत की समझ विकसित करने वाला. तुम्हारे लिए मैंने दूर देश की यात्राएं कीं और तरह तरह का संगीत सहेजा...कुछ पन्नों में, कुछ यादों में और कुछ साउंड रिकॉर्डर में. मगर सबसे खूबसूरत संगीत सहेजा मैंने तुममें. तुम मेरी चलती फिरती डिक्शनरी बनते गए थे. योरोप के घूमे हुए गाँवों से उठाये लोकगीत हों कि इन्टरनेट पर पाए हुए अनगिन, अबूझ भाषाई गानों के कतरे. कितना नए वाद्ययंत्रों को देखा, सुना, समझा. तुम्हारे लिए सारंगी बजाने वाले को घर बुला कर एक साल रखा अपने पास. जितना तुम सीखते और डूबते जाते, उतना मैं हवा में उड़ती जाती. तुम्हारे रियाज़ से मेरी आँखें खुलतीं. मुझे लगता है यही वो वक़्त था जब तुम्हें मुझसे इश्क होता जा रहा था. तुम राधा बने श्याम के प्रेम में वृन्दावन पहुँचते और मैं होली के वक़्त टिकट बुक करा कर. अबीर और रंग के उस उल्लासोत्सव में सब भूल जाना चाहता था मन.

लौटने पर तुम्हें सुनना चाहती थी आह्लाद का वो क्षण, लिखना चाहती थी तुम्हारे हिस्से होली का एक पूरा दिन कि जब रास रचता है...कृष्ण की डायरी से चुरा कर वो होली का दिन लिखना चाहती थी तुम्हारे नाम मगर सिर्फ एक ख़त था तुम्हारा. तुम्हें मेरी आँखों से नहीं, अपनी आँखों से दुनिया देखनी थी. मेरी कलम की सियाही तुम्हारे लिए सारे रंग नहीं रच पा रही थी. उफनती गंगा में कागज़ की कश्ती लिए उतर गए. मेरा दर्प सियाही की बोतल की तरह ही चूर चूर हुआ है. इश्क के इस राग को समझने में तुम्हें वक़्त लगेगा...उम्र जब अपनी सलवटें तुम्हारे माथे पर रखेगी तब तुम्हें महसूस होगा...तुम्हें रचना तुमसे इश्क करना ही था. तुमने विरह की ये अखंड ज्योति जला दी है दिल में. तुम कच्चे हो अनुभव में. तुम्हें  मालूम नहीं, दिए की लौ में सिर्फ रौशनी नहीं होती...धाह भी होती है. तुम्हारे लौट के आने तक मेरी दुनिया का सब कुछ जल के राख हो चुका होगा.

तुम अपनी सबसे छोटी ऊँगली से मेज़ के जले हिस्से को छूना और अपनी आँखों में हल्का सा काजल छुआ लेना. मेरी आखिरी प्रार्थना है...ईश्वर तुम्हें बुरी नज़र से बचाए. 

आधी पढ़ी किताब का सुख

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हफ्ते भर की थकान ने उसे बहला फुसला कर झांसे में ले लिया था. सोते हुए उसकी उँगलियों में उलझी हुयी थी किताब और होठों पर आधी रखी हुयी थी मुस्कान. जिस दुनिया में किसी चीज़ का भरोसा नहीं था उसमें उनींदे भी ये यकीन होना कि उठने के बाद एक किताब होगी लौट कर जाने के लिए ये बहुत बड़े सुकून की बात थी. लड़की के दिल की धड़कन अक्सर काफी तेज़ चलने लगती थी...इसकी कोई ख़ास वजह नहीं होती मगर वो अक्सर डूब जाने का सामान तलाशती रहती, कि जिसमें खुद को खोया जा सके. नए घूमते हुए देशों में भी वो नक्शा लेकर नहीं भटक जाने के इरादे ले कर जाती. किताबें भी उसे ऐसी ही अच्छी लगती थीं, पगडंडियों वालीं. वो अधमुंदी आँखों से दीवार का सहारा थामे आगे बढ़ती जा रही है, पगडंडियों पर डाकुओं का डर नहीं होता.

दोपहर किताब उसे एक आश्चर्य की तरह मिली थी. वो खुश इतनी थी कि डिलीवर करने वाला शख्स घबरा गया. बबल व्रैप के सारे बुलबुले फोड़ने के दरमयान वो एक कलीग के साथ एक बेहद जरूरी प्रेजेंटेशन पर काम कर रही थी. काम ख़त्म होने पर किताब पढ़ते हुए उसने तीन तल्ले की सीढियां चढ़ीं. वो लड़की जिसे आम तौर पर भी कहीं चलते हुए टकराने और गिर जाने का खौफ बना रहता है. ऊपरी तल्ले के ऑफिस में दोपहर की बेहतरीन धूप आ रही थी. किताब की तस्वीर उतारते हुए लड़की के मन में धूप उतर कर बेसब्री का ताना बाना बुनती रही. घर के रास्ते में सब्जियां खरीदनी थीं. बहुत सालों बाद उसे ऐसी बेचैनी थी कि सब्जी बिल करवाने की लाइन में लगे लगे उसने कहानियां पढ़ीं. उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट चस्पां हो गयी थी...कुछ बेहतरीन पढ़ने की ललक जैसी...पहले प्यार के खुमार जैसी. बाईक चलाते हुए उसने सोचा लगातार मुस्कुराने से उसके गाल दर्द कर रहे हैं.

घर पर दोस्त आये हुए थे. मिठाई की दूकान वाले ने कहा कि समोसे बनने में दस मिनट लगेंगे. वहीं एक छोटी सी मेज पर बैठी वो कहानियों में डूबने उतराने लगी. उसे कहीं नहीं जाना था. कहानियों के किरदार उसे हंसाते, रुलाते....रुला रुला हंसाते. उसकी आँख भर आती और वो सोचती कि कोई देख न ले उसकी आँखों में ऐसे आंसू...जबकि उसके सामने कोई होता नहीं था. किताब ऐसी थी जैसे हाथ पकड़ कर हर छोटी सी कहानी में खींच लाती उसे. प्यास ऐसी थी कि हर कहानी को छू कर भाग जाना चाहती थी वो, जैसे छुप्पन छुपाई का खेल चल रहा हो. कितने दिलकश किरदार थे...कितने सच्चे कि उनकी सच्चाई देख कर किताब के डायरी होने का भ्रम होने लगता. इतनी छोटी कहानी में कोई इतना पूरा किरदार कैसे रच सकता है? एक घटना में जिंदगीनामा लिखने जैसा.

उसने बहुत सालों बाद ऐसी किताब पढ़ी थी...नहीं...उसने पहली बार ऐसी किताब पढ़ी थी. उसकी आज की दुनिया की किताब, उसकी जान पहचान जैसे किरदार. हर कहानी एक जादू बुनती हुयी. भीड़ में अनायास दिखे किसे चेहरे के सम्मोहन जैसी. किसी को सदियों जानने के सुख जैसी. एक ऐसी किताब जो हर किस्म के खालीपन को भर दे...उस खालीपन को भी जिसके होने का अंदाजा नहीं हो. ऐसी किताब जो आधी पढ़ी होने पर सुकून का बायस बने. ऐसी किताब जो अपनी हो जाए...धूप, हवा, पानी जैसा अधिकार हो जिसपर. इसकी समीक्षा लिखूंगी फुर्सत से...पहले लिखना जरूरी था कि एक खूबसूरत किताब पढ़ना कैसी चीज़ होती है.

पढ़ने के खोये हुए सुख को जो ऊँगली पकड़ कर लौटा लाये...ऐसी विरले लिखी जाने वाली मेरी बहुत सालों तक फेवरिट रहने वाली ये किताब 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो...'को लिखा है निधीश त्यागी ने और इसे छापा है पेंग्विन हिंदी ने. मैंने किताब ureads से खरीदी थी...ये फ्लिप्कार्टभी भी मिल रही है. कुल १८८ पन्ने की किताब है, छोटी कहानियों वाली. इसकी आखिरी कहानी का नाम है...जिस सुखांत की तलाश है कहानी को...और ये कुछ ऐसे ख़त्म होती है...कहानी सुखान्तों की तलाश से फिर थके और धूसर पांव लौटती है. कहानी एक दिन सुखान्त की शर्त से खुद को मुक्त करती है. और पूरी होती है.

अब दिलफरेब इसको नहीं कहेंगे तो किसको कहेंगे. कुछ चीज़ें इतनी बेहतरीन होती हैं कि उन्हें बिना बांटे चैन नहीं पड़ता. आप ब्लॉग पर कुछ पढ़ने के खातिर ही भटक रहे होंगे...इस किताब को पढ़ना, पढ़ने के सुख की वापसी है. अखाड़े का उदास मुगदर नाम से जब ब्लॉग पर कहानियां आती थीं, तब भी इंतज़ार रहता था. बहुत साल की चुप्पी के बाद ये कहानियां पन्ने पर मिली हैं. शुक्रिया निड...इतनी खूबसूरत किताब लिखने के लिए. कभी इसपर आपका ऑटोग्राफ लेने जरूर आउंगी. 

छिछली मुहब्बत का मुजरा

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आज उसकी तस्वीर देखी. एक नंबर का काइयां लगा. विद्रूप चेहरा. अभद्र हंसी. कुल मिला कुछ ऐसा रिपल्सिव कि क्षण भर भी ठहर नहीं सकी उस पन्ने पर. आँखों में कैसी ठंढ थी. कसाई ठंढे गोश्त को ऐसे ही देखता होगा, कि आँखें कंचों जैसी दिखती हैं. सीरियल किलर अपने शिकार को इसी तरह घात लगा कर पकड़ता होगा. पागल कुत्ता ऐसा ही दिखता है...लार टपकाता हुआ...खूंखार मगर मृत्यु की छाया में ढका कातर और घबराया हुआ. ऐसा जिस पर दया नहीं आये...बस लात मरने को जी चाहे, वो भी मनोरंजन के लिए, किसी उद्देश्य के लिए नहीं. उसी किकियाहट पर हंस दें सभी. वो पिछली टांगों में दुम दबाये भाग खड़ा हो.

यकीन नहीं आया कि ये वही चेहरा है जिसे देखते सुबह होती थी और देखते दिन ढलता था. ये वही चेहरा था जिसे हज़ार बार, हज़ार एंगल से देख कर भी जी नहीं भरता था. इस चेहरे से कई अफ़साने उभरते थे, इस चेहरे को देख गुनगुनाने को जी करता था, मुस्कुराने को जी करता था. आज वाकई लगता है कि चेहरा कुछ नहीं होता सिवाए हमारे ख्यालों के प्रोजेक्शन के. हम किसी में वही देखना चाहते हैं जो हम देखते हैं. मगर वाकई? आज मैंने उस चेहरे पर कोई लेबल आरोपित नहीं किये. ऐसी वितृष्णा मैं आरोपित कर भी नहीं सकती. मेरे लिए मुहब्बत कोई एक जन्म में रिस कर चुक जाने वाली चीज़ नहीं है. ये जो वैसे जन्म लेती है जैसे घर के आँगन में कलम लगाया हुआ आम का पौधा. सालों साल इसपर बच्चे खेलते कूदते हैं. गिलहरियाँ घर बनाती हैं. पंछी अपने खाली घोसलों के दर्द से उबर कर चहचहाना सीखते हैं. तो फिर कहाँ क्या हुआ था मुझे? क्या पहले ही मेरी आँखों पर कोई और चश्मा चढ़ा हुआ था?

खूंखार सी जिद है कि उससे नफरत नहीं करूंगी. ऐसा करना उसे बाकी सभी लोगों से ख़ास बना देगा. मैं उसे कुछ ऐसे बरतना चाहती हूँ जैसे एक्सप्रेस ट्रेन छोटे गाँवों वाले हाल्ट को. रफ़्तार ज़रा सी भी कम नहीं होती. ये सोच कर भी नहीं कि गलती से कोई पटरी पार करते हुए मर सकता है. जैसे सिरफिरा ट्रेन ड्राइवर कोहरे वाली सुबहों में चलाता है सुपरफास्ट एक्सप्रेस. जैसे बाई कचरा फेंकती है, घर के पीछे बहते नाले में, निर्विकार होकर. टेम्पटेशन से मुक्त होने के लिए उससे गुज़र जाना जरूरी होता है. सड़कछाप लफंगों की ओर देख भी लो तो उनका उद्धार हो जाएगा, ये जानते हुए कोई भी लड़की उनकी ओर नहीं देखती. वे इस लायक नहीं होते कि उनपर दया की भी एक नज़र की जाए, भीख में भी नहीं.

किसी दूसरे देश में एक भिखमंगा मिला था, उसने कहा खाना खाने के लिए उसे दो यूरो चाहिए. मेरे पास इतने ही पैसे थे कि मेरा दोपहर का खाना और होटल वापसी की बस पकड़ सकूँ. होटल वहां से ४ किलोमीटर दूर था. मैंने उसे दो यूरो दे दिए. बदले में उसने मेरा हाथ पकड़ कर शुक्रिया अदा करना चाहा. उसके हाथ की लिजलिजी पकड़ बहुत देर तक अपने हाथों से चिपकी हुयी लगी. मैंने उस दोपहर खाना भी नहीं खाया. आधे रास्ते में एक फाउंटेन था...मैंने पैसे उसी में गिरा दिए. किसके लिए कौन सी दुआ मांगी थी मालूम नहीं. खुद के लिए तो कुछ माँगा नहीं होगा, इतना आज भी यकीन है. खुदा और मेरी ईगो टसल चलती है. उसके सामने सर नहीं झुका सकती.

घृणा के कुछ ऐसे ही क्षण सामने आ रहे हैं. कच्ची उम्र में जब पहली बार सामना किया था प्रौढ़ पुरुषों की पीठ पर दी थपकी में मिली वासना का, वैसे ही ठगा हुआ निर्दोष समझना चाहता है मन खुद को. मगर नहीं. कटघरे में खुद भी खड़ी होती हूँ. किसी बेहद पुराने घर से उठती सडांध है, सांस घुटी जाती है. कोई नज़र है कि गले में फंदा कसती जाती है. छटपटाहट में दीवार का सहारा खोजती हूँ तो पाती हूँ कि दीवार से विशालकाय हाथ निकल आये हैं जो मुझे लील जाना चाहते हैं. दहशत का तमाशा देखने के लिए सामने के टूटे फर्नीचर पर कुछ आवारा लोग बैठे हैं. प्लास्टिक के गिलास में सस्ती शराब पी रहे हैं. वितृष्णा रिसती नहीं है...धधकने लगती है. मैं अपने हाथों, अपना ही गला घोंट कर किसी और को मार डालना चाहती हूँ.

Pic: The anthropomorphic cabinet- Salvador Dali

भूलना एक उम्र भर का काम

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सिक्सटीन लव पोयम्स एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर. किताब के पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे थे. कल पूरी रात पागलों की तरह बरसा था बादल. उस मासूम को कहाँ मालूम था कि बालकनी पर भूल गयी हूँ मैं नयी किताब, पुरानी कॉपी और तुम्हारी याद के बहुत से किस्से. बादल सबके हिस्से बराबर बरसा तो भिगो गया पाब्लो नेरुदा की प्रेम पगी कवितायें और हमारे प्रेम जैसा एक आखिरी उदास गीत.

मेरी तरह तुम भी कभी सोचते हो क्या कि आखिर क्या बात थी कि मैंने आखिरी बार तुम्हें वही कविता पढ़ कर सुनायी...लव इज सो शोर्ट, फोरगेटिंग इस सो लॉन्ग...प्रेम क्षणिक है. भूलना एक उम्र भर का काम. मुझे क्या मालूम था कि हम उस दिन के बाद कभी नहीं मिलेंगे? कैफे की धूप वाली दोपहर कितनी सरल और शांत थी. प्रेम भी अपने उफान से उतर कर गहरी नदी सा बह रहा था...ऐसी नदी जो सींचती है, जिसके किनारे सभ्यताएं बसतीं हैं और प्रेमी लहरों के हाथ समंदर को तोहफे भेजते हैं. उस आखिरी दिन माथे पर कूद कूद आई लटों को जब पीछे करती थीं तो तुमने सोचा था क्या मेरे बगैर इन्हें तमीज कौन सिखाएगा?

मैं चुपचाप बनाती गयी थी आत्महत्या के नर्म, नाज़ुक पुल...उनसे आखिरी बार गुज़र जाने के लिए. तुम्हें लगा था डर कभी? अनगिन दोस्तों का दायरा छोटा करते हुए सिर्फ तुम तक सिमट गयी थी. यूँ हर इश्क का अंजाम कुछ ऐसे ही होता है कि उसके बगैर जीवन की कल्पना भी बेमानी लगती है मगर फिर भी...किसी नए इश्क में पुराने इश्क सी कोई बात नहीं होती. हम उन्हीं राहों पर नए लोगों के साथ गुज़र रहे होते हैं जिनपर कुछ साल पहले किसी के साथ अगले कई जन्मों तक के सपने देख डाले थे. शहर बड़े बेरहम और युगों की याद्दाश्त वाले होते हैं. वे नए प्रेमियों के साथ होने पर भी पुराने लतीफे सुनाते हैं और उनपर वैसे ही कार्बन कॉपी वाली हंसी हँसते हैं. तुम्हें शहर बदल लेना चाहिए था. यूँ कायदे से मुझे शहर बदल लेना चाहिए था. इस शहर के गुलमोहरों को गहरी लाल शामें चाहिए होती हैं. मैं चाहती भी हूँ तो ये मुझे अमलतास के फूलों जैसा सुनहला आसमान बनाने नहीं देते.

मालूम होता कि मुलाक़ात आखिरी है तो किसी खूबसूरत बात पर ख़त्म करती. तुमसे कहती कि जब तक समंदर है तुम मेरे अन्दर बचे रहोगे. मेरी कविता में. मेरी कहानियों में. मेरी पेंटिंग्स में. मेरे रियाज़ में. मेरे घर के टूटे पलस्तर. मेरी नल के टपकते पानी और छत से टपकते पानी में. कि तुम पानी में बचे रहोगे. जब तक मेरे चेहरे में पानी होगा. मेरी आँखों में पानी होगा. तुम बचे रहोगे. तुम्हें अंजुरी में लिए लिए हिन्द महासागर तक चली जाउंगी और रख आउंगी सबसे ऊंची लहर की गुंथी हुयी चोटी में.

आखिरी रोज़. बाकी दिनों की तरह ही था. आदतन हम एक दूसरे की पीठ का सहारा लिए अपनी अपनी पसंद की किताब पढ़ते रहे. तुम मुझे ग़ालिब सुनाते और मैं तुम्हें नेरुदा. बहुत देर में थक गयी थी तो धूप की चादर ओढ़े सो गयी थी. नींद में भी मुझे लग रहा था तुम्हारी आँखें मुझे देख रही हैं. कैफे वाला हमें देख कर एक मीठी मुस्कान मुस्काया था. सेम ओल्ड सेम ओल्ड. हॉट चॉकलेट विथ जिंजरब्रेड सॉस. ब्लैक कॉफ़ी, नो मिल्क, नो शुगर. अपनी अपनी ड्रिंक पीते हुए हम देर तक एक दूसरे की आँखों में देखते रहे थे. दिल के धड़कन तब भी तेज़ हो गई थी मगर इस दर्द में मिठास थी.

मुझे लगता है तुम्हें विदा कहने का सलीका मालूम है. तुम लोगों को बड़े तबियत और इत्मीनान से ऐसे मोड़ पर छोड़ आते हो जहाँ से वे तुम्हारे बगैर जीने का सलीका जान जायें. मुझे मालूम होता कि हम आखिरी बार मिल रहे हैं तब भी मैं तुम्हें इन्हें पंक्तियों से विदा करती...लव इज सो शोर्ट...फॉरगेटिंग इज सो लॉन्ग.

तुम्हें मालूम होता हम आखिरी बार मिल रहे हैं तो तुम मुझे क्या पढ़ कर सुनाते? 

क्लोज अप में तुम्हारी आँखें ज्यादा खूबसूरत दिखती हैं

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कहाँ जा रहे हो तुम? समंदर किनारे गीली रेत पर तुम्हारे पैरों के निशान है...मेरे दिल पर तुम्हारे आने की आहट जैसे. कुछ देर में धुल जायेंगे...अगली लहर आने तो दो भला.
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आज फिर डाकिये को देखा. ना ना कोरियर वाला नहीं. असली डाकिया. भूरे ड्रेस वाला. पॉकेट में भारतीय डाकखाने का मोनोग्राम भी बना था. मैं काली साया बन उसकी नौकरी के ऊपर डोलती हूँ. मुझे वो एकदम अच्छा नहीं लगता, न वो घर जहाँ वो रोज चिट्ठियां गिराता है. कभी कभी दिल करता है उसे गले लगा कर एक बार जोर से रो पड़ूं. घर के रास्ते में जो रेड लेटर बोक्स आता है, जहाँ तुम्हें हफ्ते में दो दो चिट्ठियां तक गिराया करतीं थीं. कभी कभी दिल करता है उससे टेक लगा कर बैठी रहूँ और रात का कोहरा गिरता रहे. पूरी रात कोहरे को सियाही बना कर तुम्हें चिट्ठियां लिखूं कि तुम्हें समझ न आये कि उनमें आंसुओं की मिलावट है.

क्या लिखे कोई और क्यूँ...सब तो लिखा जा चुका है, फिर मैं कहाँ रीती जाती हूँ लिख लिख कर. पढ़ने का दिल नहीं करता. अपना लिखा भी नहीं पढ़ा कई दिनों से. मैं आजकल दो चीज़ें शुरू करना चाहती हूँ. मेरे मन का भी एक अल्टरनेट रियलिटी होता है, जहाँ मैं ये सारी चीज़ें कर सकती हूँ. मैं एक चिट्ठी लिखने वाला ग्रुप शुरू करना चाहती हूँ. जिसमें सब एक दूसरे को चिट्ठियां लिखें. कितना कुछ होता है न कहने को, जो कह नहीं सकते. ये लिखने की कैसी जिद है कि कागज़ कलम की खुशबू से सींचता है.
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तुम्हें मालूम है, मैं तुम्हारे सवालों का जवाब होती जा रही हूँ. उन सवालों का भी जो तुम जिंदगी से करते हो. उन सवालों का भी जो तुम खुदा से करते हो...तुम्हारे उलाहनों के बाद का विस्मयादिबोधक चिन्ह जैसा. मेरे बिना अधूरा सा कुछ दिखता रहता है तुम्हारे वाक्यों में. तुम्हारी गलत मात्राओं में....तुम्हारे लिखे किरदारों का अपमान मैं अपने नाम लिखा लेती रही हूँ. उनकी विरक्ति में भी अपना अक्स देखती हूँ.

तुम वहां नहीं हो...मैं यहाँ नहीं हूँ...अगर तुम्हारे लिखे में नहीं हूँ तो मैं हूँ कहाँ? कैसी आदतें लग जाती हैं, न लगने वालीं. तुम्हारे हिज्जे की सुधारी हुयी गलतियों को देखती हूँ तो लगता है गाँव की पगडंडियों पर से दुबारा गुज़र रही हूँ. मैं हूँ हर उस जगह...वो जो बिंदी गलत लगाई थी तुमने, वो मैंने ताखे पे रखे आईने से उठा कर अपने माथे पर चिपका ली थी. छोटी, बड़ी मात्रा कहाँ समझ आई तुम्हें...
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मैं तुम्हारा चेहरा भूल गयी हूँ. कुछ इस तरह कि भीड़ में तुम्हें तलाश न सकूंगी. कैसी तो थी तुम्हारी मुस्कान?
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इस मौसम में सुबह कितने बजे होती है? खिड़कियाँ पूरब को खुलती है. मेरे उठने का वक़्त सात साढ़े सात बजे है लगभग. सूर्योदय शायद ही कभी देख पाती हूँ. कल दिन भर सर में बेतरह दर्द रहा है. वजह नहीं मालूम. जिंदगी अजीब सी लगती है. कहीं भाग जाना चाहती हूँ. लम्बी छुट्टियों पर. पलायन किसी समस्या का हल नहीं है. मुझे लगता ये है कि महीने भर की छुट्टी ले लूंगी तो शायद ठीक लगेगा सब कुछ, ये सोचते सोचते साल बीत जाता है. घबराहट ख़त्म नहीं होती. नींद चार बजे से खुली हुयी है. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसे खुली. नींद खुलने पर भी नींद आ रही है पर घंटे भर तक नींद नहीं आई और बेतरह उलूल जुलूल ख्यालों ने दिमाग ख़राब कर दिया तो उठ गयी और लैपटॉप खोल लिया. यहाँ न कुछ पढ़ने में मज़ा आ रहा है न लिखने में.
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चूल्हे की तरह धुआंता है औरत का मन. सीला सीला कुछ. सबसे नीचे कोयले बिछाती हुयी देखती है कि...
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मैं सांस लेना चाहती हूँ. गहरी सांस. ऐसी गहरी कि मन के सबसे गहरे कोने तक की हवा ताज़ी महसूस हो. 
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I wake up with a heartache.
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मुझे मालूम नहीं क्यूँ. सोचती हूँ कि दर्द का कोई सबब मालूम होता तो बेहतर होता. सुबह की हवा बेहद मीठी है. जैसे दुनिया में सब कुछ अच्छा है. फीकी धूप है. ऐसी जिससे ज़ख्म के किनारों पर की उदासी ज्यादा उजागर न हो.
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तुम्हें पता है आज गुलज़ार की आवाज़ को पॉज करके तुम्हें सुना है. पसंद के सारे गानों, साउंडट्रैक के सारे अबूझ अनजान भाषाओँ के शब्दों को पॉज करके तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा तलाशा है. कि बस एक तुम्हारी आवाज़ का कतरा ही चाहिए बस. सोचती हूँ, तुमने कभी कपड़े पसारे हैं? कभी कोई तौलिया तो निचोड़ा ही होगा तार पर डालने के पहले. वैसे ही सारा का सारा इन्टरनेट निचोड़ कर एक तुम्हारी आवाज़ का कतरा निकाला है. तुम्हें मालूम है तुम्हारी आवाज़ कितनी जिन्दा लगती है? अमृत जैसी. सूखे पौधे पर पड़ती है तो बिरवे फूट पड़ते हैं. कोई खूबसूरती नहीं है तुम्हारी आवाज़ में, यूँ कहो कि एक तरह का गंवारपना है, ठेठ बोली का लहका हुआ टोन आ जाता है अक्सर. जैसे पुल के ऊपर भागती ट्रेन दिखती है गंगा के पानी में नीचे.
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साइड प्रोफाइल में, एक खास एंगल से रौशनी पड़ती जब उसपर, तभी उसकी आँखों का दर्द उजागर होता था. बहरूपिया थी वरना वो...उसके हज़ार चेहरे, हर चेहरे पर मुस्कान, आँखों में उजली खिली धूप.
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जिन लोगों ने मुझे जिलाए रखा है.
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इससे पहले कि मैं भूल जाऊं. मुझे शुक्रिया अदा करना है इस फोटोग्राफर का. सीरिया में तसवीरें खींचते हुए, ख़ास इस तवीर को उसने सिर्फ काले और सफ़ेद रंग में खींचा. मैं डरते हुए जानती हूँ कि ये सियाह धब्बा खून का हो सकता है फिर भी दिल को तसल्ली दे सकती हूँ कि शायद टूटा हुआ पलस्तर हो. शायद भीगी हुयी दीवार हो या कि चराग जलाने के कारण जमा हुआ हो धुआं. काला सा ये धब्बा चीख चीख कर कहता है कि इसका रंग लाल है मगर मैं फिर भी शुक्रगुजार हूँ उस फोटोग्राफर की कि उसने ये तस्वीर ब्लैक एंड व्हाईट खींची है.

कभी कभी मैं बंद कर लेना चाहती हूँ अपनी आँखें. मुझे करना है शुक्रिया अदा उन सारे संगीतकारों का जो मुझे आत्महत्या के छोर से बचा कर ले आते हैं वापस. जिंदगी के अजीब से विरक्त दिनों में जब अवसाद का गहरा रंग मुझे रंगता जाता है गहरा नीला मैं किसी मुर्दा संगीतकार को सुनती हुयी जीने की वजहें तलाशती हूँ.
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तुम्हारा नाम कितना अद्भुत है तुम्हें मालूम है? संगीत के तीनों सुर, वो भी सही क्रम में...सारंग...सोचो ऐसा होता होगा क्या कि पहले सारंग में सिर्फ तीन सुर निकलते होंगे- सा, रे और ग इसलिए वाद्ययंत्र का नाम सारंग पड़ा?


तुम्हारे नाम को थोड़ा सा तोड़ दूं तो संगीत के तीन सुर बिलकुल सही लय में लग जायेंगे, तुम्हें मालूम है?
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मैंने अपने किरदारों को सर चढ़ा रखा है. बेहद मनमौजी और जिद्दी किस्म के हैं सारे के सारे. मैं छोटे बद्तमीज बच्चों को देखती हूँ तो बहुत गुस्सा आता है मुझे कि उनके माँ बाप किसी करम के नहीं हैं. कुछ सिखाया नहीं है बच्चे को, मनमानी करते हैं. बात मगर खुद की आती है तो किरदार सारे इतने लाड़ले हैं कि किसी का एक डायलॉग तक कभी बदल नहीं सकती. जो एक बार लिख दिया, मजाल है कि कभी बाद में खुद को समझा पाऊं कि बदल देना चाहिए.

उनके ख्वाब उनकी ख्वाहिशें...उनके मूड स्विंग्स. मेरा क्या. जब मन होगा चले आयेंगे, बिना वक़्त, महूरत देखे. मनहूस कमबख्त. क्या क्या न करना होता है उनके लिए. बहरहाल, एक की कहानी सुनाती हूँ. वोंग कार वाई की किसी फिल्म देखते हुए एक किरदार कमरे में चला आया. मुझे मालूम नहीं कि फिल्म का कोई एक्स्ट्रा था या यूँ ही परछाई भर से उभरा कोई. उसे सिर्फ कैंटोनीज भाषा आती है. उदास सी आँखों वाली लड़की है. मेरे साथ घर में रहती है कई दिनों से. अपनी कहानी सुनाने के लिए कई बार मुझे कई सारी चाइनीज फिल्में दिखा चुकी है. एक फिल्म से एक सीन समझ आता है उसकी जिंदगी का. 

चुप चुप सी रहती है. फोटोग्राफी का शौक़ है उसे. कोई अगर कहता है कि एक तस्वीर में हज़ार कहानियां होती हैं तो गलत कहता है. उसकी हर तस्वीर से एक ही कहानी दिखती है. किसी छूटे हुए को तलाश रही है वो.

किससे पूछ कर आया था ऐसा बहका हुआ मौसम. क्या बारिशों को मालूम नहीं था कि घर लौट आने का वक़्त अँधेरा होने से पहले का है? अगर दोपहर में ग्रहण लगते वाला हो और उसपर घने बादल छा जाएँ तो पंछी भी अपने घोसलों को लौट जाते हैं. मगर इस लड़की को किसी से मतलब ही न था. अरे बिना रोशनी के कौन सी तस्वीर खींचनी है उसे. आजकल जमाना कितना ख़राब है. ऐसी भटकी हुयी लड़कियों को कोई भी फुसला लेता है. थोड़े से प्यार से पिघल जायेंगी. फिर जाने कौन देश के किस रेड लाईट एरिया में भेज दी जायेंगी. कहाँ ढूंढूंगी मैं उसे फिर.

किसी की आदत लग गयी है ये सिर्फ तब मालूम हो सकता है जब वो इंसान पास न हो. जो हमेशा पास रहते हैं उनके बारे में कभी मालूम ही नहीं चलता कि उनकी आदत लग गयी है.
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ड्राफ्ट्स हैं सारे की सारे...कुछ नए...कुछ पुराने. अधूरे सब. मुकम्मल सिर्फ मैं. 

नीले कोट की सर्दियाँ कब आएँगी?

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कभी कभी लगता है सब एकदम खाली है. निर्वात है. कुछ ऐसा कि अपने अन्दर खींचता है, तोड़ डालने के लिए. और फिर ऐसे दिन आते हैं जैसे आज है कि लगता है लबालब भरा प्याला है. आँख में आंसू ऐसे ही ठहरे रहते हैं कोर पर और खूब खूब सारा रो लेने को जी चाहता है. मन भरा भरा सा लगता है. कुछ ऐसा कि लगता है विस्फोट हो जाएगा. जगह नहीं है इतने कुछ की.

बहुत शिद्दत से एक सिगरेट की तलब महसूस होती है. पैकेट निकाल कर सामने रखा है. इसमें ज़िप लॉक टेक्नोलॉजी है कि जिससे सिगरेट हमेशा फ्रेश रहे. मालूम नहीं कितनी असरदार है तकनीक. एक सिगरेट निकाल कर खुशबू महसूस करती हूँ उसकी. अच्छी ही लगती है. याद नहीं ये वाला पैकेट कितने दिन पहले ख़रीदा था. सिगरेट के पैकेट पर कभी एक्सपायरी डेट दिखी हो ऐसा याद नहीं. हाँ मेरी एक्सपायरी डेट जरूर लिखी दिखती है. स्मोकिंग सीरियसली हार्म्स यू एंड अदर्स अराउंड यू. इसलिए अगर पीना है तो ऑफिस से बाहर सड़क पर टहलते हुए पीनी पड़ेगी. टहलने लायक एनर्जी है ऐसा महसूस नहीं हो रहा है मुझे. सोच रही हूँ किसी से पूछूं, अगर कोई एकदम ही रैंडम में सिगरेट पीता है, जैसे कि साल के ऐसे किसी दिन तो भी उसके कैंसर से मरने के चांसेस रहते हैं. गूगल कुछ नहीं बताता.

Right now i'd give anything for just the right to smoke here, right at my table...but well...there are the rules.

उदासियाँ अकेले नहीं आतीं, अपने साथ मौसम का मिजाज भी लाती है, गहरा सलेटी...जिसमें धूप नहीं उगती. कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा. आज खाना भी ठीक से नहीं खाया. सुबह कुक देर से आई. उसके आते आते बिना ब्रेकफास्ट किये ऑफिस जाने का मूड हो चुका था. कभी कभी लगता है कि भूख कोई चीज़ नहीं होती है. मूड ख़राब हो तो अच्छा खाना भी खाया नहीं जाता और गंध से ही उबकाई आती है. सुबह कुछ काम करना था, मेल्स वगैरह. थोड़ा और काम.

लंच कोई तरह से अन्दर धकेला...कि खा लेना जरूरी है समय पर. फिलहाल उदासी एकदम गहरी नदी की तरह है और उबरने का कोई तरीका नहीं दिख रहा. न कुछ पढ़ने का दिल कर रहा है न लिखने का. फिल्म देखने का भी कोई असर नहीं. अन्दर अन्दर भीगना और रिसना जैसा कुछ. जैसे सारी दीवारें सीली हैं और छूने से डर लगता है. एक कहानी लौट लौट कर याद आ रही है आदमखोर इमारतों में बंद रूहों को आज़ाद कर दो. लगता है वैसे ही किसी अस्पताल के कमरे में भर्ती हूँ सदियों से. न कोई मिलने वाला आया है, न डॉक्टर इलाज की कोई आखिरी तरीख बताते हैं.

मर जाने के सारे तरीके बेअसर साबित हुए हैं. इतना थका हुआ सा लगता है कि मर जाने की भी सारी प्लानिंग करनी मुश्किल लग रही है. उस रास्ते पर जाने के लिए बहुत टेक्नीकल होना पड़ता है. बहुत सी और चीज़ें सोचनी पड़ती हैं. अभी सिर्फ और सिर्फ उसकी याद आ रही है. एक वो ही थी न जिसको दिन में कभी भी फ़ोन करो समझ जाती थी कि सब ठीक नहीं है. उसके बिना जीने की आदत क्यूँ नहीं लगती. छः साल हो गए उसे गए हुए. अब भी ऐसे किसी दिन उसे खोजना बंद क्यूँ नहीं करती. कितना भागती हूँ उससे. उसकी कहीं फोटो नहीं रखी है फिर भी खुले आसमान के नीचे खड़े होने पर लगता है, वो है कहीं. देख रही है हमको.

१८ घंटे लगातार काम करने की कैपेसिटी नहीं है मेरी. थक जाती हूँ. सीढियां चढ़ती उतरती भागती. खाने का होश नहीं. कभी कभी कुक के नहीं आने से बहुत इरीटेशन होती है. मैं बिना खाए रह भी जाऊं...कुणाल के लिए घर का खाना नहीं होता है तो इतनी गिल्ट फीलिंग होती है कि समझ नहीं आता क्या करूँ. कल रात भी बाहर खाया है. मुझसे घर सम्हालता क्यूँ नहीं. आज उन सारी लड़कियों से बड़ी जलन होती है तो तरतीब से सजाया हुआ घर रख लेती हैं. पति का ख्याल रखती हैं. बच्चे बड़े करती हैं. मैं कुछ तो नहीं करती ख़ास. एक लिखने के अलावा मेरा और किसी काम में मन भी तो नहीं लगता.

लॉन्ग हॉलिडे...मेंटल पीस के लिए. हफ्ते भर. महीने भर. साल भर. जिंदगी भर. समंदर किनारे लेटे रहे गीली रेत पर. मुझसे और कुछ होता क्यूँ नहीं. आज लिरिक्स भी लिखने हैं. थक गयी हूँ. कन्धों में दर्द हो रहा है. सर में दर्द. दो दिन से घर का बना खाना नहीं खाया है. मैं बाकी लोगों की तरह मैनेज क्यूँ नहीं कर पाती? कैसे कर लेता है कोई, घर ऑफिस सब कुछ अच्छे से. मैं कहाँ फंस जाती हूँ. मौका मिलते लिखने लगती हूँ...अभी कायदे से इस वक़्त मुझे नहा कर तैयार होना चाहिए. आज एक जरूरी मीटिंग है. थोड़ा अपनी शक्ल पर ध्यान दूँगी तो बुरा नहीं होगा किसी का. पर मुझे फिलहाल यही सोच के सर दर्द है कि कौन से कपड़े आयरन करूँ. पीच कलर की एक शर्ट है. वही पहनती हूँ.

दिमाग बर्रे का छत्ता बना हुआ है. सिगरेट. कहाँ है सिगरेट. मैं एडिक्ट की तरह बात करती हूँ, जबकि मेरा पैकेट हमेशा कोई और ख़त्म करता है. आखिरी सिगरेट किस जन्म में पी थी याद नहीं मगर बैग में चाहिए जरूर. ब्रांड को लेकर ऐसी जिद्दी कि और कुछ नहीं पी सकती. मेरा दिमाग ख़राब है. उफफ्फ्फ्फ़....कोई लाओ रे कहीं का मौसम...कहीं की बारिश...कोलेज का बेफिकरपन...मम्मी की डांट...दोस्तों से झगड़ा...जीने के लिए जरूरत है एक अदद खुद की. किसी डब्बी में बंद करके भूल गयी हूँ. घर की भूलभुलैय्या की चाबी कहाँ गयी? 

सियाही का रंग सियाह

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उसे उदास होने का शौक लगा रहता...वो देखती साथ की दोस्तों को उदास आहें भरते हुए...गम में शाम की उदासी का जिक्र करते हुए...धूप में बादल को तलाशते और बारिश वाले दिनों में सूरज की गर्मी ढूंढते हुए. उसकी बड़ी इच्छा होती कि वो भी किसी के प्यार में उदास हो जाए...कोई उससे दूर रहे और वो उसकी याद में कवितायें लिखे लेकिन उसके साथ ऐसा होता नहीं. उसे किसी से प्यार होता तो वो उसे अपने दिल में बहुत सी जगह खाली कर के परमानेंट बसा लेती...फिर उसे कभी उस ख़ास को 'मिस'करने का मौका नहीं मिलता.

उसके इर्द गिर्द बहुत सुख थे इसलिए वो दुःख के पीछे मरीचिका सी भागती...उसे दुःख में होना बहुत ग्लैमरस लगता. इमेज कोई ऐसी उभरती कि करीने से लगा मस्कारा थोड़ा थोड़ा बह गया है...काजल की महीन रेखा भी थोड़ी डगमगा रही है कि जैसे हलके नशे में काजल लगाया गया हो. चेहरे पर के मेक-अप की परतों में रात को नहीं सोने वाले काले गड्ढे ढक दिए गए हैं...कंसीलर से छुपा लिया है टेंशन के कारण उगे मुहांसों को भी...और इतने पर भी अगर कमी बाकी रह गयी तो एक बड़ा सा काला चश्मा चढ़ा लिया कि कुछ दिखे ही ना. फीके रंग के कपड़े पहनना कि आसपास आती रौशनी भी उदास दिखे. चटख रंग के कपड़े उदासी को पास नहीं फटकने देते. 
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तारीखों का चकमक पत्थर है, घिसती हूँ तो कुछ चिंगारियां छूटती हैं...हाथ छुड़ा के भागती है कोई लड़की दुनिया की भीड़ में कि उसे मालूम है कि जब जंगल में आग लगती है तो किसी मौसम से कोई फर्क नहीं पड़ता. उसने भारी बरसातों में जंगल जलते देखे हैं...धुआं इतना गहरा होता है कि देख कर मालूम करना मुश्किल होता है कि आसमान का काला रंग जंगल से उठ रहा है या जंगल का सियाह रंग बादलों से बरस रहा है.
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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एक लड़की थी...बहुत दिनों से कहानी लिखने की कोशिश कर रही थी पर उसके किरदार पूरी जिंदगी जीने के पहले ही कहानी के पन्नों से उठ कर कहीं चले जाते थे. उसे लिखते हुए कभी मालूम नहीं होता किस किरदार की उम्र कितनी होगी. वो हर बार बस इतना ही चाहती कि कहानी का अंत कम से कम उसे मालूम हो जाए मगर उसके किरदार बड़े जिद्दी थे...अपनी मनमर्जी से आते थे अपने मनमाफिक काम करते थे और जब उनका मूड होता या जब वे बोर हो जाते, लड़की से अलविदा कहे बिना भी चले जाते. यूँ गलती तो लड़की की ही थी कि वो ऐसे किरदार बनाती ही क्यूँ थी...मगर बहुत सी चीज़ों पर आपका हक नहीं होता...वो आपके होते हुए भी पराये होते हैं.
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मेरी उँगलियों में तुम्हारी सिगरेट की गंध बसी हुयी है, मेरी शामों में तुम्हारा रूठ कर जाना...मेरी बरसातों में हरा दुपट्टा ओढ़े एक लड़की भीगती है...ठंढ की रातों में मुंह से सफ़ेद धुआं निकलता है तो स्कूल ड्रेस के लाल कार्डिगन की याद आती है. मौसमों के पागल हो जाने के दिन हैं और मैं पूरे पूरे दिन भीगते हुए गाने सुनना चाहती हूँ.

मैं समंदर में एक कश्ती डाल देना चाहती हूँ...मैं तूफ़ान की ओर बढ़ती हूँ और तूफ़ान कदम समेटता है...मैं देखती हूँ उस लड़की को जो मुझसे एकदम अलग है...मुझे उस लड़की से डर लगता है...उस लड़की से किसी को भी डर लगता है. वो जाने किस नींद से जागने लगी है...वो लड़की कितनी गहरी है कि प्यार का एक बूँद  भी नहीं छलकता उसकी अंजुरी से...उस लड़की में कितना अंधकार है कि हर रौशनी से दूर भागती है. वो कितनी डिसट्रक्टिव है...उसमें कितना ज्यादा गुस्सा है. मैं उसकी इच्छाशक्ति को देखती हूँ तो थरथराती हूँ. देखती हूँ कि दुर्गा अवतार से काली बनना बहुत मुश्किल नहीं होता.

तांडव करते हुए सबसे पहले जो टूटता है वो अभिमान है...

तितलियों का राग वसंत

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टेक १: इनडोर. कमरा
वो नीले रंग में उँगलियाँ डुबाती है...एक पूरा का पूरा ओर्केस्ट्रा बज उठता है...लड़की घबरा उठती है और उँगलियों की अचानक हुयी हरकत से पेंट की शीशी नीचे गिर कर टूट जाती है...टूटने की कोई आवाज़ नहीं होती. यादों का एक अंधड़ आता है और उसे किसी बेहद पुराने समय में खींच कर ले जाता है...एक महीने की बच्ची के पालने पर एक नीले रंग का खिलौना झूल रहा है. उसकी माँ नीले रंग के दुपट्टे में उसे देख रही है और एक गीत गा रही है...रिकोर्ड प्लेयर पर क्लासिक एलपी बज रहा है...ला वि एन रोज...

बहुत दिन बाद उसे ला वि एन रोज का मतलब पता चलता है...गुलाबी रंग की दुनिया या ऐसा कुछ...मगर इस गाने को सुनती है तो उसकी आँखों में एक नीला आसमान ही खुलता है...परदे दर परदे हटा कर.

उस लड़की को रंग सुनाई देते हैं...
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जिंदगी से संगीत चले जाने पर एक बेहद बड़ी जगह खाली हो गयी थी...उसके डॉक्टर ने उसे बताया कि उसे शायद खुद को एक्सप्रेस करने के लिए किसी और माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए...बचपन से उसकी पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना भी थी...तो आज वो एजल लेकर आई थी और ऐसे ही बेखयाली में नीली रंग की शीशी में हलके से ऊँगली को डुबोया था.

उसे कोई भी आवाज़ सुने महीनों बीत गए थे...उसे कभी कभी लगता था कि इतनी खामोशी है कि वो पागल हो जायेगी.

शुरुआत सिर्फ रंगों और पुरानी यादों से हुयी फिर उसे डॉक्टर ने कुछ और केसेज के बारे में बताया...जहाँ पूर्णतः या आंशिक बहरे लोग चीज़ों को छू कर सुन सकते थे...सुनना वैसे भी कंपन का एक दिमागी इन्तेर्प्रेटेशन ही होता है...

वो छू कर सुन सकती है...
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टेक २: आउटडोर, बारिश

खिड़की से बाहर बारिश हो रही है...लड़की चुपचाप देख रही है...लड़की बाहर निकलती है बारिश में...पोर्टिको से जरा सा हाथ बाहर निकाला है. गुदगुदी होती है और सरगम दौड़ जाती है पानी की बूंदों में...रे ग म प ग रे सा नी...कौन सा राग था? नी-इ-र भ-र-न कैसे जा-आ-ऊँ सखी री...डगर चलत छेड़े...श्याम सखी री...वो प्यासी पानी में खोये सुरों की तलाश में निकली थी. उसने हलके नीले रंग की टीशर्ट पहनी थी और काली चेक के शॉर्ट्स. ये उसका सबसे पसंदीदा नाईटवियर था. उसने छोटे छोटे कदम लिए और बाँहें फैला कर बारिश में खड़ी हो गयी. वो वाद्ययंत्र थी...वायलिन के तार सी खिंची हुयी...बारिश की हर बूँद एक नया सुर उत्पन्न कर रही थी उसमें. संगीत कहीं बाहर नहीं...उसके अंदर था...उसके कण कण से फूटता हुआ. वो देर तक बारिश में भीगती हुए इस नए राग को अपने अन्दर सकेरती रही.

उसे सुनने के लिए चीज़ों को छूना पड़ता इसलिए संगीत सीखना उसके लिए बेहद मुश्किल होने वाला था मगर उसकी जिद अभी भी गयी नहीं थी. उसने कई लोगों से बात कर कर फाइनली अपना टीचर पसंद किया. उसके जैसा ही था वो भी. या उससे ज्यादा सिरफिरा और पागल मगर उसकी उँगलियाँ गिटार पर ऐसे भागती थीं जितनी तेज़ तो बारिश भी नहीं होती. लड़की दिन दिन भर उसे सुनते रहती. रात रात भर प्रैक्टिस करती. उसकी दुनिया में किसी और चीज़ की जरूरत नहीं थी.

फिर एक रात उसे नीले रंग के सपने आये. पेरिस की सड़कों पर नीले गुलाब की पंखुडियां बिखरी हुयी थीं और उसके चाहने वालों को दो तरफ से पुलिस ने रोके रखा था. वो तेज़ी से सड़कों पर भागी जा रही थी. उस रात पहली बार एक कंसर्ट करने की ख्वाहिश ने उसके अन्दर जन्म लिया.

टेक ३: आउटडोर, कंसर्ट, पागल होते लोग, बहुत सा शोर और फिर...म्यूट.
घंटों बारिश होती रही थी मगर इंतज़ार करते लोग टस से मस नहीं हुए थे. उसने सब कुछ काले रंग का पहन रखा था. सिर्फ गले में एक स्कार्फ के सिवा. (फ्लैशबैक) उसे आज भी वो दिन याद है...देर रात तक वो प्रैक्टिस करती रही थी. अगली सुबह वो ऐसी बेसुध थी कि महसूस भी न कर पायी कि घर का दरवाज़ा खुला है और कोई अन्दर आया है. उँगलियाँ लहूलुहान हो गयी थीं. उसे बारिश के शोर को संगीत में उतारना था. उसने कुछ नहीं कहा...उसकी उँगलियाँ चूमीं और गले से स्कार्फ उतार कर उसके हथेली पर लपेट दिया. फिर अपने साथ खींच कर ड्राइव पर ले गया था. उसके घर पर जाने के लिए एक लकड़ी का पुल था...पुल पर दौड़ते हुए बिल्ली और कुत्ते के बच्चे. लड़की नहीं जानती थी कि वो उसे अपने घर क्यूँ ले गया था. उस स्कार्फ को गले में बांधते हुए उसे लगा था वो दुनिया में अकेली नहीं है. कंसर्ट पर जाने के पहले उसने खुद को आदमकद आईने में देखा. ऊपर से नीचे तक ब्लैक और गले में लिपटा गहरा लाल स्कार्फ...जैसे वो कान में धीरे से कह जाए...आई लव यू.

बहुत देर तक लोग उसे सांस थामे सुनते रहते...आखिरी गीत में उसने लोगों के बीच खुद को छोड़ दिया...वो हवा में थी...उसका पूरा बदन हवा में...उसके चाहने वालों ने उसे हाथों हाथ उठा रखा था. ऐसा कौन नहीं था जिसने उसे छुआ न हो...हर आत्मा का अलग शब्द था...राग था...कंसर्ट ख़त्म होते हुए वो सिम्फनी हो गयी थी.

डॉक्टर कहता था वो सुन नहीं सकती थी...दुनिया के डिफिनेशन के हिसाब से वो सुन नहीं सकती थी...मगर कहीं कोई खुदा था जिसने उसके हिस्से इतना सारा संगीत लिख रखा था कि वो बारिश सुनती थी, लहरें सुनती थी, धूप सुनती थी, पागलपन सुनती थी...मौसम सुनती थी, तितलियों का वसंत राग सुनती थी...विन्सेंट की स्टारी नाईट सुनती थी...वो इतना कुछ सुनती थी कि कोई और सुन नहीं पाता था. उसने ही एक दिन मेरी नब्ज़ सुनी और मुझे बताया कि मेरा दिल हर तीन सौ पैंसठ बार धड़कने के बाद एक चुप साधता है. दिल को कमबख्त साल और दिन में अंतर नहीं मालूम न. उसे लगता है इतनी सी धड़कनों बाद तुम्हारा फोन आएगा...वो जो तुम मेरे बर्थडे पर करते हो.

मैंने फिलहाल उसे फुसला दिया है कि उसकी भी मैथ मेरे जैसी ख़राब होगी...ऐसा कोई नहीं जिसे मैं इतना याद करूँ. अच्छा हुआ उसने नब्ज़ पर ही हाथ रखी थी...जो दिल पर रखती तो तुम्हारा नाम जान जाती. अभी अभी उसे फ्लाईट पर चढ़ा कर आई हूँ. ड्राइव करते हुए तुम्हें ही सोचती रही. रात बहुत हुयी...हिचकियों से तुम्हारी नींद खुली हो तो माफ़ करना. 

एकांत मृत्यु

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कैसा होता है...बिना खिड़की के कमरे में रहना...बिना दस्तक के इंतजार में...चुप चाप मर जाना. बिना किसी से कुछ कहे...बिना किसी से कुछ माँगे...जिन्दगी से कोई शिकवा किये बगैर. कैसे होते हैं अकेले मर जाने वाले लोग? मेरे तुम्हारे जैसे ही होते हैं कि कुछ अलग होते हैं?

अभागा क्यूँ कहती थी तुम्हें मेरी माँ? तुम्हारे किस दुख की थाती वो अपने अंदर जिये जाती थी? छीज छीज पूरा गाँव डूबने को आया, एक तुम हो कि तुम्हें किसी से मतलब ही नहीं. मुझे भी क्या कौतुक सूझा होगा कि तुमसे दिल लगा बैठी. देर रात नीलकंठ की परछाई देखी है. आँखों के समंदर में भूकंप आया है. कोई नया देश उगेगा अब, जिसमें मुझ जैसे निष्कासित लोगों के लिये जगह होगी. 

रूह एक यातना शिविर है जिसमें अतीत के दिनों को जबरन कैदी बना कर रखा गया है. ये दिन कहीं और जाना चाहते हैं मगर पहरा बहुत कड़ा है, भागने का कोई रास्ता भी मालूम नहीं. जिस्म का संतरी बड़ा सख्तजान है. उसकी नजर बचा कर एक सुरंग खोदी गयी कि दुनिया से मदद माँगी जा सके, कुछ खत बहाये गये नदी किनारे नावों पर. दुनिया मगर अंधी और बहरी होने का नाटक करती रही कि उसमें बड़ा सुकून था. सब कुछ 'सत्य'के लिये नहीं किया जा सकता, कुछ पागलपन महज स्वार्थ के लिये भी करने चाहिये. 

मैं उस अाग की तलाश में हूँ जो मुझे जला कर राख कर सके. कुछ दिनों से ऐसा ही कुछ धधक रहा है मेरे अंदर. जैसे कुछ लोगों की इच्छा होती है कि मरने के बाद उनकी अस्थियाँ समंदर में बहा दी जायें ताकि जाने के बरसों बाद भी उनका कुछ कण कण में रहे. मैं जीते जी ऐसे ही खुद को रख रही हूँ...अनगिन कहानियों में अपनी जिन्दगी का कुछ...कण कण भर.

वैराग में दर्द नहीं होना चाहिये. मन कैसे जाने फर्क? वसंत का भी रंग केसर, बैराग का भी रंग भगवा. पी की रट करता मन कैसे गाये राग मल्हार? बहेलिया समझता है चिड़ियों की भाषा...कभी कभी उसके प्राण में बस जाती है एक गूंगी चिड़िया, उसके अबोले गीत का प्रतिशोध होता है अनेक चिड़ियों का खुला अासमान. एक दिन बहेलिये के सपने में आती है वही उदास चिड़िया अौर गाती है मृत्युगीत. फुदकती हुयी अाती है पिंजरे के अन्दर अौर बंद कर लेती है साँकल. बहेलिये की अात्मा मुक्त होती है अौर उड़ती है अासमान से ऊँचा. 

दुअाअों की फसल उगाने वाला वह दुनिया का अाखिरी गाँव था. बाकी गाँवों के बाशिन्दे अगवा हो गये थे अौर गाँव उजाड़...अहसानफ़रामोश दुनिया ने न सिर्फ उनकी रोजी छीनी थी, बल्कि उनके अात्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा दीं थीं. गाँव की मुद्रा 'शुकराना'थी, कुबुल हुयी दुअा अपने हिस्से के शुकराने लाती थी, फिर हफ्तों दावतें चलतीं. मगर ये सब बहुत पुरानी बात है, अाजकल अालम ये है कि बच्चों की दुअाअों पर भी टैक्स लगने लगा है. फैशन में अाजकल बल्क दुअायें हैं...लम्हा लम्हा किसी के खून पसीने से सींचे गये दुअाअों की कद्र अब कहाँ. कल बुलडोजर चलाने के बाद जमीन समतल कर दी गयी. खबर बाहर गयी तो दंगे भड़क गये. हर ईश्वर उस जगह ही अपना अॉफिस खोलना चाहता है. गाँव के लोग जिस रिफ्यूजी कैम्प में बसाये गये थे वहाँ जहरीला खाना खाने के कारण पूरे गाँव की मृत्यु हो गयी. मुअावज़े की रकम के लिये दावेदारी का मुकदमा जारी है. 

खूबसूरत होना एक श्राप है. इस सलीब पर अाप उम्र भर टाँगे जायेंगे. अापकी हर चीज़ को शक के नज़रिये से देखा जायेगा...अापके ख़्वाबों पर दुनिया भर की सेन्सरशिप लगेगी. अापको अपनी खूबसूरती से डर लगेगा. ईश्क अापको बार बार ठगेगा और सारे इल्ज़ाम अापके सर होंगे. इस सब के बावजूद कहीं, कोई एक लड़की होगी जो हर रोज़ अाइना देखेगी और कहेगी, दुनिया इसी काबिल है कि ठोकरों मे रखी जाये. 

एक जिन्दगी होगी, बेहद अजीब तरीके से उलझी हुयी, मगर चाँद होगा, लॉन्ग ड्राइव्स होंगी...थोड़ा सा मर कर बहुत सा जीना होगा. कर तो लोगी ना इतना?

सवालों का बरछत्ता

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मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी अाँखों का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता...
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?

कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?

मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा। 

मेरा नया मैक बुक प्रो

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इधर बहुत दिन से अपना पर्सनल लैपटौप नहीं था पास में. पिछली बार जब सोनी वायो खरीदा था तो देखा था कि मैक में हिन्दी टाइपिंग का कोई ऐसा औप्शन नहीं था जिसे इस्तेमाल किया जा सके. मेरे लिये लैपटौप का अच्छा काम करना जितना जरुरी था उतना ही जरुरी था कि दिखने में भी अच्छा हो. लाल रंग का वायो मुझे बेहद पसंद था. उसपर कुछ बहुत पसंदीदा लिखा भी. फिर पिछले साल, बिना किसी वार्निंग के वो क्रैश कर गया. अपने साथ मेरा कितना कुछ हमेशा के लिये लेकर. हार्ड डिस्क से अाजतक भी कुछ रिकवर नहीं हुअा. इस बीच काम के लिये औफिस से नया लैपटौप मिला, डेल का...मैंने उससे बोरिंग पीसी अाजतक नहीं देखा. जहाँ मुझे कलम तक अलग रंगों में चाहिये होती है, वहाँ उस लैपटौप पर कुछ लिखने का मन ही करे. साल होने को अाया, अाखिर सोचा कि अब अौर इंतज़ार नहीं...नया लैपटौप लेना ही होगा.

दूसरी परेशानी अौफिस के काम को लेकर थी, लैपटौप बेहद स्लो है. मुझे मेरी सोच की रफ्तार से चलने वाला कुछ चाहिये था. दिन भर स्लो लैपटौप में काम करने से वक्त भी ज्यादा लगता अौर इरिटेशन अलग होती. कलम के बजाये लैपटौप पर ज्यादा लिखने की अादत भी इसलिये पड़ी कि लैपटौप फास्ट ज्यादा है. फिर से अॉप्शन देखे तो मैक के बराबरी का कुछ भी नहीं दिखा...दिक्कत सिर्फ ये थी कि मैक में लिखने के लिये सब कुछ फिर से सीखना पड़ता. इतने सालों से गूगल का ट्रान्सलिटरेट टूल इस्तेमाल करने के बाद बिना सोचे टाईप करने की अादत बन गयी है...लिखना एकदम एफर्टलेस रहा है. यहाँ हर शब्द लिखने के बाद देखना पड़ता है. रफ्तार इतनी स्लो है कि कोफ्त होती है. मगर उम्मीद पे दुनिया कायम है...मूड बना कर स्टोर गये तो देखे कि जो पसंद अा रहा है करीब ९० हज़ार का है. इतना सोच के गये नहीं थे, वापस अा गये. फिर शुरु हुअा अपने को समझाने का वही पुराना सिलसिला जो हर महँगी चीज़ की इच्छा हो जाने पर होता है...जस्टिफाय करना खुद को कि मुझे इतना महँगा सिस्टम क्यूँ चाहिये. मन कहता इतनी मेहनत करती हूँ अाइ टोटली डिजर्व इट. फिर लगे कि फिजूल खर्ची है...कहीं पर थोड़ा ऐडजस्ट कर लूँ तो कम पैसे में बेहतर चीज अा सकती है, मन कौम्प्रमाइज करना नहीं चाहे, उसे या तो सब कुछ चाहिये, या कुछ भी नहीं।

नया मैक प्रो हाल में ही अाया था। रिव्यु सारे अच्छे दिखे। अब सारी अाफत सिर्फ इस बात की थी कि नये सिरे से सब सीखना कितना मुश्किल होने वाला है। दिन भर सोचा, फिर लगा, अाज नहीं कल करना ही है, जितनी जल्दी शुरु हो जाये, सुविधा ही रहेगी। हिन्दी टाइपिंग सारी फिर से सीखनी होती...काल करे सो अाज कर...मेरे वाले प्रो में ५१२ जीबी रैम है, रेटिना डिस्पले है अौर इसका वजन सिर्फ १.५ किलो है। कैलकुलेट किया तो देखा कि इससे ज्यादा वजन तो पानी की बोतल जो लेकर चलती हूं उसका होता है। नया मौडल पुराने वाले से कहीं ज्यादा हल्का भी है अौर तेज़ भी...इसमें फ्लैश मेमोरी है, गिरने पर भी डेटा खराब नहीं होगा, काफी तेज भी है। दो हफ्ते होने को अाये इस्तेमाल करते हुये, बहुत प्यारी चीज़ है।

अगर अाफत है तो सिर्फ ये, कि इस पर अभी लिखने की अादत नहीं बनी है, थोड़ा वक्त लगेगा। दूसरी अाफत है कि इस पर हिन्दी लिखना मुश्किल है काफी...बहुत सी मात्राअों के लिये शिफ्ट दबाना पड़ता है, कुछ के लिये तो अौप्शन की अौर शिफ्ट की, दोनो दबाना पड़ता है, इसके बाद जा के तीसरा की दबाते हैं। फिलहाल लिखना दुःस्वप्न जैसा है। हर अक्षर लिखने के पहले सोचना पड़ता है, कभी कभी लगता है कि क्या अाफत मोल लिये। स्पीड भी बहुत स्लो है टाइपिंग की। कितना कुछ तो बस लिखने के अालस में नहीं लिखती हूं। पर धीरे धीरे स्थिति बेहतर हो रही है। साल खत्म होने को अाया, कुछ नया, इस साल के जाते जाते। १३ इंच का मेरे मैक मेरी रिसर्च के हिसाब से ये अभी दुनिया का सबसे अच्छा लैपटौप है :)

मुश्किलें बहुत हैं...पर सीखना जारी है। जस्टिफिकेशन भी कि मुझे यही लैपटौप क्युँ चाहिये था। वो सब चलता रहेगा। फिलहाल I am trying to prove to myself, I am worth it :) वो लोरियल के ऐड जैसा। गिल्ट है जोर से। पर बाकी खर्चे पर कंट्रोल कर लूंगी, अौर खूब सारी मेहनत से काम करूँगी इसपर वगैरह वगैरह, फिर कुणाल ने न खरीदा होता तो हम खुद से थोड़े इतना महंगा लैपटौप खरीदने जाते, ये तो गिफ्ट है...इतना क्या सोचना। हज़ार अाफतों वाली जिन्दगी में, डूबते को तिनके का सहारा है मेरा मैक। दिसंबर महीने का मेरा प्यार का कोटा फुल :) इंस्टैन्ट लव। हाय मैं सदके जावां...बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला :) :)

अाँख बंद करने में क्या जाता है

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अगर अाप को खुद की अौकात पता न हो तो दिन में ऐसे अनगिन लोग अायेंगे जिनका अापके जीवन में होने का इकलौता उद्देश्य ये होगा कि अापको अापकी अौकात याद दिलाते रहें। यूं अपनी अौकात बड़ी पर्सनल चीज़ है, मगर इतनी पर्सनल कि सार्वजनिक, जैसे पटना के गर्ल्स स्कूल के उस लेस्बियन अफेयर का अभी याद अाना...कैसी दो लड़कियां थीं वो, साथ वैसे ही रहतीं जैसे स्कूल की बाकी लड़कियां, फिर उनके प्यार में ऐसा क्या था कि उनके चर्चे लंच की रूखी रोटी में अचार का जायका डाल देते थे? पता नहीं सच क्या था, वे नॉर्मल बेस्ट फ्रेंडस भी तो हो सकती थीं, फिर स्कूल में एन्टरटेन्मेंट की कमी को ध्यान रखते हुये सर्व सम्मति से बिल पास हुअा कि सब को उनके बारे में अफवाह फैलाने की पूरी इजाजत है, बशर्ते अफवाह में सच की कोइ मिलावट न हो। ऐसे किसी भी अफेयर के बारे में वो मेरा पहला इन्ट्रो था। फिर याद तो इस्मत की कहानी 'लिहाफ'भी अा रही है, उसका मुकदमा, मंटो के साथ की उसकी बातें भी 'तुमने एक ही तो तबियत से कहानी लिखी है'। 

अाजादी। द अायरनी अॉफ इट...किलर। हम कैसे देश में रहते हैं जहाँ का सर्वोच्च न्यायालय निर्णय लेता है कि बंद कमरे में दो वयस्क अपनी मर्जी से जो करें उनका पर्सनल नहीं सामाजिक मामला है! एक तरफ गे/लेस्बियन रिलेशन क्रिमिनल हैं लेकिन मैरिटल रेप के मामले में कोइ ठोस लॉ नहीं हैं, ना ही ये एक क्रिमिनल ओफेन्स है। जहाँ इन्वोल्व होना चाहिये वहाँ पीछे और जहाँ स्पेस देने की जरुरत है वहाँ अपना कानून चला दिये। ये कैसा इंसाफ है? 

हर कुछ दिन में चैन की साँस लेने के दिन अाते हैं तो ऐसा ही फैसला कोई भी सुना कर हमारी अौकात याद दिला दी जाती है, ठंढे पाले में चलो इंडिया गेट पर, मोमबत्ती जलाते हैं...सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बेहद निराशा हुयी। मुझे एक तो समाज चलाने के नियम वैसे ही खास समझ नहीं अाते। ये क्या कम बुरा है कि LGBT को हर तरफ मजाक का विषय बनाया जाता है कि वापस इसे इलिगल भी बना दिया गया। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक जजमेंट दिया था। सोचो, एक प्यार के बीच कितने लोगों से परमिशन लेनी पड़ती है. हर तरह का कानून सही लोगों के खिलाफ अौर गलत लोगों के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। 

कोलेज में बहुत सी चीज़ें सीखीं पर जो सबसे जरुरी लेसन था वो ये कि लोगों को उनके हिस्से के निर्णय लेने की स्वतंत्रता अौर उनके फैसले का हर हद तक सम्मान...यही एक बेहतर मनुष्य की पहचान होती है। किसी के मुश्किल निर्णयों में हमेशा उसके साथ खड़े रहना, न कि खिलाफ, चाहे तुम्हें वो फैसला कितना भी गलत लगे। अपनी गलतियों से सीखना सबका बुनियादी अधिकार है। अपनी खुद की खुशियाँ तलाश करना भी। 

किसी भी तरह की माइनोरिटी होना त्रासद होता है, कम से कम इसे क्रिमिनल ना किया जाये। अपने देश के संविधान अौर न्यायपालिका पर अब भी मेरा पूरा विश्वास है...शायद ये अपने देश से प्यार के कारण ही है...उम्मीद है, हमारे नेता सिर्फ हवा में बातें ना करेंगे बल्कि कुछ कारगर करेंगे। तब तक के लिये सिर्फ प्रार्थना कि हमारे देश को थोड़ी सद्बुद्धि अाये।

ये आकाशवाणी है...सबसे पहले हम सुनेंगे समाचार रात ८ बजे.

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मिश्रा साहब आज रिटायर हो रहे थे...अपनी नौकरी के ३० सालों तक उन्होंने आकाशवाणी की सेवा की...सभी अधिकारी अभिभूत थे। उनके जैसा अनुभव किसी को भी नहीं था। पटना में पहला एफ एम चैनल खुला तो उन्होनें बहुत कोशिश की कि मिश्रा जी उनका औफिस ज्वायन कर लें मगर मिश्रा साहब की जिन्दगी आकाशवाणी की लाल दीवारों के नाम थी। शहर की बाकी आधिकारिक इमारतों से इतर आकाशवाणी बिल्डिंग का अपना व्यक्तित्व था, ऐसा मिश्रा जी का यकीन था।

सभी उन्हें घेर कर बैठे थे। नयी पीढ़ी के अपने सवाल थे, मिश्रा जी का बहुमूल्य अनुभव संजो कर रखने लायक था, तकनीकी पक्ष हो या कि सीनियर औफिसरों के साथ अच्छी ट्यूनिंग के रहस्य, मिश्रा जी का खजाना खुला था आज, जो जवाब चाहिये, सब मिलेंगे। जैसा कि दस्तूर था, एक टाइटन की घड़ी और प्रशस्ति पत्र के साथ एक शॉल दी गयी और प्रोग्राम खत्म । खाने पीने के शोरगुल में फिर लोग मिश्रा जी को भूल गये। किसी ने उनके चेहरे की बेचैनी नहीं पढ़ी। मिश्रा जी को बस एक बेचैनी खाये जा रही थी और वो चाहते थे कि कोई उनसे वो सवाल करे जिसका जवाब लिये वो पिछले कई सालों से घूम रहे हैं...जाने से पहले उन्हें एक प्रायश्चित्त करना था। कह देने से उनके दिल का बोझ हल्का हो जाता। वो सुनना चाहते थे कि जो उन्होनें किया वो उन्हें बाकी सबों से एक अलग पहचान देता है...वो कहीं यादों में अमर होना चाहते थे।

सवाल ये था, आप इतने सालों से अाकाशवाणी में ही क्यूं टिके हुये हैं। सवाल किसी को जरूरी नहीं लगा क्युंकि मिश्रा जी की उम्र के बाकी लोग भी अपनी अपनी संस्थाओं के प्रति ताउम्र वफादार रहे। मिश्रा जी मगर जिस उम्र की बात कर रहे थे, उसमें उड़ान थी...उनके सपनों में भी दिल्ली की बेदिली देखने की हसरतें थीं...मुम्बई के धक्के खाने का जज़्बा था..आज शायद किसी को यकीन न हो इस बात पर, मगर एक ज़माने में मिश्रा जी बड़े हंसोड़ हुआ करते थे. ये उस वक्त की बात है जब मिश्रा जी का ये नामकरण नहीं हुआ था. उस समय लोग उन्हें दिलीप बुलाया करते थे. बेहद खूबसूरत मिश्रा जी जब जन्मे थे तो दिलीप कुमार पर फ़िदा उनकी माँ ने उनका नाम दिलीप रख दिया था. स्कूल कॉलेज में दिलीप के फिल्मों में जाने के चर्चे आम थे. छोटी उम्र में सपनों को लिमिट नहीं पता होती. दिलीप को कहाँ मालूम होना था कि मजबूरी में बहन की शादी के साथ ही उनकी जीवनसंगिनी भी तय हो जायेगी.

मगर ये सब भी बहुत बाद की बात है. कहानी जहाँ से शुरू होती है, वहां दिलीप को कॉलेज के एक प्रोग्राम के सिलसिले में आल इण्डिया रेडियो जाना पड़ा था. वहां के डायरेक्टर को दिलीप भा गया. लड़के में कुछ ख़ास तो था. उस वक़्त एक नार्मल सी वेकेंसी निकली थी. छोटे दफ्तर में काम बहुत ज्यादा खाकों में बटा हुआ नहीं होता है. तो पेपर बॉय से लेकर टेलेफोन ऑपरेटर तक सब करना दिलीप का काम था. रोज चार घंटों की छोटी सी शिफ्ट होती थी. कॉलेज के बाद रोज दिलीप एआईआर चला जाता था. पैसों से छोटा मोटा जेब खर्च निकल आता था. अक्सर शाम के प्रोग्राम की कहानी भी वही लिखता था.

बहुत सारे आर्टिस्ट्स से भी मिलना जुलना होता रहता था. धीरे धीरे रेडियो के प्रति उसकी भी समझ विकसित होने लगी थी. क्या प्रोग्राम होना चाहिए, क्या लोगों को पसंद आएगा. इस बीच एक दिन उसके हाथ बहुत सी चिट्ठियां लगीं. उसे लगा क्यूँ न एक ऐसा प्रोग्राम बनाया जाए जिसमें लोग पुरानी चिट्ठियां भेजें और रेडियो एनाउंसर उसके इर्द गिर्द कहानी बना कर प्रेजेंट करे. आइडिया बेहतरीन था. लोगों को तुरंत पसंद आया. इन्टरनेट और मोबाईल के ज़माने में भी चिट्ठियों का वजूद कहीं था. उसने जो पहली चिट्ठी पर बेस्ड कहानी बनायी थी वो दरअसल उसके पिताजी की थी और इसलिए उसने घर में बहुत डान्ट भी खायी थी. मगर उस उम्र में वो चिकना घड़ा था, इधर से सुनता उधर से निकाल देता. खोजी जासूस की तरह रद्दी की दुकानों की ख़ाक छानता...पुराने ख़त तलाशता. प्रोग्राम सुपरहिट था. हर उम्र के लोग ट्यून इन करके सुनते थे. यही वो वक़्त था जब पहली बार शहर में ऍफ़एम चैनल आया था. उसने इस उभरते सितारे की तारीफ सुनी तो उसे कई प्रलोभन दिए मगर दिलीप को न जाना था न गया.

ठीक यहीं हुआ था वो छोटा सा हादसा जिसने दिलीप के पैर बरगद की तरह रोप दिए उसी जमीं पर. एक रोज़ शाम के प्रोग्राम के लिए म्यूजिक शोर्टलिस्ट कर रहा था कि फोन की घंटी बजी...उस तरफ कोई बड़ी मासूम सी आवाज़ थी.
'आप दिलीप हैं न?'
'जी, क्या मैं जान सकता हूँ मैं किससे बात कर रहा हूँ?'
'आपने कभी किसी को ख़त लिखे हैं?', आवाज़ बेहद दिलकश थी.
'नहीं'
'क्यूँ?'सवाल बेहद पेचीदा...दिलीप का पहली बार ध्यान गया कि उसके ऐसे कोई दोस्त नहीं रहे जिन्हें वो ख़त लिख सके...उसकी पूरी जिंदगी इस छोटे शहर के इर्द गिर्द ही लिपटी हुयी है. आज एक छोटे से सवाल से कितने सारे सवाल उठ खड़े हुए...बागी सवाल...जो कि भाग जाने के लिए उकसाने लगे.
'आपने मेरे खतों के अफसाने बना दिए...बहुत गलत किया. मैं आपको कभी माफ़ नहीं करुँगी'
और फोन कट गया...किसी नाज़ुक सी लड़की का दिल दुख गया ये सोच कर ही दिलीप के सीने में हूक सी उठने लगी. उस दिन पहली बार उसने सिगरेट जलाई थी. खांसते खांसते इतना दर्द हुआ कि कायदे से दिल में चुभी बात निकल जानी चाहिए थी...मगर ये तो ग़ालिब का 'तीरे-नीमकश'था. इतनी आसानी से भला कैसे निकलता.

उस रोज़ घर आया तो भयानक सर दर्द हो रखा था. उसकी इच्छा कमरे में गुलाम अली सुनते हुए सो जाने की थी. भूख तो कब की मर चुकी थी. मगर ऊपर वाले की इच्छा के बाहर किसका जोर चलता है. घर पहुंचा तो देखा कि उत्सव का माहौल है. अचानक उसे याद आया कि पिताजी बहन के रिश्ते से लौटे होंगे. जमघट लगा हुआ था. बहन की सहेलियां, बहुत से रिश्तेदार, पड़ोसी...सभी आये हुए थे. रात को जब घर थोड़ा शांत हुआ तो पिताजी ने बुलाया था उसे. लड़के वालों को बहन तो पसंद आई ही थी, दिलीप भी उन्हें भा गया था. लड़के की चचेरी बहन के साथ दिलीप का रिश्ता तय कर आये थे पिताजी. दोनों शादियाँ छः महीने बाद थीं. दिलीप इस अचानक हुए फैसले के लिए एकदम तैयार नहीं था मगर पिताजी की बात बचपन से आज तक टाली भी कब थी. जिंदगी की जद्दोजहद शुरू हो गयी.

अगले रोज फिर वही फोन आया था. आज मगर उस लड़की का बहुत सी बातें करने का मन था. वो दिलीप को उस लड़के के बारे में बताती गयी जिसे उसने चिट्ठियां लिखी थीं. दिलफरेब किस्से...उसपर आवाज़ ऐसी दिलकश कि रश्क होने लगता उस लड़के से जिसकी वो बात कर रही थी. लड़की कहती थी कि उसे इश्क भूलना नहीं आता...दिलीप ने बहुत से गायक, शायर वगैरह देखे हैं, उसे भुलाने का कोई नुस्खा जरूर मालूम होगा. दिलीप को प्यार कभी हुआ नहीं था जो उसे भूलने की आदत हो मगर वो उसके लिए उसकी पसंद के गानों का वादा कर सकता था. घर पर शादी की तैय्यारियाँ जोरों से थीं और इधर उस अनजान लड़की से बातें बढ़ती ही जा रहीं थी. दिलीप उसके बारे में कुछ भी पूछता तो वो बताती नहीं. लड़की का नशा होता जा रहा था उसे.

ऑफिस के अपने कमरे में दिलीप ने कई सारी कतरनें रखी थीं...कभी बाद में फुर्सत से अलग करने के लिए. इसी में अनगिन चिट्ठियों के साथ उसे उस लड़की की तस्वीर भी मिल गयी. अब तस्वीर के साथ किसी को तलाशना मुश्किल तो था नहीं उस छोटे से शहर में. हर कबाड़ी वाले के पास जाने का एक्स्ट्रा काम उसने अपने सर लिया. चौथे दिन उसके घर का पता मिल गया. वो सारी चिट्ठियां, उसकी तसवीरें और बहुत सा कबाड़ एक ही दिन बेचा गया था. दिलीप ने उसके घर का पता नोट किया कि एक बार मिल के देख ले उसे...तसल्ली हो जायेगी.

रात करवटों में कटी. किसी के घर जाने का सबसे सही वक़्त कौन सा होता है? बहुत सोच समझ के दिलीप ने तय किया शिफ्ट के ठीक एक घंटा पहले चला जाएगा. शाम के चार बजे की हलकी सर्दियाँ थीं. उसने अपना पसंदीदा नीली धारियों वाला सफ़ेद स्वेटर पहना और उसके घर की ओर निकल गया. उसका घर लगभग शहर के आखिरी छोर पर था. पहुँचने में बीस मिनट लग गए. दरवाजा एक बेहद उदास आँखों वाली सभ्रांत महिला ने खोला. घर में अजीब सी ख़ामोशी थी. अन्दर आने का आग्रह उससे टाला नहीं गया. पानी पीकर उसने कहा कि वो पिहू से मिलने आया है, बस थोड़ी देर में चला जाएगा. उन्होंने कुछ कहा नहीं, अपने पीछे आने का इशारा किया. एक छोटे से कमरे का दरवाजा खोला, अन्दर हलके नीले रंग का सब कुछ था...दीवारें, परदे, लाइट्स...बहुत सी फ्रेम्स में लगी तसवीरें. ये पिहू का कमरा था. नज़रें सारा मुआयना करते हुए एक तस्वीर पर ठहर गयीं...वही तो थी...पिहू...हंसती हुयी, उसके पास जो तस्वीर थी उससे अलहदा...फ्रेम पर अपराजिता के नीले फूलों की माला लटकी हुयी थी. उसे चक्कर आ गए...अचानक से पीछे हटा और दीवार का सहारा लिया. 'ये कब की बात है?'
'पिछले साल की?'
'आर यू स्योर?'
'मैं उसकी माँ हूँ'.
दिलीप ने उसकी चिट्ठियां दिखायीं...और उन्होंने कन्फर्म किया कि ये उसी की हैण्डराईटिंग है. दिलीप में हिम्मत नहीं थी कि उन्हें पूरी बात बताये...उसकी बात का यकीन करता भी कौन. वापस ऑफिस आते हुए उसे समझ नहीं आ रहा था कि आवाज़ के पीछे भागने के लिए खुद को गलियां दे या सच्चाई जान जाने के लिए खुद की पीठ ठोके. फोन लेकिन नियत समय पर आया.
'तुम कौन हो?...और फोन कैसे कर रही हो?'
'मैं खुद तुम्हें बता देती मगर बताओ सही...फिर तुम मुझसे बात करते?'
'शायद नहीं...मगर ऐसी कौन सी बात इतनी जरूरी थी'
'उसे भूलना जरूरी है मेरे लिए दिलीप वरना मैं इस दुनिया से कभी नहीं जा पाउंगी...हमेशा के लिए यहीं भटकती रह जाउंगी...प्लीज मेरी हेल्प कर दो'.
दिलीप को अचानक से लगा जैसे पूरी ईमारत बर्फ की बनी हो और ठंढ उसके दिल को बर्फ करती जा रही है. वादा मगर वादा था. वो रोज़ अपने नियत समय पर ऑफिस आता. उसकी कहानी सुनता और अपने हिसाब से उसकी मदद करता. इस बीच उसे कई और जगह जाने के ऑफर आये मगर उसका मन उसी टेलेफोन से जुड़ गया था. जब तक पिहू की आत्मा को मुक्ति नहीं मिल जाती वो कहीं नहीं जा सकता था.

शादी के दिन उसे बार बार पिहू की याद आती रही. उसके घर में टंगी उसकी तस्वीर में वो लाल जोड़े में थी...मुस्कुराता चेहरा...कितने भोले अरमान थे उसकी आँखों में. अपनी पत्नी का चेहरा उसे बेहद मासूम लगा. उसने खुद से वादा किया कि वो ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे उसकी पत्नी उससे इतना प्यार करने लगे कि मरते हुए भी उसकी आत्मा जा न सके...दुनिया और दिलीप के बीच एक अदृश्य दीवार उसी दिन खिंच गयी थी. वो लोगों को अपने करीब आने ही नहीं देता. ऑफिस में उसके चुटकुलों पर लगते ठहाके बंद हो गए थे. वो कई बार लोगों पर झुंझला जाता. धीरे धीरे उसे मालूम ही नहीं चला कब उसका नाम दिलीप की जगह मिश्रा जी हो गया और ऑफिस का हर कर्मचारी अपने सारे समस्याओं का हल उससे मांगने लगा. वो जितना लोगों से दूर जाता...लोग उतनी ही उसे अपनी जिंदगी में शामिल करते चले जाते. पिहू का फोन भी अब कम आता...कभी कभी सिर्फ ब्लैंक काल्स आते.

रिटायर्मेंट के दिन जैसे जैसे पास आ रहे थे...काल्स एकदम ही बंद हो गयी थीं. इधर तो कई महीनों से उसका कोई ब्लैंक कॉल भी नहीं आया. आकाशवाणी का दफ्तर सूना, खामोश और अकेला होता जा रहा था. घर वापस लौटते हुए चाँद, पेड़ और गंगा भी चुप रहती थी. घर पर बच्चे बड़े हो गए थे और अपने सपनों की तलाश में नए शहरों में जा के बस चुके थे.

कल उनका रिटायर्मेंट सेलेब्रेशन था. लोग उन्हें ख़ुशी ख़ुशी विदा कर रहे थे. उन्हें पूरा यकीन था कि पिहू का कॉल जरूर आएगा. रात होने को आई...सब लोग अपने अपने घर चले गए. वे बताना चाहते थे लोगों को कि कैसे कम पैसों की इस नौकरी को उन्होंने सिर्फ इसलिए बचाए रखा कि पिहू उनसे मदद मांग रही थी किसी को भूलने के लिए...रोज़ रोज़ बिना नागा किये, सिर्फ उसकी कहानी सुनने आते थे वो...कि इतने सालों बाद पिहू शायद अपने आसमान में खुश है...कि ब्लैंक काल्स पिहू नहीं करती. कि वो पिहू से प्यार नहीं करते...कि पिहू उनसे प्यार नहीं करती. वो तो बस उसे उस लड़के को भूलने में मदद कर रहे थे. उनकी कहानी किसी ने पूछी ही नहीं. मिश्रा जी ने अपना सामान पैक कर लिया था. आखिरी सादे कागज़ पर वे पहली बार ख़त लिखने बैठे थे...अपनी पिहू को...कि अपना फ़र्ज़ उन्होंने पूरा कर दिया था.


फोन बजा था...


'दिलीप'
'हाँ'
'एक ख़त लिखने में इतनी देर कर दी'

चिंगारी की तीखी धाह

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सपने मुझसे कहीं ज्यादा क्रियेटिव हैं। जहाँ मैं जागते नहीं जा सकती, एक मीठी नींद मुझे पहुँचा देती है। कल सपने में तुम्हें देखा। अपने बचपन के घर में...मेरा जो कमरा खास मेरे लिये बना है, वहाँ। जाने क्या करने आये थे तुम। मैं तुम्हें इगनोर करने में व्यस्त थी, पूछा भी नहीं। एक मुस्कुराहट भी नहीं...किस मोड़ पर आ पहुंचे हम अपनी जिद से। एक वक्त था, तुम्हें देख कर मुस्कुराहटों का झरना फूट पड़ता था। कितना भी रोकती...बस तुम्हारा होना काफी होता। याद मुझे कल का भी है...तुम कितने कौतुहल से घूम रहे थे मेरे घर में...तुम्हें कभी बताया भी तो नहीं था...मेरा घर, पीछे का पोखर, आगे का पीले फूलों वाला पेड़...सर्पगंधा...कामिनी...और जो जंगली गुलाब खुद उग आये थे।

बात सपने से शुरु होती है मगर उसे ठहरना कहाँ आता है...छोटी सी पहाड़ी और उसके पीछे डूबता सूरज। तुम्हारी वापसी की फ्लाइट कब की है? शहर आये हो, मिलते हुये जाना। यूं मेरे अलावा उस शहर में कुछ खास नहीं है, कसम से।
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तुमसे प्यार की उम्मीद करना गलत है...जैसे मुझसे उम्मीद की उम्मीद करना। जिसे जो मिलता है, वही तो वापस दे सकता है। तुम्हारा रीता प्याला देखती हूं। गड़बड़ खुदा की है कि तुम्हारे प्याले में पेन्दा ही गायब है...दुनिया भर का इश्क तुम्हें अधूरा ही छोड़ेगा...पूरेपन के लिये बने ही नहीं हो तुम। लोगों को याद तुम्हारा पागलपन रह जाता है, मगर मुझे तुम्हारा दर्द क्युं दिखा...अब भी...रात हिचकियां आयीं तो मुझे पूरा यकीन था कि इस वक्त तुमने ही याद किया होगा मुझे।

देर तक छाया गांगुली की आवाज़ में पिया बाज़ प्याला सुन रही थी...तुम्हारी बहुत याद आ रही है आजकल, उम्मीद है, तुम अच्छे से होगे। ऐसी बेमुरव्वत याद आनी नहीं चाहिये। यूं होना तो बहुत कुछ नही चाहिये जिन्दगी में, मगर जिन्दगी हमारी चाहतों के हिसाब से तो चलने से रही।
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एक उजाड़ सा खंडहर है। अभिशप्त। एक अंधा कुआं है। चुप एकदम। और एक राजकुमारी है, जिसे समय के खत्म हो जाने तक वहीं बंद रहना है। कभी कभी तेज हवायें चलती हैं तो पीपल के पत्ते बजते है, राजकुमारी का चंचल मन पायल पहनने को हो आता है। मगर पायल को भी श्राप लगा है। जैसे ही राजकुमारी अपने पैरों में बाँधती है, पायल काँटे वाले नाग में तब्दील हो जाती है। फिर राजकुमारी जहां भी जाती है उसकी दुष्ट सौतेली मां को खबर हो जाती है और वो राजकुमारी से उसकी मां के दिये कान के बूंदे छीन लेती है। राजकुमारी बहुत रोती है, लेकिन उस दुष्ट का कलेजा नहीं पसीजता। वे जादू के बून्दे थे, रोज रात को ऐसा लगता जैसे मां लोरियाँ सुना रही हो...राजकुमारी चैन की नींद सो पाती। पैरों से पायल उतारने में नागों ने राजकुमारी को कई बार डस लिया। उसकी उँगलियां सूज गयीं। चुप की लंबी रात काटने के लिये अब राजकुमारी चिट्ठियां भी नहीं लिख सकती थी, अपना प्यारा पियानो भी नहीं बजा सकती...हवा में तैरता हुआ गीत पहुंचता है कभी कभी और बांसुरी की आवाज। राजकुमारी को यकीन है कि ये बांसुरी की आवाज भी अाज के वक्त की नहीं है। द्वापर में कृष्ण भगवान ने जो बंसी बजायी थी, ये उसी बांसुरी के भटकते हुये सुर हैं। सामने एक अदृश्य दीवार है जो उसे कहीं जाने नही देती। उसे कभी कभी यकीन नहीं होता कि दुनिया वाकई है या सिर्फ उसकी कल्पना से सारा कुछ दिखता है उसे। सदियों से अकेले रहने पर थोड़ा बहुत पागलपन उग जाता है, खरपतवार की तरह।
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राजकुमारी जमीन की धूल में एक अक्षर लिखती है...मैं दर्द से छटपटा के जागती हूं। उस अक्षर से सिर्फ तुम्हारा नाम तो नहीं शुरु होता।
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आय लव यू औरोरा बोरियालिस

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लड़की इगलू में रहती थी कि उसे बेतरह ठंढी और उदास जगहों से लगाव था। इगलू में कोई खिड़की नहीं होती...बस एक छोटा सा दरवाजा होता है, जिससे घुटनों के बल रेंग कर अंदर आया जा सकता है। इगलू की दीवारों पर उसने बहुत सी तस्वीरें लगा रखी थीं...जब मौसम बेतरह खराब होता और घर में खाने को कुछ नहीं होता, वो दीवारें ताकती रहती। वो कल्पना करती थी कि जब वसंत आयेगा तो उसके कबीले के बाकी लोग लौट आयेंगे और गाँव में उत्सव मनाया जायेगा।

उसका अक्सर दिल करता कि इगलू में एक खिड़की बना दे...मोटे शीशे की खिड़की...जिसके आर पार बर्फीली सर्दियाँ दिखें। उसे चश्मे से दिखती तुम्हारी आखें याद रह गयीं थीं। यूं उसने बर्फ के इस रेगिस्तान को खुद चुना था और वो जब जी चाहे कहीं भी जाने के लिये स्वतंत्र थी मगर फिर भी वो कही नहीं जाना चाहती और बस भाग जाने के सपने बुनती। उसके सपनों में सफेद घोड़े वाला राजकुमार नहीं होता...पोलर बियर होता या फिर स्लेड होती...बर्फ पर फिसलती और सपनों में होता वसंत...बोगनविलिया के मुस्कुराते फूलों वाला वसंत...कोई एक पुराने खंडहर जैसा किला भी हुआ करता अक्सर...वो रास्ते में गुनगुनाते हुये चलती...मिट्टी की उन राहों में धूल होती...बर्फ नहीं। सोचते हुये ही झील का पानी जमने लगता और वसंत विदा लिये बिना चला जाता। लड़की रोती रहती और उसके आँसू झील मे मिलते जाते। पारदर्शी बर्फ में बहुत सी यादों की परछाई दिखती लेकिन लड़की उस दुनिया तक वापस नहीं जाना चाहती।

रातों को अक्सर उसे किसी के हंसने की आवाज सुनायी देती। उसे लगता कि भ्रम है लेकिन आवाज इतनी सच होती कि उसे अगले दिन बर्फ की सारी दीवारों में कान लगा कर सुनना होता कि कहीं गलती से कोइ जानवर बंद तो नहीं हो गया है। उसे जाने कैसे तो लगता कि ये किसी की आखिरी हंसी है। उसे यकीन था कि जिस दिन से वो उत्तरी ध्रुव आयी है उस दिन के बाद से किसी ने उस चश्मे वाले लड़के को हंसते नहीं देखा होगा। उसे आज भी लगता था कि दोस्ती प्यार से बड़ी चीज होती है। मगर कभी कभी उसे किसी अहसास पर यकीन नहीं होता और लगता था कि दुनिया कोई सपना है, किसी दिन जागेगी तो सिर्फ समंदर ही होगा...इकलौता सच। उछाल मारता समंदर...लहर लहर किलकता...याद से एकदम अलग। समंदर में उष्मा होगी...लहरें पुरानी सखियों की तरह गले मिलेंगी और उसके सारे दर्द बहा कर ले जायेंगीं कि जो कभी था ही नहीं, उसके जाने का रोना कैसा।

मगर फिलहाल ऐसा कुछ नहीं था, समंदर का पानीं बर्फीला ठंढा था, वो जब भी तैरने की कोशिश करती, सरदर्द लिये लौटती। आधी दूरी में ही ऐसा लगने लगता जैसे पूरी दुनिया बर्फ में तब्दील हो गयी है। सूरज सिर्फ ड्राइंग कौपी का कोई किरदार है...नारंगी रंग कैसा होता है वो भूलने लगी थी। याद से गर्माहट भी तो चली गयी थी। आखिरी बार किसी ने कब गले लगाया था उसे...कोहे निदा से कौन सी आवाज आती थी? उसे लग रहा था वो नाम भूल जाएगी इसलिये उसने इगलू की दीवार पर बहुत सारा कुछ लिखा हुआ था...

वादी-ए-कश्मीर...व्यास नदी...काली मिट्टी...गंगा...बनारस घाट...बस नंबर ६१५...लालबाग...बरिस्ता...सिंगल माल्ट औन द रौक्स...आँखों का पावर -२.००

क्या क्या और होना चाहिये था?

उसने पूछा औरोरा बोरियालिस से, वह अपने घर का रास्ता भूल गयी है। समंदर किनारे गीले कपड़ों मे ठंढ बहुत लग रही थी...याद तो उसे ये भी नहीं कि उसका नाम क्या है। बर्फ में चीजें चिरकाल तक सुरक्षित रहती हैं। जब तक खोजी टोली उसे ढूंढ पायेगी, शायद वो चश्मिश लड़का इस दुनिया में ही न रहे। फिर किसी को क्या फर्क पड़ता है कि उसने बर्फ में जिस अक्षर को लिखा उससे किसका नाम शुरु होता था। औरोरा बोरियालिस लेकिन तब भी गिल्टी फील करेगा और कोई भी झील में अगर औरोरा की रिफ्लेक्शन को शूट करेगा तो उसे लड़की के इनिशियल्स दिखेंगे। 

उसकी दुनिया में सब को अपने कत्ल का सामान चुनने की आजादी थी

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लड़की उतनी ही इमानदारी से अमानत अली खान के इश्क में डूबती जितनी कि कर्ट कोबेन के। एक आवाज मखमली थी...गालिब के पुराने शेरों से नये ज़ख्मों की मरहम पट्टी हुयी जाती। पूरी दोपहर कमरे के परदे गिरा कर संगेमरमर के फर्श पर सुनी जाती अमानत अली खान की आवाज़...विकीपीडिया उनकी तस्वीरें दिखाता...लूप में भंवर सा आता और एक पूरी उम्र डूब जाती। छोटी सी आर्टिकल है, इश्क की आंच को भड़काने का काम करती है। आवाजें कहीं नहीं जातीं, कभी भी। कहां लगता है कि पटियाला घराने की इस आवाज को चुप हुये चार दशक बीत गये।
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मुझे तुम्हारा नाम याद नहीं और तुम मेरी आवाज भूल गये हो...ये भी दिन देखना था इश्क में. सुनो, एयरपोर्ट में एक लड़की से मिली थी। वो बार बार एक नंबर डायल करती, आवाज सुनती और काट देती। आधे घंटे से उसके पीछे लाइन में खड़ी थी, आखिर मुझे भी तो दिल्ली जैसे अनजान शहर में अपने पहचान की इकलौती सहेली को फोन करके एयरपोर्ट बुलाना था...कब तक इंतजार करती। उससे पूछा क्या बात है...डबडबायी उन आंखों को देख कर सब भूल गयी। उसे बाहर लेकर आयी, हम दोनों एक नये से चाय के नुक्कड़ पर खड़े रहे कितनी ही देर। चलो, कहीं चलते हैं, मेरी अगली फ्लाइट शाम को है। हम दो अजनबी औरतें जाने किस जन्म का पुराना किस्सा कहने जा रही थीं। डीटीसी की बसें खाली ही थीं, इतनी सुबह शहर दिल्ली जगा नहीं था। उसका नाम परमिंदर कौर था। लंबे नीले ओवरकोट में गज़ब खूबसूरत लग रही थी। हाफ ग्लव्स में सिर्फ आधी उंगलियां ही दिख रही थीं, नील पड़ी हुयीं। सारी ठंढ जैसे उन उंगलियों मे जम गयी थी। रोती आखें कितनी खूबसूरत लग सकती हैं जानने के लिये सिर्फ उसकी आखें देखनी चाहिये। दिल्ली में पुस्तक मेला लगा हुआ था, हम कैसे प्रगति मैदान पहुंचे मुझे याद नहीं। वो बता रही थी कि उसे कौमिक्स और कवितायें पढ़ना अच्छा लगता है। मैं उसे गारबेज बिन के बारे में बता रही थी, वो मुझे किसी ओक्टावियो पाज़ के बारे में। वियर्ड सी पसंद थी उसकी।

वो भी गर्लस स्कूल में पढ़ी थी। हम यूं ही डिस्कस करने लगे कि मिल्स ऐंड बून जैसा कुछ ढंग का हिंदी में पढ़ने को क्युं नहीं मिलता। हमारे जैसी सिचुएशन जिसमें बहुत थोड़ी सी दरकार बचती है किसी भी तरह किसी को छू भर लेने की। बात यही चल रही थी कि पूरी की पूरी जमुना उसकी आखों में उतर आयी। एक लड़का हुआ करता था तुम्हारे जैसा ही, मुस्कुराने का टैक्स वसूलता हुआ। कभी जो उसे देख कर मुस्कुरा देता तो वही होली, वही ईद हुयी जाती थी। ईश्क जैसा कि तुम जानते ही हो, दुःसाहस का दूसरा नाम है। इक रोज उसने ऐडमिन औफिस में एन्ट्री मारी और रजिस्टर से उसके घर का फोन और ऐड्रेस ले उड़ी। उस दिन से हर रोज उस लड़के को कौल करती। एक रोज उसने ऐसे ही कौल किया था तो उधर लड़के ने तीन नाम गिना दिये...तुम लावण्या हो ना? टाइटल में सेन लिखती हो। लड़की बहुत उदास हुयी...मगर मुहब्बत ऐसी ही किसी शय का नाम है. उम्मीद न जीने देती है न जान लेने देती। हर रोज़ का नियम बना हुआ था. वो रोज़ फोन करती और लड़का हर बार अनगिन लड़कियों के नाम गिनाता रहता। इश्क़ जिद्दी था. लड़की तो और भी ज्यादा। लड़के ने शायद दुनिया की सारी लड़कियों के नाम गिना दिये, बस एक उसके नाम के सिवा। यूँ तो उसका नाम परमिंदर कौर है, मगर लड़के ने कुछ और कोडनेम रखा था उसका। एक बार गलती से फोन पर बात करते हुए वही नाम ले गया था, 'परी'. वो दिन था और आज का दिन है, वैसी हसीं गलती दुबारा हो जाए, इस उम्मीद पर अटकी है जिंदगी कहीं। मालूम, उसने उस लड़के को कभी छुआ भी नहीं, मगर उँगलियों को उसका फोन नंबर ऐसे याद है जैसे तितलियों को उड़ने की दिशा, फूलों को सो जाने का वक़्त या कि फिर उस लड़के को परमिंदर का नाम.

इस उम्र में बालों में चांदी नज़र आने लगी है. पिछली बार डॉक्टर से मिली थी तो उसने सिजोफ्रेनिया बताया था, और भी कुछ परेशानियां हैं जिससे भूल जाती है बहुत कुछ. उससे नंबर पूछो तो याद नहीं रहता, कई बार तो उस लड़के का नाम भी भूल जाती है. फिलहाल उसकी परेशानी ये है कि अक्सर उसे खुद का नाम याद नहीं रहता, ऐसे में मान लो जो उस लड़के ने कभी उसे सही नाम से पुकारा भी हो, ठहरना कहाँ याद रह  पायेगा। एक बार अजमेरी गेट गयी थी उसे ढूंढने के लिए. निजामुद्दीन दरगाह पर मन्नत की चद्दर भी चढ़ाई। लेकिन आजकल फोन कोई और उठाता है अक्सर , मद्रासी ऐक्सेंट रहता है. शायद कोई नर्स होगी, लगता है  उसकी तबियत खराब चल रही है। इसी सिलसिले में कल कितनी बार फोन लगाया, आखिर में उसकी आवाज सुन पायी बस।

वहीं सीढ़ीयों पर बैठे कितना वक्त गुजर गया। सामने की भीड़ में आता हर चेहरा मुझे तुम्हारी याद दिलाने लगा था। तुम भी तो कमाल की आदत हो ना। मुझे ठीक याद नहीं उसकी कहानी सुनते सुनते कब गुम होने लगी मैं। बात दिल्ली की थी, उसपे दिलफरेब सर्दियाँ। यही वक्त था न जब तुम इस शहर में हुआ करते थे। पुराने किले की झील जिस साल जम जायेगी तुम मेरे साथ स्केटिंग करोगे प्रोमिस किया था तुमने। सामने बर्फ गिर रही थी...मैं सोच रही थी कि पुस्तक मेले में तुम जरुर आओगे। सिर्फ एक बार तुम्हें छू कर तुम्हारे होने की तस्दीक कर लेना चाहती थी बस। इधर खुमारी सी है...इतना सारा कुछ खूबसूरत मिलता रहता है, एक तुम नहीं होते और तुम्हें बताये बिना जीना तो कब की भूल चुकी हूं। मान लो ये परमिंदर की कहानी तुम्हें सुनाती तो तुम जाने कितने किस्से और बना लेते उससे। किरदार की जिन्दगी का खाका खींचना तुम्हारे जैसा कहां आया मुझे...दिखते हो तुम, परमिंदर की मौसियों की जिन्दगी की सीवन उधेड़ते हुये। तुम्हें बहुत मिस करती हूं...आजकल तुम्हारे खत आने बंद हो गये हैं। वो पोस्टबौक्स नंबर याद है तुम्हें? गलती हो गयी ना, मेले में जाने के पहले सबसे पहले यही कहते हैं ना कि खो गये तो कहां मिलेंगे...हम अपनी जगह तय करना भूल गये। तुम मेरा कहीं और इंतजार कर रहे हो...मैं किसी और मोड़ पर तुम्हारे इंतजार में ठहरी हुयी। तुम्हें दुनिया के कितने शहर में तलाश आयी...आज दिल्ली की इस बातूनी दुपहर इक अनजान लड़की के साथ बैठे हुये तुम्हें पूरा दिन याद किया है। सोचती हूँ अपने घर में तुम इस वक्त शाम के हिस्से की सिगरेट पी रहे होगे। मेरे बैग में अब तक वो आखिरी सिगरेट पड़ी है...याद है हमने वादा किया था एक साथ सिगरेट छोड़ देंगे। तुम आजकल कौन सी सिगरेट पीते हो? वही गोल्ड फ्लेक? मुझसे कोइ कह रहा था कि रद्दी सिगरेट होती है, क्युं पीती हूं। दरअसल कुछ दिन सिगार पीने का शौक लगा था...मगर किसी अफेयर की तरह कुछ महीनों चला। इधर डॉक्टर ने मना किया है, तब से तुम्हें तलाश रही हूं, आखिरी सिगरेट साथ लिये।

तुम्हारी बात चलती है तो सारी कहानियां बेमतलब लंबी हो जाती हैं, देखो परमिंदर बिचारी बोर हो रही है...और मैं अपनी ही गप लिये बैठी हूं, अपनी लव स्टोरी तो क्लासिक है, बाद में सुनाती हूं। फिलहाल एयरपोर्ट जाने का वक्त हुआ। कोई बारह बजे के आसपास बाराखंबा रोड पर दिखा था कोई तुम्हारे जैसा। सुनो, पिछले साल १८ जनवरी को उस वक्त कहां थे तुम? फिलहाल कहां जा रहे हो? वो जो झील है ना...उसके सामने एक बोट है, २५ नम्बर की, गहरे लाल रंग में। मैने वहां अच्छे से पैक कर तुम्हारे लिये एक विस्की, एक पैक गोल्ड फ्लेक और तुम्हारे नाम लिखे सारे खत है। मैंने दिल्ली की इस सर्द शाम से तुम्हे, विस्की और सिगरेट को एक साथ छोड़ दिया है।

अपना ख्याल रखना मेरी जान। तुम्हारी दुनिया में भी मुझे अपने कत्ल का सामान चुनने की आजादी है...मैं हिज्र चुनती हूं। तुमसे अब कभी न मिलूंगी। 

तेरे हाथों पे निसार जायें मेरे कातिल...

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ख्वाब था।

सुबह धूप ठीक आँखों पर पड़ रही थी। मगर ख्वाब इतना खूबसूरत था कि हरगिज़ उठने का दिल नहीं किया। बहुत देर तक आंख बंद किये पड़ी रही। नीम नींद में आँखों में इन्द्रधनुष बनते रहे। आँखें मीचती और हल्के से खोलती। मौसम इतना सुहाना था कि तुम्हारी बांहों में मर जाने को जी चाहे। चाह ये भी थी कि बीमारी का बहाना बना के छुट्टी डाल दी जाये और गाड़ी लेकर कहीं लौंग ड्राइव पर निकल जायें।

बात बस इतनी सी थी कि तुम्हारा ख्वाब देखा था।

तुम और मैं किसी ट्रेन में मिल गये हैं अचानक से। जाने कौन सी ट्रेन है और हम एक डिब्बे में कैसे बैठे हैं जबकि हमें दो अलग अलग दिशाओं में जाना है। स्लीपर बौगी है। हम किसी पुल से गुजर रहे हैं। रेल का धड़धड़ाता शोर है। शाम का वक्त है। देर शाम का। गहरा नारंगी आसमान सिन्दूरी हुआ है। दूर एक मल्लाह विरह का गीत गा रहा है। उसे मालूम है, जिन्दगी के अगले किसी स्टेशन तुम और मैं दो अलग दिशाओं में जाने वाली तेज रफ्तार ट्रेनों में बैठ एक दूसरे से फिर कभी न मिलने वाले स्टेशन का टिकट कटा कर चले जायेंगे। तुम गुनगुना रहे हो। जैसे धूप जाड़े के दिनों में माथा सहलाती है वैसे। खुले हुये बाल हैं, थोड़े गीले, जैसे अभी अभी नहा के आयी हूं। हल्के आसमानी रंग का शॉल ओढ़ रखा है। खिड़की से सिर टिकाये बैठी हूं। ठंढ इतनी है कि गाल लाल हुये जाते हैं। हाथों मे दस्ताने हैं हमेशा की तरह।

कुछ मुसाफिरों ने दरख्वास्त की है कि मैं खिड़की बंद कर दूं। हवा पूरे कम्पार्टमेंट की गर्मी चुरा लिये जा रही है। उनके पास दान में मिले कुछ कंबल हैं बस। मैं खिड़की तो यूं कब का बंद कर देती, मगर तुम्हारी ओर नहीं देखने का कोइ सही बहाना चाहिये था। शीशे की खिड़की बंद होते ही आँखों के कमरे में तूफान आया है। तुमने एक खूबसूरत सा कंबल खोला है। धीरे धीरे कर के कुछ और लोग हमारी बौगी में आ गये हैं। मैंने दास्ताने उतार लिये हैं। मुझे ठीक याद नहीं, तुम्हारे कंबल को कब हौले से ओढ़ा था मैंने। हल्की झपकी आयी थी। आँख खुली तो तुम्हारा कंबल कांधे पर था। तुम भी कोई एक फुट की दूरी पर थे। तुम्हारी कलम मेरे पास गिर कर आ गयी थी शायद। तुमने कंबल में मेरा हाथ अपने हाथों में लिया था और कहा था 'तुम्हारे हाथ बहुत मुलायम हैं', तुमने मेरे हाथों को जो अपने हाथों में लिया था वो याद है मुझे...जैसे फर का कोइ खिलौना हो...नन्हा सा खरगोश जैसे, कितने कोमल थे तुम्हारे हाथ। तुमने कहा था कि तुम्हारी कलम उधर गिर गयी है, और मैं वो तुम्हें लौटा दूं। जाने किसने गिफ्ट किया था तुम्हें। हो सकता है न भी किया हो, बस लगा मुझे।

हाथ कोई फूल होता गुलाब का तो हम कौपी तले दबा के रख देते, हमेशा के लिये। मगर हाथ जीता जागता था। दिल की तरह। सुबह उठी तो दर्द मौर्फ कर गया था। दिन भर कैसी कैसी तो गज़लें सुनी सरहद पार की...मन लेकिन उसी नदी के पुल पर छूट गया था जिस पर तुमने मेरा हाथ पकड़ा था। सोचती हूं क्यूं। समझ नहीं आता। ख्वाब तो बहुत आते हैं, इक ख्वाब पर दूसरे रात की नींद कुर्बान कर देना मेरी फितरत नहीं, मगर सवाल सा अटक गया है कहीं। मालूम है  कि एकदम बेसिर पैर की बात है मगर दिल ही क्या जो समझ जाये। लगता है कि जैसे तुमने बड़ी शिद्दत से याद किया है। तुम हँस दो शायद, पर लगा ऐसा कि तुमने भी यही सपना देखा था कल रात। कि तुमने भी बस इतना ही ख्वाब देखा था। फिर किसी स्टेशन हम दोनों उतरे और तुम अपने घर वापस चल दिये, मैं अपने भटकाव की ओर।

दिन को ऐसी घबराहट हुयी, लगा कि सांस रुक जायेगी। जैसे तुमने अचानक मेरे शहर में कदम रखा हो। जाड़ों का ठिठुरता मौसम इतनी तेजी से गुजरा जैसे फिर कभी आयेगा ही नहीं। वसंत हड़बड़ में आया। मुझे अच्छी तरह याद है कि औफिस के रास्ते के सारे पेड़ों मे कलियां तक नहीं फूटी थीं। बाईक लेकर उड़ती हुयी जा रही थी कि अटक गयी। मौसम की बात रहने दो, बंगलोर मे अमलतास के पेड़ कभी नहीं थे। यहाँ की बोगनविलिया भी लजाये रंगो की होती थी। ये चटख रंग तो ऐसे आये हैं जैसे मन पर ईश्क रंग चढ़ता है। धूप छेड़ रही थी। तुम किसी हवाईजहाज में चढ़े थे क्या? कहां हो तुम...आखिर कभी तो याद कर लिया करो। तुम्हारे नाम क्या कोइ पौधा लगा रखा है...दिल कोई बाग तो नहीं है कि तुम्हारी जड़ें जमती जायें। उँगलियों से तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू आती रही। दिन भर तुम्हें खत लिखती रही। जब सारी बातें खत्म हो गयीं तो तुम्हारे इस ख्वाब को कहीं ठिकाने लगाने की परेशानी शुरू हुयी। सीने में दर्द लिये जीने में दिक्कत होती है, चेहरा जर्द पड़ जाता है। हर ऐरा गैरा शख्स पूछने लगता है कि बात क्या है। किसको सुनायें रामकहानी। कवितायें लिखना भूल गयी हूं वरना इतनी तकलीफ नहीं थी। दो लाइन में इतना सारा दुख कात के रखा जा सकता था।

एक पूरा दिन बीत गया है...साल की कई कहानियों जैसा। धूप का गहरा साया छू कर गुज़रा है। आंखों में तुम्हारे हाथ बस गये हैं। दुआ करने को हाथ जुड़ते हैं तो बस तुम्हारा चेहरा उभरता है। ख्वाबों का पासवर्ड याद है तुम्हारी उँगलियों को भी। तुम्हारा कत्ल हो जाना है मेरे हाथों किसी रोज जानां। मत मिला करो यूं ख्बाबों में मुझसे। मेरे लिये जरा वो गाना प्ले कर दो प्लीज...आज जाने की जिद न करो...देर बहुत हुयी। कल का दिन बहुत हेक्टिक है। देखो, आज की रात छुट्टी लेते हैं...मेरे ख्वाबों मे मत आना प्लीज।

अगले इतवार का पक्का रहा। दुपहर। धूप में बाल सुखाते नींद आ जाती है। गोद में सर रख सुनाना मुझे गजलें। मिलना धूप के उस पुल पर जहां से किसी शहर की सरहद शुरू नहीं होती। मेरे लिये याद से लाना गहरे लाल रंग की बोगनविलिया और पीले अमलतास। जाते हुये रच जाना हथेलियों पर तुम्हारे नाम की मेंहदी। रंग आयेगा गहरा कथ्थई। उंगलियों की पोरों को चूमना...कहना, मेरे हाथ बेहद खूबसूरत हैं...फूलों की तरह नाजुक...मुलायम...मेरे लिये लाना खतों का पुलिंदा...कहानियों की कतरनें...हाशिये की कवितायें। चले जाना कमरे में फूलदान के बगल में रख कर ये सारा ही कुछ। देर दुपहर कहानियों से रिसेगी कार्बन मोनोक्साईड...मैं तुम्हारे प्यार में गहरी साँस लेते सो जाउंगी एक आखिरी मीठी नींद। तुम ख्वाबों में आना। तुम रहना। तुम कहना। तुम्हारे हाथ...
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